Wednesday, June 04, 2014

विश्व-नागरिक चेतना की ज़रूरत



धरती पर अलग-अलग जगहों पर तरह तरह के ज़ुल्म चल रहे हैं। जब हम इस खुशफहमी में होते हैं कि पिछली सदियों की तुलना में हमने सभ्यता और सह-अस्तित्व की एक मंज़िल पार कर ली है, ठीक तभी कोई झकझोरता हुआ बतला जाता है कि कहीं कहर बरपा है, अभी तो मंज़िल बहुत आगे है।
नाईजीरिया के बोको हरम नामक कट्टरपंथी इस्लामी संगठन ने 280 स्कूली बच्चियों का अपहरण किया और पिछले हफ्ते एक वीडियो जारी किया है, जिसमें इन बच्चों को धर्म परिवरतन कर नमाज पढ़ते दिखलाया गया है। बोको हरम का अपना ही एक इस्लाम है जिसके मुताबिक वे इन लड़कियों को यौन-दास के रूप में बेच सकते हैं। बेशक उनकी इस जघन्य हरकत की निंदा हर ओर हो रही है। जिन लोगों को इस तरह की वीभत्स घटना से फायदा उठाना है, वे उठाएँगे। हमारे ही देश के एक भाजपा नेता हैं, जिनकी मोदी विरोधियों को पाकिस्तान भेजने की धमकी पर काफी शोर मचा था। उनके खिलाफ एफ आई आर भी दर्ज़ हुआ था। उन्होंने अपना कहा वापस न लेकर कह दिया था कि वे पाकिस्तान-परस्त लोगों के बारे में कह रहे थे। सांप्रदायिकता का एक छोर राष्ट्रवाद है। दक्षिण एशिया के मुल्कों के बीच सांप्रदायिक आधार पर निर्मित राष्ट्रवादी बँटवारे से हुई जंगें या काश्मीर का मसला जैसी समस्याएँ मूलतः सांप्रदायिक द्वेष है। ज्यादा गंभीर स्थिति तब होती है जब राष्ट्र और संस्कृति के नाम पर नियोजित हिसा की घटनाएँ होती हैं, जिसमें सबसे ज्यादा प्रभावित स्त्रियाँ और बच्चे होते हैं।

क्या मानव सभ्यता टुकड़ों में बँटी है? अगर पहनावा, खान-पान, अर्चना-विधि के आधार पर सभ्यता को आँका जाए, तो धरती पर कहीं भी कोई एक सभ्यता नहीं है। किसी भी जगह भिन्न पहनावे, भिन्न रुचि के खान-पान और अलौकिक के प्रति भिन्न मतों की भरमार दिख जाएगी। सभ्यताएँ या तो अनंत हैं - कम से कम उतनी जितनी कि दुनिया की जनसंख्या है या फिर एक ही सभ्यता है - मानव सभ्यता। मानवता को पश्चिमी सभ्यता, भारतीय या चीनी सभ्यता आदि या इस्लामी, ईसाई या हिंदू सभ्यता की श्रेणियों में बाँटकर देखने पर न केवल सवाल उठाने बल्कि इसे पूरी तरह नकारने का समय आ चुका है। ऐतिहासिक अध्ययनों में मानव के विकास में महत्त्वपूर्ण पड़ावों का ग्रीको-रोमन और हिंदू (सिंधु नदी के दक्षिण के अर्थ में), चीनी या अरब संस्क़ृतियों की बात करना इतना ही मायने रखता है, जितना कि यह कि आम तौर पर खाई जाने वाली आलू या दीगर सब्जियों की खेती पहले कहाँ होती थी। बौद्धिक विकास में ज्ञान का आदान-प्रदान सार्वभौमिक स्तर पर हमेशा ही होता रहा है। औपनिवेशिक शासकों के लिए अपना वर्चस्व बनाने के लिए यह ज़रूरी था कि वे ग्रीको-रोमन मूल से आए ज्ञान को श्रेष्ठ साबित करें और ऐसे ही उनके खिलाफ संघर्षरत राष्ट्रवादियों के लिए यह कहना ज़रूरी था कि श्रेष्ठतर ज्ञान और विरासत यहीं रही है। पर अब न तो पहले जैसे उपनिवेश हैं, न ही वैसे राष्ट्रीय आज़ादी का आंदोलन। आज आर्थिक और सांस्कृतिक नव-उपनिवेशवाद का वर्चस्व है। जितना खतरा नव-उपनिवेशवादी आर्थिक-सास्कृतिक हमले का है, उतना ही राष्ट्रवादी संकीर्णता से है। इस खतरे को पहचान कर विश्व भर में लोग संघर्षरत हैं कि इंसान को इंसान समझ कर एक धरती की कल्पना की जाए, ताकि टिंबक्टू का सांस्कृतिक अतीत भी हमें उतना ही गौरव दे सके जितना नालंदा का अतीत देता है।

