(पिछली कड़ी से आगे)
यह कहकर
उसने भूतों की दी
हुई उस थैली में हाथ डालकर
कहा, "लाओ
यार,
एक हंडिया
पुलाव लाओ।"
तुरंत
ऐसी एक सुगंध चारों
ओर फैल गई
! ऐसा
पुलाव आमतौर
पर राजा लोग भी नहीं खा पाते।
और वह ऐसी एक बड़ी हंडिया
थी! गोपी
की क्या औकात कि
उसे थैले में से
निकाल बाहर करे!
खैर,
किसी
तरह उसे बाहर निकाल
लिया और थैली
से कहा, "तले
व्यंजन, चटनी,
मिठाई,
दही,
रबड़ी,
शरबत!
तुरंत,
तुरंत
लाओ !"
देखते-देखते
खाने की चीज़ों और सोना-चाँदी
के बर्तनों से घर भर गया। आखिर
दो लोग कितना खा सकते थे?
इतना
बढ़िया खाना खाकर उनका दुःख न
जाने कहाँ उड़ गया।
तब बाघा
बोला, "भैया,
चलो इसी
वक़्त यहाँ से भागते हैं,
नहीं
तो कुत्तों से नुचवाएँगे?
"अरे
सब्र करो,
देखते
हैं क्या होता है।"
यह सुनकर
बाघा बड़ा खुश हुआ। वह समझ गया
कि गोपी भैया कुछ मजेदार वाकया
करने वाले हैं।
दो दिन
हो गए, और
उनकी सजा सुनाने में एक दिन
बाकी रह गया। सुनवाई के दिन
रात-ही-रात
गोपी ने थैले में हाथ रख कहा,
"हमें
राजवेश चाहिए।"
ऐसा
कहते ही उसमें से इतने बढ़िया
कपड़े निकले कि कोई सोच ही नहीं
सकता था। दोनों ने वे कपड़े
पहने और उन बर्तनों की एक पोटली
बनाई, फिर
जूते पहनकर बोले,
"अब
हम मैदानों में हवा खाने
जाएँगे।"
बस,
आँख
खुली तो देखा कि राजबाड़ी के
बाहर बहुत बड़े एक मैदान में
आ गए हैं। उस मैदान में एक जगह
अपनी पोटली छिपाकर,
घूमते-घामते
वे राजबाड़ी के सामने आ खड़े
हुए।
दूर से
ही उन्हें आते देखकर राजा के
लोगों ने दौड़कर उन्हें खबर
पहुंचाई,
"महाराज,
दो राजा
आ रहे हैं।"
यह सुनकर
राजा भी अपने फाटक पर आ खड़े
हुए थे। ज्यों ही बाघा और गोपी
पहुँचे, वे
उन्हें बड़े सम्मान के साथ महल
के अन्दर ले गए। एक बहुत बढ़िया
कमरे में उनके ठहरने का प्रबंध
हुआ। कितने नौकर ब्राह्मण,
प्यादे,
सेवादार
उनकी सेवा में लग गए,
इसका
अंत न था।
इसके बाद
गोपी और बाघा हाथ-मुँह
धो नाश्ता कर ज़रा आराम से बैठे,
तो महाराज
उनकी खबर लेने आये। उनका पहनावा
देखते ही उन्होने सोच लिया
कि 'पता
नहीं कितने बड़े राजा हैं!'
फिर अंत
में जब उन्होने गोपी से पूछ
लिया कि "आप
लोग किस देश के राजा हैं?"
तो गोपी
ने हाथ जोड़कर कहा,
"महाराज!
हम राजा
कैसे? हम
तो आपके नौकर हैं !"
