Saturday, May 03, 2025

लाग की आग

(अकार-70 में प्रकाशित)

'आह, मुझे पी ले

कि खुशी की इंतहा में थिर शराब सा

तिलिस्म बन तेरे पैमाने में मौजूद रहूँ' - [मिस्ट्री (तिलिस्म) – डी एच लॉरेंस]


ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना करते हुए अपने शरीर से मनु और स्वरूपा को जन्म दिया था, या रब ने मिट्टी से आदम बनाया, फिर उसकी साथी हव्वा बनाई, और फिर साँप ने गड़बड़ कर दी। आदम और हव्वा सही-ग़लत के इल्म वाले सेव के दरख्त का फल खा बैठे, और हम यहाँ पहुँच गए। आज हर कोई जानता है कि जीवन की दीगर जटिल हरकतों की तरह सेक्स की पहचान जीन्-स का खेल है। अंडा-माँ, बीज-बाप को क़ैद करती है और पूरी क़वायद होती है कि बीजाणुओं को टुकड़ों में बाँटो, फिर मेल करवाते हुए उनको खास तरह से जोड़ो। इसी से अपनी खास यौनिक पहचान लिए संतान जन्म लेती है। जैविक विकास से उसे यहाँ तक पहुँचने में खरबों साल लगे हैं। इस दौरान अणुओं के तोड़-जोड़ के अनगिनत प्रयोग होते रहे।

सेक्स की अहमियत इस बात में है कि सेक्स के बगैर जीन्-स का टूटना, जुड़ना मुमकिन न होता और प्रजातियों का विकास न हुआ होता। हमारे जैसे रीढ़ की हड्डी वाले जानवरों, मछलियों की प्रजातियों में, तक़रीबन चार करोड़ साल पहले, नियमित सेक्स होता था। ज़्यादातर प्रजातियों में यह जैविक हरकत बन कर रह गया, पर वानरों और खासकर इंसान ने इसे अपनी चेतना का अहम हिस्सा बना लिया। हमारे लिए सेक्स और बच्चे पैदा करने में जो नाता है, वह और जानवरों से इस मायने में अलग है कि हमारे वयस्क जीवन का बड़ा हिस्सा इस फ़िक्र में बीतता है कि बच्चे पैदा हों या न हों, अगर हों तो उनके बारे में क्या कुछ सोचा जाए, परिवार कैसे बसाएँ, बच्चे को कैसे पालें, आदि। इससे भी बढ़कर यह कि किन दो के यौनिक संबंध से बच्चे पैदा हों, या न हों, इसके भी सामाजिक नियम बने और इस आधार पर समुदायों में लोग बँटे। इसके बावजूद तरह-तरह के यौनिक रूप और स्वभाव हमेशा मौजूद रहे। लंबी अवधि के रिश्तों से अलग एक बार की हम-बिस्तरी से लेकर, कुछ दिनों या सिर्फ कुछ महीनों तक के यौन-संबंध होेते रहे हैं। शादी के बाद बेवफ़ाई, बहुविवाह आदि आम बातें हैं। हालाँकि ज़्यादातर आधुनिक समाजों में स्थाई मोनोगामी या एक-संगमन को मान्यता मिली हुई है, पर यह इतना आम नहीं है, जितना कि मान लिया जाता है। इससे अलग प्रथाएँ भी कई समाजों में मौजूद हैं। भारत समेत कई देशों में पुरुषों में बहुविवाह आम बात थी, जिस पर अब रोक है। एक स्त्री का एक से ज़्यादा पति होना भी कई इलाक़ों में देखा जाता है, जैसे उत्तराखंड के कुछ इलाक़ों में है। आदिवासियों में भी ऐसी विविधता आम है। सेक्स को लेकर कई जटिल ख़याल हैं, जिनमें समाज में मान्य रिश्तों से अलग और बातें भी शामिल हैं। मशहूर मानव-शास्त्री ए के रामानुजन ने दिखाया है कि सोफोक्लिस के ग्रीक त्रासदी-नाटक 'ईडीपस रेक्स' में अपनी माँ से संबंध करने वाले पितृहन्ता ईडीपस जैसी कहानी उत्तरी कर्नाटक क्षेत्र की एक लोक-कथा में मौजूद है। एक लड़की को जन्म से यह शाप है कि वह अपने बेटे से शादी करेगी और इससे उसे बेटा पैदा होगा। शाप से बचने के लिए वह जंगल भाग जाती है, पर वहाँ एक राजा के वीर्य से भीगे आम खाने पर उसे बेटा पैदा होता है, जिसे वह नदी में फेंक देती है। बच्चा पानी में बहकर पास के राज्य तक जाता है, जहाँ उसे उठा लिया जाता है और उसकी परवरिश होती है। बड़ा होकर लड़का जंगल में शिकार करने आता है और अंजाने में अपनी माँ से मिल कर उससे शादी कर लेता है। उनका बेटा पैदा होता है और रिवाज़ के मुताबिक बाप के बचपन के अँगोछे में उसे बाँधा जाता है। औरत देखते ही पहचान लेती है कि यह अँगोछा दरअसल उसकी साड़ी का पल्लू है, जिसमें बाँधकर उसने अपने बेटे को नदीं में फेंका था। आखिर नवजात को बेटा, पोता और देवर का संबोधन कर लोरी गाते हुए वह खुदकुशी कर लेती है। ऐसे 'ईडिपस कॉंप्लेक्स' या इसी की तरह बेटी और बाप में संबंध के 'इलेक्ट्रा कॉंप्लेक्स' की मिसालें पश्चिमी अदब में खूब पाई जाती हैं। ऐसा नहीं है कि ये वहीं तक सीमित हैं। मिस्र के नोबेल पुरस्कार विजेता नग़ीब महफ़ूज़ के एक उपन्यास (अंग्रेज़ी में 'द मिराज' – सराब) का अंतर्मुखी नायक कामिल रुबा लाज़ अपनी माँ के प्रति खिंचा रहता है, जो उसे अपनी जकड़ में रखे हुए है। उसके लिए उसकी माँ ही उसकी ज़िंदगी है। माँ की ख़ूबसूरत शक्ल से इतर उसके तसव्वुर में और कुछ नहीं होता। उसके प्यार और नफ़रत में हर कहीं माँ ही है। नतीजतन वह अपनी बीवी के साथ संभोग नहीं कर पाता है। इन बातों का ऐसा असर मिस्र के बौद्धिकों पर था कि 1951 में एक अध्यापक ने शादी से पहले मनोविज्ञानिक जाँच का प्रस्ताव रखा ताकि बाद में दंपति को मुश्किलों से बचाया जा सके। यानी यौन-मनोविज्ञान की ऐसी कई मिसालें हैं, जिनकी व्याख्या आसान नहीं है। मशहूर निर्देशक आल्फ्रेड हिचकॉक की सबसे ज़्यादा चर्चित फिल्मों में एक 'साइको' (1960) का कथानक ऐसे ही जटिल रिश्ते पर केंद्रित है। नायक नॉरमन माँ के प्रेमी से रीस करते हुए माँ और उसके आशिक दोनों का क़त्ल कर देता है, पर माँ के प्रति उसका मोह इतना है कि वह उसकी लाश को दफनाता नहीं और उसे ज़िंदा मानकर उससे बातें करता है। हालाँकि सोफोक्लिस की त्रासदी-रचनाओं के साहित्यिक महत्व पर खूब चर्चाएँ होती हैं, सच यह है कि हम इसके केन्द्र में मौजूद माँ-बेटे के संबंध पर ही ज़्यादा सोचते हैं। यानी इंसान के ज़ेहन पर यौनिकता का असर इतना गहरा है कि कहीं भी जगह दिखे तो हमारी सोच इस ओर मुड़ जाती है। कइयों का मानना है कि रति के लिए साथी चुनते हुए ज़ेहन में माँ (मर्द के लिए) या बाप (औरत के लिए) की तलाश रहती है। सौ साल पहले सिगमुंड फ्रॉएड ने ऐसे कॉँप्लेक्स का संबंध 'अचेतन' से दिखाने के लिए सपनों पर शोध करने की कोशिश की थी। कला और अदब पर फ्रॉएड की खोजों का गहरा असर पड़ा, आज तक है, पर उसके जीते रहते ही उसके काम पर सवाल उठने लगे और वैज्ञानिकों और दार्शनिकों ने इसे गैर-वैज्ञानिक करार कर दिया। आखिर क़रीबी रिश्तेदारों में यौन-संबंधों पर मनाही क्यों है? आम समझ यह है कि ऐसे संबंधों से पैदा हुए बच्चों में खतरनाक आनुवंशिक बीमारियाँ हो सकती हैं। यह बात आज के ज़माने में बेमानी हो जाती है, क्योंकि कोई ज़रूरी नहीं कि यौन-संबंध से बच्चे पैदा करने ही हैं, और अगर प्रजनन हो तो भ्रूण में ही बीमारियों की पहचान कर इलाज़ आज मुमकिन है। यह एक सदी पुरानी बहस है कि क़रीबी रिश्तों को खारिज करने के पीछे सामाजिक वजहें ज़्यादा अहम रही हैं या विकास और प्रजाति की निरंतरता। जीन्-स में विविधता ही सबसे अहम बात होती तो जाति या समुदाय के आधार पर शादियाँ न होतीं। जिस्मानी खासियत में समानता की चाहत से ही समुदाय के अंदर विवाह की रस्म उभरी हो सकती है, ताकि आगे पैदा होते बच्चों में कुछ हद तक आनुवंशिक एकरूपता हो। हमारे यहाँ के कई समुदायों समेत दुनिया भर में कई इलाक़ों में क़रीबी रिश्तेदारों में शादियाँ होती हैं।

यह जटिलता, जिसे सेक्स कहते हैं, कुदरत में यह क्यों पनपी? यौनिकता की पहचान आज भी दुनिया में मौजूद किसी जानवर से नहीं शुरू हुई, बल्कि यह खरबों साल पहले से चली आ रही है, जब इंसान का कोई वजूद धरती पर नहीं था। धरती पर सबसे सरल और प्राचीन बैक्टीरिया जैसे सूक्ष्मतम जीव महज दो भागों में विभाजित होकर प्रजनन करते हैं। इनके बनिस्बत पेड़-पौधे और जानवर बहुत बड़ी और जटिल कोशिकाओं से बने होते हैं, जिनमें सलीके से तय की गई आणविक मशीनरी और झिल्लीदार भूलभुलैए भरे होते हैं। बहुत कम प्रजातियों में अलैंगिकता दिखती है, और ये सब विकास के साथ विलुप्त हो जाती हैं। सेक्स कई मायनों में महंगा है। अजीबो-ग़रीब कसरतों की माँग रखता है, लेकिन प्रजाति के वजूद को बनाए रखने के लिए ज़रूरी है। वैज्ञानिक इस पर सर खपाते रहे हैं। लंबे अरसे से एक समझ यह रही कि सेक्स से विविधता पैदा होती है और इस तरह परिवेश के साथ अनुकूलन में आसानी रहती है। सेक्स की वजह से जीन्-स में लगातार हो रहे थोड़े-थोड़े बदलावों से तरह-तरह के परजीवियों (बैक्टीरिया-वाइरस आदि) से बचने की क़ाबिलियत बढ़ी है और जीन्-स में गड़बड़ी यानी विकृतियों से भी बचाव मुमकिन हुआ है। जैविक विकास में प्रजाति के बने रहने के लिए सफल प्रजनन और कामयाब जीन्स का मौजूदा आबादी में कायम रहना लाज़िमी है। इस समझ में खतरा यह है कि इसके मुताबिक - 'पसंद का साथी के लिए जीन’, 'पार्टनर बनाने के लिए जीन', 'बहुविवाह के लिए जीन', यानी हर तरह के ऐसे स्वभाव को जायज़ ठहराया जा सकता है, जो दरअसल सामाजिक पूर्वाग्रहों से पनपा है। वानर प्रजाति में हमारे क़रीब के चिंपांज़ी जैसे जानवरों में यौनिकता से लेकर परिवार और कुनबा बनाने जैसी कई बातों को कुदरती चयन जैसे जैविक सिद्धांतों को आधार बनाकर समझा जा सकता है, पर इंसान महज एक वानर नहीं है। यह विड़ंबना ही है कि खालिस कामेच्छा को पशु-जैसी फितरत भी कह दिया जाता है और इसे शादी जैसे लंबे रिश्ते से अलग माना जाता है। इंसान को और जानवरों जैसा मानना या दीगर जानवरों में इंसान जैसी हरकतें ढूँढना - एक ओर ये बातें कामेच्छा का ठोस आधार सामने लाती हैं, दूसरी ओर अक्सर नस्ली या जाति जैसे पूर्वाग्रहों से इनमें कुतर्क जोड़ दिए जाते हैं। मर्द एक से अधिक यौन-संबंध रखे तो इसे अधिक बच्चे पैदा करने से जोड़ कर समझाया जाता है, पर औरतें भी एक से ज़्यादा मर्दों के साथ संबंध रखती हैं, लेकिन इससे बच्चों की तादाद में बढ़त नहीं होती।

'काम' पर नियंत्रण के लिए समाज ने क्या-क्या नियम नहीं बनाए – आज भी कई जगह बहुत छोटी उम्र में विवाह करवा दिए जाते हैं या तय कर दिए जाते हैं। वयस्क हो जाने पर अपनी इच्छा से शादी करना भी दरअसल सामाजिक पूर्वाग्रहों से नियंत्रित होता है। ऐसा नहीं है कि संभोग के बाद ही हम बच्चा पैदा करने के बारे में सोचते हैं, दरअसल हमारे अवचेतन में नस्ल को आगे बढ़ाने की सोच गहरी है और संभोग के लिए साथी चुनना भी इसी सोच से नियंत्रित होता है। दूसरे जानवरों में संभोग से पहले बच्चा पैदा करने की सोच, यानी गर्भावस्था या बच्चे पैदा करने के बारे में भौतिक या आध्यात्मिक खयाल, या कि वे बच्चों के साथ गर्भ से पहले से ही कोई नाता रखते हों, इसका कोई प्रमाण नहीं मिला है, पर इंसान में यह बात हमेशा ज़ेहन में हावी होती है। यानी वात्स्यायन का शास्त्र अपनी जगह पर है, पर वहाँ तक पहुँचने के लिए प्रजनन की मशीनरी अपना काम करती है, जिसमें अतीत, वर्तमान और भविष्य की हक़ीक़तें गड्डमड्ड होती हैं।

शिकारी मानव का खेतीबाड़ी की ज़िंदगी में ढलना ऐसा पड़ाव था, जहाँ किसानों ने समझ लिया होगा कि अगली पीढ़ी के पौधों और जानवरों के लिए परागण और संभोग ज़रूरी है, और इससे वे बाग़वानी और पशुपालन में माहिर हो गए होंगे। पुरापाषाण काल के लोगों के पास भी प्रतीकों में समझने लायक भाषा और जानवरों और पौधों के व्यवहार का व्यापक ज्ञान था। इसमें निश्चित रूप से यौनिकता और प्रजनन की समझ शामिल होगी। प्रजनन, यानी बीज पिता और अंडा माँ के मिलन की समझ आग और पंछियों के अंडे पकने से बनी हो सकती है। कम से कम एक लाख सालों से प्रजनन की समझ इंसान में है। इसी के साथ तमाम सामाजिक रीति-रिवाज़ बनते चले, जिनमें दहेज, अंगूठी, मालाएं लेन-देन आदि हैं।

लगभग दो अरब साल पहले बैक्टीरिया की एक प्रजाति ने एक और सरल कोशिका - आर्कियोन - के साथ घनिष्ठ सहजीवी साझेदारी बनाई। यह मेल इतना गहरा था कि साथ निभाने आए बैक्टीरिया ने अंततः अपने साथी के अंदरूनी हिस्से में डेरा जमा लिया और धीरे-धीरे वे हमारी कोशिकाओं के ऊर्जा पैदा करने वाले अणुओं में बदल गए। इस तरह से नई बनी संकर कोशिका बढ़ी और फलती-फूलती चली। दोनों साझेदारों की आनुवंशिक सामग्री और नए बने ऊर्जा स्रोत का इस्तेमाल कर अभूतपूर्व जटिलता वाली एक कोशिका बनी, और विकास की इस यात्रा में जो अनगिनत खासियत पनपीं, उनमें सेक्स भी शामिल था। अरबों सालों तक चले इस सफर में कोशिकाएँ जुड़ती-टूटती रहीं। यह एक तरह का यौनिक खेल था। सूक्ष्म जीवाणुओं से जटिल जीवों यानी पौधों या जानवरों तक कई प्रजातियाँ आई-गईं। अंत में कुदरती चयन और परिवेश में अनुकूलन में सबसे दुरुस्त (फिट) प्रजातियाँ बची रह गईं। इन सब में सेक्स की अहम भूमिका रही। जैविक विकास के नज़रिए से देखने की एक सीमा यह है कि इसमें समलिंगी काम की हसरत की व्याख्या मुमकिन नहीं है। प्राकृतिक चयन प्रजनन के माध्यम से संचालित होता है, और इसलिए जाहिर है कि प्रजनन के साथ जुड़ा सेक्स किसी भी व्याख्या में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। लेकिन इंसान हमेशा विषमलिंगी नहीं होता है। इसलिए कामेच्छा की समझ में समलिंगी संभोग की चाहत की व्याख्या भी होनी चाहिए। आमतौर पर समलिंगी सेक्स को हमारी विषमलैंगिक फितरत के बाई-प्रोडक्ट सा देखा गया है। इस नज़रिए की कई सामाजिक वजहें हैं। यह विवरण समलैंगिकता को एक तरह से सॉफ़्टवेयर की गड़बड़ी के रूप में पेश करता है - जिसे विकास ने ठीक करने की ज़हमत नहीं उठाई क्योंकि यह इतनी गंभीर नहीं है कि पूरे प्रोग्राम को तबाह कर दे। लेकिन समलिंगियों को ऐसी व्याख्या क़तई सही नहीं लग सकती और जाहिर है कि वे ऐसे शोध के बुनियाद पर सवाल उठाते हैं। मानव-इतिहास में कुछ वयस्कों में समलिंगी कामेच्छा हमेशा ही मौजूद रही है, और हर परंपरा में, खास तौर से कला, संगीत, साहित्य में यह मुखर रही है, पर बिड़ंबना यह कि इसे अक्सरीयत ने कभी स्वीकारा नहीं है। प्राचीन भारतीय कलाकृतियों में और हाल की सदियों में उर्दू शायरी में यह दिखता है। ग़ज़ल में आशिक और माशूक दोनों के लिए अक्सर पुलिंग क्रियापदों का इस्तेमाल होता है और ज़्यादातर ग़ज़लें पुरुषों की लिखी होती हैं। ग़ज़ल की शुरूआत अरबी और फारसी ज़बानों में हुई और इसके बावजूद कि रूमी जैसे महान सूफियों ने समलिंगी साथी बनाए, वहाँ समाज ने मर्दों के बीच यौनिक रिश्तों को नपुंसकता और विकृति माना। खास कर इस्लाम के आने के बाद यह कट्टर खयाल बन गया।

यौनिकता पर समाज की पहरेदारी के बावजूद इंसान अपनी हसरत पूरी करने की राहें ढूँढता रहा है। रूसी क्रांति पर जैक रीड की किताब से प्रेरित 1981 में वारेन बीटी के निर्देशन में बनी मशहूर फिल्म 'रेड्स' में अमेरिकी उपन्यास लेखक हेनरी मिलर साक्षात्कार में कहता है - ‘You know something that I think that there was just as much fucking going on then as now. Only now, it has a more perverted quality to it. Now, there's no love whatever included, you know. Then, there was your heart, a bit of heart in it. उन दिनों (सौ साल पहले) इतनी ही संभोग क्रियाएँ चल रही थी, जितनी कि अब (पचास साल पहले) है, बस अब इसमें जरा विकृति आ गई है। अब इसमें प्यार नहीं रहा। उन दिनों दिलो-जाँ की बात होती थी।' हेनरी मिलर का ऐसा कहना गौरतलब है, क्योंकि कई सालों तक अमेरिका में उसकी किताबों (Tropic of Cancer और Naked Lunch) के छपने पर रोक लगी थी और इनके पहले प्रकाशन यूरोप में पेरिस में हुए थे। यूरोप में मध्य-युग में रूढ़िवादी सोच शिखर पर थी, और यौन-संबंधों से फैले रोगों से निजात भी आसान न था। पर उन दिनों भी वहाँ के वैद्य मानते थे कि संभोग में कमी या ब्रह्मचर्य सेहत के लिए ठीक नहीं है। अमेरिका में साठ के दशक में सेक्स पर पुराने खयालों के खिलाफ इंकलाबी लहर उमड़ आई। प्रसिद्ध उपन्यास लेखक फिलिप लार्किन ने इसे इस तरह कहा, ‘Sexual intercourse began in 1963 … between the end of the Chatterley ban and the Beatles’ first LP - यौनिक संभोग की शुरूआत 1963 में हुई, जब चैटरली (डी एच लॉरेन्स की किताब ‘लेडी चैटर्ली-स लवर’) पर से प्रतिबंध हटा और बीटल्स (रॉक संगीत का ग्रुप) का पहला एल पी (लॉंग-प्लेयिंग रेकॉर्ड) आया।’

