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हरमन-प्यारा 'साहित्यिक नहीं' गायक-गीतकार बॉब डिलन और नोबेल पुरस्कार


('समयांतर' के ताज़ा अंक में प्रकाशित लेख - पत्रिका में 'मार्कूसी' नाम ग़लती से 'मार्क्स' छपा है)
बॉब डिलन को नोबेल पुरस्कार देने की घोषणा होते ही न्यूयॉर्क टाइम्स में आना नॉर्थ ने अपने आलेख में लिखा कि बॉब डिलन कोई साहित्यिक नहीं थे। साहित्य में नोबेल पुरस्कार दिया जाना चाहिए और इस साल ऐसा नहीं होगा। प्रसिद्ध पत्रिका न्यूयॉर्कर में रोज़ाना कार्टून में डेविड सिप्रेस ने ग्राफिक टिप्पणी की है - एक छोटे शहर का लड़का हाथ में बेंजो लिए सड़क पर अंगूठा उठाए खड़ा है कि कोई गाड़ी रुक जाए और वह सवारी कर सके। खयालों में वह कई सारे कामों की सूची तैयार कर रहा है - न्यूयॉर्क शहर जाना है, कुछ क्लबों में फोक (लोक संगीत) गाना है, कुछ गीत लिखने हैं, नोबेल पुरस्कार लेना है।
 जाहिर है कि साहित्यिक दुनिया में बॉब डिलन को नोबेल पुरस्कार दिए जाने की घोषणा से तहलका मचा हुआ है। हमारे अपने अंग्रेज़ीदाँ बंधुओं ने भी लिखा है - 'द हिंदू' में लेख आ चुका है। पर इस पर चिल्ल-पों मचाने की हिम्मत कम लोगों की है। क्योंकि सही या ग़लत, जैसा भी है, बॉब डिलन को नोबेल मिलना दुनिया भर में तरक्कीपसंद लोगों के लिए खुशी का झोंका सा बन कर आया। यह ऐसा निजी सुख है, जिसे बड़ी तादाद में लोग साझा कर रहे हैं। इसलिए निजी संदर्भों से ही इसे समझना चाहिए। सत्तर के बीच के सालों में मैं कोलकाता में कॉलेज में था, जब अपने एक दोस्त के साथ ट्राम की सवारी करता कहीं जा रहा था। अचानक उसने गाना शुरू किया। दो चार बांग्ला गीतों के बीच अपनी बांग्ला लहजे वाली अंग्रेज़ी में उसने वह गीत गाया - हाऊ मेनी टाइम्स….। उसके बाद कई जगह सामाजिक राजनैतिक कार्यकर्ताओं की सभाओं में यह गीत हमने गाया-सुना है।
यह बॉब डिलन का जादू है। उस घटना के दसेक साल बाद सुमन चट्टोपाध्याय (अब कबीर सुमन) ने इस गीत का बांग्लाकरण किया - कोतो टा पथ पेरुले तबे पथिक बोला जाए? कोतो टा पथ पेरुले पाखी जिरोबे तार डाना? कोतो टा अपचयेर पर मानुष चेना जाए? प्रश्नगुलो सहज आर उत्तर तो जाना। आखिरी वाक्य कि सवाल आसान हैं और जवाब भी हम जानते हैं, - the answer is blowing in the wind – यह चिरंतन दार्शनिक तथ्य है, जिसे ज्ञान-मीमांसा में confirmation bias या पुष्टि पूर्वग्रह कहते हैं। हम सच देखकर भी नहीं देखना चाहते। संगीत के जानकार लोग बतलाते हैं कि बॉब डिलन ने अनोखे प्रयोग किए, हाथ में बेंजो और मुँह में माउथऑर्गन लिए गाना-बजाना की लोक-परंपरा में नए आयाम जोड़े (जिससे कबीर सुमन जैसे अनेकों गायक-गीतकार प्रेरित हुए), पर सचमुच उनके संगीत नहीं, बल्कि उस गुस्से ने जो गीतों में बड़े नाजुक एहसासों के साथ आता है, वह गुस्सा जिसे आज तक हम जताते रहते हैं (दो सेकंड लगते हैं कि आप बटन दबाकर जान लें कि गुजरात