गोपी ने
सच ही कहा था,
पर राजा
को इस पर यकीन न हुआ। उन्होंने
सोचा, "कितने
अच्छे लोग हैं,
कैसी
नम्रतापूर्वक बातें करते
हैं। जितने बड़े राजा हैं,
उतने
ही सभ्य भी हैं।"
उस
वक़्त्त अधिक कुछ न कहकर उन
दोनों को वे सभा में ले आए। उस
दिन वहाँ उन दोनों लोगों को
सजा सुनाई जानी थी।-
तीन
दिनों पहले जो उनके सोने के
कमरे में घुस गए थे। अदालत का
समय हो गया,
उन दो
असामियों को लाने प्यादे भेजे
गए; पर
उनको वे अब कहाँ ढूँढें?
इन तीन
दिनों तक उनके कमरे पर ताला
लगा हुआ था,
जब ताला
खोला गया तो देखा गया,
वहाँ
कोई नहीं है,
खाली
कमरा पड़ा हुआ है।
तब ज़बर्दस्त
दौड़धूप और अफरा-तफरी
शुरू हो गई। दरोगाजी बड़े परेशान
होकर प्यादों को डाँटने लगे।
प्यादों ने हाथ जोड़कर कहा,
"हुजूर
! हमारा
कोई कसूर नहीं,
हम लोगों
ने ताला लगाकर रखा था,
इसके
अलावा शुरू से दरवाज़े के सामने
खड़े भी थे। वे दो लोग इंसान तो
थे नहीं, वे
भूत थे; नहीं
तो इसमें से निकलकर वे भागे
कैसे?"
इस बात
पर सबको यकीन हुआ। पहले महाराज
भी दरोगा पर बिगड़कर उसका गला
ही कटवा देने को थे,
पर अंत
में यह बात सुनकर बोले,
"हाँ,
वे लोग
ज़रूर भूत ही थे। मेरा कमरा
भी तो बंद था,
उसमें
इतना बड़ा ढोल लेकर कैसे आए।
यह सुनकर
सबने कहा,
"हाँ,
हाँ,
ठीक,
ठीक,
वे दोनों
भूत थे !"
कहते-कहते
उनके शरीर काँपने लगे। बदन
से पसीना बहने लगा। तब बाघा
के उस ढोल की बात याद कर वे
बोले, "महाराज
! भूत
का ढोल बड़ी खतरनाक चीज़ है। उसे
कभी भी अपने कमरे में न रखें।
उसे अभी जला दीजिए। "
महाराज
भी बोले, "बाप
रे! भूत
का ढोल कमरे में पड़ा है?
तुरंत
उसे जला दो।"
महाराज
ने जैसे ही यह बात कही,
तुरंत
बाघा दोनों आँखें ढँके,
"आय-हाय- हाय
आय" चीखकर
रोते-रोते
लोटपोट होने लगा।
उस दिन
बाघा को सँभालने में गोपी को
बड़ी दिक्कत हुई। ढोल जलाने
की बात होते ही बाघा ने रोना
शुरू कर दिया,
अगर वे
ढोल लाकर आग ही लगा दें,
तो पता
नहीं वह क्या कर बैठेगा!
तब वह
ढोल उसी का है,
इस बात
को बाघा छिपाएगा कैसे?
कैसी
बड़ी आफत है !
