खबर है कि भारत-पाक सीमा पर विभिन्न नाकों में सबसे विख्यात वाघा नाके पर होने वाले दिनांत समारोह (झंडा उतारना या रीट्रीट सेरीमनी) में भारतीय सीमा सुरक्षा दल ने आक्रामक मुद्राओं में कमी लाने की घोषणा की है। अपेक्षा है कि पाकिस्तान रेंजर्स भी ऐसा ही रुख अपनाएँगे। पुरातनपंथी या सामंती विचारों के साथ जुड़ी हर रीति बेकार हो या हमेशा के लिए खत्म करने लायक हो, ऐसा मैं नहीं मानता, पर दक्षिण एशिया के लोग बुनियादी तौर पर जाहिल और बेवक़ूफ़ हैं, ऐसे बेतुके तर्क के लिए अगर कोई वाघा नाके की रीट्रीट सेरीमनी का उदाहरण दे तो मैं इसका जवाब नहीं दे पाऊँगा। मुझे कुल तीन बार वाघा पोस्ट पर जाने का मौक़ा मिला है। पहली बार बीसेक साल पहले गया था तो हैरान था कि समारोह के दौरान तो सिर से ऊपर पैर उठाकर एक दूसरे की ओर आँखें तरेर कर देखने का अद्भुत पागलपन दोनों ओर के सिपाहियों ने दिखलाया ही, साथ में समारोह के बाद जब दोनों ओर से लोग दौड़े आए और एक दूसरे की ओर बंद गेट्स की सलाख़ों के बीच में से यूँ देखा जैसे कि इंसान नहीं किसी विचित्र जानवर को देख रहे हों। उन लोगों में दोनों ओर के विदेशी सैलानी भी थे। मैं आज तक वह अद्भुत दृश्य सोचता हूँ। हिंदुस्तान का विदेशी सैलानी पाकिस्तान के विदेशी सैलानी को आँखें फाड़ देख रहा है, भले ही वे मूलतः एक ही मुल्क के नागरिक हों! बेवक़ूफ़ी की हद ने जैसा कि मसिजीवी को कहने का शौक है, उत्तर या उत्तरोत्तर-वाद की सीमाओं को पार कर लिया था।
बाद में जब गया तो देखा कि जैसे झुँझनू में रुपकुँवर के मंदिर में काफी कुछ निर्मित हुआ होगा, वैसा ही वाघा नाके पर दोनों ओर प्रेक्षा-दीर्घाएँ वगैरह बन चुकी थीं। इस बार देश के उच्च-स्तरीय वैज्ञानिकों के साथ था। देखा भारत की ओर स्कूल से आए कुछ बच्चे निरंतर भारत माता ज़िंदाबाद के नारे लगा रहे हैं तो दूसरी ओर से पाकिस्तान ज़िंदाबाद चल रहा है। बीच में बीच में मुर्दाबाद और अश्लील चीत्कार भी। बड़ी मुश्किल से दोनों ओर बार बार स्पीकरों पर घोषणा कर झंडे उतारते वक्त लोगों को थोड़ी देर शांत किया गया। पूरे माहौल में लगातार घनी हो रही शाम में बिगुल की ध्वनि के साथ झंडों का उतरना शायद एकमात्र मोहक बात थी, पर स्मृति में वह रहती नहीं।
तीसरी बार जब गया तो दो बातें ज़िहन में रह गईं। दूसरी ओर कुर्ता पाजामा पहने एक किशोर जितनी देर मैं था (क़रीब एक घंटा) लगातार बायाँ हाथ माथे से और दायाँ हाथ दाएँ कंधे के ऊपर से घड़ी की दिशा में घुमाते हुए पाकिस्तान ज़िंदाबाद कहता रहा। अब वह लड़का बड़ा हो गया होगा, शायद क्रिकेट मैच या किसी और बहाने से हिंदुस्तान आया भी हो, सोचता हूँ क्या आज भी वह उसी तरह शरीर के एक एक अणु की ऊर्जा को देशभक्ति के ऐसे फूहड़ प्रदर्शन में खपाता होगा! मेरे विभाग से मूलतः केरलवासी युवा अध्यापक वेणुगोपाल को पूरी परेड ऐसी बेवकूफी भरी बात लगी कि वह खुद थोड़ी देर इस पागलपन से प्रभावित होकर परेड की कोशिश करने लगा - यह जताने के लिए कि देखो और सोचो, यह सब क्या है!