राज्य 1990 से आज तक मानव विकास आँकड़ों में ग्यारह नंबर पर है, और केरल पहले नंबर पर है, पर आप नहीं जानेंगे क्योंकि आप नहीं जानना चाहते; तथ्य भरे पड़े हैं कि अमेरिका की साम्राज्यवादी नीतियों से धरती विनाश के कगार पर आ खड़ी है, पर हम यह नहीं जानना चाहते, इसलिए हम नहीं जानेंगे), उसने इस 'साहित्यिक नहीं' गायक-गीतकार को हरमन-प्यारा बना दिया। हाल में ब्रिटिश फिल्म-निर्देशक केन लोच ने अस्सी साल की उम्र में कहा है - आप कैसे इंसान हैं कि आपको गुस्सा न आए? यही गुस्सा था, जब रॉबर्ट ऐलन ज़िमरमान उर्फ बॉब डिलन ने 1965 में टाइम मैगज़ीन को साक्षात्कार देते हुए कहा - टाइम मैगज़ीन के लिए मुझे कुछ नहीं कहना। कौन पढ़ता है टाइम मैगज़ीन? मैं नहीं पढ़ता। एक खास तबके के लोग इसे पढ़ते हैं, जिनको सच्चाइयों से कुछ लेना-देना नहीं है। यह पूछने पर कि सच क्या है, डिलन ने कहा - 'सच यानी सादी तस्वीर। ऐसी तस्वीर जिसमें कोई बेघर बेबस सड़क पर उल्टी कर रहा है, और उसके बगल ने रॉकेफेलर जैसा कोई धनाढ्य अपने काम पर जा रहा है। हर शब्द में एक सच होता है। आप अंग्रेज़ी के 'know' (जानना) शब्द को जानते हैं - के एन ओ डब्ल्यू? छोटा 'k' और बड़ा 'K'। हर कोई मानता है कि वह हर कुछ जानता है। असल में हम कुछ नहीं जानते।' ऐसे गुस्साट डिलन को नोबेल मिलने से हमें लगा कि हमारे सुमन, साहिर, ग़दर जैसे अनगिनत जन-गीतकारों को सम्मानित किया गया - और हम गाते हैं, बेघर बेबस बेदर इंसां तारीक गली से निकलेंगे, वह सुबह कभी तो आएगी। और भी पीछे जा सकते हैं और मान सकते हैं कि खुसरो, बुल्ले शाह और लालन फकीर को सम्मानित किया गया है। यही सच है - डिलन को नोबेल दरअसल जनगीत-परंपरा का सम्मान है। कोई चाहे तो कहता रहे कि यह साहित्य को पुरस्कार नहीं है।
ताज़ा खबर यह है है कि नोबेल समिति की ओर से कई बार संपर्क करने की कोशिशों का डिलन ने कोई जवाब नहीं दिया है। यह लिखते हुए यह खबर आ रही है कि उसने नोबेल पुरस्कार लेने से मना कर दिया है। दस साल पहले स्पेन के राजकुमार द्वारा दिए जाने वाले सम्मान 'प्रिंसिपे दे आस्तूरियास' लेने भी डिलन नहीं पहुँचे थे (हालाँकि डिलन ने शुक्रिया जताते हुए ख़त भेजा था)। यह खबर हमारे जैसों की खुशी बढ़ाती है, जिन्होंने कभी इन बातों पर ध्यान नहीं दिया है कि पुरस्कार किसको मिल रहे हैं, क्यों मिल रहे हैं, जिनके ज़हन में पहली बात यह है कि ज़िंदगी को अपने संघर्षों के साथ जिया जाए, गाया जाए।
यह भी सही है कि डिलन को अपनी आवाज़ का मसीहा मानने वाले अधिकतर लोगों को उनके साठ के दशक के गीत ही पसंद हैं - 'द आन्सर इज़ ब्लोइंग इन द विंड' के अलावा 'टाइम्स दे आर अ'चेंजिंग' – दुनिया बदल रही है - जैसे गीत आज भी खूब गाए जाते हैं। बाद के दशकों में जो गीत डिलन ने लिखे और गाए, उनमें उनकी अपनी दार्शनिक, आध्यात्मिक पड़ताल ज्यादा नज़र आती है। अपने निजी जीवन में भी वे बड़े बदलावों