यौनिकता को मर्द के नज़रिए से देखने पर स्त्रीवादी आलोचकों की आपत्ति मुखर रही है। यह सच है कि आज़ाद दुनिया का ख़याल तब तक बेमानी है, जब तक कि औरत के जिस्म पर मर्द ने लगाम लगा रखी है। पिछली सदियों में पश्चिमी मुल्क़ों में माली हालात सुधरने के पीछे स्त्रियों की यौनिक स्वतंत्रता का बड़ा योगदान रहा है। बच्चे पैदा करने की मशीन मान कर नहीं, बल्कि औरत की शख्सियत और क़ाबिलियत को पनपने देने से समाज आगे बढ़ता है। यह ज़रूरी है कि वह परिवार में गाय की तरह बँधी न रह कर अपनी मर्ज़ी से साथी चुने और भरपूर इंसान बन कर तरक़्क़ी की बुलंदियाँ हासिल करे। यह बात हमारे वक्त की बड़ी लड़ाई है। यह निजी दायरे की ही नहीं, समाजी और सियासी लड़ाई है। इस जद्दो-जहद में विज्ञान भी अछूता नहीं है। शोध में सवालों के चयन और विज्ञान की भाषा आदि को लेकर सवाल उठाए जाते हैं। स्त्रीवादी आलोचना यह आग्रह रखती है कि वैज्ञानिक प्रयोगों को करते हुए जेंडर से जुड़े पूर्वाग्रहों पर सोचना और उनसे बचना या उनसे निजात पाना बा-क़ायदे ज़रूरी है। मसलन यह आम सोच कि प्रजनन में पुरुष के लाखों शुक्राणुओं में से कोई एक-दो स्त्री के गर्भाशय की नाल में अंडाणु को निषेचित (fertilise) करते हैं, का वैकल्पिक विवरण यह हो सकता है कि स्त्री के गर्भाशय में अंडाणु किसी एक-दो शुक्राणु को निषेचन के लिए स्वीकार करता है। भाषा सत्ता समीकरण को बदल देती है।

आज जहाँ हर कहीं पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव से यौनिकता पर खुली बातचीत होती है, वहीं एक ओर परंपरा, जाति, धर्म आदि के नाम पर तरह-तरह की रोक लगाई जाती है। पिछली सदी के आखिर में अंग्रेज़ी में 'जेंडर' शब्द का अर्थ बदल गया, या यूँ कहें कि पहले से ज्यादा व्यापक हो गया। एक ओर तो जेंडर को जैविक पहचान से अलग समाज द्वारा थोपी लिंग-पहचान माना गया, वहीं इस शब्द के मूल अर्थ को स्त्री या पुरुष की जैविक पहचान से बढ़ाकर इसमें समलिंगी और ट्रांस-जेंडर आदि पहचानें जोड़ी गईं। स्त्री की यौनिकता पर वात्स्यायन से कहीं आगे बढ़कर आज खुलकर बात होती है। पहले जो शहरों में मंडियों या कोठियों या रेड लाइट एरिया तक सीमित होता था, आज वह इंटरनेट पर पोर्नोग्राफी और डेटिंग के व्यापार का बड़ा साम्राज्य बन चुका है, जिसमें करोड़ों के वारे-न्यारे होते हैं। औरत का जिस्म चीख रहा है, उसकी रूह चीख रही है कि उसे आज़ादी चाहिए, पर कहीं राज्य-सत्ता तो कहीं देह-व्यापार ने उसे ज़ंजीरों से जकड़ रखा है। कहीं गर्भ-पात पर रोक है, कहीं ज़बरन बुरखा पहनना है तो कहीं इसे पहनने की आज़ादी नहीं है। विवाह के नाम पर समाज और राज्य-सत्ता ने स्त्री की यौनिकता को ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ है। एक अजीब बात यह है कि हमारी ज़िंदा भाषाओं में यौनिकता के लिए इस्तेमाल होने वाले आम शब्द अश्लील मान लिए गए हैं और उनकी जगह संस्कृत या अंग्रेज़ी के शब्दों का प्रचलन बढ़ गया है। यह वही समाज है जहाँ खजुराहो और कोणार्क के मंदिरों में रति की मुद्राओं के मनोरम मूर्ति-शिल्प हैं। हिंसा और विसंगतियों से भरी इस दुनिया में में यौनिकता के अद्भुत और इंतहाई-खूबसूरत तिलिस्म के साथ कुदरतन मिले प्यार के लिए कितनी जगह बची है, साथ ही टेक्नोलोजी ने अगली सदियों में यौनिक सुख को किस ओर मोड़ना है, ये सोचने की बातें हैं।

अंत में डेढ़ सदी पहले लिखी वाल्ट ह्विटमैन की यह कविता पढ़ी जाए -

स्त्री मेरे इंतज़ार में

स्त्री मेरा इंतज़ार कर रही है, वह भरपूर है, उसमें कुछ भी नहीं छूटा

पर कुछ भी क्या होता जो काम न होता, या कि सही मर्द का द्रव न होता



काम में सब है, बदन, रूहें,

अर्थ, प्रमाण, शुद्धताएँ, नज़ाकत, नतीजे, प्रचार,

गीत, आदेश, स्वास्थ्य, गर्व, मातृत्व का तिलिस्म, वीर्य-रस

सभी आशाएँ, खैरात, सम्मान, सभी ख़्वाहिशें, प्रेम, खूबसूरती, धरती की हर खुशी,

सारी हुकूमतें, काजी, देव, दुनिया के अनुकरणीय जन,

ये काम में हैं, उस का हिस्सा हैं और उसे सही ठहराती हैं।



जो पुरुष मुझे भाता है वह बिना लाज अपने काम-उल्लास को खुलकर स्वीकारता है

जो स्त्री मुझे भाती है वह बिना लाज खुलकर अपना काम-उल्लास स्वीकारती है।



मैं जड़ स्त्रियों से दूर चला

मैं उसके साथ रहने चला जो मेरा इंतज़ार कर रही है, और उनके साथ जिनके खूँ में ग़र्मी है और जो मुझे खुश रखती हैं

मैंने देखा है कि वे मुझे समझती हैं और मुझे खारिज नहीं करतीं,

मैंने देखा है कि वे मेरे योग्य हैं, मैं उन स्त्रियों का समर्थ पति होऊँगा।

वे मुझसे लेश भर भी कम नहीं हैं

चमकती धूप और बहती हवाओं ने उनके चेहरों में रंगत ला दी है

उनकी मांसलता में पक चुका दैवी लचीलापन और ताकत है,
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वे तैरना, नाव चलाना, घुड़सवारी, कुश्ती लड़ना, निशानेबाजी, दौड़ना, धावा बोलना, पीछे हटना, आगे बढ़ना, विरोध करना, अपनी रखवाली करना जानती हैं,

वे अपने तईं भरपूर हैं - वे शांत, साफ, अपने-आप में सुगठित हैं।

ऐ स्त्रियों, मैं तुम्हें पास खींचता हूँ

मैं तुम्हें छोड़ नहीं सकता, मैं तुम्हारा भला करूँगा

मैं तुम्हारा हूँ, और तुम मेरी हो, यह बस परस्पर के लिए ही नहीं, बल्कि औरों के लिए है

हमसे बड़े नायकों और कवियों को तुम्हारी नींद ढँके हुए है

मेरे सिवा किसी और की छुअन से वे जागेंगे नहीं।



यह मैं हूँ, स्त्रियों, मैं आगे बढ़ता हूँ

मैं सख्त, तीखा, चौड़ा हूँ, मैं हटूँगा नहीं, पर मैं तुम्हें प्यार करता हूँ

जितना तुम्हारे लिए ज़रूरी है, तुम्हें उससे अधिक तकलीफ नहीं देता,

इन राज्यों के लिए काबिल बेटे-बेटियाँ पैदा करने को मैं तुम्हारे अंदर सत्व डालता हूँ, मैं धीमी रूखी उद्दंड शिराओं से दबाव डालता हूँ

मैं खुद को मुकम्मल तैयार करता हूँ, कोई गुजारिश नहीं सुनता,

अरसे से अपने अंदर जो जमा है, जब तक उसे डाल न दूँ, मैं निकलने की ज़ुर्रत नहीं कर सकता।

तुम्हारे जरिए मैं अपनी थमी हुई नदियों को बहाता हूँ

आगे के हजारों साल मैं तुममें समेट लेता हूँ

मैं अपने और अमेरिका के सबसे प्रिय जनों के चित्र तुम पर तराशता हूँ

जिन बूँदों को मैं तुममें स्वच्छ डालता हूँ, उनसे जोशीली और चुस्त लड़कियाँ, नए कलाकार, संगीतकार और गायक जन्मेंगे,

जिन बच्चों को मैं तुम्हारे अंदर पैदा करता हूँ वे अपनी बारी में बच्चे पैदा करेंगे,

यह मेरी माँग है कि मेरे प्रेम की लागत से संपूर्ण मर्द-औरत जन्म लें,

मेरी उम्मीद है कि जैसे हम संभोग कर रहे हैं, वैसे ही वे भी औरों के साथ संभोग करेंगे,

जैसे मैं अभी खुद बरसा रहे तेज़ बौछारों से उम्मीद रखता हूँ, मुझे उनकी तेज़ बौछारों के फलों से उम्मीद रहेगी,

प्रेम में मगन जिन जन्म, जीवन, मृत्यु, अमरता को मैं अब रोप रहा हूँ, उनसे प्रेम भरी फसल की उम्मीद मैं करता रहूँगा।

Wednesday, March 26, 2025

लोकधर्म को नमाज़ अदा करने को तड़पता फिल्मकार

- 'समयांतर' के फरवरी अंक में प्रकाशित

- ‘नमाज़ आमार होइलो ना आदाय ओ आल्लाह'


ऋत्विक घटक के बारे में ज़्यादातर बातें फिल्मों के संदर्भ में होती है - बहुत अच्छे फिल्म निर्देशक थे, बहुत ही कम पैसों में उम्दा फिल्में उन्होंने बनाईं; फिल्म बनाने का उनका अनोखा नज़रिया था, जो पिछली सदी के फिल्मकारों में सबसे अनोखा था, आदि। दरअसल ऋत्विक घटक एक फिल्मकार ही नहीं, बीसवीं सदी के सबसे अनोखे हिंदुस्तानियों में एक है। बांग्ला के मशहूर लोक-संगीत आलोचक कालिका प्रसाद भट्टाचार्य ने एक साक्षात्कार में यह बताया कि बंगाल के विभाजन की जो पीड़ा बुद्धिजीवियों में है, उसमें सबसे ज्यादा ईमानदारी दो लोगों में दिखती है - एक थे लोक-संगीत को सर्वहारा वर्गों की ओर मोड़ने और आधुनिक जामा पहनाने वाले हेमांगो बिश्वास, और दूसरे ऋत्विक घटक थे। कहा जाता है कि कहीं फिल्म की शूटिंग करने जाते हुए हवाई जहाज से नीचे बहती पद्मा नदी को देखकर ऋत्विक घटक चीख-चीख कर रोने लग गए थे। हेमांगो बिश्वास के एक गीत का मुखड़ा है - आमार मन कांदे रे - पोद्दार पारे लाइगा ओ गृही मन कांदे रे - मेरा जी रो रहा है, पद्मा नदी के लिए ओ गृही रे, जी रोता है।

उनकी फिल्म 'जुक्ति, तोक्को आर गप्पो' (तर्क, बहस और गल्प) में कोलकाता शहर में गंगा नदी के किनारे एक फकीर को गाते हुए दिखाया गया है। वैसे यह कोई बड़ी बात नहीं है, पर गौरतलब यह है कि जब यह फिल्म बनी थी, कोलकाता बंगाली हिंदू अक्सरियत का शहर था और गंगा नदी के किनारे तमाम क़िस्म के सनातनी साधु संत मौजूद होते हैं। ऋत्विक ने चुनकर एक बाउल फकीर को दिखाया, जो यह गीत गा रहा है कि मुझे किसानी और गाँव की मजबूर और मसरूफ ज़िंदगी में इतना वक्त नहीं मिला कि मैं पाँच में से किसी वक्त की नमाज पढ़ पाऊं, हे अल्लाह! इस फिल्म पर चर्चा करते हुए अक्सर लोग उन की सोच पर वेद-उपनिषदों के प्रभाव वगैरह की बात करते हैं, पर इस पर कोई चर्चा नहीं होती कि ऋत्विक एक घोर धर्म निरपेक्ष शख्स था। वह एक ऐसा शख्स था, जिसे इंसानियत को सबसे पहले सामने रखकर अपनी बात करनी थी।

सिनेमा को कविता की तरह कैसे पेश किया जाए, इसकी सबसे खूबसूरत मिसाल फिल्म 'मेघे ढाका तारा' - बादलों में छिपा तारा - है। पंजाब और बंगाल का विभाजन हाल की सदियों में दक्षिण एशिया की सबसे बड़ी त्रासदी है। करोड़ों घर उजड़े, लाखों हत्याएं हुई, स्त्रियों और बच्चों पर बेइंतहा जुल्म हुए। पंजाबी अदब में रोमांटिक कवि माने गए शिव कुमार बटालवी ने लिखा, 'माए नी माए, मेरे गीतां दे नैणा विच बिरहो दी रड़क पवे, अद्धी अद्धी रातीं उठ, रोण मोए मित्तरां नीँ, माए सानूँ नींद ना आवे' -ओ माँ, मेरे गीतों की आँखों में विरह की किरचें हैं, आधी रातों को उठ कर मर चुके साथियों की याद में रोते हैं, मुझे नींद नहीं आती। यह क्रंदन ऋत्विक की फिल्मों में हर कहीं है। ऐसी एक चीख इस ज़मीन से निकली, वह गगन भेदी चीख एक ओर अमृता प्रीतम की 'अज्ज आक्खां वारिस शाह नूँ' कविता में दिखती है, तो दूसरी ओर बंगाल के कला और अदब में कभी मानिक बंद्योपाध्याय की कथाओं में तो कभी ऋत्विक घटक की फिल्मों में दिखती है। 'मेघे ढाका तारा' में यह पीर फिल्म के परदों से उतर कर इंसानियत के बड़े कैनवस पर छा जाती है। गहराई से देखा जाए तो ऋत्विक ने वाक़ई इस फिल्म के जरिए एक महाकाव्य रचा है, जो हज़ारों सालों तक पढ़ा जाएगा। 1960 में बनी 'मेघे ढाका...' तीन फिल्मों की कड़ियों में पहली है - इसके बाद कोमल गांधार 1961 और सुबर्नो-रेखा 1962 में बनीं। बँटवारे की तड़प और पीर, को इतनी गहराई से देखना और दिखाना, बेबसी की ऐसी चार-फाड़ इससे पहले कभी नहीं हुई। इस पीर को साफ कह पाना मुमकिन नहीं है, इसीलिए तो मंटो तबाह हो गया, सथ्यू की 'गरम हवा' आज तक सवाल बन खड़ी है। ऋत्विक का कहना था कि उम्दा फिल्म हमें हँसने-रोने से परे नई दिशाएँ दिखलाती है और गहराई तक जाया जाए तो ऐसी अंजान जगह ले जाती है, जहाँ कुछ कह पाना मुमकिन नहीं रहता। हम देखते हैं कि एक कहानी है, प्यार है, धोखा है, दिलो-जाँ की बातें हैं, पर अचानक ही हम पूछने लगते हैं कि क्यों, कैसे। ऋत्विक मिथकों का इस्तेमाल करते हैं, पर ऐसे कि उनके नए मायने सामने आते हैं। वह मानो प्राक-आधुनिक और उत्तर आधुनिक सभ्यताओं के सह-अस्तित्व मे दरारें ढूँढते फिर रहे थे। सर्रीयल फिल्म-कला में उनकी महारत लाजवाब थी। उनकी फिल्मों के संगीत निर्देशकों में बहादुर खान जैसे शास्त्रीय संगीत के उस्ताद थे, तो साथ ही रवींद्र-संगीत का भरपूर इस्तेमाल भी था। 'मेघे ढाका तारा' में एक पारंपरिक गीत की चार पंक्तियाँ बार-बार दुहराई गई हैं, जिसमें सतही तौर पर माँ बेटी को विदा करने से पहले विलाप करती है, पर यह विलाप फैलता जाता है और अंजाने ही वक्त की त्रासदी की सुगबुगाहट बन जाता है।

बांग्ला अदब में हाल के वक्त में सबसे प्रभावशाली और अराजक उपन्यास लेखक नबारुण भट्टाचार्य ने ऋत्विक घटक की याद में व्याख्यान देते हुए यह कहा था कि कुछ आलोचक ऋत्विक की फिल्मों में कला का व्याकरण नहीं ढूंढ पाए। नबारुण ने नाराज़गी जताते हुए कहा था - अरे सालो, वो फिल्म का ग्रामर बना रहा है। यह ग्रामर सीखो। ... घिनौनी तबाह हो चुकी किसी चीज़ को खूबसूरत नहीं बनाया जा सकता। ... इंसान के प्रति विश्वसनीय होना, ग़रीब के प्रति ईमानदार होना, यह कला की शर्त है। पैसे-वालों के साथ खुशमिज़ाजी से कला नहीं बनती।...’ नबारुण का ऋत्विक के साथ पारिवारिक संबंध था। उसके पिता बिजन भट्टाचार्य – महाश्वेता देवी के पति - ने ऋत्विक के नाटकों और फिल्मों में अभिनय किया था।

'जुक्ति, तोक्को आर गप्पो' उसकी आखिरी फिल्म (1977) है और इसमें ऋत्विक की सोच आक्रामक होकर सामने आती है। फिल्म में खुद अभिनय किया है, उसके बेटे ने भी हिस्सा लिया और साथ में उन दिनों नाटकों की सबसे मशहूर माँ और बेटी तृप्ति और साँओली मित्रा भी हैं। यहाँ आज़ादी के बाद हिंदुस्तान के हर इदारे पर, हर परिभाषा पर, खास तौर पर बंगाल की हर बौद्धिक प्रवृत्ति पर सवाल उठते दिखते हैं। मुख्यधारा के सिनेमा और अदब पर तो चोट है ही, यह एक तरह का आत्म-दाह है। उत्पल दत्त के जिम्मे दिए किरदार सत्यजित बसु के जरिए इसमें उन दिनों के शिखर माने जाने वाले बौद्धिकों पर तीखा व्यंग्य है। फिल्म की शुरूआत भुखमरी के शिकार एक ग़रीब बुज़ुर्ग से होती है, जिसकी फिल्म की कहानी में कोई जाहिरा भूमिका नहीं है, उदासीन नज़रों से वह हमारी ओर देखता है, जैसे हम और हमारा समाज अपने चारों ओर हो रही घटनाओं को उदासीन नज़रों से देखते हैं। इसके ठीक बाद काले वेष में तीन आकृतियों का आधुनिक शैली में नृत्य है, जो शास्त्रीय हिंदुस्तानी संगीत के ताल पर है। फिल्म में एक जगह संस्कृत भाषा के एक पंडित और संथाल परगना के एक आम संस्कृति-कर्मी के बीच भाषा पर रोचक बहस है। लोक-संस्कृति के नज़रिए से संस्कृत म्लेच्छ यानी विदेशी ज़बान है, क्योंकि यह आम लोगों की ज़बान नहीं है। यानी पंडिताई – चाहे वह संस्कृत की हो या अंग्रेज़ी की गुलामी हो, ऋत्विक के लिए दोनों जनविरोधी हैं। नबारुण ने कहा था कि ऋत्विक बुद्ध की तरह अपनी कुलीनता का त्याग कर रहा था, और लोगों के बीच जगह ढूँढ रहा था। वह इप्टा का और कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य रह चुका था, पर मूलत: वह अराजक लोकपक्षी विचारक और संस्कृतिकर्मी था। 'जुक्ति, तोक्को आर गप्पो' में उसने मानो अपनी रूह के हर पुर्जे को खोलकर सामने रख दिया है। हर दृश्य, कहानी का हर हिस्सा गहरी समझ के साथ रखा गया है - बेरोज़गार इंजीनियर नचिकेता और बांग्लादेश से भाग कर आई बंगो-बाला, इन दो चरित्रों के जरिए बंगाल के बँटवारे की तक़लीफ और दोनों ओर समकालीन राजनीति में पिटते आम लोगों की बेबसी में खुद की तलाश करता फिल्मकार।

