'कथा' पत्रिका के बालसाहित्य आलोचना विशेषांक में इस आलेख का एक स्वरूप प्रकाशित हुआ है।
बच्चों
के लिए लेखन पर कुछ चिंताएँ
-लाल्टू
मेरी
परवरिश बांग्ला भाषी परिवेश
में हुई। जब मैं पाँचवीं में
था तब तक किशोरों के लिए लिखी
बांग्ला की किताबें पढ़ने लगा
था। हमारे घर किताबें खरीदी
नहीं जाती थीं,
पर
मुहल्ले में अधिकतर मध्यवर्गीय
बंगाली परिवारों के घर कहानियाँ
पढ़ने का चलन था। उनसे किताबें
माँग लाते थे। माँ बड़ों की
किताबें पढ़ती थी और हम बच्चे
अपने स्तर की किताबें। हर साल
(दुर्गा)पूजा
के दिनों के पहले शारदोत्सव
के रंगीन माहौल के साथ नई
पूजावार्षिकियों का भी इतज़ार
रहता। उन दिनों यह जानता न था
कि कितने बड़े साहित्यकारों
का लिखा पढ़ रहे हैं। ताराशंकर
बंद्योपाध्याय,
आशापूर्णा
देवी, महाश्वेता
देवी, आदि
सभी बड़े लेखक बच्चों के लिए
लिखते थे। आज भी यह परंपरा
चलती है। उन दिनों सभी आम
पत्रिकाओं के पूजावार्षिकी
बच्चों के नहीं आते थे,
कुछ
प्रकाशक अलग नाम से साल में
एक मोटी किताब बच्चों के लिए
निकालते थे। हर साल उनके अलग
नाम होते थे। बच्चों की पत्रिकाएँ
जैसे शुकतारा,
संदेश
आदि की वार्षिकियाँ निकलती
थीं। आज की लोकप्रिय 'आनंदमेला'
का पहला
रंगीन वार्षिक विशेषांक 1971
में
आया, जब
मैं दसवीं में था। हालांकि
मेरी उम्र कम ही थी,
तब तक
मैं बड़ों के लिए लिखी किताबें
पढ़ने लगा था। इनमें भी बच्चों
और किशोरों के लिए सामग्री
रहती थी। 'आनंदमेला'
के उस
पहले वार्षिक विशेषांक में
न केवल बड़े रचनाकारों की भरमार
थी, तस्वीरें
बनानेवाले भी उन दिनों के सबसे
बड़े नाम थे। इनमें सत्यजित
राय, पूर्णेंदु
पत्री, सैयद
मुजतबा अली आदि जैसे लोग शामिल
थे। सत्यजित राय स्वयं हर साल
बच्चों के लिए एक जासूसी कहानी
(फेलू
दा की कहानियाँ,
जिनमें
से कइयों पर उन्होंने फिल्में
भी बनाईं)
और एक
विज्ञान कथा (प्रोफेसर
शंकु) लिखते
थे और इनके साथ आकर्षक तस्वीरें
खुद बनाते थे।
हिंदी
में किताबें शुरू में स्कूल
की लाइब्रेरी से लेकर पढ़ी थीं।
ज्यादातर अलग-अलग
प्रांतों की लोककथाओं का संकलन
जैसी किताबें थीं या नैतिक
संदेश वाली कहानियों की किताबें
थीं। यह अहसास किशोर वय में
ही पक्का हो चला था कि हिंदी
में बच्चों के पढ़ने के लिए
अच्छी सामग्री नहीं है।
चंदामामा,
पराग
– ये दो आम पत्रिकाएँ खूब पढ़ते
थे। नेशनल लाइब्रेरी घर से
ज्यादा दूर न थी और वहाँ ये
पत्रिकाएँ आती थीं। पर वहाँ
भी बांग्ला में ज्यादा रोचक
