Thursday, April 30, 2009

छोटे शहर की लड़कियाँ

१९८८ में हरदा एक छोटा शहर था। अब जिला मुख्यालय है। मैं बड़े शहर में जन्मा पला, इसके पहले कभी किसी छोटे शहर में रहा न था। सबसे ज्यादा जिस बात ने मुझे प्रभावित किया, वह था युवाओं की छटपटाहट। मुझे लगता था कि ऊर्जा का समुद्र है, जो मंथन के लिए तैयार है। बहरहाल, संस्था के केंद्र में एक पुस्तकालय था, जहाँ छोटे बच्चों से लेकर कालेज की लड़कियाँ तक आती थीं। खास तौर पर लड़कियों में मुझे लगता था जैसे उनके लिए केंद्र में आना घर परिवार के संकीर्ण माहौल से मुक्ति पाना था। मुझे तब पहली बार लगा था कि इस देश में अगर लड़कियों को घर से बाहर रहने की आज़ादी हो तो आधे से ज्यादी लड़कियाँ निकल भागेंगी। लगता था अगर हम लड़कियों के लिए सुरक्षित जगहें बना सकें तो बहुत बड़ा काम होगा। हाँ भई, उम्र कम थी, संवेदनशील था, तो ऐसा ही सोचता था। उन दिनों यह कविता लिखी थी जो तीन चार पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई और मेरे पहले संग्रह 'एक झील थी बर्फ की' में भी है।



छोटे शहर की लड़कियाँ

कितना बोलती हैं
मौका मिलते ही
फव्वारों सी फूटती हैं
घर-बाहर की
कितनी उलझनें
कहानियाँ सुनाती हैं

फिर भी नहीं बोल पातीं
मन की बातें
छोटे शहर की लड़कियाँ

भूचाल हैं
सपनों में
लावा गर्म बहता
गहरी सुरंगों वाला आस्मान है
जिसमें से झाँक झाँक
टिमटिमाते तारे
कुछ कह जाते हैं

मुस्कराती हैं
तो रंग बिरंगी साड़ियाँ कमीज़ें
सिमट आती हैं
होंठों तक

रोती हैं
तो बीच कमरे खड़े खड़े
जाने किन कोनों में दुबक जाती हैं
जहाँ उन्हें कोई नहीं पकड़ सकता

एक दिन
क्या करुँ
आप ही बतलाइए
क्या करुँ
कहती कहती
उठ पड़ेंगी
मुट्ठियाँ भींच लेंगी
बरस पड़ेंगी कमज़ोर मर्दों पर
कभी नहीं हटेंगी

फिर सड़कों पर
छोटे शहर की लड़कियाँ
भागेंगी, सरपट दौड़ेंगी
सबको शर्म में डुबोकर
खिलखिलाकर हँसेंगी

एक दिन पौ सी फटेंगी
छोटे शहर की लड़कियाँ।
(१९८९)

बाद में चंडीगढ़ में बड़े शहर की लड़कियाँ शीर्षक से एक और कविता भी लिखी थी, वह फिर कभी।

पिछले पोस्ट पर जो टिप्पणियाँ आई हैं, उस संबंध में भूतपूर्व सुप्रीम कोर्ट न्यायाधीश कृष्ण अय्यर का प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लिखा यह खत पठनीय है।

बाकी इस जानकारी के लिए धन्यवाद कि विनायक सेन नक्सलवादी है, मुझे तो पुलिस ने ही बतला दिया था कि मैं आतंकवादी हूँ। न्यायाधीश कृष्ण अय्यर भी कुछ वादी होगा। आजकल गाँधीवाद के भी खतरनाक पहलू लगातार सामने आ रहे हैं। वैसे विनायक सेन को और दो चार दिन जेल में रख लो - देश के लिए वह दाढीवाला मुस्कराता चेहरा बहुत बड़ा खतरा है।

Wednesday, April 29, 2009

अरे! वो आतंकवाद वाली फाइल लाना

कुछ मित्रों ने कहा कि एकलव्य के साथ गुजारे डेढ़ सालों के बारे में कुछ लिखूँ। मैंने एकलव्य संस्था में मई १९८८ से नवंबर १९८९ तक डेढ़ साल गुजारे थे। यह अनुभव बहुत मूल्यवान था और इस छोटी सी अवधि में जिस तरह के दोस्त मैंने बनाए, वैसा और शायद ही कभी हुआ। हरदा और उसके आस पास अध्यापकों और युवाओं के साथ बिताए उन दिनों में मैंने बहुत कुछ सीखा, बहुत कुछ पाया। यहाँ सिर्फ शुरुआत की एक रोचक घटना का जिक्र करुँगा।