ऋत्विक की बनाई डॉक्यूमेंटरी फिल्म 'आमार लेनिन' (1970) पर कम चर्चा हुई है। लेनिन की शतवार्षिकी पर पश्चिम बंगाल सरकार के लिए बनाई इस फिल्म पर प्रतिबंध लग गया था। कुछ साल पहले इसे फिर से सामने लाया गया है। लोक-संस्कृति (ग्रामीण नाटक-शैली : जात्रा) के जरिए आम लोगों तक लेनिन, रूसी क्रांति और साम्यवाद के आदर्शों को लाती यह फिल्म आदर्श कलात्मक डॉक्यूमेंटरी है। बंगाल के कम्युनिस्ट नेताओं को यह बात रास नहीं आई होगी कि उनमें से किसी को न चुन कर एक सामान्य सर्वहारा को उसने 'आमार लेनिन' (मेरा लेनिन) कहा। कई लोग मानते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टी के लोगों ने सक्रिय रूप से उसकी फिल्मों का बहिष्कार किया, हालाँकि इसका कोई सबूत नहीं है।

ऋत्विक का बजट बेहद कम होता था। इस वजह से अद्वैत मल्लबर्मन के उपन्यास पर आधारित 'तितास एकटि नदीर नाम' (1973) जैसी महान फिल्म उचित जगह नहीं बना पाई। फिल्म को बनाते वक्त ऋत्विक को यक्ष्मा हो गया था और इस दौरान उसकी सेहत काफी बिगड़ गई थी। इस फिल्म का कथानक बांग्लादेश के ब्राह्मण-बाड़िया इलाक़े में तितास नदी के किनारे रह रहे मछुआरों पर आधारित है। फिल्म में ऋत्विक खुद एक मल्लाह की भूमिका में आते हैं। सतही तौर पर महज आम मछुआरों की ज़िंदगी की कहानी लगती यह फिल्म दरअसल परंपरा और हाशिए पर खड़े एक समुदाय के संघर्ष की अद्भुत कहानी है। तितास नदी महज नदी नहीं, फिल्म में एक किरदार सी लगती है। ऋत्विक के निर्देशन की खूबी यह थी कि इसमें उसकी अपनी व्यापक पढ़ाई और विश्व-पटल पर हो रहे कलात्मक प्रयोगों के ज्ञान का भरपूर इस्तेमाल था। 'तितास ...’ में भी ये बातें हैं, जो पारखी दर्शकों को दिख जाती हैं। यह हिंदुस्तान की पहली (और विश्व-पटल पर पहली कुछ में से एक) 'हाइपर-लिंक' फिल्म मानी जाती है, जिसमें कई चरित्रों और कथाओं को एक धागे में बगैर किसी बँधे क़ायदे के पिरोया गया है। निर्जीव को जीवंत किरदार की तरह पेश करने की खूबी ऋत्विक की फिल्मों में हर कहीं है, खास तौर पर 'अजांत्रिक' में एक गाड़ी को किरदार बनाने का अनोखा प्रयोग है।

इस साल ऋत्विक के जन्म की शतवार्षिकी है। हिंदुस्तानी सिनेमा में उसका योगदान सदियों तक याद रखा जाएगा। उसकी फिल्मों से प्रेरणा लेकर कई भाषाओं में फिल्में बनाई गई हैं, जिनमें हॉलीउड की भी कुछ फिल्में शामिल हैं। पूना के फिल्म इंस्टीटिउट में बिताए उसके दिनों के दौरान वहाँ मौजूद कलाकारों ने अक्सर उनके अपने काम पर उसके असर के बारे में कहा है। आज इस महान शख्सियत को हम कैसे याद करें, जो 'मेघे ढाका तारा' की नायिका की ज़ुबान से कह गया कि मैं जीना चाहता हूँ - दरअसल वह बंगाल या हिंदुस्तान की पीर सुना गया कि यह मुल्क़ जीना चाहता है। इस तड़प को बयां करता वह सजदा करता रह गया, चीखता रह गया।

Wednesday, March 12, 2025

'सपन एक देखली'

- ('अकार-69' में प्रकाशित)

सालों पहले कभी एक शास्त्रीय-संगीत गायक दोस्त से सोहर लोक-शैली की धुन में लिखा गोरख पांडे का गीत 'सुतल रहती सपन एक देखली' सुना था। कई बार इसे मैंने पढ़ा है, और 'सपन' शब्द की ताकत पर अभिभूत हुआ हूँ। एक शब्द में जीवविज्ञान, समाज-शास्त्र, इतिहास, राजनीति और साहित्य – सब कुछ है। विरला ही कोई कवि होगा जिसने सपना का इस्तेमाल न किया हो। लैंगस्टन ह्यूज़ की कालजयी कविता Harlem की पहली पंक्ति What happens to a dream deferred – दरकिनार किए गए ख़्वाब का हश्र क्या होता है - इतने अर्थ लिए हुए है कि इस पर हज़ारों लेख लिखे गए हैं। कुमार विकल की 'स्वप्न-घर', पाश की 'सबसे खतरनाक' जैसी अनगिनत कविताएँ हैं, जहाँ सपना केंद्र में है। फिल्मी दुनिया में तो ख़्वाब के बिना बहुत कम ही कुछ बचता है। मसलन 'ख़्वाब हो तुम या कोई हक़ीक़त' जैसे 'दार्शनिक' सवाल कई पीढ़ियाँ गुनगुनाती रही हैं।
साल 1619 में रेने देकार्त ने एक सपने में आधुनिक विज्ञान और दर्शन की बुनियाद सोची, जिसे बाद में उन्होंने 'ए डिस्कोर्स ऑन द मेथड' (1637) का रूप दिया। दिमित्री मेंदेलीव ने 1869 में एक सपने में, तत्वों की आवर्ती सूची को देखा। डी एच लॉरेंस ने 1912 के एक ख़त में लिखा, 'मैं यह तय नहीं कर पाता कि मेरे सपने मेरे विचारों का परिणाम हैं, या मेरे विचार मेरे सपनों से निकले हैं। अजीब बात है। लेकिन सपने मुझे नतीजों तक ले जाते हैं। ... लगता है कि नींद मेरे लिए मेरे अस्पष्ट दिनों के तार्किक नतीजे ले आती है, और उन्हें ख़्वाब बना कर पेश करती है।' भारतीय गणितज्ञ रामानुजन का कहना था कि उन्हें गणित की जटिल पहेलियों के हल सपनों में मिलते हैं।
माना जाता है कि कई धार्मिक और आध्यात्मिक यात्राएँ ख़्वाबों में देखी छवियों से उभरीं। रामायण-महाभारत तक में सपनों के फल का उल्लेख मिलता है। कहते हैं कि शनि चालीसा में लिखा है कि शनि अगर सपने में मोर पर चढ़े हुए दिखते हैं तो अच्छे दिन आने वाले हैं। बाइबिल में ख़्वाब आधारित कथाएँ हैं, और पैगंबर मुहमम्द ने ख़्वाब में अल्लाह से गुफ्तगू की थी। बोध-ज्ञान से एक रात पहले, बुद्ध ने अपने 'पाँच महान स्वप्न' देखे। पहले में, वे धरती पर सोए थे; हिमालय उनका तकिया था; और हाथ और पैर समुद्र में पड़े थे। इन छवियों से प्रेरित होकर, बुद्ध सुबह नहा-धो कर बोधि वृक्ष के नीचे तब तक बैठे रहे जब तक कि उन्हें बोधि न मिला। सपना एक पहेली सा रहा है। हम ख़्वाब देखते क्यों हैं, क्या सपने हमें कुछ बताते हैं, क्या यह महज जैविक बात है या इसका कोई आध्यात्मिक पहलू है, क्या ये अपने आप आते हैं या हम अनजाने में खुद ही तय करते हैं कि कैसे ख़्वाब देखेंगे - ऐसे कई सवालों पर दार्शनिकों और मनोवैज्ञानिकों ने बहुत कुछ लिखा है, और पिछले कुछ दशकों में जैसे-जैसे ज़ेहन के बारे में वैज्ञानिक समझ बढ़ी है, सपना पर बेहतर समझ होती चली है।
पिछली सदी में आलमी पैमाने पर तीन चिंतकों का गहरा असर बौद्धिक दुनिया पर पड़ा है - कार्ल मार्क्स, चार्ल्स डारविन और सिंगमुंड फ्रॉयड। मार्क्स का सपना सामाजिक-राजनैतिक प्रक्रियाओं में है, डार्विन जैविक विकास में सपने की समझ पेश करते हैं और फ्रॉयड यौनिकता से सपनों को जोड़ते हैं। फ्रॉयड ने सपनों की व्याख्या पर The Interpretation of Dreams किताब लिखी, जो आज भी खूब पढ़ी जाती है। उनके जीते रहते ही उनके काम पर सवाल उठने लगे और वैज्ञानिकों और दार्शनिकों ने इसे गैर-वैज्ञानिक करार कर दिया। पर साहित्य, कला, सिनेमा आदि में फ्रॉयड का असर कभी मिटा नहीं और पिछले दो दशकों में मनोविज्ञान में उनकी प्रतिष्ठा कुछ हद तक वापस दिखने लगी है। इसकी वजह ज़ेहन के बारे में मिली जानकारी में तेज़ी से आई बढ़त है। फ्रॉयड के लिए मनोवैज्ञानिक सच हमारे अचेतन में है और उनके जीते जी अचेतन पर ऐसे प्रयोग नहीं हुए, जो विज्ञान की कसौटी पर खरे उतरें। यहाँ अचेतन से मतलब बेहोशी नहीं है। जागे हुए हाल में हमारी सोच और हरकतें चेतना है। अवचेतन जागती दशा में उन क्रिया-प्रतिक्रियाओं में होता है, जिनका एहसास हमें तब होता है जब हम इसके बारे में सोचते हैं। अचेतन हमारी यादों की गहरी परतें है, जो हमारे ज़ेहन में दर्ज़ हैं, पर हम सचेत रूप से उन्हें पकड़ नहीं पाते। अपनी किताब में फ्रॉयड ने लिखा, “अपने गहनतम रूप में यह हमारे लिए उतना ही अनजाना है जितनी बाहरी दुनिया की हक़ीक़त है, और यह चेतना पर दर्ज़ आंकड़ों में उतना ही अधूरा दिखता है जितना कि बाहरी दुनिया को हम एहसासों से समझते हैं।” हम अचेतन की हरकतें देख नहीं सकते। समाज में नामंज़ूर निजी हसरतों की सूची बनाकर मनोवैज्ञानिक हक़ीक़त पूरी तरह जानी नहीं जा सकती। फ्रायड अपने प्रयोगों की कमियों को समझता था। उसके मुताबिक अक्सर सबसे अच्छी तरह से बयान किए गए सपने में भी कुछ अस्पष्ट छूट जाता है। फ्रायड के शागिर्द कार्ल युंग ने सपनों में 'सामूहिक अचेतन' को ढूँढने की कोशिश की। युंग ने 'सपने के ज्ञान' के बारे में ज़्यादा साफ समझ लोकप्रिय बनाने की कोशिश की। एक तरह से, युंग एक बड़ा स्वप्नद्रष्टा था। क्योंकि, अपने पहले और बाद के कई ख़्वाब देखने वालों की तरह, वह एक ख़्वाब के ज़रिए बड़े विचार तक पहुंचा।
निजी दायरों और सामाजिक हक़ीक़तों के बीच ठोस लकीर खींचना नामुमकिन है। अल्जीरियन इंकलाब के मशहूर सिद्धांतकार और ज़ेहनी बीमारियों के इलाज़ में माहिर फ्रांत्ज़ फानोन ने भी सपनों पर खूब लिखा है। अचेतन को रुपकों से अलग कर फानोन उस सामाजिक-राजनैतिक झूठ को समझाता है, जो चेतन-हाल में हम पर हावी होते हैं, जब हम जगे होते हैं। रात में सोते हुए देखे सपनों में वह यौन-पहेलियाँ नहीं ढूँढता। उसने लिखा है, ‘कोई मज़लूम सपने में बंदूक देखता है, तो वह शिश्न नहीं, सचमुच की बंदूक देख रहा होता है।' वह सपना और हक़ीक़त को उलट कर देखता है। उपनिवेश में पराधीन जीना एक बुरा सपना है, नींद का सपना असल ज़िंदगी को पेश करता है। बर्तानवी उपनिवेशों में सफर करने वाले मानव-शास्त्री चार्ल्स गैब्रिएल सेलिगमान को भी आम लोगों के सपनों पर अपने अध्ययन से फ्रायड द्वारा प्रस्तावित ईडिपस कॉंप्लेक्स (बेटे/बेटी के अचेतन में माँ/बाप के साथ अंतरंग होने की हसरत) पर शक होने लगा। जिन लोगों का उसने साक्षात्कार लिया, उन्होंने सपने में ज़ालिम मर्द देखे थे, लेकिन वे ग्रीक कथाओं वाले ईडिपस के पिता नहीं थे; वे ब्रिटिश सिपाही थे।
सपने हमें बौद्धिक संघर्ष, नैतिक दुविधा, सौंदर्य-बोध और वजूद पर सवाल-जवाब के साथ-साथ एक बड़ी दुनिया में ले जाते हैं, जो अजीब है, पर है। निजी ख़्वाबों में रोमांटिक राजनीतिक दृष्टि की सुंदर मिसाल फ़ैज़ की 'हम देखेंगे - लाज़िम है कि हम देखेंगे' है। जो देखेंगे, वह 'तसव्वुर' में है, ख़्वाब में हैं। ख़्वाब मन के आज़ाद खेल हैं, जो ज़ुल्म से टक्कर लेते हुए स्वायत्त रूप से काम कर सकते हैं।
निजी स्तर पर सबसे शानदार सपने न तो पलायनवादी कल्पनाएं प्रदान करते हैं और न ही बाहरी दुनिया से बचने का सुरक्षित कोना दिखाते हैं। तो नई संभावनाएं लाने में सपनों का भला क्या काम हो सकता है? सामाजिक दुनिया निजी सपनों के लिए कच्चा माल लेकर आती है और सपने हमें समाज के बारे में सोचने में मदद कर सकते हैं। ख़्वाब हक़ीक़त से भागना नहीं हैं, बल्कि यह सोचने का एक और तरीका है कि सामाजिक और राजनीतिक जीवन में 'हक़ीक़त' का वास्तव में क्या मतलब है। सपने देखने वालों की ज़रूरत हमेशा ही रहेगी, भले ही दुनिया उन्हें शर्मिंदा कर रही हो।

निजी सपने पर पकड़
हर कहीं इंसान ने सपने में जो देखा, उसे कुछ हद तक पकड़े रखनेे में सफलता पाई है। इसके लिए कई तरह की रीतियाँ भी हैं। तिब्बती बौद्ध धर्म में, सपनों में योग करने की मिलम नाम की तांत्रिक तकनीकें हैं, जिससे हम जगे होने पर जो कुछ देखते हैं, उसकी भ्रामक प्रकृति को समझ पाएँ। यह मानव मन की सबसे रहस्यमय क्षमताओं में से एक है: यह जानना कि हम सोते समय भी सपना देख रहे हैं, एक ऐसी दशा जिसे lucid draming या उजागर हुए ख़्वाब कहा जाता है।
सपना कैसा हो, तय करना आसान नहीं है। पिछले पचास सालों में ही प्रत्यक्ष रूप से इस पर जानकारी ले पाना मुमकिन हुआ है। नींद के दौरान ज़ेहनी हरकतों को समझने पर लगतार प्रयोग होते रहे हैं। नींद की तक़रीबन एक-चौथाई अवधि में ज़ेहन में वैसी ही हरकतें होती हैं, जो जागे हुए हाल में होती हैं। इसे Rapid eye movement (REM) यानी आँखों में तेज़ हलचल की नींद कहा जाता है। इस दौरान सपने ज़्यादा तादाद में दिखाई पड़ते हैं। सोने के तुरंत बाद यह कम अवधि, 5-10 मिनटों, के लिए होता है। आखिरी दौर में यानी जागने के ठीक पहले नींद पूरी तरह REM की होती है। नींद के दौरान आंखों की मांसपेशियां जिस्म के बाकी हिस्सों जैसी निष्क्रिय नहीं होती हैं। अब माना जाता है कि उजागर ख़्वाब देखने वालों का बाहरी दुनिया के साथ संवाद कर पाना मुमकिन है। शोधकर्ताओं के बताए अभ्यास के साथ कई लोग सपनों पर अच्छी पकड़ ले पाते हैं और इन्हें लिख कर दर्ज़ करते हैं। यह जानने पर कि हम सपना देख रहे हैं, शांत रहना ज़रूरी है, क्योंकि ज़्यादा सोचने पर समय से पहले नींद टूट सकती है। और यदि सपना फीका पड़ने लगे या अस्थिर लगने लगे, तो आप सपने के भीतर से ही अपने हाथों को जोर-जोर से रगड़ने की कोशिश कर सकते हैं। इससे सोते हुए भौतिक शरीर के बारे में जागरूक होने, और जागने की, संभावना कम हो जाती है। ऐसे अभ्यास के कई मनोवैज्ञानिक लाभ हैं। यह बुरे सपने से निपटने में मदद कर सकता है: बस यह जानना कि आप सपना देख रहे हैं, अक्सर किसी बुरे सपने के दौरान राहत देता है। जो आपको परेशान कर रहा है उसका सामना करना, हालात से निकल बचना, या बस जाग जाना जैसी कई बातें हम तय कर सकते हैं। अभ्यास के साथ सपनों की दुनिया उतनी ही जीवंत महसूस हो सकती है जितनी जागने के बाद की दुनिया है - और हम हैरान रह जाते हैं कि तसव्वुर और हक़ीक़त के बीच की सरहद कहाँ है।

