Monday, June 09, 2014

प्रक्रियाएँ तो अनादि काल से चल रही हैं


वह सुबह कभी तो आएगी


'जेलों के बिना जब दुनिया की सरकार चलाई जाएगी, वह सुबह कभी तो आएगी,' साहिर ने लिखा था। सभ्य समाज से बहुत सारी अपेक्षाएँ होती हैं। कोई भी सरकार सभी अपेक्षाओं को पूरा कर नहीं सकती, पर कई ऐसी बेवजह, ख़ामख़ाह की मान्यताएँ भी सरकार के बारे में हैं, जिनके बारे में सोचना चाहिए। जैसे कि सरकारें झुकती नहीं हैं। चाहे देश में महामारी फैली हो, कोई सरकार बाहर के लोगों का यह कहना पसंद नहीं करती कि उसे इस बारे में प्रभावी कदम उठाने होंगे। यह निहायत ही ग़लत रवैया है। इसके पीछे मानसिकता यह है कि दूसरे लोग हमें कमजोर और अयोग्य साबित करना चाहते हैं। उत्तर प्रदेश के बदायूँ में दो किशोरियों का बलात्कार और उसके बाद हत्या कर पेड़ पर लटकाए जाने की घटना पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने कह दिया कि हमारे देश में लगातार हो रही बलात्कार की घटनाओं को गंभीरता से लिया जा रहा है। तो सरकार की प्रतिक्रिया क्या है - उन्हें पता होना चाहिए कि हमारे यहाँ न्याय की व्यवस्था है और उस मुताबिक प्रक्रियाएँ चल रही हैं। प्रक्रियाएँ तो अनादि काल से चल रही हैं और स्त्रियों के प्रति हिंसा की घटनाएँ बढ़ती ही जा रही हैं। इसके पहले सपा के मुलायम सिंह यादव ने लड़कों से ग़लतियाँ हो जाती हैं कहकर शर्मनाक बयान दिया। मुख्य मंत्री अखिलेश यादव भी अपनी चिढ़ दिखा गए। यह बौखलाहट यही बतलाती है कि हम ऐसे जघन्य अपराधों के प्रति संवेदनशील नहीं हैं। यानी कि सचमुच हमारी अपनी सच्चाई यह है कि हम अयोग्य हैं। शायद इसीलिए हम इस बात पर ज्यादा गौर करते हैं कि दूसरे लोग हमें बोलने वाले कौन होते हैं।

हर्रियाणा के भगाणा की दलित स्त्रियों की बलात्कार पीड़िताओं के पक्ष में धरने पर बैठे लोगों को दिल्ली पुलिस ने जबरन हटा दिया। काश कि सरकार के प्रतिनिधि वहाँ आकर उनसे मिलते और घड़ियाली सही दो आँसू बहा जाते।

काश कि सत्ता पर काबिज हमारे नेता पीड़ितों के साथ खड़े होकर कह पाते कि वे भी माँओं के जन्में हैं, कि उनकी भी बहन-बेटियाँ हैं, और वे इस ज़ुल्म के खिलाफ कदम लेंगे।

क्या हम कह सकते हैं कि अपनी कमियाँ मानने से शर्माए बिना सरकार चलाई जाएगी, वह सुबह कभी तो आएगी! अगर बु्द्धिजीवियों से पूछो तो वह कहेंगे कि हमारी संस्कृति में यह नहीं था, यह तो औपनिवेशिक काल की देन है। कुछ और हमें बतलाएँगे कि स्त्रियों के साथ हिंसा जैसी घटनाएँ तो दीगर मुल्कों में सरेआम होती रहती हैं। उन्हें हमारी ओर उँगली उठाने की जगह अपनी ओर देखना चाहिए।

होना यह चाहिए कि हम कहें कि यह गंभीर मसला है और किस भी इंसान के साथ हिंसा की घटना नहीं होनी चाहिए, हमारी स्त्रियों के साथ ऐसा होते जा रहा है तो हम उनके शुक्रगुज़ार हैं जो इस बारे में हमें सचेत कर रहे हैं। अगर उनके यहाँ भी ऐसी घटनाएँ हो रही हैं, तो हमारी जिम्मेदारी है कि हम भी उनको सचेत करें। पर होता यह है कि हम अपनी कमियों को मानने की जगह अड़ने लगते हैं और कारण ढूँढने लगते हैं। और जो कारण ढूँढ कर हमें मिलते हैं उनका सचमुच सच्चाई से कुछ लेना देना नहीं होता। चाणक्य श्लोकों से लेकर समकालीन साहित्य तक में स्त्री के प्रति अवहेलना के अनगिनत उदाहरणों के बावजूद हम मानने को तैयार नहीं होते कि हमारा समाज पुरुषप्रधानता की विकृति से ग्रस्त है और स्त्रियों के प्रति हिंसा भी इसी बीमारी की देन है। दीगर और मुल्कों मे भी यही बीमारी है तो उसका मतलब यह नहीं कि हमें स्वस्थ नहीं होना चाहिए। या कि उनकी कमजोरियों का फायदा हम अपनी बदहाली को छिपाने के लिए करें। अव्वल तो आँकड़े यही दिखलाते हैं कि मावाधिकार के सूचकांकों में हम दुनिया के अधिकतर मुल्कों से पीछे ही हैं।