१९८६ में प्रोफेसर यशपाल ने यू जी सी का अध्यक्ष बनते ही एक अनोखा काम किया। कालेज और यूनीवर्सिटी अध्यापकों को फेलोशिप्स दी गईंं कि वे ज़मीनी स्तर पर शिक्षा पर काम कर रही स्वैच्छिक संस्थाओं के साथ काम कर सकें। कागज़ी तौर पर इस तरह किए काम को उनकी जिम्मेदारियों का हिस्सा माना गया और इसे पदोन्नति आदि में बाधा नहीं माना जाना था (हालांकि मेरा अनुभव इसके विपरीत था - लंबे समय तक मेरे उन डेढ़ सालों के काम को मेरे खिलाफ इस्तेमाल किया गया)। इसके लिए यू जी सी से संस्थान के प्रमुख को बाकायदा निर्देश आता था कि प्रार्थी को फेलोशिप के काम पर भेजा जाए और संस्थान से ड्यूटी लीव मिलती थी।

मैं विदेश में शोध करते वक्त ही एकलव्य के काम से परिचित हो चुका था। १९८३ के आस पास इंडिया टूडे में होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम (होविशिका) पर रीपोर्ताज़ छपा था। मेरा मन था कि देश लौटते ही इस प्रयास से जुड़ूँ। अमरीका से लौटते हुए जिनको जानता था, उनको ख़त लिखा कि मैं किसी कालेज में नौकरी लेना चाहता हूँ, ताकि ईमानदारी से ज़मीनी स्तर पर काम कर सकूँ (उस वक्त भोली सी समझ यह थी कि यूनीवर्सिटी या आई आई टी आदि में नौकरी लूँ तो उच्च शिक्षा और शोध पर ही सारा वक्त लगाना पड़ेगा - यह बाद में पता चला कि इस सामंती समाज में जितने ऊपर हो, उतनी छूट है, सामान्य संस्थानों में बंधन ज्यादा हैं - यह अलग बात है कि बेकार कामों के लिए बंधन नहीं हैं - बहुत सारे कालेज अध्यापक ट्यूशन के धंधे में ही लगे रहते हैं)। बहरहाल मित्रों ने शायद मुझे भोला समझकर ही कोई जवाब नहीं दिया। आखिरकार यूनीवर्सिटी में नौकरी ली। १९८६ में अपने शोध कार्य पर IITK भाषण देने गया तो पहले से संपर्क में आए अमिताभ मुखर्जी के साथ मुलाकात हुई, जो उस वक्त वहाँ कुछ समय से postdoctoral काम कर रहा था। वहीं से एकलव्य के विनोद रायना का पता चला। विनोद को ख़त लिखा तो उसने तुरंत होविशिका के प्रशिक्षण शिविर के लिए बुलाया। होशंगाबाद और उज्जैन दो शहरों में मिडिल स्कूल के अध्यापकों के लिए शिविर शुरु हो रहे थे। चंडीगढ़ लौटते ही मैंने उज्जैन जाने की सोची। उन दिनों आज जितनी ट्रेनें न थीं। दिल्ली आया और सीधे रतलाम की ओर जाती गाड़ी पकड़ ली। अनारक्षित कोच में बैठा। भीड़ भाड़ में किसी ने ऊपर से खाना वाना गिरा दिया। गंदे कपड़ों में पहले नागदा और फिर उज्जैन पहुँचा। पहुँचते ही स्टेशन के पास विवेकानंद कालोनी में एकलव्य के दफ्तर पहुँचा - विवेक पायस्कर और अरविंद गुप्ते उज्जैन केंद्र में काम करते थे, इनके अलावा और लोगों में एक कमाल का व्यक्ति मनमौजी था, जिसने बाद में ओरीगामी आदि में महारत हासिल कर ली थी। उस वक्त वहाँ कोई नहीं मिला, वहाँ से सभी एजुकेशन कालेज चले गए थे, जहाँ शिविर था। तो कहीं से दो ग्लास लस्सी पी (तभी पता चला कि मध्य प्रदेश की लस्सी पी नहीं चम्मच से खायी जाती है) और शिविर पहुँचा। विनोद ने मिलते ही गले लगाया तो मैंने बतलाया कि दूर रहो, कपड़े गंदे हैं। जिनसे भी मिला तो बड़ा प्यार का माहौल सा था। मैं पहले दिन जिस क्लास में बैठा था, वहाँ स्रोत व्यक्ति अरविंद गुप्ते थे, जिन्होंने जीव जगत पर बहुत कुछ लिखा है और चकमक आदि पत्रिकाओं में बहुत सारी यह सामग्री प्रकाशित हुई है। उनके समझाने के तरीके का मैं तब से कायल रहा हूँ। देवास केंद्र का प्रभारी राम नारायण स्याग भी वहीं था, और बिल्कुल पंजाबी अंदाज में दमघोटू जफ्फी के साथ उसके साथ परिचय हुआ।

