Skip to main content

प्रतिरोध गूँजता है - ‘म्याऊँ'


तुमने पतंग उड़ाई है?
 
धूप है, आस्मान सुनहरा,
धरती पर धान का पौधा अपनी गर्दन घुमा कर
बादल ढूँढता है
मैं सपनों में पतंग बन दो आँखें ढूँढता हूँ

पागल हवा धरती के हर मुल्क का सैर कर आती है
साँप सी टेढ़ी सड़क के किनारे पौधों के पत्ते हैं
ऊँची घास नशे में लहराती है
समंदर पर लहरों सी
उड़ती है पतंग

अनगिनत साल बीत गए
खोया नहीं हूँ पतंगों की भीड़ में
जाना कि इंसान हूँ
कि चाकू बंदूक चला सकता हूँ
उड़ती पतंग 
उतार सकता हूँ ज़मीं पर
जहाँ हर ओर घास पेड़ जल रहे हैं। 

सपने 
पतंग 
आँखें
उड़ कर पास जा पूछता हूँ - दोस्त, कैसे हो?
डरावनी शक्ल के लोग मीठी हँसी हँसते कहते हैं - 
सँभल कर भाई, खुशी उफनने न लगे। 

हवा में तब उम्म्ह गंध होती है
आकाश है कि समंदर
घबराता मैं बातें करता हूँ - यह, वह, तुम, मैं…

चाहता कि कहूँ - चलो, साथ उड़ेंगे
कह न पाता हूँ 
सुनता हूँ कि कुछ लोगों ने एक झंडा उतारा है
और एक हवा में फहराया है
कि मैं, मैं नहीं, न पतंग, न सपना,  
शहर में ब्लैक आउट, 
सीने में ठकठक फौज की परेड गूँजती है
फिर जंग छिड़ी है

गंगा के सीने में
नौका के नीचे
सूरज लाल रंग बिखेरे
धरती से कहता है - ‘बाई, बाई'

तुम जा रही हो
तुम्हारी गोद में बिल्ली है
सोचती कि तुम उस पर नाक रगड़ोगी या नहीं
तुम्हारी साँस में 
पेट की गहराई से
प्रतिरोध गूँजता है - ‘म्याऊँ'

मेरा गला सूख गया है
बहुत प्यास लगी है
सोचता हूँ
तुमने कभी पतंग उड़ाई है?
तुम्हारे वतन का नाम नहीं जानता
मंगोलिया या बेलीजे कुछ है
आस्मान से ज़मीं को देखता हूँ
तुमने पतंग उड़ाई है?                 (1993; हंस -2018)

Comments

Popular posts from this blog

फताड़ू के नबारुण

('अकार' के ताज़ा अंक में प्रकाशित) 'अक्सर आलोचक उसमें अनुशासन की कमी की बात करते हैं। अरे सालो, वो फिल्म का ग्रामर बना रहा है। यह ग्रामर सीखो। ... घिनौनी तबाह हो चुकी किसी चीज़ को खूबसूरत नहीं बनाया जा सकता। ... इंसान के प्रति विश्वसनीय होना, ग़रीब के प्रति ईमानदार होना, यह कला की शर्त है। पैसे-वालों के साथ खुशमिज़ाजी से कला नहीं बनती। पोलिटिकली करेक्ट होना दलाली है। I stand with the left wing art, no further left than the heart – वामपंथी आर्ट के साथ हूँ, पर अपने हार्ट (दिल) से ज़्यादा वामी नहीं हूँ। इस सोच को क़ुबूल करना, क़ुबूल करते-करते एक दिन मर जाना - यही कला है। पोलिटिकली करेक्ट और कल्चरली करेक्ट बांगाली बर्बाद हों, उनकी आधुनिकता बर्बाद हो। हमारे पास खोने को कुछ नहीं है, सिवाय अपनी बेड़ियों और पोलिटिकली करेक्ट होने के।' यू-ट्यूब पर ऋत्विक घटक पर नबारुण भट्टाचार्य के व्याख्यान के कई वीडियो में से एक देखते हुए एकबारगी एक किशोर सा कह उठता हूँ - नबारुण! नबारुण! 1 व्याख्यान के अंत में ऋत्विक के साथ अपनी बहस याद करते हुए वह रो पड़ता है और अंजाने ही मैं साथ रोने लगता हू...