हिंसा का एक ही हल है कि हम व्यापक अभियान चलाएँ कि यह सही नहीं है। स्त्री को इंसान का दर्जा दिलाने के लिए देशव्यापी कार्यशालाएँ हों। हर किसी को, अपने आप को भी, चाहत और हिंसा के भेद को समझाने का लंबा अभियान हो। पर जिस देश में आधी जनता अनपढ़ है, वहाँ कार्यशालाएँ चलाना भी कौन सा आसान काम है। लिखित या मुद्रित सामग्री तो हर जगह काम आएगी नहीं। कम से कम हमारे जैसे पढ़े लोगों के लिए ही सही, ऐसी सामग्री का भी इस्तेमाल हो। बाकी लोगों के लिए दृश्य सामग्री और बातचीत से ही काम चलाया जाए। इस देश में जल्दी ऐसी सरकार तो आने से रही जो व्यापक पैमाने में प्रभावी साक्षरता फैलाने को प्राथमिकता माने। फिलहाल तो बस नारे और विज्ञापनों के अभियान हैं। इसलिए यह काम सरकारों के ऊपर छोड़ा नहीं जा सकता। जैसा अक्सर कहा जाता है कि अगर हम अपने घर के बच्चों को ही इस बारे में सचेत कर सकें कि यौन हिंसा जघन्य अपराध है, तो बात आगे बढ़ेगी। अपने बच्चों से हम तभी बात कर पाएँगे जब हम स्वयं इस बात को समझें। यानी कि लड़ाई व्यक्ति के स्तर से ही शुरू होती है। अगर हम परिवारों में मौजूद हिंसा को छोड़ भी दें (जो कि जितना हम जानते हैं, उससे कहीं ज्यादा ही होती है) तो भी आज व्यापक माहौल ऐसा है कि जो स्त्री हमारे घर-परिवार-जाति की नहीं है, वह मात्र भोग्या है। जी हाँ, हमारी संस्कृति में स्त्री का देवी होना सिर्फ बातों में है। व्यवहार में वह महज यौन-सामग्री भर है। परिवार के अंदर भी उसे मात्र भोग्‍या की तरह इस्‍तेमाल किया जाता है इसके अनेक उदाहरण मौजूद हैं, जो कि अपवाद मात्र नहीं हैं। मध्‍यवर्गीय नैतिकता बहुत सीमित वर्गो में ही पाई जाती है, पिछले ही साल एक ऐसे प्रशासनिक अधिकारी का प्रकरण सामने आया था जो अपनी बेटियों के साथ बलात्‍कार करता रहा था और जब उसने बेटी की बेटी को हवस का शिकार बनाना चाहा तब उसकी बेटियों ने प्रतिरोध दर्ज कराया। बच्चियों के साथ यौन शोषण में अक्‍सर परिवार के ही लोग संलग्‍न होते हैं। ग्रामीण इलाकों में ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएँगे जहां पिता, ससुर, भाई या कोई अन्‍य रिश्‍तेदार अपने की परिवार की स्‍त्री को शिकार बनाता है। इस स्थिति से उबरने के लिए हमें पहले इसे स्वीकार करना होगा। ज्यादातर लोग यह मानने को तैयार ही नहीं हैं कि उनके मानस में स्त्री के प्रति कैसी ग़लत भावनाएँ हैं। हम जानें और मानें कि हम बीमार हैं, तभी इलाज संभव है।