वह थी एकलव्य में मेरी शुरुआत। उन दिनों माहौल प्रोफेशनल और बोहेमियन का मिश्रण सा था। दिनभर शिविर में स्थानीय ग्रामीण अध्यापकों के साथ मिलकर प्रशिक्षण का काम – शाम को सब मिलकर गाने बजाने बैठते। जनगीत गाए जाते। शिक्षाविदों के अलावा राजनैतिक सोच वाले कार्यकर्त्ता भी जुटे थे - लोग दूर दूर से शिविर में आए थे। हिंदुस्तान में कम्युनिटी लिविंग जैसा ऐसा माहौल मैंने पहली बार पाया था। बहुत मजा आया। लौटकर यू जी सी फेलोशिप के लिए दरख़ास्त भेज दी। उन दिनों कुलपति गणित के प्रोफेसर बांबा थे। प्रोफेसर यशपाल के मित्र थे और जन विज्ञान जैसी बातों में रुचि रखते थे। तो तय हो गया कि दो वर्षों के लिए एकलव्य जा रहा हूँ। कागज़ात निकलने में देर हो गई, मई १९८८ से जाने का तय हो गया। मैं इस बीच १९८६ के दिसंबर में सत्यपाल सहगल को साथ लेकर देवास और भोपाल केंद्रों में आया (राजेश उत्साही से शायद तभी पहली बार भोपाल केंद्र में मुलाकात हुई और उसी यात्रा के दौरान पहली बार वरिष्ठ कवि राजेश जोशी से मिला)। १९८७ की गर्मियों में देवास में बाल मेले में आया; उस मेले की स्मृति ऐसी है जैसे बहुत उम्दा संगीत सुनने का अनुभव होता है; वहाँ शुभेंदु को छाओ नाच नाचते देखा और स्याग भाई के साथ तो मुहब्बत ही हो गई – (इसमें बहुत बड़ा हिस्सा उसके शिव बटालवी के गीतों को गाने के असर का है - मैंनूँ तेरा शबाब लै बैठा.....)। वहाँ से होशंगाबाद के शिविर में। इसी दौरान विनोद से कुछ बातों में मतभेद भी पनपे। इस पर फिर कभी।

१९८७ की उन गर्मियों में होशंगाबाद में मीरा सदगोपाल से मुलाकात हुई। मीरा से मिलते ही मैं उसका भक्त हो गया। एक दिन शाम को मीरा ने गिटार बजाते हुए पीट सीगर और जोन बाएज़ के पुराने गीत गाए। अनिल सदगोपाल से पिछले साल ही उज्जैन में मिल चुका था और मैं अनिल से बहुत प्रभावित था।

उन दिनों एकलव्य के सात केंद्र थे। भोपाल, होशंगाबाद, हरदा, पिपरिया, उज्जैन, देवास और धार। जब आना तय हुआ तो हमारी इच्छा के मुताबिक केंद्र में जगह न मिली। हम चाहते थे कि हम पिपरिया जाएँ क्योंकि मीरा सदगोपाल बनखेड़ी में किशोर भारती में थी और वह पिपरिया से करीब था। मैं मीरा को बहुत पसंद करता था और मेरा खयाल था कि मेरी पत्नी कैरन को मीरा के पास होने से सहूलियत होगी। मीरा भी अमरीका से आई थी और भारत में बस गई थी।

हालांकि बाद में हरदा में आकर हम खुश थे (खासकर अनवर जाफरी की ज़िंदादिली की वजह से), शुरुआत में बहुत हताशा हुई कि हमें अपने मन मुताबिक केंद्र में जाने नहीं दिया गया। एकलव्य की अंदरुनी समस्याओं का यह पहला झटका था और अगर तब तक चंडीगढ़ में सबसे कह न दिया होता तो शायद हम उस वक्त मध्य प्रदेश आते ही नहीं। तब तक देर हो चुकी थी और वापस जाना संभव न था। मुझसे पहले कैरन ने एकलव्य में काम लिया। बहुत ही सामान्य तनख़ाह थी। शायद पंद्रह सौ रुपए मिलते थे। आते ही उसे कुछ शारीरिक समस्याएँ हुईं। मैं दो या तीन बार चंडीगढ़ से हरदा दौड़ता रहा। आखिर मई में सामान पैक करवा मैं भी रवाना हुआ। अब भी एग्ज़ाम ड्यूटी के लिए वापस आना था। इसी बीच एक अजीब संकट आ खड़ा हुआ।

