पिछले
पोस्ट में 'पुरुष
पर अगली पोस्ट में' लिखते
हुए दिमाग में क्या था अब याद
नहीं। इस बीच भोपाल गया और
वहाँ बड़े कवियों और अन्य
साहित्य-प्रेमियों
के बीच कविता
पाठ का मौका मिला। सोचा था
वहाँ जो स्नेह मिला उस पर
लिखूँगा, पर
इसके पहले कि लिख पाता,
मुजफ्फरनगर
के दंगों की खबरें आने लगीं।
पता नहीं मैं कब उम्र की वह
दहलीज़ पार कर चुका हूँ कि अब
गुस्सा कम और रोना ही ज्यादा
आता है। यहाँ मैं हूँ कि इस
बात से परेशान हूँ कि तीन कमरों
वाले मकान में मेरे कमरे के
साथ जो गुसलखाना है वह ऐसे बना
है कि दिनभर फर्श गीला ही रहता
है और उधर नफ़रत के सौदागरों
के शिकार बच्चों की दिल दहलाने
वाली कथाएं हैं। जाने कब से
यह अतियथार्थ हमारा सच बना
हुआ है। हम जीते हैं पर कब तक
जिएँगे, इस
तरह कौन जीना चाहता है,
इस तरह कौन
जीना चाह सकता है।
भोपाल
में 'स्पंदन'
संस्था की
ओर से कविताएँ पढ़ने का आयोजन
था। आयोजन 'स्पंदन'
के निर्देशक उर्मिला शिरीष के सौजन्य से हुआ, पर
मुझे पता है कि इसके पीछे
राजेंद्र शर्मा का स्नेह
था। युवा मित्र ईश्वर दोस्त
ने उनसे कहा था और इस तरह बात
आगे चली। पाठ के दौरान श्रोताओं में बड़े
रचनाकार तो थे ही, साथ
में पुराने साथी जिनको पता
चला वे भी आ गए थे। कुछ दोस्तों
से कई वर्षों के बाद मुलाकात
हुई। मुझे सबसे ज्यादा खुशी
कुमार अंबुज के वहाँ होने से
थी। अंबुज मेरे हमउम्र हैं
और प्रतिष्ठित तो हैं ही।
राजेश जोशी, रमेशचंद्र
शाह, इनका
होना भी मेरे लिए बड़ी बात थी।
शशांक से पहली बार मिला। वे
और रमेश जी दोनों साथ मंच पर
थे।
दूसरे
दिन आग्नेय से मिला। आग्नेय 'सदानीरा' पत्रिका के संपादक हैं। तेरह साल पहले उन्हीं के आयोजित 'कविता यहीं' कार्यक्रम में मैंने कविताएँ पढ़ी थीं। उस दिन साथ में
सुधीर रंजन सिंह भी थे। दोनों
में हिंदी कविता के समकालीन
संदर्भों और औचित्य पर अच्छी
बहस हुई, मैं
सुनता रहा।
मैं
और विस्तार से भोपाल में समकालीन साहित्यकारों से मिलने के इस
अनुभव पर लिखना चाहता हूँ,
पर इसके लिए
लंबा समय चाहिए।
इधर
विनोद रायना की कैंसर से मौत
हो गई। एकलव्य संस्था में मेरा
पहला संपर्क विनोद से ही हुआ
था। 1986 में
मैं आई आई टी कानपुर में
केमिस्ट्री विभाग में अपने
शोध-कार्य
पर भाषण देने गया था तो अमिताभ
मुखर्जी (पिछले
कई वर्षों से दिल्ली विश्वविद्यालय
में भौतिकी के प्रोफेसर)
से मुलाकात
हुई। अमिताभ से मैंने अपने
वैज्ञानिक शोध पर चर्चा करते
हुए बीच में कहीं ज़मीनी स्तर
पर विज्ञान में मेरी रुचि के
बारे में कहा तो उसने विनोद
से संपर्क करने को कहा। दस
पैसे का पोस्टकार्ड डाला और
विनोद का तुरंत जवाब आया कि
होशंगाबाद विज्ञान के प्रशिक्षण
शिविर में आओ। उन दिनों अनारक्षित
यात्राएँ कर लेता था। चंडीगढ़
से हिमालयन क्वीन में दिल्ली,
फिर शायद
पश्चिम एक्सप्रेस में नागदा
तक – रास्ते में केटरिंग के
वेटर ने भीड़ में से निकलते हुए
मेरे ऊपर दाल सब्जी गिरा दी
- फिर
नागदा से उज्जैन। गर्मी के
दिन। पहुँचते ही एक ढाबे में
मैंने लस्सी मँगवाई। पता न
था कि वहाँ लस्सी पी नहीं खाई
जाती है। बाकायदा चम्मच से
खाई। प्यास मिटी नहीं तो एक
ग्लास और खाई। फिर विवेकानंद
कॉलोनी में एकलव्य के दफ्तर
गया तो कोई न मिला। सीधे प्रशिक्षण
केंद्र गया जो आजकल जिसे डाएट
(DIET – District Institute of Education Technology)
कहते हैं,
ऐसे किसी
कॉलेज में था। विनोद ने मिलते
ही सीने से लगा लिया। मुझसे
आठ साल बड़ा था, पर
उसके साथ संबंध शुरू से ही ऐसा
बना कि मैं उसके लिए 'तुम'
ही कह सकता
हूँ। दो साल बाद जब तक मैं यू
जी सी टीचर फेलो बनकर एकलव्य
में आया, बीच
में हुई मुलाकातों में विनोद
से कई मतभेद हो चुके थे। मैं
अंतत: हरदा
केंद्र में रहा। चंडीगढ़ (पंजाब
वि. वि.)
लौटने के
बाद भी अक्सर विनोद से मुलाकात
होती रही, चूँकि
उसका परिवार चंडीगढ़ मे ही था।
एकबार हमलोगों ने अध्यापक
संगठन की ओर से जनविज्ञान
आंदोलन पर उससे भाषण भी दिलवाया।
विनोद
ने जनविज्ञान और अन्य क्षेत्रों
में जो काम किया है, उस
पर लिखने की ज़रूरत नहीं है।
पर जनांदोलनों में रहते हुए
भी आधुनिक विज्ञान के जटिलतम
विषयों में उसकी रुचि बनी रही
और अक्सर ऐसे कई विषयों पर वह
भाषण भी देता था। उसके बोलने
में अद्भुत स्पष्टता थी।
संप्रेषण की दक्षता ऊँचे स्तर
की।
आज
विनोद की बात सोचते हुए वह गले
मिलना ही सबसे ज्यादा याद आता
है। जो मतभेद थे, वे
गंभीर हैं, पर
उसका स्नेह स्मृति में है और
उससे टीस उठती है। आखिरी बार
अभी एक साल पहले ही मिला था -
हैदराबाद
में इंस्टीटिउट ऑफ लाइफ साइँसेस
के निर्देशक जावेद इकबाल के बेटे
की शादी के अवसर पर वह और अनीता
अपने ग़ज़ल गायक मित्र दिनेश
शर्मा के साथ आए थे। गायन खत्म
होने पर मुझे सीने से लपेट कर
उसने दिनेश से दो बार कहा -
यह लाल्टू
है, देख
लो, ठीक
है न, यह
लाल्टू है। मैं सोचता रहा कि
वह क्या कहना चाह रहा है।
Comments