सार्वजनिक जीवन में स्त्रियों के प्रति जो सम्मान कथित रूप में है, या कहीं-कहीं जैसे बसों गाड़ियों में अलग इंतज़ामात हैं, उसे व्यवहार में हम कितना निभाते हैं, यह सवाल ज़रूरी है। कहने को लेडीज़ फर्स्ट हर कोई कहता है, पर आम बोलचाल से लेकर दीगर और सामाजिक गतिविधियों में स्त्रियों को निरंतर अपमान सहना पड़ता है। प्रसिद्ध पंजाबी लोक नाटककार गुरशरण भ्रा (भाई) जी ने एकबार आंदोलन चलाया था कि स्त्रियों से जुड़ी गालियाँ इस्तेमाल करने के खिलाफ कानून बने और उस कानून में अलग-अलग श्रेणी के लोगों के लिए अलग-अलग किस्म की सजा का प्रावधान हो। अगर कोई पुलिस वाले को ऐसी गाली बोलते पाया जाए तो उसको सबसे अधिक सजा दी जाए, गैर-पुलिस सरकारी अधिकारियों को उससे कम और साधारण नागरिकों को सबसे कम। तात्पर्य यह था कि माँ बहन को जोड़ कर बनाई गई गालियाँ निश्चित रुप से हिंसक भावनाएं प्रकट करने के लिए इस्तेमाल होती हैं और सरकारी पदों पर नियुक्त लोग जब हिंसक भावनाएं प्रकट करते हैं तो वे अपने पदों का गलत उपयोग भी कर रहे होते हैं, इसलिए उनको अधिक सज़ा मिलनी चाहिए।

व्यक्ति से अलग बड़े स्तर की और बातें हैं जिनसे जूझना होगा। किसी ने सही कहा है कि घर में शौच का प्रबंध हो जाने से ही स्त्रियाँ सुरक्षित नहीं हो जाएँगी, पर कम से कम उन्हें बाहरी खतरों से तो कुछ राहत मिलेगी। यानी फिर एक राजनैतिक सवाल उठता है - क्या ऐसा विकास इस देश में कभी होगा कि अधिकतर स्त्रियों को शौच के लिए बाहर न जाना पड़े।

सारी दुनिया में सभ्यता के न्यूनतम मानदंडों की प्रतिष्ठा के लिए संघर्ष चल रहे हैं। अब हर तरह की ज्यादती को यह कह कर टाला नहीं जा सकता कि यह तो स्थानीय संस्कृति और अस्मिता का मुद्दा है। हमारे समाज में स्त्रियों के प्रति हिसा और और जातिगत भेदभाव ऐसी समस्याएँ हैं जिनके खिलाफ संघर्ष में दुनिया के किसी भी कोने में आवाज़ उठती है तो उसका स्वागत होगा। कमाल यह है कि हमारी सरकारें व्यापार से जुड़े हर वैश्वीकरण को मान लेती है, चाहे वह जितना भी देश के हितों के खिलाफ जाता हो, पर मानव अधिकारों के मसौदे पर हस्ताक्षर करने के बावजूद अंतर्राष्ट्रीय मान्यताओं को स्वीकार करने में उसकी कोई तत्परता नहीं दिखती। इससे यह तो पता चलता ही है कि देश के संसाधनों की लूट पर सरकार ऐसे नियंत्रण मानने को तैयार है जो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों के पक्ष में हैं, पर मानव अधिकारों को लेकर रवैया डाँवाडोल है।

स्त्री की सुरक्षा का सवाल बुनियादी तौर पर मानव अधिकार का सवाल है। चूँकि दलित और पिछड़े वर्गों की स्त्रियों के साथ ज़ुल्म ज्यादा होते हैं, इसलिए इसमें लिंग और जाति आधारित दोनों तरह की असमानता का मसला है। हाल में शहरों में हो रही हिंसा की घटनाओं में अमानवीय स्थितियों में रह रहे लोगों में से अपराधियों का होना आर्थिक आधार पर वर्ग विभाजन के पहलू को भी सामने लाता है। यानी ये सारी बातें एक दूसरे से गड्डमड्ड हैं। न तो पुरानी वामपंथी सोच कि आर्थिक वर्गों में फर्क कम होने पर ये समस्याएं मिट जाएँगी, ठीक थी और न ही यह सोच ठीक है कि जाति या वर्गों के आधार पर गैरबराबरी रहते हुए भी स्त्रियों को पुरुषों के साथ बराबरी का दर्जा मिल जाएगा। मौजूदा लोकतंत्र में समझौतापरस्ती शिखर पर है। जिसको थोड़ी सुविधाएँ मिल जाती हैं वह दूसरों के अधिकारों के प्रति उदासीन हो जाता है। यह व्यवस्था संरचनात्मक रूप से बराबरी के खिलाफ है। इस व्यवस्था से यह अपेक्षा रखना कि स्त्रियों की स्थिति में सुधार के लिए प्रभावी कदम उठाए जाएँगे, कोई मायना नहीं रखता।

तो आखिर क्या करें। स्थिति घोर हताशाजनक है। फिलहाल हम उन जुझारू साथियों को सलाम करते हैं जो इन दिनों की बेतहाशा गर्मी के बावजूद संघर्ष में लगे हैं। और हम फैज़ को याद करते हैं कि यूँ ही हमेशा खिलाए हैं हमने आग में फूल, न उनकी हार नई है न हमारी जीत नई।


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