जैविक विकास और सपना
एक ओर यह विचार है कि ख़्वाब देखना दिन में चल रहे खयालों से निकली फिज़ूल बात है जो नींद में जारी रहती है। दूसरी ओर, कई वैज्ञानिकों ने सपनों के विभिन्न पहलुओं पर काम किया है, और ज्यादातर यह मानते हैं कि नींद के दौरान होने वाली तंत्रिका-प्रक्रियाओं (neural activity) के ज़रिए सपने आते हैं, भले ही बाद में याद रहें या नहीं। ज़ेहन की एक खासियत है कि सपने में निष्क्रिय होते हुए भी यह न सिर्फ बाहरी दुनिया के बारे में जानकारी प्राप्त करता है, बल्कि सक्रिय रूप से उस जानकारी की व्याख्या करता है और उसमें पैटर्न की तलाश करता है। यदि सब कुछ random या यादृच्छिक होता, तो कोई पैटर्न नहीं होता। अपने तजुरबे से पैटर्न को समझकर हम ख़्वाब का मायना ढूँढते हैं। क्या इस में नियमितता या क्रम हैं? क्या कुछ घटनाएँ आम तौर पर दूसरों के साथ घटित होती हैं? यदि घटनाओं में पैटर्न हैं, तो यह क़यास लगाने में मदद मिलती है कि आगे क्या होगा। ऐसी मिसालें हैं कि सपने में मिले सुझावों का हम अनुकरण करते हैं, खतरों पर काबू पाने का अभ्यास करते हैं, और सपने यादों को पुख्ता करने या जज़्बात को नियंत्रित रखने में भूमिका निभाते हैं, या वे कल्पना-शक्ति बढ़ाते हैं जो हमें जागने के बाद जीवन में डरावनी यादों से निपटने में मदद करती है। हालाँकि, इन सिद्धांतों से मेल खाते जो नतीजे प्रयोगों से निकले हैं, वे एक दूसरे से गड्ड-मड्ड हैं - यह अनुमान लगाना असंभव है कि सपने निश्चित रूप से स्मृति या जज़्बात पर कोई असर डाल रहे हैं। ऐसे दावों के लिए शोधकर्ताओं को तब तक इंतज़ार करना होगा जब तक कि वे प्रयोगों में तयशुदा तरीकों से सपनों को बदल न सकें, यानी जब तक लक्ष्य तय कर बाहरी उत्तेजना (stimulation) की मदद से तयशुदा ख़्वाब न ला सकें।
कुछ पैटर्न तयशुदा और तार्किक हैं। उदाहरण के लिए, दिन और रात दिमाग़ में इस क्रम में जुड़े हुए हैं, कि रात के बाद दिन आएगा। एक और मिसाल : दफ्तरों के खुलने-बंद होने के समय यातायात सबसे खराब होता है, और भारी यातायात आवागमन से जुड़ा होता है। यह कुदरती नहीं है, लेकिन काम के दिनों में हम सुबह 8-10 बजे के आसपास भारी ट्रैफिक का अनुमान लगा सकते हैं। हमारे दृश्य-तंत्र में पैटर्न पहचानने की लगभग अनंत क्षमता है। लेकिन अगर आर-ई-एम नींद में हमारा दिमाग़ संभाव्य पैटर्न का पता लगाने में बेहतर है, तो हमारा जागृत मस्तिष्क तार्किक सोच के साथ तयशुदा पैटर्न की पहचान क्यों करता है? और आर-ई-एम स्वप्न-छवियां - जो इन संभाव्य पैटर्न की तस्वीर बनाती हैं - बेहोश क्यों रहती हैं? हो सकता है कि इन सवालों के जवाब जैविक विकास (evolution) में हो : यानी हम (प्रजाति) जीवित रहने के लिए ख़्वाब देखने लगे थे। जीव-विज्ञानी थियोडोसियस डोबज़ांस्की का कथन है : 'विकास की रोशनी बगैर जीव-विज्ञान में कुछ भी समझा नहीं जा सकता'।
विकास के नज़रिए से देखों तो REM नींद प्राचीन ज़ेहनी तंत्र (नेटवर्क) से उभरी है। इंसान सहित सभी स्तनधारियों को आँखों की अपनी खास तेज़ हलचल के साथ REM नींद आती है। जानवरों में जटिल खयालों को कहने-समझने के लिए भाषा कौशल की कमी होती है, लेकिन यह संभव है कि वे छवियों के माध्यम से सोचते हैं। संभवतः शुरूआत में इंसान ने भी छवियों के जरिए सोचा होगा। इस छवि-आधारित विचार को आर-ई-एम नींद के विकास से पनपे प्राचीन तंत्र (नेटवर्क) में बेहतर सँजोया जा सकता है। आर-ई-एम नींद उलझे सपनों में पैटर्न की पहचान करती है और उन्हें अचेतन छवियों में बनाए रखती है, इसकी वजह प्रारंभिक मनुष्यों के लिए जीवन के साथ जुड़ी हो सकती है।
शुरूआती इंसान के लिए महज ज़िंदा रहना ही संघर्ष रहा होगा। ब्रिटिश सामाजिक-मनोवैज्ञानिक ग्राहम वालेस अपनी किताब 'द आर्ट ऑफ थॉट' में मिसाल पेश करते हैं कि तमाम वो चीज़ें जो 'भोजन' हैं, या विभिन्न प्रजातियों के जानवर जो सभी शिकारी हैं, इनमें एक जैसे गुणों या पैटर्न को पहचानना सहज नहीं है, यह पहचान विकास (ज़िंदा रहना) से उभरी ज़रूरत है। उन्होंने पैटर्न-पहचान के इस प्राचीन रूप को 'अलगाव में एकरूपता' देखने की क़ाबिलियत कहा। आर-ई-एम के दौरान हम कम स्पष्ट, या सहजता से न दिखने वाली एक-सी बातों की बेहतर पहचान कर पाते हैं जो आगे हो सकने वाली घटनाओं का अंदाज़ा देते हैं। अचेतन में पहले से सोची गई मानसिक छवियां भावी खतरे के प्रति हमें भरपूर तैयार करती हैं।
साल 1999 में हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के मनोचिकित्सक रॉबर्ट स्टिकगोल्ड और उनके सहयोगियों ने दिखाया कि हम कुछ समय जगे रहने के बाद खयालों के बीच संबंधों पर जितना सोच सकते हैं, उससे कहीं ज़्यादा दूर तक आर-ई-एम नींद से जागने पर खयालों के बीच सोच लेते हैं। मसलन हम 'गर्म' शब्द के साथ आम तौर पर 'ठंडा' शब्द सोचते हैं, पर आर-ई-एम नींद के बाद कई लोग 'सूरज' कहते पाए गए। साल 2009 में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिक डेनिस काई और उनके सहयोगियों ने ऐसे परीक्षण किए जिनमें बेतरतीब के शब्द इस्तेमाल किए गए। 'गिरना', 'अभिनेता' और 'धूल' जैसे शब्दों को लें। देर तक REM नींद सोने वाले इन सभी को एक धागे में जोड़ने वाले शब्द को बेहतर समझने में क़ाबिल हैं: 'स्टार' (अंग्रेज़ी में falling star, film star और star dust पर गौर करें)। ऐसे ही निष्कर्ष 2015 में, हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के नींद के शोधकर्ता मरे बार्स्की और उनके सहयोगियों के थे। यानी हम आर-ई-एम नींद के बाद शब्दों में झट से न दिखते संबंध ढूँढ पाने में ज़्यादा क़ाबिल होते हैं, क्योंकि हमारे दिमाग़ उस नींद के दौरान – ख़्वाबों के ज़रिए - अनुभव और घटनाओं के गैर-स्पष्ट, संभाव्य पैटर्न को पहचानने के लिए तैयार होते हैं।
आर-ई-एम नींद के दौरान दिमाग़ जागने के बनिस्बत अलग तरह से काम करता है। खास जिस्मानी हरकतों के दौरान ज़ेहन के अलग-अलग खास हिस्से सक्रिय होते हैं। एक मुख्य अंतर सिर के दोनों तरफ माथे के पीछे लेटरल प्री-फ्रंटल कॉर्टेक्स में पाया जाता है। ये हिस्से तार्किक सोच, योजना बनाने और सवालों के बेहतर हल पर ध्यान केंद्रित करने के लिए जिम्मेदार हैं। साथ ही प्री-फ्रंटल कॉर्टेक्स दिमाग को भटकने से रोकता है। लेकिन, दूर के संबंधों के आधार पर कठिन सवालों के हल के लिए, मन का भटकना या 'आउट ऑफ बॉक्स सोचना' सहज न दिखते कनेक्शन बनाने के लिए ज़रूरी हो सकता है।
परिचित लोग, स्थान और घटनाएँ, हमारे सपनों में दिखाई देती हैं, लेकिन पार्श्व प्री-फ्रंटल कॉर्टेक्स के निष्क्रिय होने के कारण, हम शायद ही कभी उन्हें वैसा अनुभव कर पाते हैं जैसा कि वे सचमुच हैं। इसके बजाय, परिचित को अपरिचित और अक्सर विचित्र बनाने के लिए लोगों, स्थानों और अनुभवों को फिर से संजोया जाता है। जो परिचित है, वह विचित्र हो जाता है, क्योंकि REM नींद के ख़्वाब में हम यादों को सीधा वैसे नहीं जीते, जैसे कि वे सचमुच में हुई थीं। सपन की छवि विचित्र होती है क्योंकि यह विभिन्न लोगों, स्थानों या घटनाओं से जुड़े तत्वों को मिलाकर बनाए गए पैटर्न को चित्रित करती है। आर-ई-एम नींद में हमारा दिमाग लोगों के बीच दूरस्थ संबंधों, या सहज न लगते पैटर्न की पहचान करने के लिए तैयार होता है। यानी जागने पर सपने अजीब लगते हैं क्योंकि वे एक पैटर्न की पहचान करने के लिए विभिन्न तजुरबों के तत्वों को जोड़ते हैं। इसके अलावा, ऐसी ग़ज़ब की छवियां याददाश्त में मदद करती हैं, क्योंकि हम सामान्य घटनाओं की तुलना में अजीब घटनाओं को अधिक आसानी से याद करते हैं। सपने अचेतन स्तर पर दर्ज़ हो सकते हैं। ज़ेहन की 98 प्रतिशत हरकत अचेतन होती है, और दर्ज़ हुए सपने इसका एक पहलू हो सकते हैं। जागने पर हमारा रवैया भूल गए सपनों में बने और पेश आए अचेतन संबंधों द्वारा तय हो सकता है।
आदिम मानव के अनुभवों ने दोहरी ज़ेहनी दशाओं को जन्म दिया होगा - जाग्रत और REM स्वप्न अवस्था। जागते समय हमारा चेतन विचार अधिक तार्किक और लकीर पर होता है। हम तय पैटर्न को पहचान सकते हैं और भरोसे के साथ यह समझने के लिए उनका इस्तेमाल कर सकते हैं कि आगे क्या होगा। जैविक विकास में सपने की अहमियत हमारे ज़िंदा रहने से है। हालाँकि आदिम मानव के सामने जैसे खतरे थे, वैसे आज नहीं हैं, और ज़िंदा रहने के लिए सपने देखने की ज़रूरत अब नहीं है। फिर भी सपनों की वही अहमियत है, क्योंकि जीवन में हर बात पहले से तय नहीं होती और अचानक आई चुनौती से जूझने के लिए ज़ेहन में 'छिपे' कोड से हमें मदद मिलती है। खतरा न हो तो भी खुद को अपने सपनों के माध्यम से समझ कर हम गहरी सोच के क़ाबिल बन पाते हैं।
जिन लोगों में दूसरों के लिए अधिक सहानुभूति होती है वे सपने ज़्यादा साझा करते हैं। पाया गया है कि जो दंपति आपस में सपने साझा करते हैं, उनमें अंतरंगता अधिक होती है। रोज़ाना ज़िंदगी की घटनाओं के साझा करने के बनिस्बत ख़्वाब साझा करना अंतरंग होने पर ज़्यादा असर डालता है। यानी ख़्वाब देखने का मक़सद जगे रहने के हाल में ही पूरा होता है। कई अध्येता इसे खुद को परिवार में बाँधने से जोड़ते हैं, ठीक वैसे ही जैसे हमने पालतू जानवरों को अपने साथ बाँधा है। सामाजिक जीवन में ख़्वाब हमारे लिए फायदेमंद होते हैं, क्योंकि उनमें साथ जीने के लिए ज़रूरी जज़्बात गहन रूप से शामिल होते हैं।

सपनों की न्यूरो-केमिस्ट्री
ज़ेहन के तंत्र में हरकतों के पीछे जिन रसायनों की भूमिका होती है, उनमें न्यूरो-ट्रांसमिटर अहम हैं। इनके प्रवाह से ही हमारे एहसास और ज़ेहन में आते खयाल और उनसे तैयार हुई जिस्मानी हरकतें होती हैं। आर-ई-एम के दौरान न्यूरोट्रांसमीटर डोपामिन (मक़सद पाने की खुशी और हलचल से जुड़ा) और एसिटाइल-कोलाइन (स्मृति से जुड़ा) की मात्रा बढ़ जाती है। साथ ही जज़्बात को हद में सँभाले रखने वाले हिस्सों - लिम्बिक सिस्टम, एमिग्डाला और वेंट्रो-मीडियल प्री-फ्रंटल कॉर्टेक्स, में हरकतें बढ़ जाती हैं। इसके उलट निजी अंतर्दृष्टि, तर्कशीलता और सही निर्णय लेने वाले हिस्से, डॉर्सो-लेटरल प्री-फ्रंटल कॉर्टेक्स, में हरकत कम हो जाती है; इसी तरह सावधानी और आत्म-नियंत्रण से जुड़े नॉर-एड्रीनलिन और सेरोटोनिन की मात्रा कम हो जाती है। सेरोटोनिन की कम मात्रा की वजह से ग्लूटामेट लगातार पैदा होता रहता है, जो ज़ेहनी हरकतों को ज़्यादा सरगर्म कर देता है, जैसा कि नशीले पदार्थ यानी हैलुसीनोजेन के सेवन से संज्ञान और एहसास पर असर पड़ता है। यानी आर-ई-एम नींद में, जज़्बात वाले केंद्र ज़्यादा सक्रिय होते हैं, जबकि हमारे चिंतनशील तर्कसंगत केंद्र बाधित होते हैं। अपने तजुरबों में आए जज़्बात और क्रियाओं के अंतहीन मायनों पर सोचने की हमें खुली छूट मिल जाती है, लेकिन चिंतनशील अंतर्दृष्टि में बेहद उतार-चढ़ाव चलता रहता है।
छवियों पर संजीदगी से सोचने की क़ाबिलियत से ज़ेहन को परे कर, सपनों की न्यूरो-केमिस्ट्री गहन जज़्बात के हालात पैदा करती है। जितना ज़्यादा नशीला ख़्वाब हो, उतना ही मुश्किल उसे समझ पाना होता है। अक्सर समझ न पाने से हम इसे ज़्यादा अहमियत भी देने लगते हैं। शायद इसी वजह से अक्सर मानसिक बीमारी वाले लोगों में धार्मिक विश्वास ज़्यादा पाए जाते हैं। पुराने ज़मानों में इंसान ने ख़्वाबों को अलौकिक से जोड़ कर देखा होगा। ख़्वाबों की ऐसी व्याख्या जिसमें से बेइंतहा कर्मकांडी रीतियाँ निकलीं, ये सब पूर्वजों के लिए अहमियत रखते थे।

फ्रायड की वापसी
एक अरसे से खारिज फ्रायड का सिद्धांत फिर से वापस सोचा जा रहा है कि सेक्स और हमारे ख़्वाबों में गहरा रिश्ता है। फ्रायड सपनों के ज़रिए खुद पर निष्पक्ष नज़र डालता था। यदि उसे सपनों में यौन आवेगों का उफान दिखा, तो ऐसा ही था। आवेगों को मन की एक बड़ी तस्वीर में समेटना, समझा और समझाया जाना था। फ्रायड की नज़र में ख़्वाब सेक्स की हसरत पूरी करते हैं। उसका सिद्धांत खयालों के खास मेल पर आधारित था, जिसकी अंतहीन व्याख्या हो सकती थी। इसकी ढेर आलोचना हुई। फ्रायड के सिद्धांतों को इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिया गया - वे विज्ञान नाम के लायक भी नहीं रहे। यह 1953 के बाद पूरी तरह से शुरू हो गया, जब शिकागो विश्वविद्यालय के फिजियोलॉजिस्ट नथानिएल क्लिटमैन और उनके छात्र यूजीन एसेरिंस्की ने उजागर सपनों की पकड़ के रूप में आर-ई-एम की खोज की। इस घटना की साफ जिस्मानी समझ फ्रायड के यौन सिद्धांत को उलट देती है।
दरअसल आर-ई-एम सपन-पहेली का एक अहम हिस्सा है - और यह आसानी से फ्रायड के सिद्धांतों के साथ रह सकता है। कुल मिलाकर सपनों का एक गहरा अचेतन अर्थ और मक़सद है, जो जैविक विकास में निहित है - किसी न किसी तरह, सपनों ने हमें बचे रहने में मदद की। कई अध्ययनों में यह देखा गया है कि सपने और उनके अचेतन यौन-अर्थ एक संपूर्ण कहानी का हिस्सा हैं। आर-ई-एम शुरू होने पर मर्दों को अक्सर शिश्न के खड़े होने (इरेक्शन) और औरतों को भगशेफ (क्लिटरिस) के फूलने का अनुभव होता है। हाल में चुंबकीय अनुनाद इमेजिंग (FMRI) अध्ययनों से पता चलता है कि आर-ई-एम नींद के दौरान ज़ेहन के मक़सद पा लेने से खुशी वाले हिस्से, और सर्किट (तंत्र), बहुत सक्रिय होते हैं। पुरुष और महिलाएं बिल्कुल अलग-अलग तरह के सपने देख सकते हैं, जिसमें सेक्स एक आम बात है। मर्द किसी न किसी तरह के साहसिक चाल में या दीगर मर्दों के साथ मार-काट या नाटकीय संघर्ष में लगे रहते हैं, जबकि औरतें आमतौर पर अपने दोस्तों या अन्य परिचित लोगों के साथ जोश के साथ बातें करती हैं। मुमकिन है कि करोड़ों साल पहले स्वस्थ औरत के साथ संबंध बनाने के लिए मर्द को दीगर मर्दों के साथ लड़ना पड़ता हो। इसी तरह औरत को प्रजनन में क़ामयाबी के लिए दूसरी औरतों के सामने खुद को बेहतर साबित करना पड़ता हो। इस तरह जैविक विकास के साथ यह हमारे ख़्वाब का अभिन्न हिस्सा हो गई हैं।
ऐसे प्रमाण हैं कि आर-ई-एम नींद और सपनों के दौरान सेक्स-हार्मोन में उफान आता है। नींद आते ही तेजी से प्रोलैक्टिन की मात्रा में बढ़त होती है, जो माँ को दूध पैदा करने में सक्षम बनाता है और अंडकोष को उत्तेजित करता है, और सुबह 3 से 5 बजे के बीच यह चरम पर होता है, जब आर-ई-एम प्रबल होता है। नींद की कमी से प्रोलैक्टिन अवरुद्ध हो सकता है। इसी तरह, ऑक्सीटोसिन, जो सेक्स के दौरान बंधन से जुड़ा होता है, और टेस्टोस्टेरोन, जो सेक्स-ड्राइव से जुड़ा होता है, दोनों सुबह लगभग 4 बजे चरम पर होते हैं। यह सब एफ-एम-आर-आई स्कैन के साथ मेल रखता है जो आर-ई-एम नींद के दौरान ज़ेहन के बीच वाले हिस्से की चरम सक्रियता को दर्शाता है - खास तौर पर जो आनंद, नशीली दवाओं की लत और सेक्स में शामिल सर्किट वाला हिस्सा है।
अगर ख़्वाब और सेक्स में गहरा रिश्ता है तो आर-ई-एम का सबसे लंबा दौर आखिरी पहर में क्यों होता है, जब जिस्म की रगें बेजान सी होती हैं और जिस्म में ताप-नियंत्रण की क्षमता कम होती है? इसी दौर में दिल पर भी झटके आते हैं। अक्सर लोगों को दिल के दौरे भोर से पहले या रात के आखिरी पहर में आते हैं। आखिर जैविक विकास ने हमारे साथ ऐसा क्यों किया? ज़ाहिर है कि आर-ई-एम नींद की कोई खास अहमियत होगी। डारविन ने इस ओर संकेत किया था। उसने संभोग के लिए साथी के चयन और प्रजनन को विकास के साथ जोड़ा था। जैसे शिकारियों के हाथ दबोचे जाने के डर के बावजूद मोर जैसे पंछी पंख फैलाकर अपना यौन-साथी ढूँढते हैं, इसी तरह इंसान को ख़्वाब में वह तैयारी होती है जिससे वह जागने के बाद बेहतर साथी चुन सके और प्रजनन के ज़रिए प्रजाति को अगली पीढ़ियों तक बढ़ा सके, जो अनुकूल परिवेश में ज़िंदा और सुरक्षित रह सकें। आर-ई-एम नींद के दौरान पक्षाघात एक विकासवादी सुरक्षा है, जो हमें ख़्वाबों को पूरा करने और अपने साथी को नुकसान पहुंचाने से रोकने के लिए है। अगर यह नहीं होता तो हम दूसरों से लड़ते-भिड़ते रहते। फ्रायड पहला शख्स था जिसने मानस को दीर्घकालिक यौन-छलों द्वारा प्रेरित नर-नारी संघर्ष और सहयोग के क्षेत्र के रूप में देखा। यह शाश्वत नृत्य ज़ेहन के मांस-मज्जे में लिखा जाता है और रात को अशांत सपन-क्षेत्र में दोहराया जाता है। तो सपने क्या हैं? ये महज यौन इच्छाएँ नहीं, बल्कि प्रतिस्पर्धियों के लिए लड़ाकू हरकत भी हैं। ख़्वाब में हम महज नाचते नहीं : हम खुले साँड़ बन जाते हैं।
सपनों की विविधता से पता चलता है कि जैविक सेहत के लिए ख़्वाब देखना उतना ही अहम है जितना कि जागना है, और मुमकिन है कि इसमें कई ज़रूरी तंत्र और क्रियाएँ भागीदार हों। मसलन नींद में डरावने खतरों वाले सपने देखने से हमें दिन में उन खतरों से बचने में मदद मिलती है, और पहले से सामना किए गए सपने के किरदार या परिवेश बार-बार देखने से सपने देखने की संज्ञानात्मक तासीर के संयोजन या बदलने का काम चलता रहता है।
हम हर वक्त सपने देखते हैं। हालाँकि सपने सितारों की तरह होते हैं जो केवल रात में ही उभरते हैं, वाक़ई तारे हमेशा मौजूद रहते हैं, भले ही दिन का उजाला न हो। इसी तरह, सपने चेतना में हमेशा एक बहाव की तरह मौजूद रहते हैं, भले ही जागने से अस्पष्ट हो जाते हैं। युंग ने इस अंतर्धारा को जाग्रत स्वप्न कहा है। सच्चाइयों से दूर ले जाने वाले दिवास्वप्नों से उलट, जाग्रत स्वप्न उन अनुभवों और अंतर्धाराओं में हमें अधिक गहराई से बुलाता है। जाग्रत स्वप्न कला, खेल, कल्पना, अंतरंगता, आध्यात्मिक प्रथाओं और नींद की सीमाओं से जुड़ी चेतना की एक कुदरती दशा है।
जानवर भी सोते हुए वास्तविक दुनिया को छोड़कर खुद को कल्पना-लोक को सौंप देते हैं। यह शोध का मौजू है और बहुत सारी जानकारी इकट्ठी हुई है, जिससे जानवरों को समझते हुए हम अपने ज़ेहन और ख़्वाब के बारे में भी जान पाए हैं।

