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साधारण असाधारण


'हिंदू' में खबर है कि संजय काक ने किसी साक्षात्कार में कहा कि काश्मीर के मसले पर प्रगतिशील भारतीय भी डगमगा जाते हैं। एक काश्मीरी पंडित जिसका पिता देश के सुरक्षा बल में काम करता था, उसने ऐसा क्यों कहा? जिन्हें संजय काक की बातें ठीक नहीं लगतीं, वे कहेंगे - गद्दार है इसलिए! 'हिंदू' में मृत्यु दंड के खिलाफ संपादकीय भी छपा है - अच्छे भले पढ़े लिखे लोग ऐसा क्यों कहते हैं? अरे, सब चीन के एजेंट हैं, कमनिष्ट हैं।
इतने सारे लोग सूचनाओं की भरमार होते हुए भी जटिल बातों का सहज समाधान ढूँढते हुए, जब भी ऐसी कोई खबर पढ़ते हैं, तो आसानी से गद्दार और कमनिष्ट कहते हुए मुँह फेर लेते हैं। इंसान में कठिन सत्य से बचने की यह प्रवृत्ति गहरी है। दर्शन की सामान्य शब्दावली में इसे denial (अस्वीकार) की अवस्था कहते हैं। इसका फायदा उठाने के लिए बहुत सारे लोग तत्पर हैं। सरकारें जन-विरोधी होते हुए भी टिकी रहती हैं, दुनिया भर में सेनाएँ और शस्त्रों के व्यापारी करोड़ों कमाते हैं और तरह तरह के अनगिनत हत्यारे आम लोगों की इसी प्रवृत्ति के आधार पर रोटी खाते हैं। आश्चर्य इस बात पर होता है कि यह तो समझ में आता है कि ज्यादा पढ़ना लिखना - तहकीकात करना, इन सब पचड़ों में जाने की जहमत से बचने की कोशिश कौन नहीं करेगा, पर अज्ञान और अल्प ज्ञान के साथ नैतिकता की संरचना कैसे जुड़ी होती है! वह भी ऐसी नैतिकता जो यह घमंड पैदा करती है कि मैं ही ठीक हूँ, बाकी न केवल गलत हैं, बल्कि निकृष्ट हैं। मनोवैज्ञानिक लोग उन बीमारियों को ढूँढते परखते होंगे, जिनकी वजह से आदमी में संकीर्णता के साथ गहरा नैतिकता बोध पनपता है। एक तरह से कहा जा सकता है कि मस्तिष्क विज्ञान में महारत के बिना ही अज्ञानता और नफरत की व्यापार-व्यवस्था अपने गुलामों पर नैतिकता की संरचना थोपने में सफल हो जाती है। यह व्यवस्था अपने शोधकर्त्ता पैदा करती है, जो सच का 'निर्माण' करते हैं। स्पष्ट है कि निर्मित सच ज्यादातर थोड़े समय के बाद अपनी मौत मरता है, पर बहुत बड़ी तादाद में लोग उसी को सच मानते रहते हैं। भविष्य में जब मस्तिष्क विज्ञान में तरक्की होती चली है, यह सोचकर आतंक होता है कि लोगों को गुलाम बनाए रखने के क्या तरीके अपनाए जाएँगे।
संजय काक, साँईनाथ, नोम चाम्स्की, हावर्ड ज़िन जैसे लोग जो सच वाला सच ढूँढने बतलाने में जीवन दाँव पर लगा चुके हैं, उनको पता है कि उनकी लड़ाई लंबी है। सबसे रोचक बात यह कि अक्सर जब अन्याय के खिलाफ लोग उठ खड़े होते भी हैं तो उनका नेतृत्व किसी बहुत जानकार व्यक्ति के हाथ ही हो, यह ज़रूरी नहीं। वेनेज़ुएला में जनपक्षधर तख्ता पलट करने वाला हूगो चावेज़ कोई बड़ा ज्ञानी व्यक्ति नहीं है और न ही फिदेल कास्त्रो क्यूबा में तानाशाह को गद्दी से उतारते वक्त वैसा ज्ञानी था, जैसा समय के साथ उसमें दिखलाई दिया। यह मानव इतिहास की विड़ंबना है कि जननेता हमेशा बहुत समझदार लोग नहीं हुआ करते। लातिन अमरीका में यह बात क्रांतिकारियों ने समझी है। हमारे यहाँ ऐसी समझ है या नहीं कहना मुश्किल है। पर न समझ पाने से जूझने के तरीके अजीब हैं। जैसे मुल्क भर में गाँधी को अतिमानव बनाने के बड़े उद्योग में जो लोग शामिल हैं, क्या ये सभी लोग गाँधी के जीवनकाल में उसे वह स्थान देते, जो आज वे देते हैं। संभवतः सभी नहीं। मैं तो आज भी उसे एक सामान्य व्यक्ति मानता हूँ, जिसे अपनी सुविधाओं और ऐतिहासिक परिस्थितियों का ऐसा फायदा मिला कि वह विश्व इतिहास में एक असाधारण अध्याय रच गया। ठीक इसी तरह आज भी मेरे जैसे कई लोग साधारण में असाधारण देखकर परेशान होते हैं। कभी कभी मुझे शक होता है कि इसकी वजह हमारा वह दंभ तो नहीं, जो हममें जाति, वर्ग आदि से उपजी सुविधाओं से पनपा है। जो भी हो, किसी आंदोलन में अगर ऐसी संभावनाएँ दिखें कि ज्यादा नहीं तो कुछ ही लोगों को denial (अस्वीकार) की अवस्था से निकालने का मौका मिले तो हमें इस कोशिश में जुटना चाहिए। असाधारण में साधारण या साधारण में असाधारण दिखने से हमें परेशान नहीं होना चाहिए।

Comments

पर मेरा मानना है वर्तमान बुद्धिजीवियों में भी विभाजन है .वे अलग अलग खेमे में बंटे. हुए है .किसी समस्या के हल पर वे कोई राय नहीं देते....अपने हिस्से का सच देखते हैअब "प्लांड सरोकार" होते है ..ओर प्लान्ड आदर्श .....जनता जमीनी स्तर पर उतरे व्यक्ति को लीडर चुनती है ...जो उनके बीच आकर उनकी भाषा बोले ...

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