Friday, October 31, 2014

समान शिक्षा के लिए


29 अक्तूबर 2014 को 'जनसत्ता' में प्रकाशित संक्षिप्त आलेख को मैंने 31 अक्तूबर को यहाँ पोस्ट किया था। बाद में स्वर्गीय अशोक सक्सेरिया जी के आग्रह से इसे 'सामयिक वार्त्ता (नवंबर/दिसंबर 2014)' के लिए बढ़ा कर लिखा। यहाँ संक्षिप्त आलेख को हटा कर वार्त्ता में छपे आलेख को पेस्ट कर रहा हूँ। :
समान शिक्षा के लिए संघर्ष


पिछले दो दशकों में भारत में शिक्षा व्यवस्था में निजीकरण में तेजी आई है। नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के तहत सरकारी शिक्षा तंत्र को सीमित किया जा रहा है और निजी संस्थानों को बड़े पैमाने पर छूट दी गई है। यह कोई विश्व-व्यापी परिघटना नहीं है है, बल्कि भारत जैसे देशों में ही यह प्रवृत्ति बढ़ रही है। मसलन संयुक्त राज्य अमेरिका (यू एस ए) को पूँजीवाद का गढ़ माना जाता है। मुक्त बाजार के लिए शोर मचाने वाले मुल्कों में और विश्व-स्तर पर पूँजीवादी अर्थ-व्यवस्था की धाक बनाए रखने में यू एस ए की भूमिका प्रमुख है। पर स्कूली तालीम के क्षेत्र में अमेरिका में निजीकरण सीमित स्तर तक लागू है और पिछले कुछ सालों में अगर इसमें बढ़त हुई भी है, तो वह नगण्य है। अधिकतर अमेरिकी स्कूल 'नेबरहूड' यानी मुहल्ले के स्कूल कहलाते हैं, जिनका खर्च कहीं संघीय तो कहीं स्थानीय सरकार चलाती है। अधिकतर बच्चों को मुफ्त तालीम मिलती है। सालाना दो लाख डालर की आमदनी वाले परिवारों में से भी केवल छब्बीस फीसद बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ते हैं, जबकि सालाना आय का मध्य अंक (मीडियन) छियालीस हजार डालर है। यानी अति-संपन्न इस तबके के भी चौहत्तर फीसद बच्चे नेबरहूड स्कूलों में पढ़ते हैं। पचास हजार डालर की सालाना आमदनी के परिवारों से केवल छ: फीसद बच्चे ही निजी स्कूलों में पढ़ते हैं। उच्च शिक्षा में भी निजी संस्थानों के अलावा सरकारी संस्थानों की भरमार है। कैलिफोर्निया राज्य की सरकारी यूनिवर्सिटी का बर्कले कैंपस दुनिया का अव्वल विश्वविद्यालय माना जाता है। निजी संस्थानों में प्रवेश पाने वाले छात्रों को भी पर्याप्त वजीफा मिलता है, हालाँकि यह सही है कि इसमें हाल के वर्षों में कटौती हुई है। आर्थिक सहयोग और विकास संस्था (ओ ई सी डी) के अनुसार यू एस ए में सरकार सकल घरेलू उत्पाद का 5.1 फीसद से अधिक शिक्षा में लगाती है। 1990 के तुरंत बाद यह आँकड़ा साढ़े पाँच फीसद से भी ऊपर था। ध्यान रहे कि भारत की जनसंख्या अमेरिका की तीन गुनी है। अमेरिका और भारत के सकल घरेलू उत्पाद में तकरीबन आठ का अनुपात है। कीमतों के साथ संगत रखते हुए हिसाब लगाया जाए तो यह अनुपात तीन तक पहुँचता है। पिछले पचास वर्षों में भारतीय संविधान के निर्देशक सिद्धांतों के मुताबिक बनी शिक्षा नीति तय करने वाले एकाधिक आयोगों ने सकल घरेलू उत्पाद के छ: फीसद तक शिक्षा में लगाने की हिदायत दी है, पर यह आज तक संभव नहीं हो पाया है। 1990 में यह आँकड़ा चार फीसद तक पहुँच गया था, फिर संरचनात्मक आर्थिक सुधारों की वजह से लगातार गिरता चला। आखिरकार सदी के अंत में साढ़े तीन फीसद पर टिक गया। 2000-2002 के दौरान शिक्षक आंदोलन के दबाव में बेहतरी के आसार नज़र आ रहे थे, पर वह अस्थायी था और अब साढ़े तीन फीसद ही पर टिका हुआ है। मुख्यतः आर्थिक संसाधनों में कमी की वजह से शिक्षा का स्तर कभी भी सही नहीं रहा है। उच्च शिक्षा में भी सरकार का हिस्सा लगतार कम होता जा रहा है। पिछली सदी के आखिरी दो दशकों में उच्च शिक्षा में सरकार का हिस्सा तकरीबन अस्सी फीसद से गिर कर सड़सठ फीसद तक आ गया। इस सदी की शुरूआत में कुछ नए सरकारी संस्थान खुले - जिनमें करीब दस नई केंद्रीय यूनिवर्सिटी, दस नए आई आई टी, आई आई एस ई आर और एन आई एस ई आर प्रमुख हैं, पर साथ ही इससे कहीं ज्यादा बढ़त निजी क्षेत्र में हुई। 1960 तक इंजीनियरिंग कालेजों में पंद्रह फीसद भर्ती निजी संस्थानों में होती थी, अब यह आँकड़ा तकरीबन पचासी फीसद तक आ पहुँचा है। मेडिकल कालेजों का हाल इतना बुरा नहीं, पर यहाँ भी निजी संस्थानों का हिस्सा 1960 में 6.8 फीसद से बढ़ कर आज बयालीस फीसद तक आ गया है। आम कालेजों की तो बात ही क्या की जाए, इक्के-दुक्के ही सरकारी कालेज रह गए हैं। सबसे ज्यादा खतरनाक स्थिति यह है कि सेवा क्षेत्र में व्यापार के सामान्य (गैट्स- General Agreement on Trade in Services ) समझौते में भागीदारी के तहत भारत ने विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए दरवाजे खोल दिए हैं। बराबरी की स्थिति में यह कोई चिंता की बात न होती, पर आर्थिक मजबूरियों की वजह से इन विदेशी संस्थानों के लिए भारत के शिक्षार्थियों के हित में निर्देश मनवाने की स्थिति में भारत नहीं है। ये संस्थान अधिक तनख़ाहों पर कुछेक अध्यापकों को रख कर बेहतर तालीम की मरीचिका रचेंगे और इसके लिए छात्रों से भारी फीस लेंगे। इसका सीधा नतीज़ा यह होगा कि सचमुच की बेहतर तालीम के बिना ही महज विदेशी ठप्पा लगाकर सुविधाओं का दावा करने वाली बड़ी जमात बनती चलेगी और सामाजिक गैरबराबरी बढ़ती रहेगी।