१९८७ की शुरुआत में पिपरिया के पास एक गाँव में एक पुलिस के सिपाही का कुछ लोगों से झगड़ा हो गया। उसने अपने आप को मृत घोषित कर दिया और जिला पुलिस की उच्च-स्तरीय समिति के निरीक्षण में उसकी 'हड्डियाँ' कहीं से निकाली गईं। बस पुलिस का जुल्म शुरु हुआ। इसको पकड़, उसको पकड़। जवान लड़के मर्द जो बच सके, जंगलों में भाग गए। औरतों, बच्चों, बूढ़ों पर जुल्म चलता रहा। एकलव्य के कुछ साथी नागरिक अधिकारों पर काम करते थे। विरोध शुरू हुआ तो पी यू सी एल के स्थानीय कुछ लोगों को मदद मिलती थी। पंद्रह दिन बाद जब वह 'मृत' सिपाही इटारसी में ज़िंदा ढूँढ लिया गया तो अफरातफरी मच गई। जाँच शुरु हुई। पुलिस के आला अफसर परेशान। एकलव्य पर भी गाज पड़नी थी क्योंकि जिला मुख्यालय होशंगाबाद में था और कोर्ट कचहरी के काम में आए कार्यकर्त्ताओं को केंद्र में शरण भी मिलती थी और कागज, स्याही, टाइपराइटर भी।

ऐसे में आ पहुँचा खालिस्तानी आतंक वाले क्षेत्र पंजाब से हरजिंदर सिंह और साथ में विदेशी पत्नी। जिला पुलिस को इससे बेहतर मौका और क्या मिल सकता था। कैरन को नोटिस मिली कि जिला में रहने की अनुमति नहीं दी जाएगी। मैं पहुँचा ही था और दो दिनों में वापस चंडीगढ़ लौटना था। मई के पहले हफ्ते की बेतहाशा गर्मी। हरदा से भीड़ भरी बस में आम लोगों के अलावा बकरी भेड़ों के साथ होशंगाबाद आते हुए शिवपुर के पास रेलवे के फाटक पर घंटे भर बस का रुका रहना भूलता नहीं है। उन दिनों हरदा होशंगाबाद शहर का हिस्सा था और होशंगाबाद देश का तीसरा सबसे बड़ा जिला था (लद्दाख और बस्तर के बाद)। जवान थे - होश बरकरार रहा। दूसरे दिन होशंगाबाद केंद्र के संचालक हृदय कांत दीवान (प्यार से हार्डी) की सलाह मुताबिक पुलिस मुख्यालय पहुँचा। एस पी से मिलना था। देर तक मुझे एक क्लर्क ने बैठाए रखा। कैरन के पुलिस कागजात चंडीगढ़ से पहुँचे नहीं थे, इस पर कुछ सवालात करते रहा। फिर दूर अपने साथी से चिल्लाकर कहा - अरे, वो आतंकवाद वाली फाइल लाना।

ऐसा अनुभव मुझे पहले हो चुका था। १९८५ में अमरीका से लौटते हुए कलकत्ता हवाई अड्डे पर पुलिस ने परेशान किया था। उस वक्त आँखों में आँसू आ गए थे, पर तय किया था कि फिर कभी जितना भी पिट जाऊँ, हौसला नहीं छोड़ूँगा। बैठा रहा। आखिर एस पी साहब ने बुलाया। मैंने समझाया कि मैं यूनिवर्सिटी अध्यापक हूँ। विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम में स्रोत व्यक्ति की हैसियत से आया हूँ और हम अधिकारियों से पूरी तरह सहयोग करेंगे आदि। जनाब ने फरमाया - आपको विदेशी नागरिक से विवाह करने की इजाजत किसने दी?

भरपूर तनाव के बावजूद मैं जोर से हँस पड़ा। बतलाया कि भारत के संविधान में नागरिकों पर ऐसी कोई रोक नहीं है। पर सर पर कोई प्रभाव न पड़ा। हताश मैं निकला और वापसी की ट्रेन पकड़ने स्टेशन पहुँचा। दुखी होकर कैरन पर चिल्लाता रहा कि वापस जाओ। यह सब झमेला मुझसे नहीं झेला जाता।

कई लोगों को लगता होगा कि पुलिस से परेशान होने के लिए विनायक सेन जैसा धाँसू ऐक्टीविस्ट होना ज़रुरी है। मैंने अब तक तकरीबन समझौतापरस्त मध्यवर्गीय जीवन जिया है, फिर भी बार बार पुलिस या अन्य अधिकारियों से परेशान हुआ हूँ। पता नहीं जीवन में कैसी कैसी जटिलताएँ इन वजहों से आई हैं। सबसे ज्यादा परेशान करने की बात यह है कि भारत महान के सचेत बुद्धिजीवी हमें ही समझाते हैं - देखो, स्थितियाँ ऐसी हैं, इसलिए तुम्हें समझना चाहिए। सच यह है कि जैसा मेरे मित्र एच एस मेहता कहा करते हैं - इस मुल्क के हुक्मरानों में खानदानी बदतमीज़ी कूट कूट कर भरी हुई है। यह अद्भुत ही है कि यहाँ हम सब – हमसे कहीं ज्यादा वे जो विपन्न हैं, जो कम पढ़े लिखे हैं, कामगर लोग, लगातार जुल्म झेलते हैं और फिर भी यह व्यवस्था टिकी हुई है। सलाम है विनायक सेन जैसे महान लोगों को और सचमुच ऐसे लाखों लोग हैं जो रोजाना मुश्किलात झेलते हुए बेहतर समाज के लिए लड़ रहे हैं, और धिक्कार है इस मुल्क के हुक्मरानों और सुविधापरस्त बुद्धिजीवियों को जो इस व्यवस्था की दलाली में लगे हैं।

