निकला था कोरियन फिल्में देखने, सड़क पर स्कूटर ठप्प बोल गया। हुआ यह कि एक दिन और एक रात स्कूटर बेचारा उल्टा गिरा हुआ था। ठहरा स्कूटर – किसको फिकर कि सीधा कर दे। एक जमाने में अपुन भी गाड़ी वाले थे। जिसके लिए वह गाड़ी ली थी, वह लाड़ली धरती के दूसरी ओर चली गई तो मैंने गाड़ी को विदा कह दिया। मुहल्ले में ही है, सच यह कि अभी भी कागजी तौर पर मालिक मैं ही हूँ, पर वह मेरी नहीं है। खैर, स्कूटर अब भी मेरा ही है। हालांकि अब मैं पहले जैसा फटीचर टीचर होने का दावा नहीं कर सकता, पर स्कूटर और मैं एक दूसरे के हैं। तो एक पूरा दिन और एक पूरी रात स्कूटर बेचारा उल्टा गिरा पड़ा रहा। शुकर पड़ोसन का कि उसने फोन किया (क्या जमाना कि पड़ोसी से भी फोन पर बात होती है) कि मियाँ, भाई जान, यह आप की ही औलाद लगती है, सँभालिए बेचारे को। जब मैंने सँभालने की शिरकत की तो बेचारा धूल धूसरित पड़ा हुआ था। बहरहाल आज बड़ी देर तक मन ही मन वाद विवाद करता रहा। दसेक किलोमीटर चलना है, शेयर आटो+बस+ग्यारह नंबर गाड़ी या अपना बेचारा स्कूटर। आखिर इतवार का दिन (मतलब ट्राफिक कम – भारतीय सभ्यता से सामना होने का खतरा कम) और उम्र के आतंक के खिलाफ उठती आवाज ने मिलकर निर्णय ले लिया। स्कूटर चलेगा भी कि नहीं डर था, पर ओ हो (यह 'ओ हो' प्रह्लाद टिपणिया के स्टाइल में बोलना है) वह तो चल पड़ा। मनहूस। तीन किलोमीटर जाकर रुक गया। एक पेट्रोल पंप पर स्कूटर को खड़ा किया। तीन घंटे हो गए हैं। कहीं कोई कारीगर न मिला तो आखिर अपनी संस्था के बंधुओं को फोन किया। तो अब खबर है कि बारिश का मजा लीजिए, कल स्कूटर की देखी जाएगी। कोरियन फिल्में मेरे बगैर चल ही रहीं होंगीं। इतिहास एक महत्त्वपूर्ण अध्याय से वंचित रह गया। बारिश पर यह तीन साल पुरानी रचना– गलती से ग़ज़ल कह दिया तो नंद किशोर आचार्य जी ने कहा कि आज़ाद ग़ज़ल कहोः ये बारिश की बूँदें टपकती रहीं रात भर वो बचपन की यादें टपकती रहीं रात भर कहाँ कहाँ हैं धरती पे बिखरे दोस्त मिरे गीली भीगी यादें सुलगती रहीं रात भर मिरे मन को सहलाती रहीं जो परियाँ वो मिलती रहीं, बिछुड़ती रहीं रात भर कहीं कोई बच्चा क्या रोया जागकर यूँ छाती माँ की फड़कतीं रहीं रात भर झींगुर की झीं झीं, मेढक की टर्र टर आवाजें किस्म की भटकती रहीं रात भर कोई शिकवा हो ज़िंदगी से अब क्यूँकर यूँ रात उनसे नज़रें मिलती रहीं रात भर। ---------------------------------------- मंदिरों में पैसा कहाँ से आया - राजा जी ने दिया। राजा को पैसा किसने दिया? ---------------------------------------- और मुंबई के धमाकों के बावजूद कई प्रार्थी भर्त्ती के लिए आए। अखिल गति के नियम।
('अकार' के ताज़ा अंक में प्रकाशित) 'अक्सर आलोचक उसमें अनुशासन की कमी की बात करते हैं। अरे सालो, वो फिल्म का ग्रामर बना रहा है। यह ग्रामर सीखो। ... घिनौनी तबाह हो चुकी किसी चीज़ को खूबसूरत नहीं बनाया जा सकता। ... इंसान के प्रति विश्वसनीय होना, ग़रीब के प्रति ईमानदार होना, यह कला की शर्त है। पैसे-वालों के साथ खुशमिज़ाजी से कला नहीं बनती। पोलिटिकली करेक्ट होना दलाली है। I stand with the left wing art, no further left than the heart – वामपंथी आर्ट के साथ हूँ, पर अपने हार्ट (दिल) से ज़्यादा वामी नहीं हूँ। इस सोच को क़ुबूल करना, क़ुबूल करते-करते एक दिन मर जाना - यही कला है। पोलिटिकली करेक्ट और कल्चरली करेक्ट बांगाली बर्बाद हों, उनकी आधुनिकता बर्बाद हो। हमारे पास खोने को कुछ नहीं है, सिवाय अपनी बेड़ियों और पोलिटिकली करेक्ट होने के।' यू-ट्यूब पर ऋत्विक घटक पर नबारुण भट्टाचार्य के व्याख्यान के कई वीडियो में से एक देखते हुए एकबारगी एक किशोर सा कह उठता हूँ - नबारुण! नबारुण! 1 व्याख्यान के अंत में ऋत्विक के साथ अपनी बहस याद करते हुए वह रो पड़ता है और अंजाने ही मैं साथ रोने लगता हू...
Comments
राजा के पास पैसा कहां से आया यह फ़िर से एक सोच का विषय हो गया!
बुलंद भारत की बुलंद तस्वीर - आपका बजाज: मनहूस नहीं सर, आपने भी तो उसकी एक दिन और एक पूरी रात परवाह नहीं की.