आखिर में - सपन और भक्ति
ज़ेहन और चेतना का सवाल आज के वक्त का सबसे बुनियादी सवाल है। इस पर कई विधाओं का मिला-जुला शोध चल रहा है और जानकारी तेज़ी से बढ़ रही है। एक रोचक बात यह कि ऐसा दावा किया गया है कि सूफी चिंतन, ख़्वाब और फ्रायड में गहरा रिश्ता है। एक मायने में हर सूफी गुरु, फ्रायडियन मनोचिकित्सक है। इस्लामी विचारकों ने सपनों की व्याख्या की साझा परंपराओं के साथ-साथ धार्मिक ज्ञान के अव्यक्त और ज़ाहिर मायनों के बीच रिश्ते के ज़रिए ग्रंथों और सपनों को समझने की साझा तकनीक की ओर इशारा किया है। 1950 के दशक में मिस्र के सूफी संप्रदाय के शेख और बाद में काहिरा विश्वविद्यालय में इस्लामी दर्शन के प्रोफेसर अल-तफ्ताज़ानी, ने सूफीवाद और मनोवैज्ञानिक परंपरा की तुलना की है। उसने कहा कि दोनों में खुद की परख अहम है; दोनों मानस या रूह (नफ्स) की ज़ाहिरा बातों के साथ नहीं, बल्कि इसकी छिपी बातों के साथ जुड़े हुए थे, एक कूप जो अक्सर यौन इच्छाओं द्वारा चिह्नित होता है। अहम बात यह है कि दोनों में 'बातिन' या गूढ़ मायने के दायरे के साथ-साथ चेतन (अल-ला-शुऊर) की गहराई में पहुँचने की कोशिश है। सूफी शेख को अपने दरवेश से अचेतन विचारों और ख़्वाहिशों का पता लगाना होता है। ज़ाहिर है कि सूफीवाद और फ्रायडवाद में क़रीब का रिश्ता है। बेशक ऐसे ही संबंध भक्ति-आंदोलन में भी मिल सकते हैं।

Tuesday, November 05, 2024

फताड़ू के नबारुण


- 'अकार' के ताज़ा अंक में प्रकाशित

'अक्सर आलोचक उसमें अनुशासन की कमी की बात करते हैं। अरे सालो, वो फिल्म का ग्रामर बना रहा है। यह ग्रामर सीखो। ... घिनौनी तबाह हो चुकी किसी चीज़ को खूबसूरत नहीं बनाया जा सकता। ... इंसान के प्रति विश्वसनीय होना, ग़रीब के प्रति ईमानदार होना, यह कला की शर्त है। पैसे-वालों के साथ खुशमिज़ाजी से कला नहीं बनती। पोलिटिकली करेक्ट होना दलाली है। I stand with the left wing art, no further left than the heart – वामपंथी आर्ट के साथ हूँ, पर अपने हार्ट (दिल) से ज़्यादा वामी नहीं हूँ। इस सोच को क़ुबूल करना, क़ुबूल करते-करते एक दिन मर जाना - यही कला है। पोलिटिकली करेक्ट और कल्चरली करेक्ट बांगाली बर्बाद हों, उनकी आधुनिकता बर्बाद हो। हमारे पास खोने को कुछ नहीं है, सिवाय अपनी बेड़ियों और पोलिटिकली करेक्ट होने के।' यू-ट्यूब पर ऋत्विक घटक पर नबारुण भट्टाचार्य के व्याख्यान के कई वीडियो में से एक देखते हुए एकबारगी एक किशोर सा कह उठता हूँ - नबारुण! नबारुण!1 व्याख्यान के अंत में ऋत्विक के साथ अपनी बहस याद करते हुए वह रो पड़ता है और अंजाने ही मैं साथ रोने लगता हूँ। मैं उससे कभी नहीं मिला। उसकी मौत (2014) के एक-दो साल पहले सोचता रहा कि मिलना है और मुमकिन हो तो एक उपन्यास अनुवाद करना है, पर नहीं हो पाया। अपने ही जैसे अराजक (एनार्किस्ट) फिल्म निर्देशक ऋत्विक घटक पर बात रखते हुए नबारुण क्या अपने ही बारे में कुछ कह रहा था? एक रचनाकार किस हद तक गुस्सा हो सकता है? हिन्दी कविता में रेटरिक के दौर में धूमिल से आलोक धन्वा तक की कविताओं में आक्रोश दिखता है, पर समाज और राजनीति पर वह कविता शालीनता के संस्कारों में बँधी रहकर चाबुक चलाती है। जैसा गुस्सा अमेरिका के काले रचनाकारों ने और मराठी में दलित रचनाकारों ने साहित्य के हर मानदंड को तोड़ते हुए दिखाया है, उसका शिखर बांग्ला के नबारुण में है। फ़र्क बस इतना है कि अपना गुस्सा ज़ाहिर करते हुए हम अक्सर किसी और के प्रति संवेदना खो बैठते हैं, नबारुण में भी यह कमज़ोरी है, पर औरों के बनिस्बत बहुत कम। इमामु अमीरी बराका 'Black Dada Nihilismus' में लिख देते हैं - “Rape the white girls. Rape / their fathers. Cut the mothers' throats.” काली2 स्त्री रचनाकारों को इसके खिलाफ कहना पड़ा। नबारुण का 'पुरंदर भाट' कहता है 'मोटकी सब, पेपसी सुड़क-सुड़क पीती / इत्ता बड़ा पाछा और उत्ती फैली छाती।' गुस्सा किसी के 'मोटकी' होने पर नहीं, भुखमरी के मुल्क में सुड़ककर पेपसी पीने वालों पर है, जो मेरा भी गुस्सा है, हर ग़रीब का गुस्सा है। भले ही कम हो, ऐसी कमज़ोरी दिखती है तो लगता है कि अपनी कमज़ोरी देख रहा हूँ। इसलिए कई शिकायतों में पहली दर्ज़ है - नहीं नबारुण, ऐसे नहीं। उन्नीस की उम्र के बाद से मैं कोलकाता के बाहर ही रहा, कभी-कभार वापस जाना होता था। इसलिए मैंने उसे देर से जाना। साल 2003 में चंडीगढ़ में दोस्त शांतनु बासु से 'कांगाल मालसाट' उपन्यास लिया था, पढ़कर समझ में कम आया, पर लगा कि मेरा अपना गुस्सा कागज़ पर उतारने वाला कोई है। उसके उड़ने वाले किरदार 'फताड़ू' (बांग्ला में फैताड़ू) मेरे ही अक्स जैसे थे। पुरंदर भाट उस ज़बान में तुकबंदी करता है, जिसमें कॉलेज में पढ़ते हुए हम किया करते थे, और आज भी मन की गहराई में कहीं करते रहते हैं। 'भाट' पारंपरिक लोक-गायकों के एक समुदाय का नाम है, जो हुक्मरानों की स्तुति में गाया करते थे। बांग्ला में 'भाट' बकवास को भी कहते हैं। 'पुरंदर' इंद्र को कहते हैं, पर इसका शाब्दिक अर्थ है पुर या संरचनाओं को तोड़ने वाला। बहरहाल, 'कांगाल मालसाट' पढ़ने के बाद से मैंने जितना उसे जाना, प्यार के समंदर में डूबता रहा। 2013 में हैदराबाद में महाश्वेता से मुलाक़ात हुई तो प्रणाम करते हुए खुशी इस बात की भी थी कि नबारुण की माँ से मिल रहा हूँ। हिन्दी में नबारुण को 'यह मौत की घाटी मेरा मुल्क नहीं है' कविता से जाना जाता है, हालाँकि उसका एक उपन्यास, ‘हर्बर्ट', हिन्दी में अनूदित हुआ है। हिन्दी-इलाक़े क्षेत्रफल और जनसंख्या दोनों में कहीं ज़्यादा बड़े हैं, पर बांग्ला में हिन्दी की तुलना में कहीं ज़्यादा तादाद में उपन्यास लिखे जाते हैं। किताब बन कर आने से पहले, आम पत्रिकाओं में धारावाहिक, और वार्षिक संस्करणों में पूरे, छपने वाले ये उम्दा उपन्यास ज़्यादातर यथार्थपरक और सामाजिक सवालों पर लिखे होते हैं। कभी-कभार किसी रचना में औरों से बिल्कुल अलग किस्म की शैली दिखती है। नबारुण की शैली महज बांग्ला या हिन्दुस्तानी अदब ही नहीं, बल्कि आलमी पैमाने पर अनोखी है। सच कहा जाए तो उसके लिए नोबेल जैसा पुरस्कार भी छोटा पड़ता है। यह बात उसकी कविता के बारे में नहीं कही जा सकती। कविता में वह पारंपरिक शैली में क़ैद था। वैचारिक बातें उसके अपने वक्त की हैं, पर '... मौत की घाटी ...' में अपने से आधी सदी पहले के युवा कवि सुकांत भट्टाचार्य (20 साल की उम्र में जिसकी मौत हुई) की इन पंक्तियों को ही वह आगे बढ़ाता है - ‘ए देशे जन्मे पदाघात-ई शुधू पेलाम बारे बारे' (इस मुल्क में जनमा तो बार-बार सिर्फ लताड़ ही खाई)। हालाँकि '... मौत की घाटी ...', दुनिया के किसी भी मुल्क के बारे में हो सकती है, इसलिए बेशक यह एक लाजवाब नज़्म है। आगे बात रखने से पहले इस कविता को पढ़ लिया जाए। 
 यह मौत की घाटी मेरा मुल्क नहीं
 (हमें खून और कुर्बानी से आज़ादी मिली है और इसी से इसकी धड़कन लगातार कायम है। हमने समझ-बूझ कर कुरबानियाँ दी हैं : यह महज एक किश्त है जो हमारी आज़ादी की बुनियाद के लिए है। - चे) 