अब शायद
पकड़े ही जाएँ और जान खो बैठें।
गोपी की
बड़ी इच्छा थी कि वह बाघा को
लेकर दौड़ भागे। पर अब तो ऐसा
संभव ही नहीं था,
सभा में
बैठते वक़्त्त उन जूतों को
तो पैरों से उतारकर रखना पड़ा
था।
इसी बीच
बाघा की यह हालत देखकर सभा में
ज़बर्दस्त अफरा-तफरी
शुरू हो गई। सबने सोचा,
बाघा
को कोई गंभीर बीमारी हो गई
होगी, अब
वह और जी नहीं सकता। राजबाड़ी
के वैद्यजी आकर बाघा की नाड़ी
देखकर बहुत ज्यादा चिंतित
होकर सिर हिलाने लगे। बाघा
को बहुत सारी जुलाब
की दवाएँ खिलाकर पेट पर पट्टी
लगा दी गई। इसके बाद वैद्यजी
ने कहा कि,
"अगर
इस पर भी दर्द नहीं रुकता,
तो पीठ
पर एक और,
उससे
भी न हो तो दोनों ओर दो पट्टियाँ
लगानी होंगी। "
यह बात
सुनते ही बाघा का
रोना तुरंत रुक गया। तब सबने
सोचा की वैद्यजी ने कितनी
बढ़िया दवा दी है,
दवा
देते ही दर्द ख़तम हो गया।
खैर,
बाघा
ने देखा कि उसके रोने से ढोल
को जला देने की बात अब दब गई
है, तब
उस पट्टी की मुसीबत झेलते हुए
उसका मन कुछ हद तक शांत हुआ।
महाराज इसके बाद बड़े सम्मान
के साथ उसे अपने कमरे में लिटा
आए; गोपी
उसके पास बैठकर पट्टी पर हवा
देने लगा।
फिर जब
सब कमरे से निकल आए तो गोपी ने
बाघा से कहा,
"छि:
भैया,
जहाँ-तहाँ
इस तरह नहीं रोना चाहिए!
अब सोचो
ज़रा, कैसी
मुसीबत आ गई।"
बाघा
बोला, "अगर
मैं न रोता,
तो अब
तक मेरे ढोल को जलाकर ख़त्म कर
दिया होता। अब थोड़ी-बहुत
तकलीफ ज़रूर हो रही है,
पर मेरा
ढोलक तो बच गया!"
बाघा और
गोपी इस तरह आपस में बातचीत
कर रहे थे। इसी बीच महाराज जब
सभा में वापस लौट आये तो दरोगाजी
ने उनके कानों में धीरे से
कहा, "महाराज,
एक बात
है, अगर
इजाज़त हो तो बतलाऊं।"
राजा
बोले, "कैसी
बात?" दरोगा
बोले, "वह
जो आदमी लोट-पोट
होकर रो रहा था,
वह और
उसका साथी वह दूसरा,
ये वही
दो भूत हैं;
मैं
उन्हें पहचान गया हूँ।"
राजा
बोले, "अरे
हाँ, मुझे
भी कुछ ऐसा ही लग रहा था। यह
तो बड़ी मुसीबत आ खड़ी हुई। अब
बतलाओ कि क्या किया जाए?
"
तब इस बात
पर सभा में जोर से कानाफूसी
शुरू हो गई। किसी ने कहा,
"ओझा
बुलाओ - उन
दोनों को भगा दे। "
और एक
कोई बोला,
"ओझा
अगर इन्हें भगा न पाए,
तब ये
दोनों बिगड़कर भयंकर कुछ कर
बैठेंगे। इससे बेहतर तो यह
होगा कि रात को जब वे सो रहे
हों तो उन्हें जलाकर मार दीजिए।
"
यह बात
सबको जँच गई,
पर इसमें
मुसीबत यह आई कि भूतों को जलाया
जाए तो राजबाड़ी में भी आग लग
सकती है। अंत में बहुत सोच-विचार
के बाद यह तय हुआ कि एक बागानबाड़ी
में उन्हें रहने
को कहा जाए -
बागानबाड़ी
अगर जल भी जाए तो कोई खास नुकसान
न होगा। तब महाराज बोले कि,
"उस
ढोल को भी फिर इस बागानबाड़ी
में रख दिया जाए;
तब
बागानबाड़ी को जलाया जायेगा,
तो एक
साथ सारी परेशानियाँ ख़त्म हो
जायेंगी।
बागानबाड़ी
में जाने की बात सुन गोपी और
बाघा बहुत खुश हुए। उन्हें
तो कुछ पता न था कि इसमें कितना
भयंकर जाल है;
उन
बेचारों ने सोचा कि चलो आराम
से एकांत में रहेंगे,
संगीतचर्चा
भी ढंग से होगी। जगह बड़ी निर्जन
और सुन्दर थी। मकान लकड़ी का
है, पर
देखने में बढ़िया है। वहाँ
चारों ओर देखते-ताकते
बाघा की तबियत सुधर गई। तब
गोपी ने उससे कहा,
"भाई,
अब और
यहाँ रहकर क्या करें?
