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छात्रों की संस्था 'क्रांति'


बेंगलूरू की राष्ट्रीय लॉ यूनीवर्सिटी (विधि शिक्षा वि.वि.) के कुछ छात्रों की पहल से बनी संस्था 'क्रांति' ने पिछले एक हफ्ते में शहर में जैसे जान डाल दी। पिछले हफ्ते शनिवार को रवींद्र कलाक्षेत्र के मुक्त आकाशी प्रेक्षागृह में कबीर कला मंच और तमिलनाड के एक दलित संगीत ट्रुप का अद्भुत कार्यक्रम था। सबसे अच्छी बात यह थी कि बड़ी तादाद में युवा मौजूद थे और उन्होंने लगातार नाचते हुए ऐसा समां बाँधा कि मज़ा आ गया। पर दूसरे दिन रविवार को फिल्मों के आयोजन में उनकी अनुपस्थिति उतनी ही अखरती रही। आनंद पटवर्धन स्वयं मौजूद थे और अपनी सभी फिल्मों के टुकड़े दिखलाने के अलावा 'जय भीम कामरेड' पूरी दिखला कर आनंद ने विस्तार से अपनी फिल्मों पर चर्चा की। आज 'प्रतिरोध सम्मेलन' का आयोजन था और युवाओं की अनुपस्थिति खास तौर पर अखर रही थी। प्रफुल्ल सामंतरा, आनंद तेलतुंबड़े, वोल्गा, गौतम मोदी, मिहिर देसाई, पराणजॉय गुहाठाकुरता, जया मेहता के भाषण के बाद गोआ से आई संस्था 'स्पेस' ने अभिनय पेश किए।

मैं डेढ़ घंटे की बस यात्रा कर सिर्फ अपना साथ देने के लिए गया था। आजकल बहुत ज्यादा अंग्रेज़ी सुनकर मुझे चिढ़ होती है, पर क्या कीजे कि अंग्रेज़ी का ही ज़माना है :-)

जया मेहता का भाषण सुनकर मुझे बड़ा मज़ा आया। एक तो उसने एक बढ़िया चुटकुला सुनाया कि रीगन के हज़ार सलाहकारों में कोई के जी बी का था, पर उसे पता नहीं था कि कौन है, मितराँ (अस्सी के दशक में फ्रांस के राष्ट्रपति) के हज़ार प्रेमियों में कोई एड्स का शिकार था, पर उसे पता नहीं था कि कौन है, और गोर्बाचेव के सलाहकारों में कोई अर्थशास्त्री भी था, पर उसे पता नहीं.......

पर ज़रूरी बात उसने यह कही (मैं जानता था पर फिर भी दुबारा सुनकर अच्छा लगा) कि सोवियत रूस के पतन के बाद क्यूबा ने अपने संकटों से जूझने के अनोखे तरीके अपनाए। चीन से हज़ारों साइकिलें खरीदी गईं कि पेट्रोल का खर्चा कम हो, कास्त्रो ने स्वयं साइकिल चलाकर लोगों को प्रोत्साहित किया कि वे साइकिल चलाएँ। इसी तरह कीटनाशकों और रासायनिक खादों की आमद में कमी की समस्या से निपटने के लिए उन्होंने ऑर्गानिक फार्मिंग (कीटनाशक और रासायनिक खादों के बिना खेती) की शुरूआत की। सचमुच यह फर्क है क्रांतिकारी सोच और बुर्ज़ुआ उदारवाद में। बुर्ज़ुआ उदारवादी अपने से दूर किसी समाज को बदलने की बात करते हैं और क्रांतिकारी खुद को समाज में शामिल करते हुए बदलाव की बात करते हैं।

जया मेहता की एक और बात बड़ी रोचक थी। भारत में अगर कोई तरक्की है तो वह सिर्फ दनादन बनते हाईवेज़ और गाड़ियों की बढ़ती तादाद की है। बाकी देश तो अँधेरे में डूबा है।

पिछले शनिवार के सांस्कृतिक कार्यक्रम और आनंद पटवर्धन की फिल्मों में संवाद को छोड़कर भारतीय भाषाओं में कुछ न होना अखरता रहा। पर यह हमारे उदारवादी बुद्धिजीवियों की पहचान बनती जा रही है। सबकुछ कहीं और बदलना है, हम तो जैसे हैं ठीक हैं। हम सवर्ण, हम अंग्रेज़ीदाँ, हम गाड़ीवाले, हम आपस में बातचीत करेंगे कि 'उन'की दुनिया बदलनी है। इसलिए अंग्रेज़ी में अंग्रेज़ीवालों के लिए भाषण, उनके लिए नाटक, फिल्में - यह सब। दूसरी जो बड़ी सीमा मुझे हमारे उदारवादी विमर्शों में दिखती है, वह है पूरे दक्षिण एशिया में सामरिक खाते में तबाह होते राष्ट्रीय संसाधनों पर चुप्पी। राष्ट्रवादी देशभक्ति का यह झूठा गौरव किसके हित में है - जब तक विपुल परिमाण खर्च सामरिक खाते में होता रहेगा, शिक्षा और स्वास्थ्य पर चर्चा का तुक ही क्या रहता है

उन सभी युवाओं को सलाम जिन्होंने मेहनत कर इन कार्यक्रमों का आयोजन किया।



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