Thursday, April 02, 2009

एक बूँद ही सही

समय गुजरता रहता है। हर दिन कोई घटना होती है, हर दिन मन करता है नया चिट्ठा पोस्ट करें। पर कर नहीं पाता।
शाम थकान लिए आती है, फिर लगता है कुछ भी तो किया नहीं दिन भर, ब्लॉग लिख ही लेते।

पिछले दिनों छात्रों की एक सभा में इस पर बात हुई कि उनके वार्षिक उत्सव में आयोजन कैसा रहा और आगे के छात्रों को इस बारे में क्या सोचना है। आम बात है, हर साल ही इस तरह की सभा होती है। पर इस बार अनोखी बात यह हुई कि कुछ बड़ी उम्र के स्नातकोत्तर छात्रों ने आखिर में कुछ बातें कहीं, जिनको लेकर मैं देर तक सोचता रहा। एक बात यह थी कि लड़कियाँ 'अधनंगी (जहाँ तक याद है, हाफ नेकेड कहा गया था) होकर अध्यापकों या माँ-बाप के सामने कैसे आती हैं? बाद में वरिष्ठ साथी अध्यापक से बात हुई तो उसका भी कहना था कि नहीं मैं अपनी बेटी को तो इस तरह परेड करते नहीं देख सकता। मैंने सोचा कि सचमुच मेरी बेटी भी ऐसी स्थिति में हो तो मुझे भी परेशानी होगी। पर परेशानी का कारण मेरे लिए दूसरों से अलग है। मुझे चिंता है कि अक्सर लड़कियों के पहनावे या उनकी साज-सज्जा को उनके प्रति हिंसक रवैए की वजह मान लिया जाता है। आखिर जीना तो है। पर यही अगर सही कारण है तो हमें ऐसी सोच के खिलाफ कुछ करना होगा जो महज पहनावे के आधार पर किसी के प्रति हिंसक या किसी भी तरह की अवांछित प्रवृत्ति पैदा करती है, न कि उनके खिलाफ जो अपने शौक से जो मर्जी पहनते हैं। यह गौरतलब है कि अगर लड़के अधनंगे होकर चलें तो किसी को खास आपत्ति नहीं होती। निश्चित ही सवाल इतना आसान नहीं है। अगर कपड़ों का (या कपड़ों के न पहनने का) इस्तेमाल महज इसलिए किया जाए कि उसमें शरीर का प्रदर्शन हो तो बात कोई बहुत अच्छी नहीं है (खास तौर पर हमारे जैसों को यही लगेगा जो अधेड़ हो चुके हैं), पर मैं इस बात से सहमत नहीं हो पा रहा कि मैं किसी से कहूँ कि तुम ऐसा मत पहनो, वैसा मत पहनो। यह मैं ज़रुर कहना चाहूँगा कि सँभल कर चलो, क्योंकि यह समाज खानदानी सड़न लिए हुए है।

नैतिक पाखंड भी अद्भुत प्रक्रिया है। मुझे तो चिट्ठे लिखने का समय नहीं मिलता, पर कुछ लोगों को नैतिकता की चिंताएँ खाए जाती हैं। मेरी पुरानी मान्यता है कि कपड़े और शादी, ये इंसान के सबसे घटिया ईजाद में से हैं (आवरण जो प्रकृति की मार से बचने के लिए हैं, वो तो ठीक हैं, पर कपड़े जो कुंठाएँ पैदा करते हैं, उनका क्या कहिए)। अमूमन नैतिकता को लेकर चिंतित लोग तमाम किस्म की बीमारियों को साथ लिए आते हैं। मंगलौर में पब में लड़कियों पर हमला करने वाले संघ परिवार से जुड़े हैं, इसमें कोई आश्चर्य नहीं होता। आश्चर्य होता है कि कई भले लोग यह देख नहीं पाते और बार बार ऐसे लोगों के पक्ष में खड़े होते हैं, जिनका एक पक्ष नैतिक फौजदारी का होता है तो दूसरा छोर संप्रदाय, धर्म, संस्कृति आदि के नाम पर निर्दोषों की हत्याओं तक फैला होता है। सही है, यह 'पैकेज' बिल्कुल बँधा बँधाया नहीं आता, दोनों छोर खुले हैं, पर इस मुल्क में वर्तमान स्थितियों में यह सोचना ज़रुरी है कि हम किस पक्ष में खड़े हैं। निराशावादी ही कहलाऊँगा, पर सच तो सच है ही, हत्यारे अभी भी चुने जाएँगे। ऐसे में दो शब्द ही सही, यह कहूँगा कि बार बार हार कर भी जो बेहतर समाज के लिए लड़ रहे हैं, मैं उनके साथ हूँ। इस चुनावी माहौल में मेरा एक बूँद ही सही, प्रयास इसी के लिए होगा।

4 comments:

azdak said...

एक बूंद हमारी भी.

Ashish said...

हिंसा हमारे अंदर की कुंठाओं से उपजती हैं। किसी दूसरे का पहनावा महज़ बहाना है। किसी को कम कपड़े पहनने पर पीटोगे। किसी को अलग किस्म का लिबास पहनने पर अपनी हिंसा का शिकार बनाओगे। जो आपसे अलग दिखता है बस उसे समझने, स्वीकार करने की कोशिश नहीं करोगे।

अनिल कान्त said...

बिल्कुल सही लिखा है ....आखिर ये सब सोच का ही तो नतीजा होता है

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

MANVINDER BHIMBER said...

अरसे बाद दराज खोला
कुछ धूल खाती चीजें मिली
टटोला तो कुछ मुड़े कागज भी मिले
जिन पर पहले कुछ लिखा
फिर लकीरें फेरी थीं
आंखों में वो अक्षर तैर आये
जिन पर लकीरें फेरी गई थी