ऐसा नहीं कि आशा की किरणें नहीं हैं। हालांकि कैरन को पुलिस के झमेले से राहत गृह विभाग के कुछ अधिकारियों की मदद (जिन तक पहुँचने में संस्था की ही साथी ने मदद की थी, जिसके अफसरों से ताल्लुकात थे) से मिली थी, पर उस एस पी का ट्रांस्फर भी हुआ था - और वह जन संगठनों के संघर्ष का परिणाम था।

Sunday, April 19, 2009

हमकलम

राजेश उत्साही ने अपने ब्लॉग 'गुल्लक' में जिक्र किया कि एक ज़माने में हम लोगों ने 'हमकलम' गुट नाम से साइक्लोस्टाइल साहित्यिक पैंफलेट निकाले थे। हमलोग मतलब सत्यपाल सहगल, मैं और रुस्तम। उन दिनों लगता था कि साइड ऐक्टीविटी है, पर अब सोचता हूँ तो लगता है कि एक महत्त्वपूर्ण काम था। १९८५: मैं ताजा ताजा अमरीका से लौटा था, रुस्तम आर्मी से रिज़ाइन कर पोलीटिकल साइंस में एम ए करने आया था। पार्टी के साथ जुड़ा था और मार्क्स पर काम कर रहा था। अमरीका से लौटा मैं लिबरेशन थीओलोजी, निकारागुआ, एल साल्वादोर, गुआतेमाला जैसे खयालों से भरा हुआ था और इस कोशिश में था कि बाकी भी इन खयालों में सराबोर हो जाएँ। कभी फ्रांत्ज़ फानों, कभी मैल्कम एक्स, इन पर कुछ न कुछ बकता रहता। कुछ अनुवाद वगैरह भी किया। कैंपस में हम तीन ऐसे लोग थे जिन्हें नाम से सिख पहचाना जाता था, पर जो केशधारी नहीं थे (- सत्यपाल नहीं, तीसरा व्यक्ति भूपिंदर बराड़ है जो हमसे उम्र में भी बड़ा था और अधिक गंभीर, रुस्तम उसी के साथ शोध कार्य कर रहा था)। मेरी आदत थी कि इधर उधर किसी न किसी से उलझ लेता, तब डरता नहीं था, अब सोच कर डर लगता है। वो कहानियाँ फिर कभी। बहरहाल मैंने सुझाव रखा कि कैंपस में आतंक के माहौल से जूझने के लिए बौद्धिक सांस्कृतिक शून्य को भरना होगा। मेरे पास एक कैनन का इलेक्ट्रानिक टाइपराइटर था, मैंने दो विकल्प सुझाए, या तो हिंदी में साइक्लोस्टाइल पत्रिका निकालें या मेरे कैनन के यंत्र में अंग्रेज़ी में कुछ निकालें।

कुछ दिनों तक बोलता रहा तो सत्यपाल और रुस्तम मान ही गए। वे दोनों वैसे तो शुरुआत में देर कर रहे थे, पर काम को लेकर मुझसे ज्यादा गंभीर थे। सत्यपाल ने खुद को संपादक घोषित कर दिया। मेरा नज़रिया इन मामलों में उदारवादी था, रुस्तम शायद बहुत खुश नहीं था, पर पहला अंक १९८६ में 'खुले मैदान में' शीर्षक से सत्यपाल सहगल के नाम से ही निकला। अंक निकला तो व्यापक स्वागत हुआ। तेईस सेक्टर में भ्रा जी (गुरशरण सिंह) के नेतृत्व में नुक्कड़ नाटक सम्मेलन हुआ तो वहाँ पचास पैसे में बेचने की सोची। हालांकि अध्यापक मैं था, मुझे सड़क पर खड़े होकर बेचने में कोई लाज न थी, पर मेरे उन दिनों के शोध-विद्यार्थी साथीद्वय संशय में थे। उसी नुक्कड़ नाटक समारोह में 'चिनते पार्च्छिस' कहकर कालेज में मुझसे एक साल सीनियर शुभेंदु घोष जो अब दिल्ली में बायोफिज़िक्स का प्रोफेसर है और प्रसिद्ध शास्त्रीय गायक है, ने मुझसे सालों बाद फिर से परिचय किया। आस पास लोग अचंभित थे कि मैं अचानक पंजाबी बोलते बोलते बांग्ला कैसे बोलने लगा हूँ।

