Monday, October 13, 2014

फिर भी जीना


हो सकता है और है

हो सकता है
दो महीने साथ किसी पहाड़ी इलाके में रहना।
हर सुबह एक दूसरे को चाय पिलाना।
थोड़ी सी चुहल। पिछली रात पढ़ी किताब पर चर्चा।
दोपहर खाना खाकर टहलने निकलना।
घूमना। घूमते रहना।
शाम कहीं बीयर या सोडा पीना।
इन सब के बीच आँगनबाड़ी में बच्चों को कहानियाँ सुनाना।
एक साथ बच्चे हो जाना।

है
बच्चों की बातें सुन कर रोना आना।
बच्चों को देख-देख रोना आना।
रोते हुए कुमार विकल याद आना।
कि 'मार्क्स और लेनिन भी रोते थे
पर रोने के बाद वे कभी नहीं सोते थे।'
फिर यह सोच कर रोना आना
कि इन बातों का मतलब क्या
धरती में नहीं बिगड़ रहा ऐसा बचा क्या।
इस तरह अंदर बाहर नदियों का बहना।
पहाड़ी इलाकों से उतरती नदियों में बहना।
नदियों में बहना खाड़ियों सागरों में डूबना।
कोई बीयर सोडा नहीं जो थोड़ी देर के लिए बन सके प्रवंचना।

फिर भी जीना।
साथ बहते हुए नदियाँ बन जाना।
ताप्ती, गोदावरी, नर्मदा, गंगा
अफरात नील दज़ला
नावों में बहना, नाविकों में बहना।
यात्राओं में विरह गीतों में बहना।
आखिर में कुछ लड़ाइयों में हम जीतेंगे खुद से कहना। 
  (पहल -2013)

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