Saturday, June 28, 2014

चलो मन आज खेल की दुनिया में चलो


चलो मन आज

चलो मन आज
खेल की दुनिया में चलो

स्वर्ण पदक ले लो
विजेता के साथ खड़े होकर
निशानेबाज बढ़िया हो बंधु कहो उसे

मैच जो नहीं हुआ
दर्शक-दीर्घा में नाराज़
लोगों को कविता सुनाओ

पैसे वाले खेलों को सट्टेबाजों के लिए छोड़ दो
मैदानों में चलो जहाँ खिलाड़ी खेलते हैं
खिंची नसों को सहेजो
घावों पर मरहम लगाओ

गोलपोस्ट से गोलपोस्ट तक नाचो
कलाबाजियों में देखो मानव सुंदर
खेलता ढूँढता है घास

अपना पूरक
बनता हरे कैनवस पर
भरपूर प्राण

चलो मन आज
खेल की दुनिया में चलो

(अमर उजालाः 2008)

खेल

कई अपूर्ण इच्छाओं में
एक अच्छा फुटबालर बनने की है

सरपट दौड़ता साँप सा बलखाता
धनुष बन स्ट्रेट और बैक वाली करता
कंधों के ऊपर से उड़ता नाचता
राइट हाफ

एक इच्छा दुनिया को मन मुताबिक देखने की है
भले लोगों को गले लगाता
बुरों को समझाता
जादुई हाथों से सबके घाव सहलाता
सबका चहेता मैं

इच्छाओं को धागों से बाँध रखा मैंने
कभी देख लेता हूँ
मन ही मन खेलता हूँ
उन्हें पूरे करने के खेल।

(1994)

1 comment:

प्रदीप कांत said...

इच्छाओं को धागों से बाँध रखा मैंने
कभी देख लेता हूँ
मन ही मन खेलता हूँ
उन्हें पूरे करने के खेल।

______________________

इच्छाएँ धागे से ही बन्धी रह जाती है