यूरोप में हंगरी, फिनलैंड और जर्मनी जैसे मुल्कों में तालीम पर सरकारी खर्च बजट का काफी बड़ा हिस्सा है। फिनलैंड ने पिछले पचास वर्षों में शिक्षा में बड़ा निवेश किया है और आज फिनलैंड की शिक्षा व्यवस्था को दुनिया में सबसे बेहतरीन माना जाता है। भारत में आज तक किसी भी सरकार ने खुद को पूरी तरह पूँजीवादी घोषित नहीं किया है। यह कैसी विड़ंबना है कि हमारे यहाँ शिक्षा का निजीकरण बढ़ता जा रहा है और सरकारी स्कूली व्यवस्था चरमरा रही है। शिक्षा में हर स्तर पर, खास तौर पर उच्च शिक्षा में विदेशी पूँजी का निवेश भी तेजी से बढ़ा है। 1990 के बाद से नई आर्थिक नीतियों से समाज में गैरबराबरी बढ़ी है और शिक्षा की लगातार तेजी से बढ़ती माँग के बावजूद आम लोगों के लिए स्तरीय शिक्षा मुहैया कराने से सरकार पीछे हटती जा रही है। कई राज्यों में दर्जनों सरकारी स्कूल बंद किए जा रहे हैं। अभी हाल में ही राजस्थान सरकार ने व्यापक विरोध के बावजूद भिन्न स्कूलों के एकीकरण के नाम पर दर्जनों शालाओं को बंद कर दिया है। देश के हर राज्य में हजारों पद खाली पड़े होने के बावजूद अध्यापकों की भरती नहीं की जा रही। ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि सरकारी स्कूलों में तालीम को लोग घटिया स्तर का मानते हैं। निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए शिक्षा अधिकार कानून (2009) के नाम पर सरकारी स्कूलों के बच्चों को निजी स्कूलों में भेज कर सरकार द्वारा उनका खर्च निजी स्कूल के प्रबंधकों को दिया जाता है। तालीम में गैरबराबरी का जो माहौल आज भारत में दिखता है, ऐसा पहले कभी नहीं रहा। देश की अधिकांश जनता को सरमाएदारी व्यवस्था का गुलाम बनाने के लिए सरकार ने मुहिम छेड़ दी है। मौजूदा सरकार से इस स्थिति को बदले जाने की कोई उम्मीद नहीं है, बल्कि नई सरकार ने आते ही हर क्षेत्र में निजी संस्थानों के लिए सुविधाएँ बढ़ाने में चुस्ती दिखलाई है।