किताबें मिलतीं। तब तक अंग्रेज़ी
पढ़ने की योग्यता बनी न थी,
न ही
किसे ने कभी कहा कि अंग्रेज़ी
पढ़ो। पिछली दो सदी में पश्चिम
में लिखे साहित्य का संक्षिप्त
अनुवाद विपुल परिमाण में
उपलब्ध था। इस तरह मैंने थॉमस
हार्डी,
आलेक्सांद्र
दूमा, मार्क
ट्वेन आदि को पढ़ा। साथ ही अनगिन
जासूसी कहानियाँ और लघु उपन्यास
पढ़े।
हिंदी
में बच्चों के बारे में सोचते
हुए अक्सर लोग चंदा मामा,
हाथी-घोड़ा,
राजा
रानी आदि जैसी बातों तक सोचकर
रह जाते हैं। एक ज़माना था जब
बच्चे ऐसी कथाएँ और तुकबंदियो
की कविताएँ सुनकर खुश होते
थे। आज भी होते हैं। पर जिस
तरह वक्त के साथ बच्चों के खेल
और खिलौने बदले हैं,
वैसे
ही यह सोचना ज़रूरी है कि उनके
विनोद की भाषा और वह जो पढ़ना
चाहते हैं,
इनमें
कैसे बदलाव आए हैं। आज यह माना
जात है कि भ्रूण की अवस्था से
ही मानव प्रकृति और स्वयं के
बारे में सीखना शुरू करता है।
जन्म के तुरंत बाद दो आँखों
से देखने और दो कानों से आवाज़ें
सुनकर स्रोत के स्वरूप और उसकी
दूरी की पहचान,
वस्तुओं
के आकार,
इत्यादि
सीखने के साथ ही भाषा सीखने
और उसे पुख्ता करने की क्रियाएँ
भी शुरू हो जाती हैं। शुरूआती
दो-चार
महीनों के बाद करवट लेने,
रेंगने
आदि के साथ शब्द-निर्माण
बढ़ता चलता है। इस स्थिति में
तकरीबन दो साल की उम्र तक चंदा
सूरज जैसी पुरानी लोरियाँ आज
भी बच्चों को भाती हैं। पर दो
की उम्र होने तक आज बच्चे
टेलीफोन,
मोबाइल,
कंप्यूटर
आदि यंत्रों में रुचि लेने
लगते हैं और जहाँ ये हर वक्त
उपलब्ध हों,
चार की
उम्र तक उनका उपयोग भी शुरू
कर देते हैं। ऐसी स्थिति में
पुराने किस्म की तुकबंदी और
राजा-रानी
की कहानियाँ बच्चों को संतुष्ट
नहीं कर सकतीं।
अधिकतर
लोगों के लिए बच्चों को कुछ
पढ़ने को कहना हमेशा उन्हें
कुछ सिखलाने के लिए होता है।
पर कला या साहित्य,
कहानी-कविता
का महत्व महज उस तरह की शिक्षा
का नहीं होता जो वयस्क सोचते
हैं। बच्चे बड़ों की बातों को
गौर से सुनते हैं और उस अंजान
रहस्य भरी दुनिया में घुसपैठ
करने का संघर्ष निरंतर करते
रहते हैं,
जिसमें
वयस्क डुबकियाँ लगाते हैं।
जो हमें कतई शैक्षणिक नहीं
भी लगता, वह
सब कुछ भी बच्चों की शिक्षा
में जुड़ता है।
यह
मानना ग़लत है कि बच्चों को
तुकबंदी,
ध्वन्यात्मकता
या सांगीतिकता में वयस्कों
से अधिक रुचि होती है। कल्पनाशीलता
की अनंत तहों में बच्चे भी उसी
तरह प्रवेश करना चहते हैं,
जैसे
बड़े करते हैं -
बल्कि