चलो हम
लोग यहाँ से चले जाएँ।"
बाघा
बोला, "भैया,
ऐसी
सुन्दर जगह में रहने की किस्मत
तो हमारी नहीं है,
क्यों
न दो दिन ठहर ही जाएँ। आह!
अगर
मेरा ढोलक पास होता!"
उस दिन
बाघा घर में इस कमरे से उस कमरे
में टहल रहा था,
गोपी
बगीचे में एक जगह बैठकर गुनगुना
रहा था, अचानक
बाघा जोरों से चिल्ला उठा।
उसकी बातें पूरी समझ में नहीं
आईं, केवल,
"गोपी
भैया ! ओ
गोपी भैया"
पुकार
खूब सुनाई पड़ने लगी। गोपी ने
तब दौड़कर आकर देखा कि बाघा
अपना वह ढोल सिर पर लिए पागलों
सा नाच रहा था,
और
अंट-संट
अनाप-शनाप
बोलते हुए "गोपी
भैया, गोपी
भैया।"
कहकर
चीख रहा था। ढोल वापस पाकर उसे
इतनी ख़ुशी मिली कि वह आराम से
खड़ा नहीं हो पा रहा था,
ढंग से
बात भी नहीं कर पा रहा था। इस
तरह करीब आधा घंटा हो जाने पर
बाघा ने ज़रा शांत होकर कहा,
"गोपी
भैया, देखा
तुमने -- इस
कमरे में मेरा ढोलक --
अरे मज़ा
आ गया -- हा:
हा:
हा:।"
कहकर दस
मिनटों तक वह खूब
नाचता रहा। उसके बाद उसने
कहा, " भैया,
इतने
दुःख के बाद यह ढोलक मिला है,
एक गाना
गाओ, ज़रा
मज़ा लें।"
गोपी
बोला, "इस
वक़्त बड़ी भूख लगी है। "
खाना-पीना
हो जाए, फिर
रात को बरामदे में बैठकर दोनों
खूब गाएँगे -
बजाएँगे।
"
महाराज
ने तय किया था कि उस रात उनको
जला मारेंगे। दरोगा को आदेश
दिया गया था कि उस शाम उस बगानबाड़ी
में एक विशाल भोज का बंदोबस्त
करना होगा। गोपी और बाघा सो
जाएँगे, तब
वे सब मिलकर एक साथ उस लकड़ी के
मकान को चारों ओर से आग लगाकर
उसके आगे भागने का रास्ता बंद
कर देंगे।
उस दिन
भोजन बड़ा अच्छा रहा। गोपी और
बाघा ने सोचा कि लोगों के चले
जाते ही गाना-बजाना
शुरू करेंगे,
दरोगाजी
ने सोचा कि गोपी और बाघा के
सोते ही वे आग लगवाएँगे। वे
कोशिश करने लगे कि वे दोनों
सोने चले जाएँ। उनके हाव-भाव
से जब यह स्पष्ट हो गया कि उनके
न सोने पर वे वहाँ से निकलेंगे
नहीं, तब
गोपी बाघा के साथ बिस्तर पर
लेटकर खर्राटे भरने लगा।
इसी बीच
दरोगाजी ने अपने लोगों से कह
दिया, "तुम
सब हर दरवाज़े पर अच्छी तरह आग
लगाओगे;
खबरदार,
अच्छी
तरह आग लगने से पहले कोई वापस
मत लौटना।"
वे खुद
सीढ़ियों पर आग लगाने गए;
अच्छी-खासी
आग लग गई,
दरोगाजी
सोच ही रहे हैं,
"अब
भाग चलें"
- उसी
वक़्त्त बाघा का ढोल बज उठा,
गोपी
ने गाना शुरू कर दिया। अब
दरोगाजी और उनके लोगों के
