क्या
महज संपादित हूँ
अगर चढ़ रहा हूँ ऊँचाई पर
तो कभी नीचे रहा हूँगा
झाँक कर देखूँ
वह क्या था जो नीचे था
क्या सचमुच आ गया हूँ ऊपर
या जैसे घूमते सपाट ज़मीं पर
अगर चढ़ रहा हूँ ऊँचाई पर
तो कभी नीचे रहा हूँगा
झाँक कर देखूँ
वह क्या था जो नीचे था
क्या सचमुच आ गया हूँ ऊपर
या जैसे घूमते सपाट ज़मीं पर
किसी
परिधि पर वैसे ही
किसी
और गोलक के चक्कर काट रहा
हूँ
क्या महज संपादित हूँ या सचमुच बेहतर लिखा गया हूँ
क्या महज संपादित हूँ या सचमुच बेहतर लिखा गया हूँ
जो
अप्रिय था उसे छोड़ आया हूँ
कहीं झाड़ियों में
या दहन हो चुका अवांछित, साधना और तपस में
ऊपर से दिखता है नीचे का विस्तार
बौने पौधे हैं ऊपर छाया नहीं मिलती जब तीखी हो धूप
नीचे समय की क्रूरता है हर सुंदर है गुजर जाता एकदिन
ऊपर अवलोकन की पीड़
संगीत में दिव्यता; गूँज, परिष्कार हवा
नहीं हैं विकार
ऊपर कब तक है ऊपर
एकदिन ऊपर भी दिखता है नीचे जैसा
बची खुची चाहत सँजोए फिर चढ़ने लगता हूँ कहीं और ऊपर
जानते हुए भी कि कुछ भी नहीं छूटा सचमुच
नीचे को ही ढो रहा हूँ ऊपर का धोखा देते हुए।
या दहन हो चुका अवांछित, साधना और तपस में
ऊपर से दिखता है नीचे का विस्तार
बौने पौधे हैं ऊपर छाया नहीं मिलती जब तीखी हो धूप
नीचे समय की क्रूरता है हर सुंदर है गुजर जाता एकदिन
ऊपर अवलोकन की पीड़
संगीत में दिव्यता; गूँज, परिष्कार हवा
नहीं हैं विकार
ऊपर कब तक है ऊपर
एकदिन ऊपर भी दिखता है नीचे जैसा
बची खुची चाहत सँजोए फिर चढ़ने लगता हूँ कहीं और ऊपर
जानते हुए भी कि कुछ भी नहीं छूटा सचमुच
नीचे को ही ढो रहा हूँ ऊपर का धोखा देते हुए।
-साक्षात्कार
(अक्तूबर
2008)
3 comments:
किसी अनचाही टिप्पणी की व्यथा-कथा प्रतीत हो रही है बंधुवर!
ये कविता मुझे आपकी संपादन वाली बात से जोड़ती है! ये एक अनोखा एहसास है, इसके लिए शुक्रिया बड़े भाई !
लाल्टू भाई सलाम। हम भी हाथ उठाकर आपके साथ हैं। राजेश उत्साही
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