 जो बाप अपने बच्चे की लाश की शिनाख़्त करने से घबराता है 
 मुझे उससे नफ़रत है ... 
जो भाई अब भी बेशर्म बेपरवाह बैठा है 
 मुझे उससे नफ़रत है ... 
जो अध्यापक, बुद्धिजीवी, कवि और क्लर्क सामने आकर इस क़त्ल का बदला नहीं माँगता 
 मुझे उससे नफ़रत है ... 
 आठ लाशें होश की राह घेरे लेटी हुई हैं 
मैं बदहवास हो रहा हूँ 
आठ जोड़ी खुली आँखें नींद में मुझे देखती हैं 
मैं चीखता उठ पड़ता हूँ 
वे नीम अँधेरे मुझे बाग़ में बुलाती हैं हर वक्त 
मैं पागल हो जाऊँगा खुदकुशी कर लूँगा 
जो मर्ज़ी करूँगा 
कविता लिखने का यही वक्त है 
इश्तहारों में दीवार पर या कि स्टेन्सिल पर 
अपने खून, आँसू, हड्डियों से कोलाज की तरह 
अभी कविता लिखी जा सकती है 
बेइंतहा पीर और छिन्न-भिन्न शक्ल 
 (पुलिस) वैन की हेडलाइट की चौंधियाती रोशनी में नज़र अडिग रखे
 तशद्दुद से मुखातिब ... 
अभी कविता उछाली जा सकती है 
.38 और और-भी जो कुछ हत्यारे के पास है 
सब नामंज़ूर कर अभी कविता पढ़ी जा सकती है 
 बर्फीली चट्टान जैसे लॉक-अप के कमरे में 
शवपरीक्षा की गैस वाली रोशनी को झकोरती 
हत्यारे की चलाई अदालत में झूठ 
और अनपढ़ता के मदरसे में शोषण 
और ज़ुल्मों की सत्ता की मशीनरी में 
फौजी और दीवानी अधिकारियों के सीने पर 
कविता में विरोध गूँज उठे 
(बांग्ला) देश के कवि भी लोर्का की तरह तैयार रहें 
हत्याएँ, दम घुटकर मरने और लाशें गायब होने के लिए
स्टेनगन की गोलियों से छने जाने को तैयार रहें 
फिर भी कविता के गाँवों का 
कविता के शहर को घेर लेना बहुत ज़रूरी है 
 यह मौत की घाटी मेरा मुल्क नहीं
 ख़ूं से नहाया यह कसाईखाना मेरा मुल्क नहीं 
 जल्लाद के जश्न का यह मंच मेरा मुल्क नहीं 
 यह फैला हुआ श्मशान मेरा मुल्क नहीं 
 ख़ूं से नहाया यह कसाईखाना मेरा मुल्क नहीं 
 मैं अपना मुल्क वापस छीन लूँगा 
सीने में थामूँगा 
कुहासे में भीगी लंबी घास के फूलों की शाम 
और विसर्जन मेरे समूचे बदन को घेरे रहेंगे 
जुगनू या कि पहाड़ों की फसल 
अनगिनत दिलों में अनाज, लोककथाएँ, फूल, नारी, नदी 
हर शहीद के नाम एक-एक तारों के 
मनमर्जी नाम रखूँगा 
डगमगाती हवाओं को, 
धूप-छाँव में मछली की आँखों जैसी झील को बुलाऊँगा
 प्रेम ... जन्म से ही जिससे प्रकाशवर्ष की दूरी पर अनछुआ रहा हूँ 
उसे भी इंकलाब के जश्न के दिन बुला लूँगा 
 आँखों पर हजार वाट की रोशनी डालकर रात-दिन की पूछ-पड़ताल 
 मैं नहीं मानता
 नाखून में सुई और बर्फ की सिल्ली पर सुला रखना मैं नहीं मानता 
जब तक नाक से ख़ून न बहे, बँधे पैर लटका रखना मैं नहीं मानता 
होंठों पर बूट, सारे बदन पर जलती तीली से घाव मैं नहीं मानता 
तेज चाबुक से पिटती टूटती ख़ून सनी पीठ पर अचानक अल्कोहल डालना
 मैं नहीं मानता नंगे जिस्म पर बिजली के झटके, 
घिनौना विकृत यौन अत्याचार मैं नहीं मानता 
पीट-पीट कर क़त्ल किया जाना खोपड़ी पर
 रिवॉल्वर टिका कर गोली चलाना मैं नहीं मानता 
कविता कोई रोक नहीं मानती 
कविता सशस्त्र है, आज़ाद है, बेख़ौफ़ है 
देखो मायाकोव्स्की हिकमत नेरुदा आरागों एलुआर्द 
तुम्हारी कविता को हमने हारने नहीं दिया 
उल्टे सारा मुल्क एक नया महाकाव्य लिखने की कोशिश में है 
गेरीला छन्दों में रचे जा रहे हैं सभी अलंकार 
 गरज उठें मादल3 
 मूँगे के द्वीप जैसा आदिवासी गाँव 
ख़ून से लाल रँगे नीले खेत 
नागराज के ज़हरीले फन की शक्ल में हो घायल
 तितास नदी मौत से भीगी प्यासी ज़हरीली तितली
 गांडीव से छूटे तीर की नोक की टंकार से 
अंधा सूरज तेज़ तीखी अति-हिंसक धार 
भल्ला! तुम्हारे भाले गँडासे रस्सियाँ
 हर पल झलकते बल्लम जलोढ ज़मीं पर 
कब्जा के भाले-बरछे मादलों के ताल पर 
ट्राइबल टोटेम4 की आँखों में ख़ून छलके बंदूक खुखरी कसाई का ... 
उफनता जोश जोश इतना है कि अब डर नहीं 
 और भी हों क्रेन दाँतों वाले बुलडोज़र 
सशस्त्र दस्तों के जुलूस 
चालू डायनेमो टर्बाइन लेद और इंजिन 
धसान के नीचे कोयले से निकलती मीथेन 
अँधेरे में सख्त हीरे जैसी आँखों वाला ग़जब फौलाद का हथौड़ा 
 डॉक जूट-मिल फरनेस के आस्मां में उठे हजारों हाथों को5 नहीं, 
अब डर नहीं डर की फीकी शक्ल बेगानी लगती है 
जब जान लेता हूँ कि मौत प्यार के सिवा कुछ नहीं है 
मुझे क़त्ल करोगे तो बंगाल में सभी माटी के दिए लौ बन कर फैल जाएँगे 
मुझे खत्म नहीं कर पाओगे हर बरस धरती के बीच में से
 हौसले का हरापन लिए लौट आऊँगा मैं खत्म नहीं होऊँगा... 
सुख से रहूँ दुख में रहूँ संतान-जनने और तमाम रस्में निभाते 
जब तक (बांग्ला) देश रहेगा तब तक 
जब तक इंसान रहेगा तब तक 
 जो मौत रात की ठंडक में जलता बुलबुला बन उभर आती है 
वह दिन वह मौत वह जंग लाओ 
सेवेंथ फ्लीट6 को रोक दे 
सात नावों वाला मधुकर सौदागर7 
 सिंहनाद और शंख बजाकर जंग की शुरूआत ऐलान हो 
जब हवा ख़ून की बू के नशे में हो जल उठे 
कविता विस्फोटक बारूद की माटी... 
रंगोली गाँव नाव नगर मंदिर जब तराई से लेकर सुंदरबन की सीमा तक 
सारी रात रोने के बाद जल कर सूखे रह गए हैं 
जब जन्मभूमि की माटी और मक़्तल के कीचड़ में कोई फ़र्क नहीं रहा
 तो फिर कैसी दुविधा कैसा संशय कैसा त्रास 
आठ जने छू रहे हैं ग्रहण के अँधेरे में फुसफुसाते हुए कह रहे हैं 
कहाँ कब पहरा लगा है 
उनकी आवाज़ में अनगिनत तारे आकाशगंगाएँ समंदर 
एक से दूसरे ग्रह में तैर-उड़ने का उत्तराधिकार ... 
कविता की जलती मशाल कविता का मॉलोटोव कॉकटेल8 
कविता की टॉलुइन लपट9 इस आग की चाहत में झपट गिरे।
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 बांग्ला भाषा में 19वीं सदी में बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय से उपन्यास लेखन की मज़बूत परंपरा बन गई। विषयों और शैली में विविधता शुरू से ही रही। शरतचंद्र के सामाजिक उपन्यासों का दुनिया भर की भाषाओं में अनुवाद हुआ। बिभूतिभूषण बंद्योपाध्याय, ताराशंकर बंद्योपाध्याय, माणिक बंद्योपाध्याय, सैयद मोस्तफा सिराज, अख्तरुज़्ज़मान एलियास, से लेकर नबारुण भट्टाचार्य आदि दर्जनों नाम हैं, और ये सभी उम्दा अदीब हैं। ग़रीब और उत्पीड़ित वर्गों पर उपन्यास लिखे गए, जिनमें माणिक बंद्योपाध्याय, अद्वैत मल्लबर्मन से लेकर कमलकुमार मजूमदार, महाश्वेता देवी आदि के काम हैं। उसके बाद नक्सली आंदोलन, बांग्लादेश मुक्ति संग्राम, संसदीय वाम में नैतिक और सैद्धांतिक गिरावट और बुर्ज़ुआ और फिरकापरस्त दलों का बढ़ता वर्चस्व बांग्ला उपन्यासों की पृष्ठभूमि बन गई। इन सब में नबारुण सबसे अलग एक चौंधियाता सितारा है। 'कांगाल मालसाट' पहली बार पढ़ा तो समझ में कम आया। सौ साल पहले जब जेम्स जॉएस ने यूलीसेस लिखा था, तब उसे पढ़ने वालों को ऐसा ही लगा होगा। 'कांगाल' यानी कंगाल या भिखमंगा और 'मालसाट' का अर्थ है मल्ल या पहलवान का जाँघों पर थपेड़ा मार दाँव डालते हुए चीखना। जेम्स जॉएस और उनके समकालीन बड़े लेखक नई शैली रच रहे थे, पर उनका लिखा एक आख्यान था, जिसे नए अंदाज़ में पेश किया गया था। नबारुण किसी भी मान्य आख्यान की मुख़ालफ़त करता है और यही उसके प्रयोग और संवादों की खासियत है। उपन्यास जादुई यथार्थ की आड़ में प्रतिरोध की नई कथाएँ रचता है। फताड़ू, चोक्तार जैसे अजीबोग़रीब किरदार हैं। अश्लील लफ्ज़ों का भरपूर प्रयोग है, जैसे कोई चीख-चीख कर सामाजिक विसंगतियों पर हमला कर रहा है। आंद्रे ब्रेतों का कथन है - सर्रीयल (अतियथार्थ) हरकत की सबसे आसान मिसाल यह है कि ... कोई भीड़ में अंधाधुंध गोलियाँ चला रहा हो।' नबारुण एस्थेटिक्स के बँधे-बँधाए मूल्यों को छिन्न-भिन्न करना चाहता था। कुछ था कि पूरी बात पल्ले न पड़ने पर भी मैं ढूँढ कर नबारुण को पढ़ने लगा था। मुमकिन है कि कोलकाता की ज़मीं की निचली तहों के मेरे अपने तजुरबों को मैं नबारुण को पढ़कर फिर से जीने लगा था। वाक़ई उसने शहर के दरकिनार तबकों पर ही लिखा है। 'कांगाल मालसाट' से पहले अपनी कहानियों में नबारुण ने फताड़ुओं को जन्म दे दिया था। फताड़ू - पहली बार पढ़ा तो सत्तर के दशक के आखिरी सालों में कानपुर में पढ़ाई के दौरान सुना 'फतरू' लफ़्ज़ याद आया। फतरू का मतलब फक्कड़ या मस्त-मौला जैसा कुछ है। काशीनाथ सिंह पढ़ रहा होता तो यही ज़ेहन में रहता। पर नबारुण के फताड़ू इंसान होते हुए "फँत फँत साँय साँय" मंत्र का जाप करते हुए उड़ सकते हैं। वक्त की नब्ज़ पहचान कर व्यवस्था के खिलाफ जिहाद लड़ रहे चोक्तारों के साथ जंग में शामिल होते हैं। रात में (कभी दिन में) उड़ कर हमला करते हैं - कवि सम्मेलन, बहू के हत्यारे व्यवसायी के बेटे की पुनर्विवाह पार्टी, गंगा की मझधार में गुलछर्रे उड़ा रहे बाबू की प्रमोद-नौका, आदि पर - बदबू वाले घोंघे, विष्ठा, कचरा और खोपड़ी के बम आदि फेंककर पार्टी तहस-नहस कर देते हैं। वे चोर-डकैत नहीं हैं। उनके टार्गेट मुख्यधारा की मीडिया, कोलकाता पुलिस और लेखक समुदाय हैं। चोरी करें भी तो रॉबिन-हुड जैसे भले हैं। अपने पैसे से देसी और दूसरों की गर्दन मरोड़ कर विलायती पीते हैं। जैसे असी की गली में हर बात के साथ वज़नी गाली चलती है, वैेसे ही फताड़ू की ज़बान सड़क-छाप बांग्ला है, जो गैर-फताड़ू कानों को परेशान करती है। इन में से कवि पुरंदर भाट मसालेदार नॉनसेंस कविता के माहिर हैं। फताड़ू नबारुण का अंतर्मन है। संस्कृति या अदब के नाम पर जो बाज़ार पिछले दशकों में उभरा है, उसकी मुख़ालफ़त और उसके प्रति अपना गुस्सा जताने का माध्यम है। बंगाल में संसदीय वाम राजनीति के पतन के खिलाफ फताड़ू एक चीख हैं, साथ ही उनकी सार्वभौमिकता है; विश्व-पटल पर जो कुछ हो रहा है, उसके खिलाफ नबारुण का प्रलाप है। सर्व-कालिक स्वरूप भी है, और इसीलिए वाम के बाद बंगाल में सत्तासीन ताकत भी उनसे परेशान रहा है। प्रतिबद्धता और इंसान से प्यार करने की क़ाबिलियत नबारुण को पिता बिजन भट्टाचार्य और माँ महाश्वेता देवी से जन्मजात मिली थी। नाटक और साहित्य के माहौल में पलते-बढ़ते, ऋत्विक घटक जैसे चिंतकों का साथ पाकर, नबारुण ने एक कवि के रूप में साहित्य में अपना पहला कदम रखा। 'यह मौत की घाटी मेरा मुल्क़ नहीं' का हिंदी में अनुवाद हुआ (इस शीर्षक से मैंने 2016 में; मंगलेश डबराल ने तीस साल पहले 'यह मृत्यु उपत्यका मेरा देश नहीं' शीर्षक से)। 1993 की शुरुआत में उपन्यास 'हर्बर्ट' के प्रकाशन के बाद कथा साहित्य में उसके बारे में चर्चा शुरू हुई। कवि शंख घोष ने कहा, "पिछले पांच वर्षों में यह सबसे महत्वपूर्ण उपन्यास है।" इस उपन्यास के लिए नरसिंह दास पुरस्कार (1994), बंकिम पुरस्कार (1996) और साहित्य अकादमी पुरस्कार (1997) मिला। इस मायने में नबारुण मुख्यधारा से अलग नहीं था। मुमकिन है कि पुरस्कार से ज़्यादा उसे पैसों की ज़रूरत रही हो। उपन्यास का सबसे उल्लेखनीय पहलू ठेठ शहरी और सड़क की ज़बान के साथ 1990 के दशक की रूहानी बेचैनी है। शुरुआत विजय चंद्र मजुमदार की एक कविता की दो पंक्तियों से होती है,'चरणों पर नहीं बंधन, जान में नहीं स्पंदन/थिर चेतन निर्वाण में जगा रहता हूँ।' हर अध्याय में ऐसी कविताओं के छोटे-छोटे अंश आते हैं, और काफी अजीब है, समग्र रूप से उपन्यास कविता सा ही है। नबारुण ने लिखा है, "जब हर्बर्ट लिखा, तो दुनिया में वामपंथ की हालत शोचनीय थी।" 2007 में नन्दीग्राम में हुए हत्याकांड के बाद उसने प० बंगाल सरकार का बंकिम पुरस्कार लौटा दिया। उसके कुल आठ उपन्यास हैं, जो बांग्ला में प्रतिष्ठित लेखक के लिए कम हैं (ताराशंकर बंद्योपाध्याय ने 55 उपन्यास लिखे थे)। आठ कहानी संग्रह और चार कविता संग्रह हैं। मुनमुन सरकार ने'हर्बर्ट' का हिंदी में अनुवाद किया। नबारुण का लिखा हर कुछ राजनैतिक मक़सद लिए हुए है। उसने पश्चिम बंगाल में नक्सली आंदोलन और पूर्वी बंगाल में बांग्लादेश का मुक्ति-संग्राम देखा। दोनों हाल में शासक और शोषक का चरित्र एक जैसा था। इसीलिए बेरहमी से कविता में कह उठा, 'मुझे उस पिता से नफ़रत है जो अपने बच्चे की लाश की शिनाख़्त करने से डरता है।' उपन्यास की भूमिका में सभी पाठकों से यह आग्रह किया कि वे खुद तय करें कि कथा (उपन्यास नहीं) का लेखन की विफलताओं और सफलताओं के अलावा कोई राजनीतिक मक़सद है। "अगर मैं अच्छा फुटबॉल खेल पाता तो इस लाइन में नहीं आता।" 'हर्बर्ट' उपन्यास पर फिल्म बनी और नंदन थिएटर में रिलीज हुई तो काफी विवाद हुआ। आंदोलनों पर उसकी कारीगरी और गालियों का भरपूर इस्तेमाल कहाँ किसी को पचता! बाद के उपन्यास'भोगी' और 'ऑटो' में एक शाप या लाचारी है, जिसमें मौत की इस घाटी में पात्र महज दो भूमिकाएँ निभा सकता है - मूक हत्यारा या हार चुका इंसान। 'भोगी' विलासिता और अस्तित्व के बीच संघर्ष है, जिसका विषय 'सर्वव्यापी भ्रष्टाचार और समाज की उससे बाहर निकलने की कोशिश' है। 'संत जैसा व्यक्ति, नाम भोगी' को ऑटो ड्राइवर की गालियां सुनने में मजा आता है, लेकिन 'पहले से ही बूझ लेता है।' नबारुण के कई उपन्यासों में नॉनसेंस कविता का प्रयोग प्रासंगिक है। मसलन 'संभोग करते टायरानोसोरस / कंडोम से भोगें प्रात:-रस।' या 'दाईं ओर अल्लाह की तलवार / बाईं ओर मोहम्मद की ढाल।' कहीं एलियट की कविता 'द वेस्ट लैंड' की पंक्तियाँ हैं। एक और उपन्यास 'युद्ध-परिस्थिति' का मुख्य किरदार रणजय नक्सली आंदोलन से जुड़ा, जंग के सपने देखता और पागलखाने में भी रहता है। सबसे रोचक बात यह है कि रणजय के घर से भागने की खबर मिलते ही अपने वक्त ख़ूँख़ार पुलिस अफसर रह चुका एक शख्स बेचैन हो जाता है, क्योंकि उसे पता है कि कभी न कभी उसके हाथों उत्पीड़ित लोग उसकी जान लेने आएँगे। अपने लेखन में हर जगह उपभोक्तावाद और समाजवाद के बीच संघर्ष में नबारुण साफ पोज़ीशन लेता है। 'खेलना नगर' (खिलौना नगर) हक़ीक़त में एक फैक्ट्री है, जिस पर न्यूट्रॉन बम गिरा था, जिसे कुछ लोग 'कैपिटलिस्ट बंब' कहते हैं। लिखत है, 'भले ही ये कचरा अमीर देश में बना हो, लेकिन इन्हें जमा नहीं होने दिया जाता, इन्हें गरीब देशों में तस्करी से ले जाया जाता है।' दरअसल वैश्वीकरण महज एक जश्न है, जिसके नशे में सारा मध्य-वर्ग डूबा हुआ है और इसके खिलाफ लड़ने-मरने वालों की ओर से एक बीमार, जिस्मानी तौर पर कमज़ोर अफ़्साना-निगार, कलम घिसता रहा - 'मैं वास्तव में डेवलपमेंट के सिद्धांत में विश्वास नहीं करता।' तो क्या उसका लिखा हालफिल में हुए सामाजिक तरक्की के खिलाफ है? क्या इसी वजह से उसने लिखा,' तुम निहायत बनस्पति नहीं होते, तो क्या मैं तुम्हें फताड़ू बनाता?' समाज के हर स्तर पर हो रहे पतन को वह दर्ज़ करता रहा, पर यह दस्तावेज़ आधुनिकता की आख्यान-शैली में नहीं, बल्कि उत्तर-आधुनिक मोंताज शैली में है। कायर, काल्पनिक, नीरस पाठ से हटकर उसने उत्तर-आधुनिक, पर ठोस विचार की, ज़बान गढ़ी। गाली-गलौच के प्रयोग के साथ नॉनसेंस कविताओं का प्रयोग हर कहीं है। प्रतिष्ठित बौद्धिक वर्ग पर तीखी चोट है। उसे अदब से नाम कमाने वालों लोगों से नफ़रत थी, जो ऊँची इमारतों में फ्लैट खरीदकर ऐश की ज़िंदगी जीते हैं, और इन इमारतों को खड़े करने में मेहनतकश किसान ज़मीन बेचने को मजबूर किए जाते हैं। कविताओं की '(झाँट के) बाल श्रृंखला' लिखकर फताड़ू कवि पुरंदर भाट साप्ताहिक 'वैम्पायर' की हजार प्रतियां प्रकाशित करता है, लेकिन केवल तीन प्रतियां बेचीं, और बहुत सारे विज्ञापन इकट्ठे किए, जिनका विषय एक ओर सुकुमार राय की याद दिलाता है, दूसरी ओर समकालीन समाज के फार्स (स्वांग) को सामने रखता है। नबारुण की चिढ़ और उसका गुस्सा समाज के बड़े तबके का प्रतिनिधि आक्रोश है और यह सिर्फ हिन्दुस्तान तक सीमित नहीं है। चीन के मशहूर विद्रोही कवि बेइ दाओ (ज़ाओ ज़ेनकाई) का कहना है कि पहले उम्दा और वल्गर या घटिया अदब में फ़र्क साफ होता था, पर अब वल्गर अदब संजीदा अदब को ब्लैक होल की तरह निगलता जा रहा है और बदकिस्मती से कई लेखक अपना मेयार नीचे गिराने को मजबूर हो रहे हैं, ताकि आज के समाज के वल्गर स्तर के साथ संगत रख पाएँ। इसी गिरावट और इससे उपजती बेबसी की बौखलाहट नबारुण में है। नबारुण की कल्पनाशीलता की इंतहा 'लुब्धक' उपन्यास में दिखती है। पात्र कुछ आवारा कुत्ते हैं, जिनके नाम'बढ़े कान', 'सफेदा', 'सुरखिया' हैं। उनमें से कुछ पर एसिड फेंका जाता है, कुछ दुर्घटनाओं में मर जाते हैं, कुछ के बच्चों पर ज़ुल्म किया जाता है। कुत्ते और बिल्लियाँ दोनों एक दूसरे के दोस्त बन जाते हैं। कविताएँ आती हैं - 'अलौकिक भीख की कटोरी जैसा चाँद / दाँतों से काट खा दौड़ता रात का कुत्ता।' कविता के साथ-साथ,'चे-ग्वेवारा की डायरी' और इंसान के साथ कुत्तों की रिश्तेदारी पर सुरेश्वर के 'नैष्कर्म्य सिद्धि' का एक श्लोक भी है। शटल-बॉक्स परीक्षण और लाइका (पहले रूसी रॉकेट के साथ अंतरिक्ष में गया कुत्ता) आते हैं। उपन्यास का अंत शहर से निकलते कुत्तों के जुलूस से है, जिसकी अगुवाई लुब्धक कर रहा है और सिर्फ कुत्तों को पता है कि शहर में धरती की ओर आ रहे धूमकेतु के टकराव से भयावह कुछ होने जा रहा है। नबारुण का कहना था, 'जैसे मुझे हक़ मिले हैं, वैसे ही मच्छर को भी मुझे काटने का हक़ है।' यह पूछने पर कि वह ऐसी रचनाएँ क्यों लिखता है, बहाना था, 'ज़रा खुशमिज़ाजी हूं। हजार दुखों और कठिनाइयों के बीच भी लोगों को खुशी ढूँढते देखा है, पर इतने सारे लोग जो जश्न मना रहे हैं, मैं शायद उनकी तरह खुशी नहीं मना पाता ... .'। वाक़ई। नबारुण ने हाशिए पर खड़े शहरी लोगों की हताशा और चिंता के साथ उनके अंदर मौजूद इंकलाबी वजूद को पेश किया। वह ताज़िंदगी लेखन के माध्यम से खुद में और समाज में इंकलाब लाना चाहता था। सोए हुए पाठकों को जगाना लेखकों की जिम्मेदारी है। उसने तहज़ीब का आईना टूटते देखा तो सर्रीयल साहित्य से उसे सुधारने की कोशिश में जुटा, और राज्य- सत्ता को ठेगा दिखाता रहा। वह शंकर गुहानियोगी नहीं बन सका तो नबारुण बना। गली-सड़क से आती आवाज़ों को संजोया। समाज को देखने-दिखाने के लिए एक लेंस बन गया। शहर के हर चौक पर खड़ा पागल बन गया जो हर किसी को चुनिंदा गालियाँ देता हुआ याद दिलाता है कि अपने गिरेबान के नीचे झाँकते रहना ज़रूरी है। वह कम्युनिस्ट था, पर उसने संसदीय वाम की संरचना, सत्ता का ग़लत इस्तेमाल और सुविधापरस्त नीतियों की तीखी आलोचना की। निर्देशक सुमन मुखोपाध्याय ने 'हर्बर्ट' के बाद 'कांगाल मालसाट' पर भी फिल्म बनाई, पर पहले इसे दिखाने पर रोक लगा दी गई। एतराज वही पुरानी बातों पर था कि इतिहास को पूर्वाग्रह के साथ देखा गया है और अश्लील लफ़्ज़ों का ज़्यादा इस्तेमाल हुआ है। सेंसर किया गया तो नबारुण ने कहा, "यह मुमकिन नहीं है कि आज मैं रवींद्रनाथ की भाषा में लिखूं। मैं आज के लोगों की ज़बान में लिखता हूं। यदि फिल्म उद्योग की सरकार के प्रति तिरछी नज़र है, तो उनके लिए कानूनी परेशानी पैदा करने के बजाय सहिष्णु होना बेहतर है।" बाद में रोक हटी, पर फिल्म ज़्यादा चली नहीं। शुरूआती कविताओं में 'बांग्ला के कवि भी लोर्का की तरह तैयार रहें' लिखने वाले नबारुण को संसदीय वाम का छल, और दो-तीन पीढ़ियों का इंकलाबी सपनों के साथ खो जाना, बुरी तरह झकझोर गया। पुरंदर भाट ने कहा, ‘किसी ने न बूझा मुझे / न बाँधा मुझे डोर से / न किसी ने गले में पहनाई माला / सब ने लताड़ा / काँटे वाले फंदे में फँसाकर / कहा, मर तू स्साला। / तो मैं कहता हूँ धिक्कार है! / बस हँसूँ खी-खी / छिप कर करूँ ट्राई / कभी सभी सालों को ले / इकट्ठा कर अरबी की झाड़ियों में / एकसाथ करूँ ज़िबहा-ई', जबकि कभी 'हर्बर्ट' में लिखा था- "विस्फोट कब, कैसे और कौन करेगा, राज्य तंत्र को अभी तक यह पता नहीं है।" उसके कथा साहित्य में औरत कम दिखती है। उससे यह शिकायत भी रहेगी। गाली-गलौच की संस्कृति पर यह सवाल तो उठता ही है कि इसमें पुरुष-प्रधान सोच हावी है, हालाँकि नबारुण के लेखन जितना भी मर्दाना पुट हो, उसमें स्त्रियों के प्रति अपमानजनक गालियाँ बहुत कम हैं। पर हमारी दुनिया में जहाँ जेंडर के मुताबिक जीवन-शैली बँटी हुई है, वहाँ व्यंग्य अक्सर मर्द-संगत में तय होता है; नब्बे का नबारुण प्रतिरोध की जगह फ़ाज़िलपन और तीखी सड़कछाप ज़बान का उस्ताद बन गया। मसलन इंटरनेट पर पुरंदर भाट की यह कविता मौजूद है, "दो-दो नितंब धड़-धड़ काँपते / चींटी काट गई किस फाँक से / लाल वाली, डँसने वाली, और भी हैं हाय / ले हरि का नाम गाँड़ लॉक किया जाए।' कैसे करूँ यह शिकवा कि नबारुण ऐसे नहीं, जब खुद उस पीढ़ी का हूँ जो हिम्मत ढूँढती रही कि चीख सके, सब कुछ तोड़-फोड़ कर नई इमारतें गढ़ सके और इसी बीच पूँजी और नफ़रत की सियासत के गठजोड़ से फासीवादी ताकतें हम पर हावी होती रहीं। हमारे दोस्तों को क़ैद किया गया और हम इंतज़ार में तड़पते रहे कि जाने कब हमारे दरवाज़े पर दस्तक होगी। कवि नबारुण का पुरंदर भाट के रूप में बदलना परेशान करता है, और साथ ही हम रोते हैं कि हमारे अंदर यह बदलाव क्यों रुका रह गया? कई जगह उसकी भाषा जुगुप्सा पैदा करती है, जब वह जिस्म की बदहाली, मसलन उल्टियाँ, पेशाब, ख़ून आदि का बढ़-चढ़ कर बखान, और गुप्तांगों के साथ हरकतों को साक्षात सामने ला पेश करता है। ऐसी बातें किसी के बारे में भी कही जा सकती हैं, पर नबारुण का अदबी संसार, बांग्ला और आलमी अदब पर उसकी पकड़ उसे सबसे अलग करता है। जुगुप्सा और थकन को उसकी कला ऐसे ईंधन में बदल देती है जो व्यवस्था के खिलाफ लपटें बुझने नहीं देती। अमीरी बराका की कविता वैचारिक कट्टरता की वजह से कमज़ोर होती रही, पर नबारुण की पहचान एक ऐसे ज़मीनी और प्रतिबद्ध रचनाकार की बनी रही जो इंसान से मोहब्बत को कला की पहली शर्त तय रखता है। वैचारिक जड़ता, कट्टरता और तानाशाही की मुख़ालफ़त उसकी पहचान है। उसकी आँखों के सामने संसदीय वाम की राजनीति सुविधापरस्त होती चली थी और नतीजतन तड़पता वह खुद को समाज के सबसे नीचे के लोगों में ढूँढता चला था। चूँकि आम आदमी नास्तिक नहीं होता, और नबारुण आम इंसान के साथ खड़ा है, इसलिए वह नास्तिक नहीं है। यहाँ तक कि मौत के कुछ दिनों पहले किसी से कह कर किसी साधु से ताबीज़ मँगवाई और नियम मानते हुए इक्कीस दिनों तक पहनी। पहली नज़र में यह विरोधाभास लग सकता है, आखिर एक इंकलाबी लेखक और कवि पाखंडों को जगह कैसे दे सकता है, पर यह देखने पर कि इंसान के साथ मोहब्बत करता वह शख्स आम लोगों में घुलमिल कर एकात्म हो गया है, हम उसे समझ सकते हैं। ऋत्विक पर व्याख्यान देते हुए पहली बार एक फिल्म न समझ पाने की वजह से की गई बहस याद करते हुए वह रो पड़ा था। मैं भी उसी तरह रो पड़ता हूँ जैसे वह ऋत्विक घटक को याद करते हुए रोया था, क्योंकि एक बार उससे मिलने की सोच कर भी किसी वजह से मैं मिल नहीं पाया था। नबारुण का कहना था कि कलाकार या क़ाबिल शख्स को उसका काम करने से रोकना उसकी हत्या है। ऋत्विक घटक, जाफ़र पनाही, बिनायक सेन, सुधा भारद्वाज, इन सबको जब काम करने से रोका गया, तो दरअसल उनकी हत्या हुई। इन सब ने, जिनके साथ वह अपने माओवादी दोस्तों को भी रखता है, इन्होंने एक नई इमारत बनाने की कोशिश की थी, जिसकी नींव बराबरी थी, जिसमें बंगाल को 'उपोसी' (उपवास करती) से अलग 'रूपसी' बांग्ला बनाने की चाह थी। कलम की ताकत का इस्तेमाल कर इसी चाह में जुटे नबारुण की भी बांगाली मध्य-वर्ग समाज ने हत्या ही की थी।
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1 बांग्ला वर्णमाला में देवनागरी की तरह वर्गीकरण है, पर '' का उच्चारण '' है। हिन्दी का 'नवारुण' बांग्ला में 'नॉबारुण' हो जाता है और '' का उच्चारण तक़रीबन '' जैसा है। 'भट्टाचार्य' को बांग्ला में 'भट्टाचार्जो' पढ़ा जाता है, हमने अंग्रेज़ी की तर्ज़ पर इसे 'भट्टाचार्य' रखा है।
अफ्रीकी मूल के लोगों के लिए 'अश्वेत' शब्द का इस्तेमाल नस्लवादी सोच है। 'गोरा' की तरह 'काला' कहने से भी परहेज नहीं किया जाना चाहिए। दूसरा विकल्प यह है कि 'अफ्रीकी-अमेरिकन' कहा जाए।
पखावज जैसा ढोल
आदिवासियों के कुलचिह्न
डॉक – कोलकाता बंदरगाह के जहाजघर, आज़ादी के बाद जूट (सन) मिलें इस ओर रह गई थीं, और सन की पैदावार ज़्यादातर पूर्वी बंगाल में होती थी - धीरे-धीरे मिलें बंद होने लगीं और कामगारों को लंबी लड़ाइयाँ लड़नी पड़ीं
सेवेंथ फ्लीट अमेरिकन नौसेना का बेड़ा जो बांग्लादेश की आज़ादी की लड़ाई के दौरान बंगाल की खाड़ी में आ गया था
मनसा मंगल कथा में चाँद सौदागर
पेट्रोल भरी बोतल और चिंगारी
टॉलुइन एक जलने वाला ऑर्गानिक तरल है