मेरे युवा फिल्म निर्माता मित्र दलजीत अमी ने अमृतसर के डी ए वी कालेज के छात्रों को चलचित्र कला का प्रशिक्षण देते हुए उनसे वाघा पर एक खूबसूरत फ़िल्म बनवाई थी। इस फ़िल्म में रीट्रीट सेरीमनी है, पर कम और ज्यादा बातें वाघा और आसपास के इलाक़ों के लोगों पर है। जैसे वे क़ुली जो दोनों ओर के भूतल व्यापार के वाहक हैं, यहाँ का सामान अपने सिर से उतार कर वहाँ के कुलियों के सिर चढ़ाने वाले, उन्हीं में से एक कृपाल सिंह जो स्वभावतः सूफ़ी गीत गाता है, दोनों ओर की दरगाहें, साँझी संस्कृति जिसे बार बार जंग और नफ़रत के झटकों ने झिंझोड़ा है। बहुत खूबसूरत फ़िल्म है। दलजीत से संपर्क करने के लिए daljitami@rediffmail.com पर मेल लिखें।
चेतन ने कुछ संबंधित links ढूँढें हैं, देखिएः
They want to start a similar show at Agartala
A good description of the event by Rajesh K Sharma
From a foreigner's viewpoint(with photo)
An interesting photo/caption
Some photos, more photos; This one is perhaps the best one of the lot -- inelegant and even ridiculous!)
Some old news (search within the page for wagah): October 11, 2003
The dangers involved in the ceremony: October 22, 2002
The news item that provoked this article
As it appeared in The Tribune, with an interesting photo
बुनियादी तौर पर जाहिल और बेवक़ूफ़ लोग और प्रशासन का एक बेहतरीन प्रमाण मेरी हर सुबह की नींद को रौंदता बौखलाए साँड़ की तरह लाउडस्पीकर पर चलता अत्यंत बेसुरा भक्तिनाद है। आस्था वालों की दुनिया इतनी संवेदनाहीन क्यों है! कुदरत के सबसे बेहतरीन क्षणों की ऐसी बेरहमी से हत्या करनेवाले पापियों को लोग धार्मिक कैसे कह सकते हैं! इस पर फिर कभी। मसिजीवी मेरे दोस्त! लगाओ कुछ उत्तर-सुत्तर वाद, ढूँढो कोई केंद्र यार, पता नहीं कितनी सदियों से चैन से सोया नहीं हूँ!
पिछली प्रविष्टि पर प्रणव ने मेल भेजी हैः
I saw your comments on the Telugu Sangham. I thought of pointing this link to you.