तालीम पर ज़मीनी लड़ाई लड़ रहे शिक्षाविदों और संगठनों ने हमेशा ही इस नाइंसाफी का विरोध किया है और अब ‘अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच’ के बैनर तले दर्जनों संगठन ‘अखिल भारत शिक्षा संघर्ष यात्रा’ आयोजित करने में जुट गए हैं। यह यात्रा विभिन्न राज्यों में इरोम शर्मिला के उपवास की शुरूआत के साथ जुड़े दिन2 नवंबर 2014 को शुरू हो गई है और इसका समापन 4 दिसंबर को भोपाल में गैस-कांड की वार्षिकी के दिन होगा। इस यात्रा के ज़रिए ये सभी संगठन मिलकर समान शिक्षा के मुद्दों पर जन-चेतना बढ़ाने और जनांदोलन खड़ा करने की कोशिश करेंगे। मौजूदा बहुपरती शिक्षा प्रणाली को संविधान में घोषित समानता के अधिकार के खिलाफ और भेदभाव बढ़ाने वाली कहते हुए संघर्ष का आगाज़ किया गया है। मंच की प्रमुख माँग देशभर में ‘केजी से पीजी’ तक सरकारी खर्च पर और पूरी तौर पर मुफ़्त और मातृभाषाओं के शैक्षिक माध्यम पर टिकी हुई ऐसी ‘समान शिक्षा व्यवस्था’ स्थापित करने के लिए है, जो संविधान में निर्देशित समानता और सामाजिक न्याय की बुनियाद पर खड़ी हो और जिसका लोकतांत्रिक, विकेंद्रित व सहभागिता के सिद्धांतों पर संचालन हो। मौजूदा स्थिति यह है कि संविधान के तहत गठित अकादमिक निकायों (जैसे एनसीईआरटी, यूजीसी) को लगातार दरकिनाकर करते हुए सरकारी नौकरशाही सत्तासीन राजनैतिक दलों और उनके आकाओं के हितों को सामने रखते हुए शिक्षा व्यवस्था पर हावी हो रही है। इसके विपरीत जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था की माँग की जा रही है, उसके तहत हरेक स्कूल का एक तयशुदा ‘पड़ोस’ होगा जिसके दायरे में रहने वाले हरेक को - चाहे वह पूंजीपति, नेता, अफ़सर या मज़दूर हो - अपने बच्चों को कानूनन उसी स्कूल में पढ़ाना लाज़मी होगा। प्राथमिक से लेकर जहाँ तक संभव हो सके, उच्च-शिक्षा तक भारतीय यानी मातृभाषाओं में हो, यह पुरानी माँग है। विश्व भर के शिक्षाविदों द्वारा किए शोध से पता चलता है कि कम से कम प्रारंभिक पढ़ाई मातृभाषा में हो तो कुदरती तौर पर मिली संज्ञान की प्रक्रियाएँ सक्रिय रहती हैं और इसके विपरीत शुरूआत से ही परायी भाषा में शिक्षा देने की कोशिश बच्चों को दिमागी तौर पर पंगु बनाती है। मंच ने यह भी माँग रखी है कि बारहवीं कक्षा के बाद मुफ़्त उच्च शिक्षा में भी सभी को समान अवसर मुहैया कराए जाएँ। यहाँ यह रोचक जानकारी सामने रखी जानी चाहिए कि जर्मनी ने हाल में ही उच्च शिक्षा में ट्यूशन फीस हटा दी है यानी कालेज यूनिवर्सिटी में पढ़ने के लिए ट्यूशन फीस नहीं ली जाएगी। इसके पीछे सिद्धांत यह है कि समाज में अधिकतर लोग उच्च शिक्षा ले लें तो देश की आर्थिक तरक्की होगी।

