Wednesday, March 08, 2006

अपने उस आप को

अपने उस आप को

अपने उस आप को कैसे समझाऊँ
हर निषिद्ध पेय उतारना चाहता कंठ में

हर आँगन के कोने में रख आता प्यार की सीढ़ी
बो आता घने नीले आस्मान में उगने वाले बादलों के पेड़
जंगली भैंसें, मदमत्त हाथी
सबके सामने खड़ा चाहता महुआ की महक

हर वर्जित उत्तरीय ओढ़ता
सपने भी वही जिनके खिलाफ संविधान में कानून
बीच सड़क उड़ती गाड़ियाँ रोक
चाहता दुःख, चाहता पृथ्वी भर का दुःख
कहता सारे सुख ले लो
ओ सुखी लोगो, बच्चों को उनकी कहानियाँ दे दो

अपने उस आप को कैसे समझाऊँ
मृत्यु स्वयं भी सामने आ जाए तो पढ़ता कविता
चीख चीख कर रोता
राष्ट्रपति कलाम के भाषण दौरान

जब हर कोई मस्त उड़ रहा नशे में
बच्चों को बाँसुरी की धुन पर ले जाता दूर

अपने उस आप को कैसे समझाऊँ।

२००५ (साक्षात्कार २००६)

2 comments:

Pratyaksha said...

आपकी कवितायें पढकर आनंद आता है !

मसिजीवी said...

'अपने उस आप को कैसे समझाऊँ
मृत्यु स्वयं भी सामने आ जाए तो पढ़ता कविता'


खूबसूरत कविता, इतनी कि अपनी सी लगी

पर अमॉं दोस्‍त एक बात बताओ, सच सच कहना, किसी से नहीं कहूँगा ' तुम ठहरे व्‍यवस्‍था के भीतर के आदमी (प्रोफेसर, वैज्ञानिक वगैरह) और ऐसे निषिद्ध क्षेत्र व सपने अपने भीतर कैसे पाले रह पाते हो। अपन का तो अनुभव है कि व्‍यवस्‍था ज्‍यादा सहती नहीं 'हम सों ' को।