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वाम के साथ ही रहूँगा


अपने वरिष्ठ मित्र सेवानिवृत्त प्रोफेसर साहब से मिलने जा रहा था। बुज़ुर्ग पति पत्नी। बस से एक स्टॉप जाना था। यहाँ कंपनियों के कर्मचारियों को छोड़ती गाड़ियाँ अक्सर खाली लौटते हुए सवारियाँ ले लेती हैं। तो ऐसी एक गाड़ी मिल गई। चालक के साथ वाली सीट पर बैठा। स्थानीय अखबार 'वार्ता' की प्रति पड़ी थी। संपादक संघी है, तो मुख्य खबर मोदी की तस्वीर के साथ इस बयान की थी कि कॉंग्रेस की विभाजन और सांप्रदायिकता की राजनीति से देश को नुक्सान पहुँचा है। सच है। पर कौन कह रहा है। मैं हँस पड़ा। चालक साथी ने कहा कि राजनीति का बुरा हाल है। मैंने कहा कि जो सबसे कट्टर सांप्रदायिक है, वह दूसरों की सांप्रदायिकता पर कह रहा है - है न कमाल। चालक संघ के प्रभाव में था। उसने कहा कि - क्या, वह तो ब्रह्मचारी है!

मेरा वैज्ञानिक मन इस वक्तव्य को गंभीरता से ले बैठता, इससे बचते हुए मैंने कहा कि भाई असली लड़ाई तालीम, स्वास्थ्य और आसरे की है। उसने कहा कि पर मुसलमानों की बढ़ती औकात का कुछ करना चाहिए। ओल्ड सिटी में जरा सा किसी से गाड़ी छू गई तो पहले मारेंगे फिर बात करेंगे। मेरे लिए यह समाजशास्त्रीय भाषण का मौका था, पर मैंने कहा कि हाँ गुंडागर्दी हर जगह है, वहाँ ओवेसी है, यहाँ मोदी और तोगाड़िया हैं - असली लड़ाई तालीम, स्वास्थ्य और आसरे...

प्रोफेसर मित्र के सभी मित्र प्रगतिशील हैं। पर उनकी लाचारी यह कि वे खुद अपनी सांप्रदायिकता से जूझ नहीं पाते और मेरे यह कहने के बावजूद कि वाम की तमाम सीमाओं के बावजूद मैं तो वाम के साथ रहकर ही अपनी लड़ाइयाँ लड़ता रहूँगा, वो बेचारे मुझे यह समझाने लग गए कि आतंकवाद मुसलमानों की वजह से है, मोदी की सरकार हो तो सांप्रदायिकता कम होगी, जैसे अटल जी के समय दंगे नहीं हुए (हाँ हाँ हमेशा की तरह मैं याद दिलाता रहा कि गोधरा के बाद के दंगों के दौरान अटल जी की सरकार ही थी) और कि पाकिस्तान के साथ संबंध सुधरे (जी, मैंने कहा कि उसी दौरान नाभिकीय विस्फोट हुए और जो हल्ला मचा उससे विपरीत संबंध सचमुच नहीं सुधरे)

क्या करें, भला इंसान भी तो बनना है। इतना ही अगर हो जाए कि किसी से कहूँ कि मैं चर्चा नहीं करना चाहता तो वह मान जाए!

उनका कहना है कि गुजरात में बहुत विकास हुआ है - और जैसा दीगर संघ-प्रेमी कहते हैं, वह मुझे प्रमाण के बतौर चाक्षुष देखा विवरण देने लगे। फिर उनका यह कहना था कि दिल्ली में तीन-चार सीटें आआपा को मिल रही हैं।

अंततः मोक्षम बाण था कि कोई सबल नेतृत्व तो चाहिए। अगर आप वाम के पक्ष में ही रहेंगे तो अकेले पड़ जाएँगे। मैंने कहा कि मैं नितांत अकेला ही रह जाऊँ तो भी मैं वाम के साथ ही रहूँगा - उन्हीं के साथ रहूँगा और अपनी सीमाओं को मानते हुए उन्हीं से लड़ूँगा।

Comments

dr.mahendrag said…
नज़रिआ अपना अपना अपने खोल में बंद रहने पर किसी को क्या ऐतराज ?सब स्वयं प्रदत प्रमाण पत्र लिए घूम रहे हैं कोई भी सेक्युलर नहीं है हरेक को दूसरा कम्युनल दिखाई देता है पर यह राग पुराना हो गया है जनता भी बहुत समझदार हो गयी है

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