अक्सर मध्य-वर्ग के लोग मानते हैं कि सरकारी स्कूली शिक्षा में स्तर गिरने से ही निजीकरण में बढ़त हुई है। अगर ऐसा है तो उसका समाधान यह है कि सरकारी स्कूली शिक्षा-तंत्र को मजबूत बनाया जाए। हो यह रहा है कि सरकारी शिक्षा-तंत्र को लगातार विपन्नता की ओर धकेला जा रहा है और निजी हितों को बढ़ावा दिया जा रहा है। इसके पीछे ऐसी संवेदनाहीन भ्रष्ट मानसिकता है जो अधिकांश लोगों को मानव का दर्जा देने से विमुख है। निजी उच्च-शिक्षा-संस्थानों में आरक्षण जैसे कल्याणकारी कदमों को भी नकारा जाता है - इस नज़रिए से देखने पर यह ऐसा षड़यंत्र दिखता है जो बहुसंख्यक लोगों के हितों के खिलाफ है। निजी संस्थाओं का पहला उद्देश्य मुनाफाखोरी होता है, और कम से कम भारत में शोध-कार्य में उनका अवदान नगण्य है। अनगिनत छात्र निजी कालेज-विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे हैं, जहाँ कोई शोध की संस्कृति नहीं है। सारी तालीम किताबी है और नवाचार के लिए जगह सीमित है। छात्र महज इम्तहान पास कर नौकरियाँ लेने को तत्पर हैं और सचमुच ज्ञान की सर्वांगीण धारणा से उनका लेना-देना कम ही दिखता है। इससे देश और समाज का जो नुकसान हो रहा है, उसकी भरपाई लंबे समय तक न हो पाएगी। इसलिए शिक्षा संघर्ष यात्रा शिक्षा में निजीकरण और बाज़ारीकरण का विरोध भी करेगी, जिसमें सार्वजनिक-निजी साझेदारी (पीपीपी) और विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफ़ डी आई) के हर परोक्ष व प्रत्यक्ष रूप का विरोध शामिल है। ऐसे कई पीपीपी और विदेशी गठजोड़ वाले संस्थान नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के तहत अचानक खड़े हो गए हैं, जहाँ पढ़ाई महँगी है, पर स्तर में गिरावट ही दिखती है। इनमें शिक्षा का मकसद महज बाज़ार में काम आने वाला मानव-संसाधन तैयार करना मात्र है। जाहिर है कि इनका विरोध लाजिम है।