मृत्यु-नाद

('अकार' पत्रिका के ताज़ा अंक में आया आलेख) ' मौत का एक दिन मुअय्यन है / नींद क्यूँ रात भर नहीं आती ' - मिर्ज़ा ग़ालिब ' काल , तुझसे होड़ है मेरी ׃ अपराजित तू— / तुझमें अपराजित मैं वास करूँ। /  इसीलिए तेरे हृदय में समा रहा हूँ ' - शमशेर बहादुर सिंह ; हिन्दी कवि ' मैं जा सकता हूं / जिस किसी सिम्त जा सकता हूं / लेकिन क्यों जाऊं ?’ - शक्ति चट्टोपाध्याय , बांग्ला कवि ' लगता है कि सब ख़त्म हो गया / लगता है कि सूरज छिप गया / दरअसल भोर  हुई है / जब कब्र में क़ैद हो गए  तभी रूह आज़ाद होती है - जलालुद्दीन रूमी हमारी हर सोच जीवन - केंद्रिक है , पर किसी जीव के जन्म लेने पर कवियों - कलाकारों ने जितना सृजन किया है , उससे कहीं ज्यादा काम जीवन के ख़त्म होने पर मिलता है। मृत्यु पर टिप्पणियाँ संस्कृति - सापेक्ष होती हैं , यानी मौत पर हर समाज में औरों से अलग खास नज़रिया होता है। फिर भी इस पर एक स्पष्ट सार्वभौमिक आख्यान है। जीवन की सभी अच्छी बातें तभी होती हैं जब हम जीवित होते हैं। हर जीव का एक दिन मरना तय है , देर - सबेर हम सब को मौत का सामना करना है , और मरने पर हम निष्क्रिय...

 स्त्री-दर्पण

 स्त्री-दर्पण ने फेसबुक में पुरुष कवियों की स्त्री विषयक कविताएं इकट्टी करने की मुहिम चलाई है। इसी सिलसिले में मेरी कविताएँ भी आई हैं। नीचे उनका पोस्ट डाल रहा हूँ।  “पुरुष कवि : स्त्री विषयक कविता” ----------------- मित्रो, पिछले चार साल से आप स्त्री दर्पण की गतिविधियों को देखते आ रहे हैं। आपने देखा होगा कि हमने लेखिकाओं पर केंद्रित कई कार्यक्रम किये और स्त्री विमर्श से संबंधित टिप्पणियां और रचनाएं पेश की लेकिन हमारा यह भी मानना है कि कोई भी स्त्री विमर्श तब तक पूरा नहीं होता जब तक इस लड़ाई में पुरुष शामिल न हों। जब तक पुरुषों द्वारा लिखे गए स्त्री विषयक साहित्य को शामिल न किया जाए हमारी यह लड़ाई अधूरी है, हम जीत नहीं पाएंगे। इस संघर्ष में पुरुषों को बदलना भी है और हमारा साथ देना भी है। हमारा विरोध पितृसत्तात्मक समाज से है न कि पुरुष विशेष से इसलिए अब हम स्त्री दर्पण पर उन पुरुष रचनाकारों की रचनाएं भी पेश करेंगे जिन्होंने अपनी रचनाओं में स्त्रियों की मुक्ति के बारे सोचा है। इस क्रम में हम हिंदी की सभी पीढ़ियों के कवियों की स्त्री विषयक कविताएं आपके सामने पेश करेंगे। हम अपन...