आज मानव की समस्याएँ विश्व-स्तर की हैं। गैरबराबरी पर आधारित पूँजीवादी विकास औऱ जगह जगह चल रही जंगों की वजह से धरती की परिस्थितियाँ तेजी से तरह बदल रही हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि आधुनिक मशीनी जीवन-शैली ने ऐसे हालात पैदा कर दिए हैं कि कई तरह की जैव-रासायनिक और भू-पारिस्थिकीय सीमाओं का हम अतिक्रमण कर चुके हैं। इनमें से कुछेक ऐसी सीमाएँ हैं जहाँ से वापस लौटना नामुमकिन है। जलवायु में बदलाव, ओज़ोन परत में बढ़ चुका छेद और समुद्रों के अम्लीकरण जैसी समस्याओं से जुड़े आँकड़े बतलाते हैं कि हमें आपसी भेदभाव से ऊपर उठकर धरती पर मँडरा रहे बड़े खतरों का सामना करना पड़ेगा। हाल में मौसम-विज्ञान के एक सम्मेलन में यह दिखलाया गया कि अंटार्कटिका का एक बड़ा ग्लेशियर पिघलने की ऐसी प्रक्रिया में आ गया है जिसे अब रोका नहीं जा सकता। इससे अगली दो सदियों में समुद्र के पानी का तल तीन से पाँच मीटर बढ़ेगा, जिससे दसों करोड़ों की संख्या में लोग विस्थापित होंगे। नाइट्रोजन और फॉस्फोरस के जैवरासायनिक चक्र का संतुलन बिगड़ रहा है। प्रजातियाँ विलुप्त हो रही हैं, जैविक विविधता में तेजी से ह्रास हो रहा है। भू-संरक्षण, वायुमंडल में प्रदूषक तत्वों की मात्रा में अभूतपूर्व बढ़त आदि कई समस्याएँ हैं, जिनपर गंभीरता से विचार न किया गया तो संभव है कि अगली सदी तक धरती में मानव का जीवन-निर्वाह असंभव हो जाए। पेय-जल के बारे में तो यह सब मानते ही हैं कि इसकी कमी की वजह से तीसरा विश्व-युद्ध हो सकता है। अब जब हम मानव के अस्तित्व की विलुप्ति के कगार पर खड़े हैं, यह समझ स्पष्ट होनी चाहिए कि समूचे ब्रह्मांड में हमारी हैसियत तिनके भर की भी नहीं, न ही सृष्टि की शुरुआत से अब तक के इतिहास में मानवीय अस्तित्व का काल साल भर में पंद्रह मिनटों से ज्यादा है। इतना ही हम मान लें तो हमारे लिए यह समझना आसान हो जाएगा कि देश, धर्म, जाति आदि के आधार पर भेदभाव कितना बेमानी है।

ऐसे में यह ज़रूरी है कि हर नागरिक में विश्व-दृष्टि का निर्माण हो। विश्व-दृष्टि से हमारा मतलब यह नहीं कि स्थानीय संस्कृतियों की अपनी अस्मिता न हो। बल्कि इसके ठीक विपरीत हम यह कहेंगे कि स्थानीय भाषाओं और संस्कृतियों का विनाश कर मानव की वैश्विक अस्मिता नहीं बन सकती। इसलिए अंग्रेज़ीवादियों से हमारी सहमति नहीं है। विविधताओं को साथ लिए हमें एक मानव-अस्मिता बनानी है। विविधताओं से जीवन को अर्थ मिलता है। एकांगी मानव-अस्मिता का कोई मतलब नहीं होता। विश्व-संस्थाओं का एक प्रमुख काम ही यह होना जाहिए कि स्थानीय संस्कृतियों को बढ़ावा मिले। विविधताओं में कमी विश्व-स्तर पर मानव-अस्मिता को पनपने न देगी। यह बात पहली नज़र में अटपटी लग सकती है, पर गहराई से सोचने पर सही लगती है। यह एक तरह का बुनियादी मानव-सामाजिक सिद्धांत माना जा सकता है, कि विश्व-स्तरीय अस्मिता में अनिश्चितता और स्थानीय विविधता की व्यापकता का समीकरण बनता है कि दोनों का गुणनफल नियतांक है। एक बढ़ेगा तो दूसरा कम होगा।
भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश, तीनों मुल्कों में बहुसंख्यकों की सांप्रदायिकता और व्यापक निरक्षरता का फायदा उठाने वाली ताकतें सरगर्म हैं। हर मुल्क में सांप्रदायिकता का पुराना तर्क है - देखो, उस मुल्क में हमारे लोगों के साथ क्या हो रहा है। हमारे वर्त्तमान प्रधान मंत्री पाकिस्तान के हिंदुओं को बचाने की बात करते हैं। उधर के ऐसे ही लोग इसी तरह यह कहते रहते हैं कि देखो भारत में मुसलमानों की क्या हालत है। भारत में यह सांप्रदायिक सोच आम है कि सभी आतंकी मुसलमान होते हैं, हालाँकि ऐसा नहीं है। मुस्लिम देशों में भी आतंकवाद के खिलाफ सामान्य लोगों की लड़ाई चल रही है। बोको हरम की सबसे तीखी निंदा मुस्लिम देशों और संगठनों ने की है।