दूसरा अंक अंग्रेज़ी में था और उसमें अधिकतर लातिन अमरीका की कविताएँ थीं। उसके बाद कोई भी अंक अंग्रेज़ी में नहीं आया। मुझे आश्चर्य था कि लोग इसे इतनी गंभीरता से ले रहे थे - एक तरह से मेरे लिए वह घातक था क्योंकि मैं ज़रुरत से ज्यादा सामाजिक कार्यों में रुचि ले रहा था - इसका हर्जाना आज तक भुगत रहा हूँ (मज़ा भी तो आता था न)। धीरे धीरे 'हमकलम' एक आंदोलन का रुप अख्तियार कर चुका था और टोहाना, मंडी आदि जगहों से भी उस तरह के साइक्लोस्टाइल पैंफलेट निकलने लगे। मैं दो साल के लिए मध्य-प्रदेश चला गया, तब भी हमकलम को रुस्तम ने चलाए रखा। इस बीच सत्यपाल अध्यापक बन चुका था और रुस्तम शायद एम फिल कर रहा था।

रुस्तम से जब पहली बार मिला - सहगल ने ही मिलाया था कैंपस में एक और गंभीर व्यक्ति से मिलाते हैं कहकर; तो यह जानकर कि वह मार्क्स पर काम कर रहा है, मैंने देर तक उसे समझाने की कोशिश की कि हमें 'स्ट्रैटेजी' पर काम करना चाहिए। एक नई रणनीति जिसमें सभी लोकतांत्रिक ताकतें एक संघ बनाएँ और मिलकर स्थितियों से जूझें। हालाँकि मैं समझता था कि मैं ऐतिहासिक स्थितियों को सही देख समझ रहा हूँ, और बड़े उत्साह के साथ बकवास करता रहा, पर रुस्तम ने सब सुनकर चार नंबर होस्टल के उस घटिया लंच के बाद कहा था 'आपके खयाल बड़े नावल (novel) हैं। ' (तब भी सुधर गया होता रे ...........!)।

बहरहाल दोस्तों के बारे में मजेदार बातें फिर कभी, फिलहाल तो राजेश उत्साही को धन्यवाद कि उसने उन दिनों की याद दिला दी, जब मैं सारी दुनिया को बदल देने की ऊर्जा से लबालब भरा हुआ था। (जैसा कि अब तक पढ़ने वाले समझ ही चुके हैं मैं बचपने में ही जी रहा हूँ अभी तक)। हो सकता है कभी किसी कोने से हमकलम के पैंफलेट निकालकर स्कैन प्रति ब्लॉग पर पोस्ट कर दूँ या कोई और ही करे। यह छोटा सा इतिहास हमारा भी।

मुसीबत यह कि टिप्पणी करने वालों की एक फौज है, जो मेरी ऊपर की बातों पर टिप्पणी करने को बेताब होगी। पचसियापा ही सही, पर लगता ज़रुर है कि दुनिया में बहुत सारे अनपढ़ लोग हैं। इसलिए दोस्तों से यही कहता हूँ कि इस बार टिप्पणी मत ही करना, फालतू की बमबारी में काम की बात खो जाएगी।

इसी बीच नईम गुजर गए। अभी सुदीप बनर्जी के गुजरने के सदमे से निकले भी न थे कि नईम के गुजरने की खबर आई। सुदीप से एक बार मिला था, कुरुक्षेत्र में साक्षरता मिशन के कार्यक्रम में भाषण देने आए थे, कोई पंद्रह साल पहले की बात है। उनकी कविताएँ खास पसंद आती थीं। नईम से कभी नहीं मिला, जब भी देवास गया हूँ, मिलना चाहता रहा, पर मिला नहीं। उनके गीतों को मैं झूम झूम कर गाता हूँ, बड़ी जटिल बातों को बहुत सुंदर ढंग से बाँधने की तरकीब कोई नईम से सीखे। कविता कोश से उनका यह नवगीतः

हो न सके हम - नईम

हो न सके हम
छोटी सी ख्वाहिश का हिस्सा
हो न सके हम बदन उधारे बच्चों जैसा
गर्मी या बारिश का हिस्सा
हुआ न मनुवां
किसी गौर की महफिल का गायक साज़िंदा
अपने ही मौरूसी घर का
रहा हमेशा से कारिंदा
दास्तान हो सके न रोचक
याकि लोक में प्रचलित किस्सा

जीवन जीने की कोशिश में
लगा रहा मैं भूखा–प्यासा
होना था कविता सा लेकिन
हो न सका मैं ढंग की भाषा
जनम जनम से
होता आया
इन–उन की ख्वाहिश का हिस्सा

जीवन बांध नहीं पाये हम
मंसूबे ही रहे बांधते
खुलकर खेल न पाये बचपन
यूं ही खिचड़ी रहे रांधते
हो न सके
जीवन जीने की
हम आदिम ख्वाहिश का हिस्सा ।

