यह आलेख आज जनसत्ता में 'बौद्धिकों के बदलते सुर' शीर्षक से छपा है। इसे पहले मैंने अंग्रेज़ी में थोड़ा और विस्तार से लिखा था। मेरे अंग्रेज़ी ब्लॉग में उस मूल लेख को पढ़ सकते हैं।
नई
सरकार बनने के बाद से उदारवादी
जाने जाने वाले बुद्धिजीवियों
में बदले हालात में खुद को
ढालने की कोशिशें दिखने लगी
हैं। नए रुख को किसी नई नौकरी
की तरह नहीं समझाया जा सकता।
नए मुहावरे गढ़ने पड़ते हैं या
जिन मुहावरों को पहले ग़लत कहकर
अपनी जगह बना रहे थे,
अब
उनको दुबारा ढूँढकर सही का
जामा पहनाना पड़ता है। ऐसी ही
एक कोशिश हाल में अंग्रेज़ी
के 'द
हिंदू'
अखबार
में छपे शिव विश्वनाथन के आलेख
में दिखती है। नरेंद्र मोदी
द्वारा काशी विश्वनाथ मंदिर
में पूजा और फिर उसके बाद गंगा
में आरती से बात शुरू होती है।
टी वी पर यह दृश्य आने पर संदेश
आने लगे कि बिना कमेंट्री के
पूरी अर्चना दिखलाई जाए। कइयों
का कहना था कि इस तरह पूरी पूजा
की रस्म को पहली बार टी वी पर
दिखलाया गया। इसमें कोई शक
नहीं कि मोदी की गंगा आरती
पहली बार दिखलाई गई। पर धार्मिक
रस्म हमेशा ही टी वी पर दिखलाए
जाते रहे हैं। राष्ट्रीय नेता
सार्वजनिक रूप से धार्मिक
रस्मों में शामिल होते रहे
हैं,
यह
हर कोई जानता है। राजेंद्र
प्रसाद के हवन से सोनिया गाँधी
का मंदिरों में जाना तक हर कोई
जानता है। तो एक अध्येता को
यह बड़ी बात क्यों लगी?
शिव
बतलाते हैं कि मोदी जी के होने
से यह संदेश मिला कि हमें अपने
धर्म से शर्माने की ज़रूरत
नहीं है। यह पहले नहीं हो सकता
था।
कौन
सा धर्म?
कैसी
शर्म?
क्या
मोदी महज एक धार्मिक रस्म निभा
रहे थे?
अगर
ऐसा है तो इसके पहले कितनी बार
उन्होंने यह आरती की;
आखिर
वे 63
साल
के हैं,
उनके
पास क्षमता थी और आने जाने में
कोई दिक्कत न थी। कभी तो लगा
होगा कि दीन पुकार रहा है।
सच
में वह कोई धार्मिक काम नहीं
था। वह आरती किसी भी धार्मिकता
से बिल्कुल अलग एक विशुद्ध
राजनीतिक कदम थी। उसमें से
उभरता संदेश यही था कि राजा
आ रहा है।
तकरीबन
डेढ़ पहीने पहले एक और आलेख में
बनारस में केजरीवाल और मोदी
की भिड़ंत पर लिखते हुए शिव ने
लिखा था,
'मोदी
जिस भारत-इंडिया,
हिंदू-मुस्लिम
फर्क को थोपना चाहते हैं,
बनारस
उसे खारिज करता है।'
अब
मोदी के जीतने पर उनका सुर बदल
गया है।
आगे
वे किसी दोस्त को उद्धृत कर
बिल्कुल निशाने पर मार करते
हैं अंग्रेज़ी बोलने वाले
सीक्यूलरिस्ट लोगों ने
बहुसंख्यकों को अपना स्वाभाविक
जीवन जीने में परेशान कर दिया।
इंग्लिशवालों की दयनीय स्थिति
पर मैं पहले लिख चुका हूँ,
पर
स्वाभाविक क्या है,
इस
पर मेरी और शिव की समझ में फर्क
है। आगे वे लिखते
हैं कि वामपंथी घबरा गए हैं
कि अब धर-पकड़
शुरू होगी। वैसे सही है कि 31%
मतदाताओं
ने ही भाजपा को बहुमत दिलाया
है। ऐसा नहीं है कि सारा मुल्क
तानाशाह के साथ है। अगर मतदान