आखिर इसका हल क्या है? क्या यह इंसान की फितरत है कि वह हमेशा ही गुटों, धर्मों, जातियों आदि में बँटा रहेगा? विनाश का प्रसार सभी सरहदों के पार फैल रहा है और जल्दी ही चाहे-अनचाहे इंसान के धरती पर बने रहने के लिए विश्व-स्तर की नागरिक चेतना का विकास ज़रूरी हो जाएगा।
दीगर मुल्कों में आपसी समझौते का कोई विकल्प नहीं है और समय हाथ से निकलता जा रहा है। यूरोप में हाल की सदियों में भयंकर जंगें लड़ी गईं। बीसवीं सदी की दो आलमी जंगों में दुनिया भर के दर्जनों करोड़ों लोगों की जानें गईं। आखिर में सदी के अंत में उन्होंने महासंघ बनाने का तय कर लिया और सरहदें खोल दीं। इसकी वजह से कई दिक्कतें सामने आईं। पोलैंड और रोमानिया जैसे कम संपन्न देशों से लोग इंगलैंड और जर्मनी जाने लग गए (हालाँकि ब्रिटेन ने पूरी तरह सरहदें खोली भी नहीं थीं)। इसकी वजह से कई जगह अशांति बढ़ी। दक्षिणपंथी ताकतों ने युवाओं में बेकारी से पनपे तनाव का फायदा उठाने की कोशिश की। पर कुल मिलाकर स्थिति पहले की तुलना में बेहतर ही रही या कम से कम इतना तो कहा जा सकता है कि बदतर नहीं हुई। इसका मुख्य कारण यह है कि संकीर्ण राष्ट्रवादी चेतना से ऊपर उठकर एक विश्व-स्तर की मानवीय चेतना ने जड़ें जमा ली हैं।
क्या हमारे लिए भी ऐसा ही कोई हल ठीक होगा? कल्पना करें कि भारत बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, श्री लंका और पाकिस्तान के बीच की सरहदों पर कोई रोक न हो। तुरंत कई लोग कहेंगे कि अरे बाप रे फिर तो दोनों तरफ बलवाई सरगर्म हो जाएँगे। शायद ऐसा हो, पर अगर जितना खर्च अभी सरहदों पर सेना तैनात रखने में आता है, उसका एक छोटा हिस्सा भी बलवाइयों को रोकने के लिए लगाया जाए तो समस्या काफी हद तक कम हो सकती है। बाकी बचत से हम अपने शिक्षा, स्वास्थ्य आदि अन्य क्षेत्रों में बेहतरी ला सकते हैं।

सरकारों से अपने आप नीतियों में बदलाव की पहल की अपेक्षा रखना ग़लत होगा। खासतौर से नई सरकार जिस तरह बड़े पूँजीवादियों के कंधों पर चढ़कर आई है और जैसे अपराधी करोड़पतियों का संसद में बोलबाला है, उनसे यह उम्मीद रखना कि उनके दिलों में इस धरती और अगली पीढ़ियों की सुरक्षा के लिए जगह होगी, यह आधी रात में आस्मान में सूरज ढूँढने जैसी बात होगी। संयुक्त राष्ट्र संघ के सचिव-अध्यक्ष बान की-मून ने भारत के नए प्रधान मंत्री का स्वागत करते हुए उनसे गुजारिश की है कि वे सं. राष्ट्र संघ के मौसम में बदलाव पर होनेवाली सभा में शिरकत करें, पर ये औपचारिक रस्में हैं। दुनिया भर में सामान्य नागरिकता के सिद्धांत कैसे हों, मानव-अधिकार, स्त्रियों के अधिकार, समलैंगिकों के अधिकार, बेहतर पर्यावरण, इन सब को लेकर वैश्विक स्तर पर संघर्ष चल रहे हैं। धरती को बचाने के लिए चल रहे इन जनसंघर्षों को मजबूत करना होगा। साथ ही हर नागरिक को अतीत के हर किस्म के उत्पीड़न और त्रासदी पर जानकारी देनी होगी, ताकि हम संवेदनशील बनें और उनके दुबारा होने से बच सकें। हिटलर, स्टालिन, अमेरिकी साम्राज्यवाद द्वारा उत्पीड़नों की तरह ही हमारे अपने 1946-47, 1984 या 2002 जैसी हर त्रासदी पर जितना भी कहा जाए, वह कम है। हर जगह हर तरह के भेदभाव के खिलाफ जागरुकता पैदा करनी होगी। इंसान हर जगह एक सा है, यह सामान्य बात क्या हमें तभी समझ आएगी, जब धरती बिल्कुल विनाश के कगार पर होगी!

1 comment:

समयचक्र said...

बढ़िया लेख जब दुनिया विनाश की ओर जायेगी तो भी समझ में नहीं आएगा यहीं तो सबसे बड़ी भूल साबित होगी