लिए दौड़ भागना संभव न था,
सबको
जलकर मरना पड़ा। इसी बीच आग
भड़कती देखकर,
गोपी
और बाघा भी अपने जूते पहन,
ढोल और
थैला लिए वहाँ से नौ-दो-ग्यारह
हो गए।
उस दिन
की आग में दरोगाजी तो जलकर मर
ही गए, उनके
साथ आए लोगों में बहुत कम ही
बच पाए थे। जब उन लोगों ने जाकर
महाराज को इस घटना की खबर सुनाई
तो उनके मन में बड़ी घबराहट
हुई। दूसरे दिन
और भी दो-चार
लोग राजसभा में आए बोले कि वे
आग का तमाशा देखने वहाँ गए थे;
तब उन
लोगों ने बड़ा अजीब संगीत सुना
और दोनों भूतों को अपनी आँखों
से शून्य में उड़ जाते देखा।
यह सुनकर राजाजी तो यूँ कांपने
लगे! उसदिन
बेचारे सभा में बैठ न सके।
जल्दी से महल के अन्दर आकर भूत
के डर से दरवाज़े बंद कर रजाई
में छिपकर साँस लेते रहे,
फिर एक
महीने तक बाहर नहीं निकले।
इधर गोपी
और बाघा उस आग में से निकल भाग
अपने घर के पास उस जंगल में
आकर उतरे,
जहाँ
वे पहले एक दूसरे से मिले थे।
इतनी घटनाओं के बाद अपने
माता-पिता
से मिलने के लिए उनका जी मचलने
लगा। जंगल में आते ही बाघा
बोला, "गोपी
भैया, यहाँ
हमारी पहली मुलाक़ात हुई थी
न?" गोपी
बोला, "हाँ।"
बाघा
बोला, "तो
ऐसी जगह आकर बिना गाना-बजाना
किए चले जाना क्या ठीक होगा?"
गोपी
बोला, "ठीक
कहा भैया। तो फिर अब देर क्यों
करें? अभी
शुरू कर दो।"
यह कहकर
वे जी खोलकर गाने लगे।
इसी बीच
एक आश्चर्यजनक घटना हुई।
डाकुओं का एक गिरोह हाल्ला
के राजा का खजाना लूट,
उसके
दो छोटे बच्चों को चोरी कर
भागकर इस ओर आ रहा था,
राजा
कई सिपाहियों सहित उनका जी-जान
से पीछा करते हुए भी उन्हें
पकड़ नहीं पा रहे थे। गोपी और
बाघा जब गा रहे थे,
उसी
वक़्त वे डाकू भी वन में से होकर
गुज़र रहे थे। पर वह गाना एक
बार सुनने पर तो उसे अंत तक
सुने बिना चले जाने का कोई
उपाय न था,
इसलिए
डाकुओं को वहाँ रुकना पड़ा।
सुबह हाल्ला के राजा ने आकर
बड़ी आसानी से उन्हें पकड़ लिया।
इसके बाद जब उन्हें पता चला
कि गोपी और बाघा के संगीत के
गुण से ही उन्होंने डाकुओं
को पकड़ा, फिर
तो उनकी सेवा का कोई अंत नहीं
रहा। राजकुमारों ने भी कहा,
"पिताजी,
ऐसा
अद्भुत संगीत पहले कभी नहीं
सुना, इनको
साथ ले चलो।"
इसलिए
राजा ने गोपी और बाघा को कहा,
"तुमलोग
हमारे साथ चलो। तुम्हें पाँच
सौ रुपये महीने की तनख्वाह
मिलेगी। "
यह सुनकर
गोपी ने हाथ जोड़कर राजाजी को
नमस्कार किया और कहा,