सांप्रदायिकता और जातिवाद दक्षिण एशिया के शर्मनाक पहलू हैं, जिससे तालीम अछूती नहीं है। मौजूदा सत्तासीन दल और संघ परिवार की हमेशा से कोशिश यह रही है कि इतिहास की किताबों में भारत के अतीत को हिंदुत्व के रंग में ढाल कर पेश किया जाए। इसके साथ ही कृत्रिम किस्म की संस्कृत शब्दावली को थोपते हुए अलग-अलग तरह से ब्राह्मणवाद और मनुवाद को प्रतिष्ठित करने की कोशिशें चलती रही हैं। पंद्रह साल पहले ऐसी कोशिश में स्कूली पाठ्य-पुस्तकों में विषय-वस्तु के साथ बुरी तरह खिलवाड़ किया गया था। आज दीनानाथ बतरा और उसके साथी यह तय कर रहे हैं कि कैसे अंध-विश्वासों और भ्रामक धारणाओं को पाठ्य-सूची में डाला जाए। लोकतांत्रिक धर्म-निरपेक्ष संविधान पर गर्व करने वाले भारतीयों को चाहिए कि शिक्षा में सांप्रदायिकता और जातिवाद को जड़ से उखाड़ फेंकें। पठन-सामग्री में धर्म के नाम पर विभाजन पैदा करने के उद्देश्य से दकियानूसी बातें डालने की हर कोशिश का पुरजोर विरोध करना ज़रूरी है। शिक्षा संघर्ष यात्रा इस मुद्दे पर भी बुलंद रहेगी और शिक्षा के सांप्रदायीकरण के खिलाफ़ आवाज़ उठाएगी जिसमें पाठ्यचर्या, पाठ्य पुस्तकों व परीक्षाओं के ज़रिए आज़ादी की लड़ाई की विरासत स्वरूप विकसित संवैधानिक मूल्यों का उल्लंघन करनेवाले कट्टरवादी, संकीर्ण, विभाजनकारी व गैर-वैज्ञानिक एजेंडे को थोपने का विरोध शामिल है।

यह एक दर्दनाक विड़ंबना है कि इन माँगों को लेकर आज आंदोलन खड़ा करने की बात हो रही है, जबकि ये माँगें कौमी आज़ादी की लड़ाई की प्रमुख माँगों में से थीं। जैसा कि आंदोलन से जुड़े प्रमुख शिक्षाविद प्रो. अनिल सदगोपाल बार-बार याद दिलाते हैं, ज्योतिबाराव और सावित्री फुले से लेकर भगत सिंह, आंबेडकर और गाँधी, इन सभी राष्ट्रनेताओं के लिए समान शिक्षा का अधिकार एक बुनियादी सवाल था। हर नागरिक को यह अधिकार मिले बिना आज़ादी की कल्पना भी वे नहीं कर सकते थे। आज स्थिति यह है कि शिक्षा संस्थानों में ऐसे मुद्दों या सामान्य लोकतांत्रिक हकों की बात करने वालों पर हमले होते हैं। अभिव्यक्ति की आज़ादी पर संकट गहराता जा रहा है। समान शिक्षा का अधिकार जो पूँजीवादी माने जाने वाले मुल्कों में भी आम बात है, उसके लिए यहाँ संघर्ष करना पड़ता है। अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच की स्थापना इन्हीं स्थितियों के मद्देनज़र हुई थी और अब तक इस मंच ने राष्ट्रव्यापी व्यापक जनाधार बना लिया है। हर राज्य में मंच की इकाइयों ने आम लोगों तक पहुँच कर तालीम के बुनियादी मुद्दों की बात की है और एकाधिक बार सरकारी संस्थानों को बंद करने के खिलाफ सफलतापूर्वक आंदोलन किया है।

