अब?
मोदी जी
तो आ गया - अब
बतलाओ कि 2002
पर इतना
शोर मचा कर क्या मिला?
अब समझ
में आया कि विकास के लिए देश
की जनता कितनी लालायित है?
मोदी
समर्थकों से ऐसे सवाल आते ही
रहते हैं। ऐसे सवालों का जवाब
देना मायने नहीं रखता। पर हमें
अपने आप से कुछ बातें करनी
चाहिए ताकि लगातार बढ़ रहे
अँधेरे में हम खो न जाएँ।
नफरत
से भरे उन्माद में की गई हिंसा
के खिलाफ शोर कभी भी 'इतना'
नहीं
होता; वह
कितना भी हो,
कम ही
होता है।
मोदी
अगर प्रधान-मंत्री
बनते हैं तो उसका कारण यही है
कि दक्षिण एशिया के अधिकतर
इलाके में लोगों की सोच आज भी
मध्य-काल
में हैं। ऐसा कोई विरला ही है
जो सांप्रदायिक सोच से प्रभावित
नहीं है। जब हम 1946-47,
1984 या 2002
पर 'इतना
शोर' पर
इतराज करते हैं,
तो हम
अपने से अलग 'उन
लोगों' के
प्रति अपनी गहरी संवेदनाहीनता
को ही व्यक्त कर रहे होते हैं।
जब बहुसंख्यकों की सांप्रदायिकता
घनीभूत हो जाती है,
तो उससे
एक अदम्य शैतान का जन्म होता
है। यह पाकिस्तान और बाग्लादेश
में कई बार देखा जा चुका है और
अब भारत में संघ परिवार की
बढ़ती ताकत में यह दिख रहा है।
मोदी
ने हमारी सोच के सांप्रदायिक
पहलू को सामूहिक रूप से संगठित
करने में सफलता पाई है। विकास
का झूठ हमारी संवेदनाहीनता
को ढँक पाने में कामयाब हुआ
है। आखिर सामाजिक और मानव
विकास के सही आँकड़े ढूँढने
के लिए कीबोर्ड पर उँगलियाँ
चलाने में कितने सेकंड लगते
हैं! पर
हम जानबूझकर इस भ्रमात्मक
गुंजन में खोए रहते हैं कि
हमने गुजरात की शानदार सड़कें
देखी हैं -
क्या हम
सचमुच नहीं जानते कि सामाजिक
विकास के पैमाने किसी एक या
दस निज़ाम या अंबानी की दौलत
से नहीं बल्कि करोड़ों लोगों
की आर्थिक और विकासमूलक स्थिति
से जुड़े आँकड़ों से बनते हैं।
चूँकि
अतीत में हुए उत्पीड़न को हम
पर्याप्त संवेदना के साथ नहीं
देखना चाहते -
चाहे वह
हिटलर, स्टालिन,
अमेरिकी
साम्राज्यवाद या हमारे इतिहास
में यहाँ उनके छोटे दिखते
भाई-बंधुओं
का अत्याचार हो -
इसलिए
उत्पीड़न फिर फिर होता है। यह
विड़ंबना ही है कि हम मानते हैं
कि हमारी सभ्यता आध्यात्मिक
स्तर पर धरती पर सबसे अधिक
प्रबुद्ध और सहनशील है,
फिर भी
अपने अंदर मौजूद घनी नफ़रत
के बारे में हम अंजान रहना
चाहते हैं। सवाल एक मोदी नामक
व्यक्ति-मात्र
का नहीं, असली
सच्चाई उसके साथ मौजूद संघ-परिवार
के ताकत की है,
जिसके
सदस्यों के लिए शारीरिक या
भाषाई किसी भी प्रकार की हिंसा
में शामिल होना कोई बड़ी बात
नहीं। मुजफ्फरनगर की एक सामान्य
घटना यूँ ही बड़े दंगे में नहीं
बदल जाती। संपादक मित्र बतलाते
हैं कि डेस्क एडिटरों का बहुत
सारा वक्त सांप्रदायिकता
विरोधी आलेखों के जवाब में
आए हिंसक भाषा में लिखी टिप्पणियों
को पढ़ने और उन्हें फेंकने में
जाता है। स्त्रियाँ संघ-परिवार
केखिलाफ लिखती हैं तो उनके
लिए हिंस्र यौनिक शब्दावली
में टिप्पणियाँ आती हैं। यह
सब आम बातें हैं और हर कोई इसे
जानता है। क्या न्यूनतम संवेदना
वाला कोई भी सामान्य व्यक्ति
इन बातों को नज़रअंदाज़ कर
सकता है? बजरंगी
सिर्फ सड़क पर ही नहीं हैं। जब
हम यह भूलते हैं कि किस तरह
इशरत को मारा गया,
किस तरह
ग्रेहम स्टेन्स और उसके बच्चों
को जलाया गया,
वो तमाम
हिंसा की घटनाएँ जो लगातार
होती रही हैं,
जब हम
भूलते हैं कि औरतों बच्चों
पर घातक हमलों के अपराध में
मोदी की एक कैबिनेट-मंत्री
सज़ा-ए-मौत
तक पाने को थी,
कि उसके
राज्य के सबसे आला पुलिस अफ्सर
या तो जाली मुठभेड़ों में
निर्दोषों की हत्या करने के
लिए जेल में हैं या और दीगर
अफ्सर ज़ुल्मों के खिलाफ आवाज़
उठाने के कारण सांप्रदायिक
राज्य-सत्ता
से लगातार तरह-तरह
की परेशानियाँ झेल रहे हैं,
जब हम यह
सब भूल जाते हैं,
तब हममें
भी एक बजरंगी बैठा होता है,
वैसा ही
जैसे मंगलूर में उन युवाओं
पर हमला करने वालों मे होता
है, जिनका
दोष बस इतना कि वह वही कर रहे
थे जो युवा करते हैं,
कुछ प्यार,
मटरगश्ती।
जैसे
आज जर्मन नागरिकों के साथ है,
हमारी
भावी पीढ़ियाँ भी यह सोचती
रहेंगीं कि आखिर उनके पूर्वजों
को क्या बीमारी थी!
यही
सच है। मोदी जहाँ है,
वह इसलिए
है कि हमने अपनी सांप्रदायिक
अस्मिता को नंगे और साफ तौर
पर सामने आने दिया है। बस इतना
ही है कि किंवदंती में जैसे
राजा को कहने के लिए एक अबोध
बालक था, हमें
यह कहने के लिए कोई नहीं है कि
हम नंगे हैं।
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