में शामिल न हुए लोगों को गिनें
तो जनसंख्या का पाँचवाँ हिस्सा
भी भाजपा के साथ नहीं होगा।
घबराने की कोई बात सचमुच नहीं
है। पर क्या हम भूल जाएँ कि
पिछली बार के भाजपा शासन के
दौरान किताबें कैसे लिखी गईं।
आज हम सब वामपंथी दिखते हैं,
पर
डेढ़ महीने पहले यह डर उन्हें
भी था कि मोदी हिंदू-मुस्लिम
फर्क को थोपना चाहते हैं। एन
सी ई आर टी की एक किताब में भारत
के विभाजन पर अनिल सेठी का
लिखा एक अद्भुत अध्याय है,
जिसमें
दोनों ओर आम नागरिक को विभाजन
से एक जैसा पीड़ित दिखलाया गया
है। यह वाजिब चिंता है कि इस
अध्याय को अब हटा दिया जा सकता
है। यह सब जानते हैं कि
दक्षिणपंथियों के आने से
इतिहास की नई व्याख्या की
जाएगी।
शिव
का मानना है कि उदारवादी इस
बात को न समझ पाए कि मध्य-वर्ग
के लोग तनाव-ग्रस्त
हैं और मोदी ने इसे गहराई से
समझा। पहले इन तनावों की वाम
की समझ के साथ शिव सहमत थे,
पर
अब उन्हें वाम एक गिरोह दिखता
है,
जिसने
धर्म को जीने का सूत्र नहीं,
बल्कि
एक अंधविश्वास ही माना। यह
50
साल
पुरानी बहस है कि मार्क्स ने
धर्म को अफीम कहा या कि उसे
उत्पीड़ितों की आह माना। आगे
वे वाम को एक शैतान की तरह
दिखलाते हैं,
जिसने
संविधान में वैज्ञानिक चेतना
की धारणा डाली ताकि धर्म की
कुरीतियों और अंधविश्वासों
से मुक्ति मिले। रोचक बात यह
है कि अंत में वे दलाई लामा को
अपना प्रिय वैज्ञानिक कहते
हैं। तो क्या वैज्ञानिक में
'वैज्ञानिक
चेतना'
की
भ्रष्ट धारणा नहीं होती!
उनके
मुताबिक यह धारणा एक शून्य
पैदा करती है,
और
धर्म-निरपेक्षता
बढ़ाती है,
जिससे
ऐसा एक दमन का माहैल बनता है
जहाँ आम धार्मिक लोगों को नीची
नज़र से देखा जाता है। बेशक
विज्ञान को सामाजिक मूल्यों
और सत्ता-समीकरणों
से अलग नहीं कर सकते,
पर
यह मानना कि जाति,
लिंगभेद
आदि संस्थाएँ,
जिन्हें
धार्मिक आस्था से अलग करना
आसान नहीं,
विज्ञान
उनसे भी अधिक दमनकारी है,
ग़लत
है। शिव धर्म-निरपेक्षता
को विक्षोभ पैदा करने वाला
औजार मानते हैं। उनके अनुसार
पिछली सरकार ने चुनावों के
मद्देनज़र लघुसंख्यकों की
तुष्टि की और इससे बहुसंख्यकों
को लगा कि उनके साथ अन्याय हो
रहा है। तो वह तुष्टि क्या है?
शाह
बानो का मामला,
पर्सनल
लॉ,
काश्मीर
के लिए धारा 370,
कॉंग्रेस
या दूसरे दलों के चुनावी मुद्दे
तो ये नहीं हैं,
हालांकि
संघ परिवार के लिए ये संघर्ष
के मुद्दे हैं। चुनाव के मुद्दों
में आरक्षण भी है। पैसा,
शराब,
मादक
पदार्थ,
हिंसा,
क्या
नहीं चलता। जातिवाद और
सांप्रदायिकता भी। सवाल यह
है कि कहाँ तक गिरना ठीक है।
संघ ने खास तौर पर उत्तर भारत
में पिछड़े वर्गों और दलितों
में झूठी बहुसंख्यक अस्मिता
का अहसास पैदा किया और फिर
उनमें गुस्सा पैदा किया कि
तुम्हारे साथ अन्याय हो रहा
है। दूसरी ओर अगर लघु-संख्यकों
को कुछ सुविधाएँ दी जाएँ तो
क्या वह हमारे पारंपरिक मूल्यों
के खिलाफ है?