में से गुजरे। जन्म से यहूदी, व्यवहार से अराजक, वे पहले तो ईसाई बन गए, फिर बाद में वह भी छोड़ा और वापस यहूदी जड़ों की ओर लौट आए। पर दिवंगत बर्तानवी मार्क्सवादी समीक्षक माइक मार्कूसी ने 2003 में एक आलेख में लिखा कि दरअसल वक्त के साथ उनके तीखे वैचारिक तेवर में कमी नहीं आई, बल्कि बढ़ोतरी ही दिखती है। माना जाता है कि बीटनिक पीढ़ी के प्रख्यात कवि ऐलन गिन्सबर्ग से साथ लंबे रिश्ते का उन पर असर पड़ा है। गिन्सबर्ग को नोबेल मिलना चाहिए था, अपनी पीढ़ी के बड़े कवियों में वे बेशक शिखर पर हैं। गिन्सबर्ग कोई दस साल बनारस में रहे और भारतीय अध्यात्म से प्रभावित हुए। उनकी 'हाउल' जैसी शुरुआती कविताओं में (भारत आने के पहले) अमेरिका में रंगभेद और जंगखोर सरकार के खिलाफ उग्र आक्रोश दिखता है, पर बाद की कविताओं में उनकी कविताएँ निजी दार्शनिक किस्म की होने लगी थीं। ऐसा माना जाता है कि गिन्सबर्ग डिलन के प्रति मोहित थे, पर डिलन ने उन्हें बड़े साथी या बुज़ुर्ग की तरह माना। डिलन की निर्देशित फिल्म 'रेनाल्डो ऐंड क्लारा' में गिन्सबर्ग ने काल्पनिक चरित्र 'फादर (पिता)' की भूमिका में अभिनय किया है और कई दृश्यों में रेनाल्डो के चरित्र में डिलन उनसे धार्मिक उपदेश लेता है। गिन्सबर्ग भी यहूदी थे, पर फिल्म में दोनों की भूमिका में ईसाइयत है।
जैसा कि अक्सर सफल कलाकारों के साथ होता है, डिलन ने वैचारिक तेवर के गीत गाए हैं, पर उनके बयानों में कोई वैचारिक स्पष्टता नहीं दिखती। अक्सर उन्होंने नासमझी में ग़लत बयान दिए हैं। 1963 में बाईस साल की उम्र में नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे संगठन से सम्मान लेते हुए बहुत सारी बकवास करते हुए आखिर में उसने यहाँ तक कह दिया कि मैं ली ओसवाल्ड (राष्ट्रपति केनेडी का हत्यारा) के साथ अपनत्व महसूस करता हूँ। हालाँकि डिलन यह बात अमेरिका की क्यूबा विरोधी नीतियों के संदर्भ में कह रहा था, पर केनेडी की हत्या के कुछ ही हफ्तों बाद ऐसी बात ऐसे माहौल में कहना, जहाँ केनेडी को काले लोगों (अफ्रीकी अमेरिकी) के अधिकारों का मसीहा माना जाता हो, बेवकूफी थी। बाद में एक तरह से माफी माँगते हुए डिलन ने लंबी कविता जैसा ख़त सम्मान के निर्णायकों को भेजा. जिसमें उसने अपने ग़लत बयानों में निहित और बातों को समझाने की कोशिश की। ख़त में यह भी लिखा था कि मैंने ईमानदारी से खुद को सामने रखा और इसके लिए मैं माफी नहीं माँगूँगा। डिलन पर शोध करने वालों को वह भाषण और बाद में लिखा वह ख़त पढ़ना चाहिए। कलाकारों में ऐसा अजीब घनचक्करपन आम बात सी है। डिलन की ही परंपरा से (डिलन से पहले के वूडी गथरी, पीट सीगर आदि) प्रभावित हमारे लोक-गीतकार भूपेन हाजारिका नब्बे के दशक में भारतीय जनता पार्टी की ओर से संसद का चुनाव लड़ रहे थे। हार भी गए। समझना मुश्किल है कि किन बातों से वे एक दक्षिणपंथी दल की ओर से, जो आज निश्चित रूप से मुल्क में तानाशाही लाने की कोशिश में है, चुनाव लड़ने को मजबूर हुए थे।