उनमें ये संभावनाएँ वयस्कों
से अधिक ही होती हैं। दस की
उम्र तक बच्चों में पारंपरिक
पठन-सामग्री
के प्रति उदासीनता और अरुचि
दिखने लगती है। हिंदी पढ़ने
वाले बच्चों के लिए यह संकट
और गहरा है। किशोरों के लिए
हिंदी में साहित्य की विशेष
कमी है। हिंदी प्रदेशों में
सामंती सोच का वर्चस्व व्यापक
स्तर का है। लोकतांत्रिक चेतना
का सामान्य अभाव आम लोगों में
तो है ही,
बच्चों
के बारे में यह संकट तथाकथित
प्रबुद्ध बुद्धिजीवियों में
भी है। साहित्य में बच्चों
और किशोरों के लिए पठनीय सामग्री
के अभाव को लेकर बड़े रचनाकारों
में चिंता का अभाव इसी संकट
की पहचान है। इसलिए बांग्ला
जैसी भाषाओं की तुलना में
हिंदी में रोचक और उत्कृष्ट
बाल-साहित्य
का भयंकर अभाव दिखता है। वयस्क
पाठकों के लिए लिखने वाले
साहित्यिकों के लिए बच्चे
महज खेल-कूद
करते अल्प-बुद्धि
के मानव शिशु हैं,
जिनका
चिंतन-संसार
इतना सीमित है कि बड़े रचनाकारों
को पढ़ने के काबिल वे नहीं हैं।
सच्चाई इसके विपरीत यह है कि
हम वयस्क ऐसी संकीर्ण सोच से
ग्रस्त हैं कि हम यह कभी सोच
नही पाते कि दरअस्ल बच्चों
के लिए लिखने की भी दक्षता
होती है और कि यह हममें कम है।
ऐसे लेखन का अभ्यास करना हम
ज़रूरी नहीं समझते हैं।
ऐसा
नहीं कि प्रतिष्ठित रचनाकारों
ने कुछ भी बच्चों के लिए नहीं
लिखा है। बात यह है कि जितना
लिखा गया है,
वह बहुत
कम है। रचनाओें की कमी है और
जो है वह हर जगह उपलब्ध नहीं
है। प्रशासनिक स्तर पर कई
प्रयास हुए हैं,
जैसे
मध्य प्रदेश सरकार ने अस्सी
के दशक के आखिरी वर्षों में
ऑपरेशन ब्लैक-बोर्ड
के तहत कदम उठाए थे कि हर सरकारी
स्कूल में कहानी कविताओं की
किताबें पहुँचें। पर बांग्ला
में जिस तरह हर साल बड़े रचनाकार
बच्चों के लिए उपन्यास लिखते
हैं, ऐसा
हिंदी में नहीं है। स्कूलों
में पुस्तकालय पर ताला भी
बच्चों और किताबों के बीच
एक बाधा है। ऐसे में विनोद
कुमार शुक्ल,
राजेश
जोशी आदि कई प्रतिष्ठित
रचनाकारों के काम सराहनीय
हैं। इनदिनों भोपाल से निकलती
'चकमक'
पत्रिका
में विनोद कुमार शुक्ल का
धारावाहिक उपन्यास 'मुझे
कुछ करना है,
मैं
क्या करूँ,
मैं कुछ
करूँ' आ
रहा है, जो
अद्भुत है। इसी पत्रिका में
पिछले कुछ अंकों में वरुण
ग्रोवर की लंबी कहानी ;हरिहर
विचित्तर'
आई थी,
जो
सांप्रदायिक आधार पर दक्षिण
एशिया के विभाजन पर बड़ी
संवेदनशीलता के साथ लिखी गई
अद्भुत फंतासी है।
एकलव्य
संस्था द्वारा अस्सी के दशक
से लगातार प्रकाशित हो रही