अगर
नहीं तो सच्चर कमेटी की रिपोर्ट
जैसे दस्तावेजों से उजागर
लघु-संख्यकों
के बुरे हालात के मद्देनज़र
अगर उनकी तरफ अधिक ध्यान दिया
गया तो इससे एक बुद्धिजीवी
को क्या तकलीफ?
बिना
विस्तार में गए सिर्फ इस अहसास
को बढ़ाना कि लघु-संख्यकों
का तुष्टीकरण होता है,
एक
गैर-जिम्मेदाराना
रवैया है। होना यह चाहिए कि
हम सोचें कि देश में लघु-संख्यकों
का हाल इतना बुरा क्यों है कि
उनका चुनावों के दौरान फायदा
उठाना संभव होता है। उनकी माली
और तालीमी हालत इतनी बुरी
क्यों है कि उनके बीच से उठने
वाली तरक्की-पसंद
आवाज़ें दब जाती हैं।
यह
एक नज़रिया हो सकता है कि
बहु-संख्यक
धर्म-निरपेक्षता
को खोखला दमनकारी विचार मानते
हैं। पर यह भी देखना चाहिए कि
ग़रीबी और रोज़ाना मुसीबतों
से परेशान लोग बहु-संख्यक
अस्मिता से जुड़े राष्ट्र की
संकीर्ण धारणा के शिकार हो
जाते हैं,
यह
ऐसा विचार है जिसके मुताबिक
अपने ही अंदर दुश्मन ढूँढा
जाता है,
जैसे
जर्मनी में यहूदी,
पाकिस्तान
और बांग्लादेश में हिंदू और
भारत में मुसलमान। इसी असुरक्षा
को मोदी और संघ ने पकड़ा। इसके
साथ रोज़ाना ज़िंदगी में धर्म
और अध्यात्म का संबंध ढूँढना
ग़लत होगा। धर्म-निरपेक्षता
बहु-संख्यकों
पर कोई कहर नहीं ढाती। इसके
विपरीत होता यह है कि संघ परिवार
जैसी ताकतों के भेदभाव वाले
प्रचार से इंसान की बुनियादी
प्रेम और भलमनसाहत की प्रवृत्तियाँ
दब जाती हैं।
शिव
बतलाते हैं कि हमारे धर्मों
में हमेशा ही संवाद की परंपरा
रही है। पर इतना कहना काफी
नहीं है। हमें यह भूलना नहीं
चाहिए कि समाज में धर्म की
भूमिका बड़े तबकों को क्रूरता
से मनुष्येतर रखने की रही।
हमारे चिकित्सा-विज्ञान
की परंपरा में बहुत सी अच्छी
बातें हैं,
वहीं
लाशों के साथ काम करने वालों
को अस्पृश्य मानना भी इसी
परंपरा का हिस्सा है। एक ओर
यह सही है कि हमारे लोगों के
लिए धर्म पश्चिम की तरह महज
रस्मी बात नहीं,
वहीं
यह भी सही है कि हर धार्मिक
रस्म आध्यात्मिक उत्थान से
नहीं जुड़ी है। इस देश के किसी
भी हिस्से में सुबह उठते हुए
इस बात को समझा जा सकता है,
जब
मंदिर-मस्जिद-गुरद्वारों
से सुबह की कुदरती शांति को
चीरती लाउड-स्पीकरों
की कानफाड़ू आवाज़ें सुनाई
पड़ती हैं। इसमें कोई शक नहीं
कि हमारे जीवन में धर्म का
हस्तक्षेप अधिकतर बड़ा दुखदायी
होता है।
निजी
आस्था और सार्वजनिक जीवन में
फर्क करने वाली धर्म-निरपेक्षता
का सेहरा वाम को चढ़ाना भी ग़लत
होगा। ऐसी खबरों की संख्या
कम नहीं जब वाम नेता पूजा मंडपों
का उद्घाटन करते देखे गए थे।
जिस वाम को लेकर जैसी बहस शिव
या दीगर बुद्धिजीवी कर रहे
हैं,
वह
सिर्फ अकादमिक संस्थानों के
घेरे में है। आज ऐसी बहस को पढ़
कर लगता है मानो नई सरकार क्या
बनी,
भारत
से स्टालिन का शासन खत्म हुआ!