यह हर कोई जानता है कि डिलन ही नहीं, अमेरिका का हर लोक-संगीत गायक ऊडी गथरी (देखिए – समांतर: अगस्त 2012) से प्रभावित रहा है। पर डिलन पर जिस गायिका का प्रभाव काफी गहरा था, वह है ओडेटा होम्स। डिलन ने खुद कहा है कि उसे फोक यानी लोक-संगीत की ओर सबसे पहले ओडेटा ने ही खींचा। यहाँ तक कि एक रेकॉर्ड (संगीत) की दूकान में 'ओडेटा सिंग्स बैलेड्स ऐंड ब्लूज़' सुनकर डिलन ने अपना इलेक्ट्रिक गिटार छोड़कर (जिसे आधुनिक रॉक म्यूज़िक में इस्तेमाल किया जाता है) पुराने किस्म का एकुस्टिक गिटार ले लिया, जिसमें ज़मीनी आत्मीय एहसास बढ़ता है। डिलन ने ओडेटा के उस रेकॉर्ड के सारे गाने सीखे और बजाए। डिलन से पंद्रह साल बड़ी ओडेटा ने भी कई बार डिलन के गीत गाए।
डिलन में अस्सी के दशक से लगातार जो बदलाव दिखे, जिन्हें अधिकतर लोगों ने प्रतिक्रियाशील माना, ये भी दरअसल एक अराजक मन की बेचैनी की ओर संकेत करते हैं। अपने लेख 'द पॉलिटिक्स ऑफ बॉब डिलन' में मार्कूसी ने लिखा है कि डिलन ने तय कर लिया था कि उसे अपनी पीढ़ी के प्रतिरोध की आवाज़ नहीं बनना है। 'यह नया ऊडी गथरी कुछ और ही बनता जा रहा था - जिससे उसके पूर्व-प्रशंसक परेशान हो रहे थे। डिलन अपने वक्त का सबसे जानामाना विरोध का गीतकार ही नहीं, बल्कि इस धारा के सबसे जानामाना भगौड़ा भी है।' डिलन ने अस्सी की शुरुआत में अपने साक्षात्कारों में बयान भी दिए कि वह लोगों के लिए नहीं लिखना चाहता, बल्कि अपने अंदर की आवाज़ को सामने लाना चाहता है। वह किसी आंदोलन या संगठन के साथ काम नहीं कर सकता। जिस आंदोलन की आवाज़ को उसने 'द टाइम्स दे आर अ-चेंज़िंग' में गाया था, उसी की आलोचना में अब वह एक नए गीत 'माई बैक पेजेस' में कहता है, कि 'लाश बन चुके धर्म-प्रचारक विचारों को नक्शा' मानकर चलते हैं और ज़िंदगी को महज सही या ग़लत दो ही छोरों में देखने का झूठ' फैलाते हैं और वे यह समझना ही नहीं चाहते कि 'प्रचारक बनते ही मैं खुद का ही दुश्मन बन जाता हूँ।' डिलन ने वाम आंदोलनों में तानाशाही और खुदगर्ज़ रवैए से चिढ़कर नए गीत लिखे। एक गीत की पंक्तियाँ हैं - 'मैंने कहा बराबरी, जैसे कि शादी करते हुए कसम लेते हैं; पर तब मैं उम्रदराज़ था, अब युवतर हूँ।' मार्कूसी के अनुसार यह 'द टाइम्स दे आर अ-चेंज़िंग' को नकारता नहीं, बल्कि उसे और तीखे तेवर के साथ कहता है - 'सर्वज्ञानी होने के घमंड से निकालकर आंदोलन को कुछ नहीं जानने की स्वीकृति तक ले आता है।' आज जब हमारे वाम आंदोलनों में, खासकर दलित-प्रसंग में, गहन मंथन की प्रक्रिया जारी है, ये बातें काफी प्रासंगिक हैं।
बहरहाल, 10 दिसंबर को बॉब डिलन को नोबेल पुरस्कार मिलेगा। वह न लेने आए तो उसकी मर्जी। संयोग से 10 दिसंबर अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार दिवस भी है।

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