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हर शहर प्रतिरोध हर कहीं इंसान


जब तक चाँद देख पाता हूँ, खुद को आज़ाद रखूँगा
उस शाम एक खेत के किनारे सड़क पर खड़े मैंने आस्माँ में चाँद देखा। चाँद घूमने निकला था। हम अपने तय रास्ते पर नहीं चल रहे थे। चाँद हमारी भटकन देख रहा था। शाम धुँधली-सी थी और हम बज़िद इस ओर चले आए थे।

पास छोटा शहर था। यहाँ की अजान और मंदिरों की घंटियाँ किसी भी छोटे शहर के अजान और मंदिर की घंटियाँ थी। यहाँ इंकलाब के सपनों का स्मारक धरती पर कहीं का भी इंकलाब के सपनों का स्मारक था। नीले-से फैल रहे अँधेरे में शहर का नाम प्रतिरोध था। पास से तरह-तरह के वाहन गुजर रहे थे, जो शहर की ओर आ-जा रहे थे।

मैंने सोचा कि धरती पर चारों ओर आ-जा रहे लोग गुलाम हैं जिनको धरती का संतुलन बनाए रखने का काम दिया गया है। एहसास हुआ कि मैं गुलाम हूँ, पर मैंने तय किया कि मैं धरती को गतिकक्ष में बाँध नहीं रखूँगा। जब तक चाँद को देख पाता हूँ, खुद को आज़ाद रखूँगा। पैर गुलामी करते हुए थक चुके थे। मैं ज़मीं पर बैठ गया और मिट्टी पर लकीरें खींचने लगा।

ढलती शाम के अँधेेरे में जागते हुए एक सपना देखा। सपना मुझसे थोड़ी दूर खड़ा था। वक्त के पैमाने पर वह मुझसे पचास साल पीछे से मेरे साथ था। सपने में नारों की गूँज थी। सपने में बहुत सारी औरतें और बच्चे एक सपने के साथ थे, जिसका नाम आज़ादी था। सपने में औरतें गिर रही थीं, उनकी पुष्ट टाँगों से ख़ून बहने लगा था। मैं सपने में चीख पड़ा।

मैंने सोचा कि पंक्चर ठीक होते ही मैं उन औरतों को एक-एक कर अस्पताल ले जाऊँगा। वहाँ फरिश्ते उन पर पट्टियाँ लगाएँगे। चारों ओर आज़ादी के गीत गुनगुनाती आवाज़ें थीं। अँधेरा बढ़ चुका था और कहीं से अंधड़ सा उठ खड़ा हुआ था। पास कहीं से केतली और कुल्हड़ लिए एक चाय वाला हमें चाय पिलाने आया था। हम अंदाज़ा लगा रहे थे कि कितनी देर में बारिश आ सकती है। उस वक्त धरती पर हर शहर का नाम प्रतिरोध था और हम हर कहीं के इंसान थे।
(नया पथ - 2020)

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