'चकमक'
पत्रिका
ने हिंदी में बाल-साहित्य
के माहौल को काफी बदला है। न
केवल स्वयं प्रकाश,
तेजी
ग्रोवर और रुस्तम जैसे गंभीर
रचनाकार पत्रिका से जुड़े रहे
हैं, राजेश
उत्साही ने अपने जीवन का एक
बड़ा हिस्सा 'चकमक'
के संपादन
में लगाया है,
जिससे
पत्रिका का स्तर हमेशा ऊँचा
रहा। इन दिनों सुशील शुक्ला
जैसे युवा साथी पूरी शिद्दत
के साथ 'चकमक'
के लिए
अच्छी रचनाओं को इकट्ठा करने,
बच्चों
में साहित्य के प्रति रुचि
बढ़ाने आदि काम में लगे हुए
हैं। इस पत्रिका के मार्च 1987
अंक में
मेरी एक कविता 'भैया
ज़िंदाबाद'
आई थी,
जिसमें
एक बच्ची अपने भाई की ओर से
पिता के अन्याय के प्रति विरोध
दर्ज़ करती है। यह वयस्क मानस
की और मुक्त छंद में लिखी कविता
है, निश्चित
ही इसे बच्चों की कविता मात्र
कहना ग़लत होगा;
पर यह
सोचना कि बच्चे इसके साथ नहीं
जुड़ पाएँगे,
ठीक न
होगा। मेरी यह कोशिश सफल हुई
या नहीं, यह
औरों के सोचने की बात है,
पर अगर
हम कोशिश न करें और बच्चों को
भोंदू मानकर उनके लिए सिर्फ
पुराने ढंग की चिड़िया गुड़िया,
तितली
रानी आदि विषयों पर लिखें तो
यह सही नहीं है। एकलव्य संस्था
द्वारा बच्चों का साहित्य
इकट्ठा करना और एक आंदोलन की
तरह इसे लोगों तक ले जाना
सराहनीय है।
ऐसे
प्रयास और भी गिने जा सकते
हैं। युवा कवि प्रभात ने स्वयं
बच्चों के लिए काफी सारा
लिखने के अलावा कई लोक कथाओं
को सुंदर भाषा में पस्तुत
किया है । उसके कई गीत बच्चों
में लोकप्रिय भी हैं। चिल्ड्रन
बुक ट्रस्ट,
नेशनल
बुक ट्रस्ट,
आदि की
किताबें बहुत कम दाम में और
सुंदर किताबें होती हैं,
लेकिन
लोगों को उनके बारे में जानकारी
नहीं होती। तूलिका
और कथा जैसे कुछ महंगे प्रकाशन
सुंदर किताबें छापते हें,
जिनमें
भारतीय लोक कथाओं को भी संकलित
किया गया है,
लेकिन
इन किताबों के दाम इतने ज्यादा
होते हैं कि सामान्य व्यक्ति
की पहुंच में नहीं हेातीं।
रूसी
पुस्तक प्रदर्शनी और सोवियत
रूस के समय में उपलब्ध अनुवादों
ने जो पुस्तक और पढ़ने की
संस्कृति को बढ़ावा दिया
था, उसे
भूलना नहीं चाहिए। अब पुस्तक
मेले तो साल में कई बार लगते
हैं, लेकिन
वैसा साहित्य अब नहीं मिलता।
दूसरी
भाषाओं, खास
तौर पर अंग्रेज़ी से विश्व-साहित्य
का अनुवाद हिंदी में विपुल
मात्रा में उपलब्ध है। पर अब
लगातार बढ़ते मध्य वर्ग के
किशोर अंग्रेज़ी में पढ़ सकते
हैं और अंग्रेज़ी के पास
राजनैतिक ताकत है तो वे हिंदी
में अनुवाद क्यों पढ़ें?