धर्म-निरपेक्षता
की बात करते हुए ईसाई धर्म और
विज्ञान की लड़ाई को ले आना
शायद यह बतलाता है कि धर्म-निरपेक्षता
पश्चिमी धारणा है। पर क्या
आधुनिक राज्य-सत्ता
की धारणा भारतीय है?
संघ
सरचालकों का प्रेरक हिटलर
क्या भारतीय था?
इसमें
कोई शक नहीं कि कई लोग इस बात
से सही कारणों से परेशान होते
हैं कि पेशेदार वैज्ञानिक
अपनी धार्मिक आस्थाओं और
विज्ञान-कर्म
को अक्सर अलग नहीं कर पाते।
पर हमारी इस परेशानी का व्यापक समाज में चल
रही प्रक्रियाओं पर कोई असर
नहीं पड़ता। वैसे ही हमारे
वैज्ञानिकों में नास्तिकों
की संख्या बड़ी कम है। और अधिकतर
व्यवस्था-परस्त
हैं। किसी भी राष्ट्रीय सम्मेलन
में चले जाएँ तो पाएँगे कि
अधिकांश वैज्ञानिक इसी चर्चा
में मशगूल हैं कि गुजरात में
क्या गजब का विकास हुआ है।
सभ्यताओं
को पूरब,
पश्चिम
में बाँट कर देखना कितना सही
है,
यह
अपने आप में बड़ा सवाल है। पिछली
सदी की मान्यताओं के विपरीत
अब यह जानकारी आम है कि पिछले
दो हजार सालों में पर्यटकों
और ज्ञानान्वेषियों के जरिए
धरती पर एक से दूसरी ओर ज्ञान
का प्रवाह व्यापक स्तर पर होता
रहा है।
यह
सरासर ग़लत है कि हिंदुत्व को
बुरा मानते हुए भी धर्म-निरपेक्ष
लोग दूसरे धर्मों में मूलवाद
को नर्मदिली से देखते रहे।
ऐसा कहना न केवल झूठ है,
बल्कि
वक्ता के निहित स्वार्थों पर
सवाल उठाता है। धर्म-निरपेक्षता
में वह शैतान मत ढूँढिए जिसे
मध्य-वर्ग
के लोगों ने उखाड़ फेंका हो।
सच यह है कि हममें में से हरेक
में एक नरेंद्र मोदी बैठा है।
हमारी सांप्रदायिक सोच का
फायदा उठाया जा सकता है। 31%
मतदाताओं
के अधिकांश के साथ को मोदी और
संघ परिवार यही करने में सफल
हुआ है। बाकी काम दस हजार करोड़
रुपयों से हुआ,
जिसमें
मीडिया के अधिकांश को खरीदा
जाना भी शामिल है। यह तो होना
ही है कि जब 'हिंदू'
नाम
का राजनैतिक समूह विशाल
बहुसंख्या में मौजूद है तो
हिंदुत्व पर नज़र ज्यादा
पड़ेगी,
जैसे
पाकिस्तान और बांग्लादेश में
उदारवादी इस्लामी मूलवाद पर
ज्यादा गौर करेंगे।
यह
सचमुच तकलीफदेह है कि मोदी
के विरोध को शिव जैसे बुद्धिजीवी
विज्ञान और आधुनिकता से जोड़
रहे हैं। वैसे यह एक तरह से
विज्ञान के पक्ष में ही जाता
है। आखिर 2002
से
पहले मोदी के बयानों को कौन
भूल सकता है। मुसलमानों के
लिए उनके बयान असभ्य और अक्सर
आक्रामक होते थे। 'हम
पाँच हमारे पचीस'
उनका
तकियाकलाम था। मुख्य मंत्री
बनने के बाद वे सावधान हो गए,
फिर
भी कभी-कभार
ज़बान चल ही पड़ती है। यह सबको
पता है। अगर विज्ञान हमें इस
मानवविरोधी कट्टरता से टक्कर
लेने की ताकत देता है,
तो
जय विज्ञान। -
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