"महाराज,
कृपया
हमें दो दिनों के लिए छुट्टी
दें। हम अपने माता-पिता
से मिलकर उनकी अनुमति लेकर
आपकी राजधानी में आ जाएँगे।"
राजा
बोले, "अच्छा,
अगले
दो दिन हम इस वन में ही आराम
करेंगे। तुम लोग अपने माँ-बाप
से मिलकर दो दिनों बाद हम से
यहीं मिलो। "
गोपी को
निकाल भगाने के बाद से उसका
पिता उसके लिए बड़ा ही दुखी था,
इसलिए
उसे लौट आते देख उसे बड़ी ख़ुशी
हुई। पर बेचारे
बाघा के भाग्य में यह सुख नहीं
था। उसके माता-पिता
कुछ दिनों पहले मर चुके थे।
गाँव के
लोगों ने जब उसे सिर पर ढोल
लेकर आते देखा तो कहा,
"अरे
रे! वह
साला बाघा लौट आया
है, फिर
हमें परेशान कर छोड़ेगा,
मारो
साले को!"
बाघा
ने नम्रतापूर्वक कहा,
"मैं
सिर्फ अपने माँ-बाप
से मिलने आया हूँ;
दो दिन
ठहरकर चला जाऊँगा,
बजाऊँगा-वजाऊँगा
नहीं। " पर
यह बात सुने कौन?
उन्होंने
दाँत पीसकर उसे माँ-बाप
की मौत की खबर सुनाई और वे
लाठियाँ लेकर उसे मारने आए।
वह जी-जान
लेकर दौड़ा। लेकिन पत्थर मार-मार
उन्होंने उसके पैर तोड़ दिए,
सिर फोड़
दिया।
गोपी अपने
घर के आँगन में बैठ अपने पिता
के साथ बातचीत कर रहा था,
तभी
उसने देखा कि बाघा पागलों सा
लँगड़ाते-लँगड़ाते
दौड़ते हुए आया;
उसके
कपड़े फटकर चीथड़े हो गए थे और
खून से लाल हो गए थे। वह तुरंत
दौड़कर बाघा तक गया और पूछा,
"यह
क्या हुआ?
तुम्हारी
ऐसी दशा क्यों हुई?"
गोपी
को देखते ही बाघा खूब मुस्कुराया।
फिर उसने हाँफते हुए कहा,
"भैया,
किसी
तरह बच के आया!
बेवकूफों
ने मेरा ढोलक ही तोड़ देना था!"
गोपी
के घर पर गोपी की देखभाल और
उसके माँ-बाप
के प्यार से बाघा के दो दिन
जितना हो सका,
सुखपूर्वक
ही बीते। दो दिनों बाद गोपी
अपने माँ-बाप
से विदा लेते हुए कह गया,
"तुम
लोग तैयार रहना। मुझे फिर
छुट्टी मिलते ही मैं तुम्हें
ले जाऊँगा।"
उसके बाद
कई महीने बीत गए। गोपी और बाघा
अब हाल्ला के राजा के घर बड़े
सुखपूर्वक रहते हैं। देश-विदेश
में उनका नाम फैल चुका है-
"ऐसे
उस्ताद कभी नहीं हुए,
होंगे
भी नहीं!”
राजाजी
उनको बड़ा प्यार करते हैं;
उनके
गीत सुने बिना एक दिन भी नहीं
रह सकते। अपने सुख-दुःख
की बातें सब गोपी को बतलाते
हैं। एक दिन गोपी ने देखा कि
राजाजी के चेहरे पर बड़ी उदासी
छाई हुई है। वे लगातार किसी
सोच में डूबे जा रहे हैं,
जैसे
उन पर कोई बड़ी विपत्ति आ गई
हो।
(बाकी अगली किश्त में)