Thursday, April 09, 2009

रात है अँधेरा है हम हैं जी हाँ हम हैं

हम हैं

पहले उन्होंने कहा - भ्रम है तुम्हें, हार तुम्हारी होगी
आसपास थी वीरानी फैल रही
अनमने से उसे जगह दे रहे
बचे खुचे झूमते पेड़
हम देर तक नाचते
चलते चले पेड़ों की ओर

वे आए
अट्टहास करते हुए बोले
देखते नहीं हार रहे हो तुम

जाने क्या था नशा
हमारे बढ़े हाथों को मिलते चले हाथ
गीतों के लफ्जों में ऊपर चढ़ने
रास्तों के पास बैठने की जगहें बनीं
जहाँ रामलीला की शाम मटरगश्ती से लेकर
बचपन में छिपकर बागानों से
आम चुराने की कहानियाँ सुनानी थीं हमने
एक दूसरे को

इस बार कहा उन्होंने गहरी चिंता के साथ
हार चुके तुम
हार रहे हो
हारोगे हारोगे

एक चेहरा बचा था मुस्कराता हरेक के पास
एक ही बचा था गीत
समवेत हमारे स्वर उठे
बिगुल बजाया किसी न किसी ने
एक के बाद एक सारी रात

रात है
अँधेरा है
हम हैं हम हैं
जी हाँ
हम हैं।
(उत्तरार्द्ध - १९९६; प्रतिबद्ध - १९९८; क्या संबंध था सड़क का उड़ान से - १९९५)

Monday, April 06, 2009

नीचे को ही ढो रहा हूँ ऊपर का धोखा देते हुए

क्या महज संपादित हूँ

अगर चढ़ रहा हूँ ऊँचाई पर
तो कभी नीचे रहा हूँगा
झाँक कर देखूँ
वह क्या था जो नीचे था

क्या सचमुच आ गया हूँ ऊपर
या जैसे घूमते सपाट ज़मीं पर
किसी परिधि पर वैसे ही
किसी और गोलक के चक्कर काट रहा हूँ
क्या महज संपादित हूँ या सचमुच बेहतर लिखा गया हूँ

जो अप्रिय था उसे छोड़ आया हूँ कहीं झाड़ियों में
या दहन हो चुका अवांछित, साधना और तपस में

ऊपर से दिखता है नीचे का विस्तार
बौने पौधे हैं ऊपर छाया नहीं मिलती जब तीखी हो धूप
नीचे समय की क्रूरता है हर सुंदर है गुजर जाता एकदिन
ऊपर अवलोकन की पीड़
संगीत में दिव्यता; गूँज, परिष्कार हवा
नहीं हैं विकार

ऊपर कब तक है ऊपर
एकदिन ऊपर भी दिखता है नीचे जैसा
बची खुची चाहत सँजोए फिर चढ़ने लगता हूँ कहीं और ऊपर
जानते हुए भी कि कुछ भी नहीं छूटा सचमुच
नीचे को ही ढो रहा हूँ ऊपर का धोखा देते हुए।
 
-साक्षात्कार (अक्तूबर 2008)

Friday, April 03, 2009

कहिए कि क्या बात है

शिकायत आनी ही थी कि रीलैक्स यार, बहुत सीरियसली ले रहे हो ज़िंदगी को। अब क्या करें दोस्तो कि क्या कहिए कि क्या बात है।
यह बेकार सी ग़ज़ल लिखी थी कोई आठ महीने पहले। लो भाई, रीलैक्स!


रोशनी में दिखती हर चीज़ साफ है, पर कहने को बात होती इक रात है
सुध में जुबां चलती लगातार है, जरा सी पी ली तो कहिए कि क्या बात है

इसकी सुनी उसकी सुनी सबकी सुनी, दिन भर सुनी सुनाई सुनते रहे
दिन भर दिल यह कहता रहा कि कुछ तुम्हारी भी सुनें कि क्या बात है

मिलता ही रहा हूँ हर दिन तुमसे, कैसी आज की भी इक मुलाकात है
क्या दर्ज़ करूँ क्या अर्ज़ करुँ, ऐ मिरे दोस्त क्या कहूँ कि क्या बात है

मुफलिसी से परेशां हम हैं सही, अब देखो कि यह घनी बरसात है
कुछ तो चूएगा पानी छत से, कुछ आँखों से कहो कि क्या बात है

बहुत हुआ दिन भर की सियासत दिन भर दौड़धूप, अब तो रात है
अब मैं, तुम, शायर मिजाज़ शब-ए-ग़म, अब कहिए कि क्या बात है

दोस्तों को लग चुका है पता कि हम भी क्या बला क्या चीज़ हैं
कमाल लाल्टू कि ज़हीन इतने, कहते कि क्या बात है क्या बात है।