खास तौर
पर किशोरों के लिए कहानियों
में जैसी अनौपचारिक शब्दावली
का उस्तेमाल किया जाता है,
हिदी
में उसका अनुवाद न केवल कठिन
है, अक्सर
यह असंभव है। क्लासिक अनुवादों
में शमशेर बहादुर सिंह का लुइस
कैरोल की विश्व-विख्यात
कृति 'एलिस
इन वंडरलैंड'
का अनुवाद
उल्लेखनीय है। प्रबुद्ध
रचनाकारों का बच्चों के लिए
लिखना कितना ज़रूरी है वह शमशेर की
कविता 'चाँद
से थोड़ी सी गप्पें'
पढ़ने
से समझ में आता है। शमशेर की
चाँद से गप्पें दस ग्यारह साल
की लड़की की गप्पें तो हैं ही,
वो मेरी
और आपकी गप्पें भी हैं। वैसे
तो हर बड़े में एक बच्चा होता
है। पर मैं उस बच्चे की बात
नहीं कर रहा। 'चंदा
मामा दूर के'
वाले
चाँद से शमशेर का चाँद अलग है।
इस पर मैंने विस्तार से लिखा
है (उद्भावना
- 2011; साखी
- 2011)।
शमशेर बच्चों के लिए भी एक नई
भाषा और एक नया फार्म गढ़ रहे
थे। चंद्रमा पर विजय प्राप्त
करना जैसा गौरव गीत या या
चंदामामा से बतियाना जैसी
लोरियों से अलग कविता -
सचमुच
कविता की ज़मीन बनाने की सोच
रहे थे, ऐसी
कविता जो बच्चों के नैसर्गिक
विकास से जुड़े। जन्म के उपरांत
जीवन क्रमशः व्यक्ति में निहित
मानवता के विनाश के खिलाफ
संघर्ष की प्रक्रिया है।
सामाजिक परवरिश और औपचारिक
शिक्षा में बहुत कुछ ऐसा है
जो हमें अपनी नैसर्गिक अस्मिता
से दूर ले जाता है। इसलिए बच्चों
के विकास पर गहराई पर सोचने
वाले अनेक चिंतकों ने औपचारिक
स्कूली शिक्षा की आलोचना की
है। एक सचेत कवि से भी यही
अपेक्षित है।
भारत
के हर क्षेत्र में लोककथाओं,
लोकगीतों
और स्थानीय 'नॉनसेंस'
(पहेलियाँ,
चुटकुले,
बुझव्वल
और इनके अलावा भी यूँ बतरस के
लिए प्रचलित)
की एक
समृद्ध परंपरा रही है। कुछ
हद तक बांग्ला जैसी भाषाओं
में बाल-साहित्य
की मुख्य-धारा
में इसने जगह बनाई है। पर हिंदी
में यह धीरे-धीरे
लुप्त-प्राय
हो गई है। इसका मुख्य कारण
पारंपरिक सामग्री को बदलती
स्थितियों के अनुरूप ढाल पाने
में हमारी अक्षमता और अरुचि
ही है। पंजाब में लोहड़ी के
त्यौहार के दौरान गाया जाता
'सुंदरी
वे मुंदरिए...'
और मध्य
प्रदेश के कई क्षेत्रों में
'पोसम
राजा' जैसे
अनेक गीतों को इकट्ठा कर उन
पर काम किया जाना ज़रुरी है।
पर्याप्त ध्यान के बिना ये
गीत धीरे धीरे विलुप्त हो
जाएँगे। सुवास कुमार और मैंने
बांग्ला से सुकुमार राय की
प्रसिद्ध कृति 'आबोल
ताबोल' का
'अगड़म
बगड़म' शीर्षक
से अनुवाद किया है जो पिछले
वर्ष साम्य पत्रिका के विशेषांक
के रूप में प्रकााशित हुआ है।
नानसेंस की अच्छी समझ गंभीर
साहित्य के लेखन में प्रेरणा
का काम करती है। नागार्जुन
('मंत्र'
या अन्य
कविताएँ),
रघुवीर
सहाय ('अगर
कहीं मैं तोता होता'
आदि
कविताएँ),
सर्वेश्वर
दयाल सक्सेना ('बतूता
का जूता' आदि)
या अन्य
कई कवियों की रचनाओं में हम
यह बात देख सकते हैं। अन्यथा
गंभीर या वैचारिक सामग्री को
रसीले तरीके से सीधे पाठक के
अंतस् तक पहुँचाने का इससे
बेहतर तरीका और कोई नहीं है।
रोचक बात यह है कि 'नॉनसेंस'
बच्चों
और बड़ों के लिए अलग-अलग
अर्थ लिए आता है।
आज
का किशोर ही कल के वयस्क साहित्य
का पाठक है। हिंदी में पाठक
की उदासीनता पर अक्सर चर्चा
होती है, पर
इसे बाल साहित्य के संदर्भ
में कम ही सोचा गया है। यह
ज़रूरी है कि हिंदी का हर लेखक
या कवि इस पर गंभीरता से और
नए आयामों की तलाश के साथ इस
पर सोचे। अच्छे बाल-साहित्य
के बिना वयस्कों के लिए अच्छे
लेखन का होना संभव तो है,
पर वह
व्यापक नहीं हो सकता।
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