बाद में जब गया तो देखा कि जैसे झुँझनू में रुपकुँवर के मंदिर में काफी कुछ निर्मित हुआ होगा, वैसा ही वाघा नाके पर दोनों ओर प्रेक्षा-दीर्घाएँ वगैरह बन चुकी थीं। इस बार देश के उच्च-स्तरीय वैज्ञानिकों के साथ था। देखा भारत की ओर स्कूल से आए कुछ बच्चे निरंतर भारत माता ज़िंदाबाद के नारे लगा रहे हैं तो दूसरी ओर से पाकिस्तान ज़िंदाबाद चल रहा है। बीच में बीच में मुर्दाबाद और अश्लील चीत्कार भी। बड़ी मुश्किल से दोनों ओर बार बार स्पीकरों पर घोषणा कर झंडे उतारते वक्त लोगों को थोड़ी देर शांत किया गया। पूरे माहौल में लगातार घनी हो रही शाम में बिगुल की ध्वनि के साथ झंडों का उतरना शायद एकमात्र मोहक बात थी, पर स्मृति में वह रहती नहीं।
तीसरी बार जब गया तो दो बातें ज़िहन में रह गईं। दूसरी ओर कुर्ता पाजामा पहने एक किशोर जितनी देर मैं था (क़रीब एक घंटा) लगातार बायाँ हाथ माथे से और दायाँ हाथ दाएँ कंधे के ऊपर से घड़ी की दिशा में घुमाते हुए पाकिस्तान ज़िंदाबाद कहता रहा। अब वह लड़का बड़ा हो गया होगा, शायद क्रिकेट मैच या किसी और बहाने से हिंदुस्तान आया भी हो, सोचता हूँ क्या आज भी वह उसी तरह शरीर के एक एक अणु की ऊर्जा को देशभक्ति के ऐसे फूहड़ प्रदर्शन में खपाता होगा! मेरे विभाग से मूलतः केरलवासी युवा अध्यापक वेणुगोपाल को पूरी परेड ऐसी बेवकूफी भरी बात लगी कि वह खुद थोड़ी देर इस पागलपन से प्रभावित होकर परेड की कोशिश करने लगा - यह जताने के लिए कि देखो और सोचो, यह सब क्या है!
मेरे युवा फिल्म निर्माता मित्र दलजीत अमी ने अमृतसर के डी ए वी कालेज के छात्रों को चलचित्र कला का प्रशिक्षण देते हुए उनसे वाघा पर एक खूबसूरत फ़िल्म बनवाई थी। इस फ़िल्म में रीट्रीट सेरीमनी है, पर कम और ज्यादा बातें वाघा और आसपास के इलाक़ों के लोगों पर है। जैसे वे क़ुली जो दोनों ओर के भूतल व्यापार के वाहक हैं, यहाँ का सामान अपने सिर से उतार कर वहाँ के कुलियों के सिर चढ़ाने वाले, उन्हीं में से एक कृपाल सिंह जो स्वभावतः सूफ़ी गीत गाता है, दोनों ओर की दरगाहें, साँझी संस्कृति जिसे बार बार जंग और नफ़रत के झटकों ने झिंझोड़ा है। बहुत खूबसूरत फ़िल्म है। दलजीत से संपर्क करने के लिए daljitami@rediffmail.com पर मेल लिखें।
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Some old news (search within the page for wagah): October 11, 2003
The dangers involved in the ceremony: October 22, 2002
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बुनियादी तौर पर जाहिल और बेवक़ूफ़ लोग और प्रशासन का एक बेहतरीन प्रमाण मेरी हर सुबह की नींद को रौंदता बौखलाए साँड़ की तरह लाउडस्पीकर पर चलता अत्यंत बेसुरा भक्तिनाद है। आस्था वालों की दुनिया इतनी संवेदनाहीन क्यों है! कुदरत के सबसे बेहतरीन क्षणों की ऐसी बेरहमी से हत्या करनेवाले पापियों को लोग धार्मिक कैसे कह सकते हैं! इस पर फिर कभी। मसिजीवी मेरे दोस्त! लगाओ कुछ उत्तर-सुत्तर वाद, ढूँढो कोई केंद्र यार, पता नहीं कितनी सदियों से चैन से सोया नहीं हूँ!
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Comments
दोनो देशो में तनाव कम होगा तो पैर पछाड़ना भी कम हो जाएगा.
जो भी हो उस समय जोश/क्रोध जबरदस्त होता है.
समय के साथ सोच भी बदलती है, इसलिए इसे जाहिलता तो नहीं मानता.
Done.
Thanx.
bandhu ye apne daljit wahi chandigarh wale hi hain na!! Kuldeep hamare saath fellow thi sarai mein tabhi daljeet se mulaqaat hui thi, mujhe vishwas hai ki ye documentary jarur is vehshipan par chot karti hogi. Kya dilli mein (maslan hamare college mein) iske pradarshan par vichar kiya ja sakta hai.