लेख में कुछ पंक्तियाँ  ऋभु चट्टोपाध्याय के बांग्ला लेख 'नबारुण भट्टाचार्जेर उपोन्यास बा आख्यान' से ली गई हैं, जो  'https://banglalive.com/feature-on-novelist-nabarun-bhattacharya/   साइट पर है। 

Thursday, August 29, 2024

 स्त्री-दर्पण

 स्त्री-दर्पण ने फेसबुक में पुरुष कवियों की स्त्री विषयक कविताएं इकट्टी करने की मुहिम चलाई है। इसी सिलसिले में मेरी कविताएँ भी आई हैं। नीचे उनका पोस्ट डाल रहा हूँ। 

“पुरुष कवि : स्त्री विषयक कविता”
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मित्रो, पिछले चार साल से आप स्त्री दर्पण की गतिविधियों को देखते आ रहे हैं। आपने देखा होगा कि हमने लेखिकाओं पर केंद्रित कई कार्यक्रम किये और स्त्री विमर्श से संबंधित टिप्पणियां और रचनाएं पेश की लेकिन हमारा यह भी मानना है कि कोई भी स्त्री विमर्श तब तक पूरा नहीं होता जब तक इस लड़ाई में पुरुष शामिल न हों। जब तक पुरुषों द्वारा लिखे गए स्त्री विषयक साहित्य को शामिल न किया जाए हमारी यह लड़ाई अधूरी है, हम जीत नहीं पाएंगे। इस संघर्ष में पुरुषों को बदलना भी है और हमारा साथ देना भी है। हमारा विरोध पितृसत्तात्मक समाज से है न कि पुरुष विशेष से इसलिए अब हम स्त्री दर्पण पर उन पुरुष रचनाकारों की रचनाएं भी पेश करेंगे जिन्होंने अपनी रचनाओं में स्त्रियों की मुक्ति के बारे सोचा है। इस क्रम में हम हिंदी की सभी पीढ़ियों के कवियों की स्त्री विषयक कविताएं आपके सामने पेश करेंगे। हम अपने वरिष्ठ कवियों से यह सिलसिला शुरू करेंगे और उसके बाद आज की पीढ़ी के कवियों की कविताएं लेकर आएंगे।
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‘पुरुष कवि : स्त्री विषयक कविता’ शृंखला स्त्री विमर्श में अपने विशेष स्थान होने का संज्ञान लेती है। यह एक आकृष्ट करता ऐसा विषय है जो स्त्री-पुरुष दोनों के जुडते परिदृश्य पर नज़र रखता है और उनके अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य को व्यक्त करता है। पुरुष के मन्तव्य, वैचारिकता एवं दृष्टिकोण वैशिष्ट्य स्त्री विमर्श के उस रिक्त को भरते हैं जिसका खामोश इंतजार हमेशा रहा है। पुरुष प्रधान समाज में पुरुष कवियों की ‘स्त्री विषयक कविताएं’ समाज में स्त्रियों की स्थिति एवं विशेषता दर्शाती है। ये कविताएं, पुरुषों के स्त्री संबंधी मानसिकता की रूपरेखा का साक्षात्कार ही नहीं, उनके सोच का सूक्ष्म निरीक्षण भी है। कठघरे में खड़ा ‘पुरुष’ स्त्री विमर्श का ध्येय नहीं बल्कि पुरुष कवियों के स्त्री विषयक भीतरी सौन्दर्य का मूल्यांकन भी अहम है।
पुरुष कवियों की ‘पुरुष कवि : स्त्री विषयक कविता’ शृंखला की शुरुआत वरिष्ठ कवियों से की गई हैं। शृंखला में कवियों का क्रम वरिष्ठता का सम्मान है। वसंत पंचमी के दिन युगप्रवर्तक कवि निराला की कालजयी रचनाओं में उनकी स्त्री विषयक कविताओं को प्रस्तुत करने के बाद समकालीन कवियों में सर्वप्रथम प्रसिद्ध कवि विनोद कुमार शुक्लजी की कविताओं से शृंखला का शुभारंभ किया गया। उनके बाद प्रसिद्ध कवियों में नरेश सक्सेना, प्रयाग शुक्ल, ऋतुराज, लीलाधर जगूड़ी, इब्बार रब्बी, अशोक बाजपेयी, राजेश जोशी, गिरधर राठी, आलोक धन्वा, नरेंद्र जैन विनोद भारद्वाज, विजय कुमार, विष्णु नागर, हृदयेश मयंक, उदय प्रकाश, लीलाधर मंडलोई, अरुण कमल, मदन कश्यप, असद ज़ैदी, स्वप्निल श्रीवास्तव, विनोद दास, अजामिल, सुभाष राय, कुमार अंबुज, अष्टभूजा शुक्ल, कृष्ण कल्पितजी की कविताएँ आप पाठकों के समक्ष प्रस्तुत की गई। आभारी हैं के आप पाठकों ने पसंद किया। आपने बहुमूल्य विचारों, प्रतिक्रिया, टिप्पणी द्वारा प्रोत्साहित किया आगे भी आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार है। इस शृंखला में वरिष्ठ कवि कृष्ण कल्पित के बाद अगले प्रसिद्ध कवि लाल्टू हैं। पुरुष कवियों के भाव-बोध की गहराई में उतरते संवेदना को विस्तार देते उनके अनुभव द्वारा उद्घाटित उनकी स्त्री विषयक दृष्टि हम उनकी रचनाओं में पाते हैं जो उनके विचारों और आत्मबोध के वैचारिक परिदृश्य का विस्तार भी है।
इस शृंखला में चयनित की गई वरिष्ठ कवि लाल्टूजी की कविताएं क्रमानुसार इस प्रकार हैं, 1. मुंशीगंज की वे 2. कुछ जो दूर होता नहीं था 3. एक और औरत 4. तुम जानते हो मेरा नाम 5 समूची दुनिया होती है वह 6 जब तुम नहीं रहतीं 7. ठंडी हवा और वह 8. सालों बाद मिलने पर 9. अर्थ खोना ज़मीन का 10. डरती हूँ 11. ऐसे ही 12. स्केच (?) 13. छोटे शहर की लड़कियाँ 14 बड़े शहर की लड़कियाँ। वरिष्ठ कवि लाल्टूजी की इन कविताओं को “पुरुष कवि : स्त्री विषयक कविता” शृंखला में समाहित किया गया हैं जो आप पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं।
कविताओं पर टिप्पणी :
कवि शरीर व्यापार में पूरी जिम्मेदारी के साथ लिप्त स्त्री के पास जाते दर्द, डर, क्रोध, दंभ को धराशाई करने आँसू से तरबतर फौजियों की बात करते है जिन्हें उन स्त्रियों ने साधा, जीया, भोगा और जीवन के जंग की तरह लड़कर अपनी रोटियाँ पाती रही। कवि के अनुसार स्त्रियाँ जलन का एहसास पीने की हद तक मिल जाने की आस सँजोए पुरुषों में जमीन खोजने की कोशिश करती साँस लेती रही, खुश होना चाहती हुईं। माँ और औरत को पास लाते हुए भी माँ को अलग पाते है कवि स्त्री पर अपनी बात रखते है। औरत को जर्रा जर्रा जानने की इच्छा रखते कवि उँगलियों पर इंतजार देखते है। रोशनी से भरे अंधकार में कवि स्त्री को समूची दुनिया कहते है। उसके न होने में उसके होते हुए की कल्पना को जीते हैं।
कवि के अनुसार स्त्री की दुनिया उसके अपने मर्द के इर्द-गिर्द बसी है। जीवन का बोझ ढोती स्त्री बेटी की खुशियों में खुशी पाती है। पुरुष में अपना जमीन देखती स्त्री उस जमीन का कीचड़ में बदल जाना भी देखती है। कवि समाज में पात्रता निभाती स्त्री के आँख में डर देखते हैं। स्त्री की चुप्पी को उसकी शक्ति समझाते लोगों को कवि स्त्री की अपनी निगाह से देखना दिखाते है। बिलखना, स्त्री की साथ जुड़ता शब्द बावजूद इसके कवि इंसान देखना चाहते है जबकि शरीर अपने नैसर्गिक हस्तक्षेप में स्त्री को अलग पहचान देता है।
कवि के अनुसार छोटे शहर की हँसती, भागती, बरसती लड़कियाँ बहुत बोलते हुए भी मन की बातें नहीं बोल पाती। जबकि मन से परिवार के मर्दों सी शहर की गोरी लड़कियाँ कवि के अनुसार औरत होने का अधकचरा एहसास लिए होती है रोना जिनका स्वाभाविक एहसास हल्का कर उन्हें उचाइयों तक ले जाता है। मजबूत बनाता है। दुनिया देखती है एक औरत का पहाड़ बनना। कवि मन की प्रकृति में स्त्री से सशब्द वार्तालाप रचते है।
पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं वरिष्ठ कवि लाल्टूजी की स्त्री को विशेषता प्रदान करती उनकी चौदह कविताएं, जो तय करेंगी उनकी कविताओं में होना ‘स्त्री’ विशेष का।
- रीता दास राम
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लाल्टू की कविताएं –
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1. मुंशीगंज की वे
(1-i)
दूसरी ओर दो सौ कदम आगे से मकानों की खिड़कियों पर शाम के वक्त सज-धज कर खड़ी होती थीं। सादे कपड़ों में लोग आते और फौजी यहाँ से आगे न जाएँ लिखे बोर्ड को पार कर जाते। कभी बाँह पर एम पी की पट्टी और सिर पर तुर्रेदार पगड़ी पहने रॉयल एनफील्ड की मोटरबाइक बगल में लिए मिल्ट्री पुलिस वाले दिखते। फौजियों के निजाम में तत्सम शब्दावली आने में अभी कुछ दशक और गुजरने थे।
यहाँ से आगे न जाएँ लिखे बोर्ड वाली सरहद जवानी को जवानी से मिलने से रोक नहीं पाती थी। मुल्क के कोने-कोने से आए मर्द वहाँ मानो किसी मंदिर में जाते थे जैसे जंग छिड़ने पर सनकी कमांडर के हुक्म बजाने टैंक के सामने चले जाते हैं। उनके हाथ छोटे-मोटे तोहफे होते थे, जो वो अपनी बीबियों को देना चाहते थे, पर वहीं अपने वीर्य के साथ छोड़ जाते थे। स्त्रियाँ बाद में नहा लेतीं तो वीर्य बह जाता, पर तोहफे रह जाते। कुछ तोहफे उनके बच्चे ले लेते।
मर्द शराब पीते थे और हमेशा हँसते नहीं थे। कभी किसी स्तन पर माथा रखे रोते थे। सियासत नहीं समझते थे, पर जानते थे कि पुरअम्न दिनों में भी जंग छिड़ सकती है। कभी भी किसी सरहद को पार करते हुए मारे जा सकते थे। उस खयाल से दो घूँट और पी लेते या रोने लगते थे। कभी कोई दंभ दिखलाता, औरत के जिस्म पर उछलता हुआ दुश्मन पर फतह के उल्लास से चिल्लाता, पर सच यह था कि वह रो रहा होता।
वे यह सब देखतीं। उनमें से ज्यादातर माहिर थीं कि कब किसके माथे को कहाँ छोड़ा जाए कि वह उनकी जाँघों के बीच उछलता रहे। वे जैसी भी दिखतीं, असल में उदासीन आँखों से छत के ऊपर तारों भरे आस्मान के ऊपर देख रही होतीं। फिल्मों-कहानियों में नई नवेली के रोने जैसी बात वहाँ कम ही होती। मुंशीगंज की वे।
(1-ii)
आना-जाना समांतर ब्रह्मांड में घटित होता था। अपनी धरती पर उन्हें कोई फिक्र न थी कि किस जंग में कौन जीत रहा है, कौन प्रधानमंत्री कब मरा या किस को नोबेल जैसा सम्मान मिला। कुछ बातें न जानना जन्म से उनकी नियति थी। बाक़ी की खबर खुद नहीं रखते थे। उन्हें शिविरों में जानवर की हैसियत से रखा जाता था। जरा सी ग़फलत होने पर उनको ऐसे काम करने पड़ते जो जानवर से भी करवाए न जाते थे, मसलन रेंग कर पत्थर ढोना। उन्हें लगता कि यही सच है, उनको जानवर जैसा होना था। मुंशीगंज की वे उनके जिस्मों की गर्माहट सँभाल रखतीं। उनके सामने वे पिघल-सी जातीं, पर नज़र पलटते ही वे उनके दिए पैसों को ध्यान से गिनतीं। दो पल में जब वे सौ रुपए गिनकर खुश होतीं, टाटा-बिड़ला करोड़ों का लेन-देन कर चुके होते थे। अंबानी को आने में कुछ साल और बाक़ी थे। भारत-पाकिस्तान हाल में तीसरी जंग लड़ चुके थे। एक बंदा नया फील्ड मार्शल बन गया था। उनके कमरों के बाहर बीमार बच्चे खेल-झगड़ रहे होते थे कि वक्त बीत जाए और माँएं खाना खिलाएँ। धंधे के वक्त बच्चों का शोर मचाना उनको पसंद न था। मुंशीगंज की वे।
(1-iii)
शिविरों में सुबह-शाम जो कुछ भी करते वह अफसरों के आदेश मुताबिक होता। सुबह की परेड, शाम के खेल, हर बात में उनको आ, जा, घूम, नाच, उछल, कूद, हुक्म दिए जाते। कभी-कभी उनसे नकली हमले करवाए जाते कि अगली जंग के लिए तैयार रहें। ऐसा करते हुए उनमें से जो मुंशीगंज आ चुके थे छुट्टी की शाम का इंतज़ार करते। जो अभी वहाँ आए नहीं थे, पर वहाँ की औरतों के बारे में औरों से सुन चुके थे, छुट्टी की शाम का इंतज़ार करते। वक्त के साथ उनके ज़हन में अपराध-बोध कम होता रहता। एम पी वालों से पकड़े जाने का डर रहता और गाँवों में रह रही बीबियों के साथ बेवफाई की परवाह कम होती जाती। उनके सपनों में तमाम परेडों, मोर्चाबंदियों, आगे बढ़ पीछे मुड़ के साथ रंग-बिरंगी साड़ियाँ सलवार कमीज़ पहनी अपने जिस्म लहराती तरह-तरह की वे आतीं। मुंशीगंज की वे।
(1-iv)
देर रात तक धंधा कर चुकने के बाद स्त्रियाँ अपने बच्चों की खबर लेतीं। उन्हें सोता देख कर या जगे हुओं को सुलाकर वे खुद सोने की तैयारी करतीं। उनमें से जो पुरानी थीं, उन्हें अपने जिस्म से घिन नहीं आती थी। वे इस पर सोचती भी नहीं थीं। अगली सुबह रोज़मर्रा के काम की चिंता अवचेतन में लिए वे सो जातीं। उनका हर दिन एक जंग है ऐसा कवि सोचते हैं, दरअसल ऐसा कुछ भी नहीं था। फुर्सत में पीर भरे गीत गातीं और उल्लास के गीत गातीं। वे रोतीं और हँसतीं। बच्चों को पीटतीं और उनसे प्यार करतीं। अभी एड्स की बीमारी आई नहीं थी, कुछ फोड़ा फुंशी और एकाध सिफिलिस से परेशान रहतीं। एकाध असावधान मर्द ये बीमारियाँ साथ ले जाते। साल में एक-दो ऐसे केस होते रहते और फिर कोर्ट मार्शल जैसी कारवाई होती। पुलिस आकर उन स्त्रियों को छेड़ती। कुछ खिला-पिलाकर मामला दफा होता। डॉक्टरों के दौरे होते। जिस्मों की सफाई का इंतज़ाम होता। इन झमेलों के बीच वे पूजा-पाठ, नमाज वगैरह करतीं। मुंशीगंज की वे।
(1-v)
उनमें से कोई प्यार के सपने देखती थी। कोई मर्द भी कभी हिल जाता। यह मसला कुछ महीनों से ज्यादा नहीं चलता था। उसके लगातार कई दिन न आने से औरत समझ जाती थी कि फिर एकबार उसके साथ धोखा हुआ है। वह अकेले में रोती, अपनी करीबी सखियों से कहती कि मैं मर जाऊँगी। आखिर में सब वैसा ही रहता, जैसा था। इतिहास में ऐसी स्त्रियों को उबारने के लिए मसीहों ने जन्म लिया है। पर इनके साथ भले लोगों की टोलियाँ जुटने में अभी कुछ दशक और लगने थे। कुछ सालों बाद भटके हुए से कुछ युवा एन जी ओ कर्मियों को यहाँ आना था। एड्स पर जानकारी और बच्चों की पढ़ाई के बीच उनमें नए सपनों को जगाना था। उन दिनों ऐसी बातों से बेखबर वे एक उम्र के बाद कहीं गायब हो जातीं। वृंदावन, काशी या ऐसी किसी जगह।
एकाध बुढ़ापे और बीमारी में मरने के लिए वहीं पड़ी रहतीं। मुंशीगंज की वे।
(1-vi)
ज़िंदगी एक जंग के मानिंद उन्हें निगल जाती थी। किसी भी जंग की तरह कहना मुश्किल है कि कौन किस ओर था। कौन जी रहा था और कौन मरता था, कहना मुश्किल था। ज़िंदगी धरती के सूरज के चक्कर काटने जैसी आवर्ती घटना थी। वे चली जातीं और वे आतीं। तबादले होते और नए मर्द आ जाते। मुल्क में तख्तापलट होता, सरकार गिरती और नई सरकार सत्तासीन होती। कहीं कोई मसीहा सिसकता हुआ गायब हो जाता और नया मसीहा ज़िंदा हो उठता। अदीब उन औरतों के बारे अफसाने लिखते जाते। कई इसी से पहचाने गए कि उन्होंने उन औरतों के सपनों में जगह बनाई। मुंशीगंज की वे।
(2019)
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2. कुछ जो दूर होता नहीं था
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(2.1)
जहाँ भी रहते हो
सबसे लंबा कद दिखना चाहते हो
रोशनी के सामने खड़े हो मुड़कर अपना साया देखते हो
घबराहट में मुस्कराते हो कि
तुम्हारा साया दीवारों तक फैला है
जानती हूँ
सबकी नज़रें बचाकर समेट लेती हूँ
तुम्हारा साया अपने अंदर।
(2.2)
रात को सिर्फ मर्द बाहर निकलते हैं
आपको जल्दी घर चले जाना चाहिए
वह कहता है जब मैं पिछली सीट में बैठी
पर्स से आईना निकाल गालों और बालों को
सँवारती हूँ; सोचती हूँ कि फ़ोन पर कैसे फूहड़
आदमी से पाला पड़ा था जो बीमा का विज्ञापन सुनकर
कह रहा था कि मेरी आवाज़ मीठी है, बात
करती जाऊँ। ऑटो चलाते हुए वह बोलता रहता है
कि गंदे लोग हैं सड़कों पर घूम रहे
और पूछता है कि मेरी शादी हुई कि नहीं
एकबार झटका सा लगता है, हँस उठती हूँ
ठीक जब कहीं तूफान सा उठता लगता है या कि
ऑटो ही झटके के साथ घूमता है
नहीं, कहकर सोचती हूँ उसे जिससे शादी करने की सोची
थी, गलबँहियों से बहुत दूर तक जाकर
फिर जैसे किसी और कायनात की कहानी बन गई।
लफ्ज़ खो जाते हैं और कहती हूँ कि आराम से चलाओ
भैया और वह बड़बड़ाता है, ट्राफिक को गाली देता है।
रोशनी और अँधेरे के दरमियान सड़क दिखती है