मंच ने यात्रा की शुरूआत के लिए 2 नवंबर का दिन चुना। सन् 2000 में इसी दिन इरोम शर्मिला ने मणिपुर में भारतीय सेना की उपस्थिति और सशस्त्र सेना विशेष अधिकार अधिनियम (आफ्सपा) के दुरुपयोग के खिलाफ अपना अनशन शुरू किया था। इसी तरह यात्रा की समाप्ति के लिए 4 दिसंबर का दिन तय है, 1984 में इस दिन यूनियन कार्बाइड के कारखाने से रिसी गैस से भोपाल में चार हजार लोगों की जान गई थी। यात्रा के शुरूआत और समाप्ति के लिए ये दिन चुनकर मंच ने यह समझ दिखलाई है कि तालीम का मुद्दा महज अकादमिक माथापच्ची का नहीं, बल्कि जन-संघर्ष का मुद्दा है। आज़ादी के बाद से, खास तौर पर पिछले पच्चीस सालों में देश को जिस तरह गुलामी की ओर धकेला गया है, इसके खिलाफ व्यापक संघर्ष के अलावा कोई रास्ता नहीं बच गया है। कई अर्थों में हम उपनिवेश-कालीन स्थिति में वापस पहुँच गए हैं जहाँ तालीम को अपनी स्थितियों से नहीं बल्कि अंग्रेज़ शासकों के हितों के साथ जोड़कर देखा जाता था। जाहिर है कि इसका विरोध करना ही होगा और शिक्षा संघर्ष यात्रा इस दिशा में एक ज़रूरी कदम है। अक्सर कई लोग सवाल उठाते हैं कि ऐसे प्रदर्शन, जुलूस, आदि के विरोध से आखिर क्या निकलेगा। इसका आसान जवाब है कि कुछ न करके तो कभी भी कुछ ही नहीं निकलेगा। जब हुकूमत का जनविरोधी रवैया हटने का नाम न ले, तब हर किसी को अपनी हिम्मत के साथ कुछ तो करना ही होगा। जो बौद्धिक काम कर सकते हैं, वे वही करें, पर साथ में जन-संघर्ष का चलते रहना लाजिम है। कइयों को यह चिंता रहती है कि आखिर इन संघर्षों का नारा देने वाले लोग अपने बच्चों को निजी स्कूलों में क्यों भेज रहे हैं। यह सही है कि अगर हर कोई निजी स्कूलों से मुख मोड़ ले तो वे खुद ही बोरिया-बिस्तर समेट लें। पर ऐसा संबव नहीं है, क्योंकि जब तक सरकारी स्कूलों की हालत सुधरती नहीं है, उन्हें तालीम का प्राथमिक जरिया नहीं बनाया जाता, और इसके बदले अगर निजी स्कूलों के लिए सुविधाएँ बढ़ाई जाती रहें तो जिसके पास संसाधन हैं, वह अपने बच्चों को निजी स्कूलों में ही भेजेगा। मुद्दा यह नहीं है कि अन्याय का विरोध करते हुए हर कोई व्यवस्था के साथ करो या मरो की स्थिति में हो। आज की जटिल परिस्थितियों में जीते हुए हर कोई अपने समझौतों में रहते हुए ही कोई प्रभावी बात कर सकता है। जो लोग संघर्ष में शामिल होने के लिए जीवन में किसी भी तरह के समझौते को न करने को पहली शर्त रखते हैं, वे दरअसल अपनी जिम्मेदारी से बचने की कोशिश करते हैं। संघर्ष यात्रा के लिए मंच का आह्वान सही वक्त पर आया है और इसमें सभी सचेत नागरिकों की भागीदारी वांछनीय है। उम्मीद है कि तालीम की लड़ाई राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक फलक अख्तियार करेगी और सरकार समान स्कूली शिक्षा के लिए प्रभावी कदम लेने को मजबूर होगी।

1 comment:

Unknown said...

मैं जानता हूँ
मैं जानता हूँ कि
मैं शाश्वत नहीं हूँ और न कुछ भी मेरे बस में
अपने आप को सिद्ध करने की जद्दोजहद में
खुद को घसीटे जा रहा हूँ मैं और मैं हूँ यही
सुकून को पाने के लिये मैं कर्म किये जाता हूँ

http://shabdanagari.in/Website/Article/मैंजानताहूँ