Thursday, April 02, 2009

एक बूँद ही सही

समय गुजरता रहता है। हर दिन कोई घटना होती है, हर दिन मन करता है नया चिट्ठा पोस्ट करें। पर कर नहीं पाता।
शाम थकान लिए आती है, फिर लगता है कुछ भी तो किया नहीं दिन भर, ब्लॉग लिख ही लेते।

पिछले दिनों छात्रों की एक सभा में इस पर बात हुई कि उनके वार्षिक उत्सव में आयोजन कैसा रहा और आगे के छात्रों को इस बारे में क्या सोचना है। आम बात है, हर साल ही इस तरह की सभा होती है। पर इस बार अनोखी बात यह हुई कि कुछ बड़ी उम्र के स्नातकोत्तर छात्रों ने आखिर में कुछ बातें कहीं, जिनको लेकर मैं देर तक सोचता रहा। एक बात यह थी कि लड़कियाँ 'अधनंगी (जहाँ तक याद है, हाफ नेकेड कहा गया था) होकर अध्यापकों या माँ-बाप के सामने कैसे आती हैं? बाद में वरिष्ठ साथी अध्यापक से बात हुई तो उसका भी कहना था कि नहीं मैं अपनी बेटी को तो इस तरह परेड करते नहीं देख सकता। मैंने सोचा कि सचमुच मेरी बेटी भी ऐसी स्थिति में हो तो मुझे भी परेशानी होगी। पर परेशानी का कारण मेरे लिए दूसरों से अलग है। मुझे चिंता है कि अक्सर लड़कियों के पहनावे या उनकी साज-सज्जा को उनके प्रति हिंसक रवैए की वजह मान लिया जाता है। आखिर जीना तो है। पर यही अगर सही कारण है तो हमें ऐसी सोच के खिलाफ कुछ करना होगा जो महज पहनावे के आधार पर किसी के प्रति हिंसक या किसी भी तरह की अवांछित प्रवृत्ति पैदा करती है, न कि उनके खिलाफ जो अपने शौक से जो मर्जी पहनते हैं। यह गौरतलब है कि अगर लड़के अधनंगे होकर चलें तो किसी को खास आपत्ति नहीं होती। निश्चित ही सवाल इतना आसान नहीं है। अगर कपड़ों का (या कपड़ों के न पहनने का) इस्तेमाल महज इसलिए किया जाए कि उसमें शरीर का प्रदर्शन हो तो बात कोई बहुत अच्छी नहीं है (खास तौर पर हमारे जैसों को यही लगेगा जो अधेड़ हो चुके हैं), पर मैं इस बात से सहमत नहीं हो पा रहा कि मैं किसी से कहूँ कि तुम ऐसा मत पहनो, वैसा मत पहनो। यह मैं ज़रुर कहना चाहूँगा कि सँभल कर चलो, क्योंकि यह समाज खानदानी सड़न लिए हुए है।

नैतिक पाखंड भी अद्भुत प्रक्रिया है। मुझे तो चिट्ठे लिखने का समय नहीं मिलता, पर कुछ लोगों को नैतिकता की चिंताएँ खाए जाती हैं। मेरी पुरानी मान्यता है कि कपड़े और शादी, ये इंसान के सबसे घटिया ईजाद में से हैं (आवरण जो प्रकृति की मार से बचने के लिए हैं, वो तो ठीक हैं, पर कपड़े जो कुंठाएँ पैदा करते हैं, उनका क्या कहिए)। अमूमन नैतिकता को लेकर चिंतित लोग तमाम किस्म की बीमारियों को साथ लिए आते हैं। मंगलौर में पब में लड़कियों पर हमला करने वाले संघ परिवार से जुड़े हैं, इसमें कोई आश्चर्य नहीं होता। आश्चर्य होता है कि कई भले लोग यह देख नहीं पाते और बार बार ऐसे लोगों के पक्ष में खड़े होते हैं, जिनका एक पक्ष नैतिक फौजदारी का होता है तो दूसरा छोर संप्रदाय, धर्म, संस्कृति आदि के नाम पर निर्दोषों की हत्याओं तक फैला होता है। सही है, यह 'पैकेज' बिल्कुल बँधा बँधाया नहीं आता, दोनों छोर खुले हैं, पर इस मुल्क में वर्तमान स्थितियों में यह सोचना ज़रुरी है कि हम किस पक्ष में खड़े हैं। निराशावादी ही कहलाऊँगा, पर सच तो सच है ही, हत्यारे अभी भी चुने जाएँगे। ऐसे में दो शब्द ही सही, यह कहूँगा कि बार बार हार कर भी जो बेहतर समाज के लिए लड़ रहे हैं, मैं उनके साथ हूँ। इस चुनावी माहौल में मेरा एक बूँद ही सही, प्रयास इसी के लिए होगा।