मत्त बलखाती हुई गाड़ियों के बीच बच-बच कर
पीछे भागती हुई। रात को तो सिर्फ मर्द बाहर निकलते हैं,
कुछ तो जवाब होता ही है, गुस्सा नहीं आता मुझे
आराम से ही कहती हूँ कोई कहानी
कि अँधेरा सूरज की रोशनी में भी है।
(2.3)
तुमने कहा कि
मैं परेशान न होऊँ, सब ठीक हो जाएगा
मैंने समझा कि तुम पेड़ हो
तुम्हारी डालों, तुम्हारे तने से बतियाती रही
तुम्हें गलबँहियों में लेना चाहा
और तुम बहुत चौड़े लगे
समझा कि तुम आस्माँ हो
तुम्हारे बादलों से बतियाती रही
सब ठीक हो जाएगा, ठीक हो जाएगा
कहकर ही मैंने छलाँग लगाई थी
सपाट धरती पर गिरी तो कुछ भी ठीक नहीं था
तुम धरती नहीं थे
मैं कहाँ थी मुझे पता नहीं था
तुम बहुत पहले खो गए थे
मेरे चेहरे पर अनगिनत पत्थरों से लगे चोट थे
चाहती थी कि मेरा हर पोर दर्द से चीख उठे
घावों को छुआ तो कोई एहसास न था
साथ दर्द का एहसास लिए पत्थर
कहीं अंदर धँस चुके थे; तुम तब भी कह रहे थे
कि मैं परेशान न होऊँ, सब ठीक हो जाएगा
खयालों की दौड़ में
रुक कर उकड़ूँ बैठी मैं उल्टी कर रही थी
हवा मुझे सहला रही थी; गालों को छूते हुए साँसें
उठ रही थीं, गिर रही थीं
मेरे अंदर कोई कह रहा था
साँस लेती रहो, फिलहाल साँस लेती रहो।
(2.4)
जीभ पर से फिसलता
तरल गरल सीने को चीरता बहा
ग्लास खाली हुआ और मैंने और डालने को
बोतल की ओर हाथ बढ़ाया तो तुमने
एकबारगी मुझे देखा
क्या तुम मुझे रोकना चाहते थे
या कह रहे थे कि ले लो और थोड़ी सी
मुझे समझ नहीं आया
सवाल में उलझी हुई काँपते हाथों
फिर से जाम होंठों तक लाते ही
एहसास हुआ, जलन बढ़ रही थी
बर्फ के दो टुकड़े और डाले
उठकर खिड़कियों तक गई
सारी खिड़कियाँ खुली थीं
और जलन कहीं खिड़कियों से बाहर चल निकली थी
तुम वहीं थे
किसी से बतियाते
या कि टी वी पर कुछ देख रहे थे
मैं चाह रही थी कि और पिऊँ
तब तक जलन का एहसास जिऊँ
जब तक तुम मेरे सीने के छेदों में से
गुजरते हुए कायनात के दूसरे छोर पर पहुँच न जाओ।
(2.5)
तुमने कहा कि मैं बहुत होशियार हूँ
मेरी समझ, क़ाबिलियत पर तुम फिदा थे
मेरी आँखों के सामने खुशी के बादल बरस पड़े
गालों पर खारा स्वाद-सा था तो अचरज हुआ
बरस रहे थे अश्क कि
तुमने मेरा लिखा देखा एक बार
और हँस कर डेस्क के एक कोने पर रख दिया
बाद में भूले-से अंदाज़ में तुमने समझाया कि
मैं ज़रा लाउड लिखती हूँ
कि जो निज है उसे विस्तार देने में मुझे अभी काम करना है
कि उदासीन होना ज़रूरी होता है अच्छा लिखने के लिए
कि दूरी रखनी पड़ती है
बादल मेरे गालों को छू रहे थे
कितनी दूरी ठीक होगी मैंने सोचा
और उन्हें उँगलियों में थामते हुए दूर किया
हाथ भर। खारापन मिटता ही नहीं था
या कि कुछ था जो दूर होता ही नहीं था।
(2.6)
दरख्त पर चढ़ जाऊँगी
क्योंकि प्यार मेरा आखिरी मक़सद है
क्योंकि कस्तूरबा के बिना गाँधी की क्या औकात
क्योंकि ग़ालिब की ख़लिश मैं समझती हूँ
क्योंकि सावित्री फुले और फातिमा शेख ने प्यार बाँटा था
दरख्त पर चढ़ कर देखूँगी कि एक दिन नफ़रत ढूँढे नहीं मिलेगी, कोई नहीं पूछेगा कि कौन किसका हमबिस्तर है, हर कोई खूब सारा खा पाएगा, हर कोई खुशी के गीत गाएगा
मैं दरख्त पर चढ़ जाऊँगी
अपनी ऊँचाई में वह और ग्रहों को चूमता है
वहाँ लोगों को लव जिहादी कह कर मारा नहीं जाता है
वहाँ इरोम को अनशन(1) नहीं करना पड़ता
ऊँचाई से दिखता है कि भविष्य हमारा है
पेड़ पर चढ़कर लोगों के साथ हो जाती हूँ जो भविष्य बना रहे हैं; मेरे पास चढ़ने के औजार हैं, लफ्ज़ हैं, नज्म हैं, शायरी है, तरन्नुम में या कि खुली शैली की। माँ-बाप बच्चों को रोकते हैं कि मत चढ़ो, कहीं जो पास है वह खो न जाए। चढ़ना वक्त माँगता है और मचान भी बनाना है, बीच-बीच में लौट कर नीचे उतरना है और फिर-फिर चढ़ना है। डर होता है कि जाने ऊपर क्या होगा, चढ़ते हुए थक गए तो, ऊपर खाने-पीने का क्या इंतज़ाम होगा, वहाँ चढ़कर हम कितना बदल जाएँगे।
सजदा करती हूँ कि कुदरत का साथ रहे, दुआ माँगती हूँ।
सपनों को सीने से लगा रखती हूँ, उन्हें अपने स्तन से दूध पिलाती हूँ। सपनों में मुँह छिपाकर खुद को धरती पर फैली सड़ाँध से बचाती हूँ। मैं और मेरे जैसे सभी, सपनों से बातें करते हुए दरख्त की ओर बढ़ रहे हैं। साथ बढ़ते हुए हम गीत गाते हैं। यह गीत तुम्हें सुनाऊँगी। तुम सुनोगे, क्योंकि प्यार के बिना तुम जी नहीं सकते। गीत की धुन तुम्हें दरख्त के ऊपर ले आएगी और वहाँ तुम - हम में से एक हो जाओगे।
(2018)
(1 इरोम शर्मिला ने आफ्स्पा के खिलाफ अनशन किया था)
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3. एक और औरत
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एक और औरत हाथ में साबुन लिए उल्लास की पराकाष्ठा पर है
गद्दे वाली कुर्सी पर बैठी औरत कामुक निगाहों से ताक रही है
एक इश्तहार से खुली छातियों वाली औरत मुझे देखती मुस्कराती है
एक औरत फ़ोन का डायल घुमा रही है और मेरा नम्बर मिला रही है
माँ छह घण्टों बस की यात्रा कर आई है
मुझसे मिल नहीं सकती, होस्टल में रात में औरत का आना मना है।
(1992)
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4. तुम जानते हो मेरा नाम
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(4.1)
तुम जानते हो मेरा नाम?
मीराँ है या पारो, या कि दोनों हैं,
या कोई तीसरा जो ध्वनि या पाठ सब कुछ
चक्रवात में खो बैठा है
जीना चाहती हूँ या मरना
मेरा समय आगे बढ़ता या पीछे
सभी रस्म सभी रिवाज मुझमें से गुजर रहे
मेरे होंठ कथा दर कथा हीर गा रहे
मैं रांझा होई मैं रांझा होई मैं रांझा होई
मेरा क्या कुछ मेरा अब
मेरी नहीं मेरी साँस,
मेरे आँसू, मेरा हर स्राव,
मेरी उँगलियाँ मेरी नहीं,
मेरी त्वचा में दहक रही कोमलता
यह मेरे अंदर कोई दौड़ता
या कि एक ही जगह खड़े खड़े चकराता
यह मैं हूँ?
(4.2)
यह आज खुली मेरी आँखें
या कि ये खुली ही खुली हैं
देखती कुदरत के सभी दस्तूर
समूचा ज्ञान-विज्ञान मेरे रंध्रों की तड़प
ग्रहों नक्षत्रों को उनकी धुरियों पर
चला रही
हर कोई दौड़ता उड़ता
जो कुछ भी गतिमान
सूक्ष्म से सूक्ष्म और स्थूल भी
समाए हुए है उसी की गंध
उसके सुर उसकी कविता।
ये मेरी आँखें कभी नहीं सोएँगी
मेरी पलकें उन्हें नहीं ढँकेंगी
मुझे देखना है उसे मूर्त्त हर पल
जैसे देखती हूँ उसे अपने अंदर गहरे कहीं।
(4.3)
मेरे पागलपन में शामिल ऐ दोस्त ,
तू जो मेरा भूगोल और मेरा इतिहास है
मेरे जिस्म मेरी रुह मेरी साँस को तेरी ज़रूरत है
कैसे कहूँ
चश्म-ए-तर मेरे पोरों को कब से तेरी उँगलियों का इंतज़ार है।
(2010)
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5 समूची दुनिया होती है वह
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जब लेन्स सचमुच ढँका जाता है
खत्म हो जाती है दुनिया
अचानक आ गिरता अन्धकार
अब तक रौशन समाँ में
उतारती है चमकीले कपड़े -
उसके एकमात्र क़रीबी दोस्त
सँभाल कर रखती है इन दोस्तों को
कि अगली किसी रौशन महफिल में
फिर हाजिर हो सके
इधर से उधर जाती और वापस आती
कायनात भर की नज़रें साथ उसके घूम जातीं
ऐसे मौकों पर वह, वह नहीं
एक समूची दुनिया होती है
तमाम अँधेरे
सीने में समेटे
सावधान कदमों से सँभाले हुए भार
तयशुदा वक्त में करती पार
रोशनी से भरा अन्धकार।
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6 जब तुम नहीं रहतीं
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ठहर जाता है
विश्व एक बिन्दु पर
जब तुम नहीं रहतीं
रह रहकर
नशे में उठ पड़ता हूँ
जैसे तुम्हारी बाहैं
हवा में बहती
आ रही हों मेरी ओर
तुम्हारी जीभ, तुम्हारे वक्ष
नितम्ब तुम्हारे मुड़ मुड़
आते हैं हथेलियों पर
देखता रहता हूँ
अपनी उंगलियों को
जैसे तुमने परखा था उन्हें
(1992)
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7. ठंडी हवा और वह
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ठंडी हवा झूमते पत्ते
सदियों पुरानी मीठी महक
उसकी नज़रें झुकीं
सोचती अपने मर्द के बारे में ।
बैठी कमरे में खिड़की के पास
हाथ बँधे प्रार्थना कर रही
थकी गर्दन झुकी
सोचती अपने मर्द के बारे में ।
शहर के पक्के मकान में
गाँव की कमज़ोर दीवार के पास
दंगों के बाद की एक दोपहर
सोचती अपने मर्द के बारे में ।
(2002)
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8. सालों बाद मिलने पर
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सालों बाद मिलने पर
वह दिखती है धरती का बोझ ढोती
स्मृति से बहन-भाई माता पिता लुप्त हो गए हैं
कभी बेटी आकर साथ लेटती है
और हल्की सी याद आती है
उसे माँ की बहनों की
स्त्रियाँ थीं वे भीं
जिनकी धरती इस धरती से न ज्यादा न कम ठोस थी
बोझ ढोती रहीं वे भी इसी तरह आजीवन
बेटी सीख रही है सही गलत उपाय बोझ से उबरने के
उसने सीख लिए हैं राज शरीर के
जैसे उसकी माँ आसानी से भूल गई है
झुर्रियाँ समय से पहले ही दिखतीं त्वचा पर
जैसे बेटी के बदन में नहीं कहीं भी रोंए
उसे देखकर एकबारगी लगता है
कि स्त्री होती है विरक्त स्वभाव से
देखोगे अँधेरे में जब कदाचित खुली आँखें
खुश दिखेगी यह सोचती कि
समंदर चाहतों का उमड़ता बेटी के नखरों में।
(2001)
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9. अर्थ खोना ज़मीन का
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मेरा है सिर्फ मेरा
सोचते सोचते उसे दे दिए
उँगलियों के नाखून
रोओं में बहती नदियाँ
स्तनों की थिरकन
उसके पैर मेरी नाभि पर थे
धीरे-धीरे पसलियों से फिसले
पिण्डलियों को मथा-परखा
और एक दिन छलाँग लगा चुके थे
सागर-महासागरों में तैर तैर
लौट लौट आते उसके पैर
मैं बिछ जाती
मेरा नाम सिर्फ ज़मीन था
मेरी सोच थी उसके मेरे होने की
एक दिन वह लेटा हुआ
बहुत बेखबर कि उसके बदन से है टपकता कीचड़
मैं देखती लगातार अपना
कीचड़ बनना अर्थ खोना ज़मीन का।
(1995)
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10. डरती हूँ
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जब तुम बाहर से लौटते हो
और देख लेते हो एकबार फिर घर
जब तुम अन्दर से बाहर जाते हो
और खुली हवा से अधिक खुली होती तुम्हारी स्वास
अन्दर बाहर के किसी सतह पर होते जब
डरती हूँ
डरती हूँ जब अकेले होते हो
जब होते हो भीड़
जब होते हो बाप
जब होते हो पति आप
सबसे अधिक डरती हूँ
जब देखती तुम्हारी आँखो में
बढ़ते हुए डर का एक हिस्सा
मेरी अपनी तस्वीर।
(1995)
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11. ऐसे ही
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ऐसे ही आओगे शाम-दर-शाम
सुनोगे प्रयोगवादी कवियों की उत्तम कविताएँ
सुनोगे बार-बार कि तुम कम्युनिस्ट विचारधारा के हो
और तुम्हें अच्छी नहीं लगती ये कविताएँ
न-न कहते थक जाओगे
एक दिन चुप रह के सोचोगे
तुम्हारे सिवा भी कोई और चुप है
जानती हूँ सोचोगे शाम-दर-शाम
मेरा चुप बैठे रहना
लौटोगे घर ठोकोगे माथा
दीवार पर सोच-सोच मेरा चुप बैठे रहना
चिढ़ते रहोगे मुझपर
कहोगे बार दो बार
कि मुझ को भी कहना चाहिए कुछ
कि कहने को कुछ मेरे पास भी होगा
एक दिन ऐसा आएगा
झगड़ोगे चिल्लाकर
तब भी बैठी रहूँगी
चुपचाप और तुम चले जाओगे
तुम्हारा झगड़ा होगा
बूढ़े कवि को शराब पिलाने पर
या बस यूँ ही किसी शादी या
बेमतलब सरकारी बर्बादी पर
सिर्फ जानूँगी मैं कि झगड़ना
तुम्हें मुझसे है फ़ोन करोगे शराब पीकर
हँसकर कहूँगी हमें जाना है कहीं
फिर भी कहते रहोगे कुछ
जो नहीं बदलेगा मेरा चुप रहना
तुम नहीं आओगे लौटकर नहीं करोगे फ़ोन
भूलती भूलती याद करुँगी तुम्हें
एक दिन लगेगा तुम कभी तो लौटोगे
हे भगवान !
चुप रहती-रहती बूढ़ी हो जाऊँगी एक दिन
फिर भी तुम नहीं आओगे लौटकर ।
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12. स्केच (?)
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एक इंसान रो रहा है
औरत
लेटर बॉक्स पर
दोनों हाथों पर सिर टिकाए
बिलख रही
टेढ़ी काया की निचली ओर
दिखता स्तनों का उभार
औरत
औरत
दिखता स्तनों का उभार
टेढ़ी काया की निचली ओर
बिलख रही
दोनों हाथों पर सिर टिकाए
लेटर बॉक्स पर
औरत
एक इंसान रो रहा है।
(1992)
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13. छोटे शहर की लड़कियाँ
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कितना बोलती हैं
मौका मिलते ही
फव्वारों सी फूटती हैं
घर-बाहर की
कितनी
कहानियाँ सुनाती हैं
फिर भी नहीं बोल पातीं
मन की बातें
छोटे शहर की लड़कियाँ
भूचाल हैं
सपनों में
लावा गर्म बहता
गहरी सुरंगों वाला आस्मान है
जिसमें से झाँकते
टिमटिमाते तारे
कुछ कह जाते हैं
मुस्कराती हैं
तो रंग बिरंगी साड़ियाँ कमीज़ें
सिमट आती हैं
होंठों तक
रोती हैं
तो बीच कमरे खड़े-खड़े
जाने किन कोनों में दुबक जाती हैं
जहाँ उन्हें कोई नहीं पकड़ सकता
एक दिन
क्या करुँ
आप ही बतलाइए
क्या करुँ
कहती
उठ पड़ेंगी
मुट्ठियाँ भींच लेंगी
बरस पड़ेंगी मर्दों पर
कभी नहीं हटेंगी
फिर सड़कों पर
छोटे शहर की लड़कियाँ
भागेंगी, सरपट दौड़ेंगी
सबको शर्म में डुबोकर
खिलखिलाकर हँसेंगी
एक दिन पौ सी फटेंगी
छोटे शहर की लड़कियाँ।
(1988)
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14 बड़े शहर की लड़कियाँ
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शहर में
एक बहुत बड़ा छोटा शहर और
निहायत ही छोटा सा एक
बड़ा शहर होता है
जहाँ लड़कियाँ
अंग्रेज़ी पढ़ी होती हैं
इम्तहानों में भूगोल इतिहास में भी
वे ऊपर आती हैं
उन्हें दूर से देखकर
छोटे शहर की लड़कियों को बेवजह
तंग करने वाले आवारा लड़के
ख्वाबों में - मैं तुम्हारे लिए
बहुत अच्छा बन जाऊँगा -
कहते हैं
ड्राइवरों वाली कारों में
राष्ट्रीय स्पर्धाओं में जाती लड़कियाँ
तन से प्रायः गोरी
मन से परिवार के मर्दों सी
हमेशा गोरी होती हैं
फिल्मों में गोरियाँ
गरीब लड़कों की उछल कूद देखकर
उन्हें प्यार कर बैठती हैं
ऐसा ज़िंदगी में नहीं होता
छोटे शहर की लड़कियों के भाइयों को
यह तब पता चलता है
जब आईने में शक्ल बदसूरत लगने लगती है
नौकरी धंधे की तलाश में एक मौत हो चुकी होती है
बाकी ज़िंदगी दूसरी मौत का इंतज़ार होती है
तब तक बड़े शहर की लड़कियाँ
अफसरनुमा व्यापारी व्यापारीनुमा अफसर
मर्दों की बीबियाँ बनने की तैयारी में
जुट चुकी होती हैं
उनके बारे में कइयों का कहना है
वे बड़ी आधुनिक हैं उनके रस्म
पश्चिमी ढंग के हैं
दरअसल बड़े शहर की लड़कियाँ
औरत होने का अधकचरा अहसास
किसी के साथ साझा नहीं कर सकतीं
इसलिए बहुत रोया करती हैं
उतना ही
जितना छोटे शहर की लड़कियाँ
रोती हैं
रोते रोते
उनमें से कुछ
हल्की होकर
आस्मान में उड़ने
लगती है
ज़मीन उसके लिए
निचले रहस्य सा खुल जाती है
फिर कोई नहीं रोक सकता
लड़की को
वह तूफान बन कर आती है
पहाड़ बन कर आती है
भरपूर औरत बन कर आती है
अचंभित दुनिया देखती है
औरत।
(1988)