पिछले साल 10 दिसंबर को मैं सेवाग्राम में था। अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच
की मीटिंग थी। 9 को आधी रात होते ही युवा मित्रों ने उठाकर जन्मदिन का
शोर मचाया। इस बार भी संयोग से मंच की ही मीटिंग में दिल्ली गया हुआ था।
जब शाम को एयरपोर्ट के लिए निकलने लगा तो साथ के सभी बुज़ुर्ग साथी थे,
उनसे कहा कि अब आप मुझे हैपी बड्डे कह सकते हैं। तो उन्होंने भी थोड़ी देर
सही, शोर तो मचाया। बहरहाल फेसबुक पर शोर से बच गया और इसलिए इस
अपराध-बोध से बचा रहूँगा कि दूसरों को उनके जन्मदिन पर शुभकामनाएँ
नहीं भेजता। ऐसा बदतमीज़ हूँ कि उन दो-चार प्यारे मित्रों के जन्मदिन भी
भूल जाता हूँ, जो वर्षों से मुझे 'विश' करना नहीं भूलते हैं।
बहरहाल, यह पचीस साल पुरानी कविता 'हंस' के दिसंबर अंक में आई है :
पागल
मुझे जगाया
कब
की बात
पागल
मुझे जगाया
तुमने
कहा कि मैं अठारह पर अटका हूँ
कोई
सपना नहीं था
तुमने
कहा कि हम सब बच्चे बनना चाहते
हैं
आज
इस सर्द रात
रजाई
ओढ़े,
खिड़की
से पूरे चाँद की चाँदनी देख
रहा हूँ
रोशनी
उनका बोझ ढँक रही है
जो
मेरे लिए लड़ रहे हैं
अठारह
की उम्र मुझे छोड़ कहीं और खड़ी
है
मैं
खुद में छिपा हूँ
तुम
तुम न रही
उन
सीधे रास्तों की तलाश में
अठारह
के करीब रहते मैं दूर फिसल गया
जिनसे
घबराती तुम खो गई
कब
की बात
लौट
आई
पागल
मुझे जगाया
कहा
कि मैं अठारह पर अटका हूँ
उन
लम्हों को पकड़ने की कोशिश में
हूँ
जो
अनगिनत हादसों में भुलाए नहीं
गए
जिन
ज़ख्मों में कहीं तुम हो
इसी
टीस की चाह में
सतह
से नीचे कहीं कुछ पकड़ रहा हूँ
जिसे
हर कोई ग़लत कहता है
अठारह
नहीं ज़ख्मों का घर हूँ
पागल
मुझे जगाया
कि
मैं अठारह पर अटका हूँ।
- (1990; हंस - 2018)
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