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शिक्षा का स्वरुप कैसा हो?

इसके पहले कि इसका कोई जवाब ढूँढा जाए, यह जानना जरुरी है इस सवाल से बावस्ता सिर्फ उन्हीं का हो सकता है जो शिक्षा के क्षेत्र में रुचि के साथ आए हैं। मैं पहले ही बता चुका हूँ कि भारत में अन्य तमाम पेशों की तरह ही शिक्षा के क्षेत्र में भी व्यापक भ्रष्टाचार है और भले लोगों की कम और फालतू के लोगों की ज्यादा चलती है। बी एड, एम एड में पढ़ाया बहुत कुछ जाता है, पर कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी और हम जहाँ के तहाँ रह जाते हैं। संस्थागत ढाँचों से बाहर शिक्षा पर बहुत सारा काम हुआ है। या संस्थानों से जुड़े ऐसे लोग जो किसी तरह संस्थानों की सीमाओं से बाहर निकल पाएँ हैं, उन्होंने शिक्षा में बुनियादी सुधार पर व्यापक काम किया है। आज इस चिट्ठे में मैं सिर्फ कुछेक नाम गिनाता हूँ ताकि जिन्हें जानकारी न हो वे जान जाएँ।

बीसवीं सदी में बुनियादी स्तर पर दो मुख्य वैचारिक आंदोलन हुए हैं। एक है गाँधी जी का शिक्षा दर्शन, जिसमें पारंपरिक कारीगरी को सिखाने पर बड़ा जोर है। दूसरा रवींद्रनाथ ठाकुर का प्रकृति के साथ संबंध स्थापित कर उच्च स्तरीय शिक्षा का दर्शन है। दोनों की अपनी अपनी खूबियाँ और सीमाएँ हैं। व्यवहारिक स्तर पर समर्पित शिक्षकों द्वारा अपने क्षेत्रों में सीमित रहकर शिक्षा में सुधार के प्रयोग किए गए। इनमें गुजरात के गिजुभाई (मूँछोंवाली माँ) का नाम बहुत प्रसिद्ध है। गिजुभाई के आलेखों के हिंदी अनुवाद पुस्तिकाओं के रुप में उपलब्ध हैं। विज्ञान शिक्षा में एक अनोखा आंदोलन जबलपुर के पास पिपरिया नामक छोटे शहर से पाँचेक किलोमीटर दूर बनखेड़ी गाँव में अनिल सदगोपाल के नेतृत्व में किशोर भारती संस्था द्वारा शुरु किया गया था। मिडिल स्कूलों में लागू होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम के नाम से प्रसिद्ध इस कार्यक्रम को बाद में एकलव्य संस्था वर्षों तक चलाती रही। इसके साथ ही प्राथमिक शिक्षा और सामाजिक विज्ञान शिक्षा के क्षेत्र में भी इस संस्था ने महत्तवपूर्ण काम किया। किशोर भारती के साथ जुड़े और बाद में स्वतंत्र रुप से काम कर रहे अरविंद गुप्ता ने सैंकड़ों खिलौने आविष्कार किए, जिनके जरिए विज्ञान और गणित शिक्षा रुचिकर और सार्थक बन सकती है। मांटेसरी समूह और अन्य कई संस्थाओं द्वारा किए जा रहे शोध को अरविंद ने इकट्ठा किया और कई किताबें लिखीं। विज्ञान शिक्षा पर मुंबई की टी आई एफ आर के साथ जुड़े होमी भाभा सेंटर फॉर साइंस एजुकेशन ने काफी शोध कर 'हल्का फुल्का विज्ञान' नामक पुस्तकें प्रकाशित कीं। दिल्ली विश्वविद्यालय में भी एक साइंस एजुकेशन सेंटर है, जिसके अध्यक्ष भौतिक शास्त्र के प्रोफेसर अमिताभ मुखर्जी हैं। ऐसे मुख्य स्रोतों से प्रेरित होकर देश के विभिन्न हिस्सों में हजारों समर्पित लोग शिक्षा में बुनियादी सुधारों पर काम कर रहे हैं। इन सभी प्रयासों में आम बात यह है कि शिक्षा को रुचिकर, स्थानीय मान्यताओं और पारिस्थितिकी से संगत, सस्ती और व्यापक बनाया जाए। विशेष उदाहरणों पर बाद में विस्तार से चर्चा हो सकती है।

मतलब यह कि बुनियादी स्तर पर सुधार के लिए काम तो बहुत हुए हैं, चल भी रहे हैं, काफी हद तक एन सी ई आर टी जैसी राष्ट्रीय़ शिक्षा संस्थाओं ने इन सुधारों को पाठ्यक्रम में शामिल भी कर लिया है, पर व्यवहारिक सच है कि अधिकतर बच्चे सही और स्तरीय शिक्षा से वंचित हैं। यह मूलतः राजनैतिक प्रश्न है और इसका समाधान राजनैतिक ढंग से ही हो सकता है।

Comments

Pratik Pandey said…
शिक्षा के विषय में आपका यह लेख काफ़ी ज्ञानपूर्ण है। लेकिन मैं मूलभूत शैक्षिक मुद्दों जैसे शिक्षा-व्यवस्था और शिक्षा-पद्धति के बारे में भी आपके विचार जानना चाहूँगा, क्योंकि शिक्षा-क्षेत्र में आपकी गहरी पैठ है और आप इस पर व्यावहारिक तौर पर प्रकाश डाल सकते हैं।

जहाँ तक विज्ञान शिक्षा का प्रश्न है; जब तक उसे पुस्तकों के पन्नों से निकाल कर प्रायोगिक तौर पर नहीं सिखलाया जाएगा, तब तक उसका कोई ख़ास मूल्य नहीं है। मेरा मानना है कि मल्टीमीडिया कम्प्यूटिंग के ज़रिए विज्ञान की शिक्षा को विद्यार्थियों के लिए ज़्यादा सरलता से समझने लायक बनाया जा सकता है।

विज्ञान को रोचक और सरस तरीक़े से समझाने के मामले में रूसी किताबें लाजवाब हैं, ख़ासकर इस विषय पर मीर प्रकाशन की किताबें मुझे निजी तौर पर बहुत रोचक लगती हैं। बस दिक़्क़त यह है कि उनका अनुवाद काफ़ी क्लिष्ट होता है।

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