सुंदर लोग
एक दिन हमारे बच्चे हमसे जानना चाहेंगे
हमने जो हत्याएँ कीं उनका खून वे कैसे धोएँ
हताश फाड़ेंगे वे किताबों के पन्ने
जहाँ भी उल्लेख होगा हमारा
रोने को नहीं होगा हमारा कंधा उनके पास
कोई औचित्य नहीं समझा पाएँगे हम
हमारे बच्चे वे बदला लेने को ढूँढेंगे हमें
पूछेंगे सपनों में हमें रोएँ तो कहाँ रोएँ
हर दिन वे जिएँगे स्मृतियों के बोझ से थके
रात जागेंगे दुःस्वप्नों से डर डर
कई कई बार नहाएँगे मिटाने को कत्थई धब्बे
जो हमने उनको दिए हैं
जीवन अनंत बीतेगा हमारी याद के खिलाफ
सोच सोच कर कि आगे कैसे क्या बोएँ।
---------------------------------------------------
कोई भूकंप में पेड़ के हिलने को कारण कहता है
कोई क्रिया प्रतिक्रिया के वैज्ञानिक नियमों की दुहाई देता है
हर रुप में साँड़ साँड़ ही होता है
व्यर्थ हम उनमें सुनयनी गाएँ ढूँढते हैं
साँड़ की नज़रों में
मौत महज कोई घटना है
इसलिए वह दनदनाता आता है
जब हम टी वी पर बैठे संतुष्ट होते हैं
सुन सुन सुंदर लोगों की उक्तियाँ
इसी बीच नंदीग्राम बन जाता है ग्वेरनीका
जीवनलाल जी
यह हमारे अंदर उन गलियों की लड़ाई है
जो हमारी अंतड़ियों से गुजरती हैं।
-------------------------------
दौड़ रहा है आइन्स्टाइन एक बार फिर
इस बार बर्लिन नहीं अहमदाबाद से भागना है
चिंता खाए जा रही है
जो रह गया प्लांक उसकी नियति क्या होगी
अनगिनत समीकरण सापेक्ष निरपेक्ष छूट रहे हैं
उन्मत्त साँड़ चीख रहा कि वह साँड़ नहीं शेर है
किशोर किशोरियाँ आतंकित हैं
प्रेम के लिए अब जगह नहीं
साँड़ के पीछे चले हैं कई साँड़
लटकते अंडकोषों में भगवा टपकता जार जार
आतंकित हैं वे सब जिन्हें जीवन से है प्यार
बार बार पूर्वजों की गलतियों को धो रहे हैं
ड्रेस्डेन के फव्वारों में
दौड़ रहा है आइन्स्टाइन एक बार फिर
इस बार बर्लिन नहीं अहमदाबाद से भागना है।
-----------------------------
ये जो लोग हैं
जो कह देते हैं कि हम इनसे दूर चले जाएँ
क्योंकि हमारे सवाल उन्हें पसंद नहीं
ये लोग सुंदर लोग हैं
अत्याचारी राजाओं के दरबारी सुंदर होते हैं
दरबार की शानोशौकत में वे छिपा रखते हैं
जल्लादों को जो इनके सुंदर नकाबों के पीछे होते हैं
धरती पर फैलता है दुःखों का लावा
मौसम लगातार बदलता है
सुंदर लोग मशीनों के पीछे नाचते हैं
अपने दुःखों को छिपाने की कोशिश करते हैं
सड़कों मैदानों में हर ओर दिखता है आदमी
फिर भी सुंदर लोग जानना चाहते हैं कि मनुष्य क्या है
सुंदर नकाब के पीछे छिपे जल्लाद से झल्लाया प्राणी
हर पल बेचैन हर पल उलझा
सच और झूठ की पहेलियाँ बुनता
ये सुंदर लोग हैं
ये कह देते हैं कि हम इनसे दूर चले जाएँ
क्योंकि हमारे सवाल उन्हें पसंद नहीं
ये लोग सुंदर लोग हैं।
- (जनसत्ता 2008, सुंदर लोग और अन्य कविताएँ - वाणी प्रकाशन 2012)
एक दिन हमारे बच्चे हमसे जानना चाहेंगे
हमने जो हत्याएँ कीं उनका खून वे कैसे धोएँ
हताश फाड़ेंगे वे किताबों के पन्ने
जहाँ भी उल्लेख होगा हमारा
रोने को नहीं होगा हमारा कंधा उनके पास
कोई औचित्य नहीं समझा पाएँगे हम
हमारे बच्चे वे बदला लेने को ढूँढेंगे हमें
पूछेंगे सपनों में हमें रोएँ तो कहाँ रोएँ
हर दिन वे जिएँगे स्मृतियों के बोझ से थके
रात जागेंगे दुःस्वप्नों से डर डर
कई कई बार नहाएँगे मिटाने को कत्थई धब्बे
जो हमने उनको दिए हैं
जीवन अनंत बीतेगा हमारी याद के खिलाफ
सोच सोच कर कि आगे कैसे क्या बोएँ।
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कोई भूकंप में पेड़ के हिलने को कारण कहता है
कोई क्रिया प्रतिक्रिया के वैज्ञानिक नियमों की दुहाई देता है
हर रुप में साँड़ साँड़ ही होता है
व्यर्थ हम उनमें सुनयनी गाएँ ढूँढते हैं
साँड़ की नज़रों में
मौत महज कोई घटना है
इसलिए वह दनदनाता आता है
जब हम टी वी पर बैठे संतुष्ट होते हैं
सुन सुन सुंदर लोगों की उक्तियाँ
इसी बीच नंदीग्राम बन जाता है ग्वेरनीका
जीवनलाल जी
यह हमारे अंदर उन गलियों की लड़ाई है
जो हमारी अंतड़ियों से गुजरती हैं।
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दौड़ रहा है आइन्स्टाइन एक बार फिर
इस बार बर्लिन नहीं अहमदाबाद से भागना है
चिंता खाए जा रही है
जो रह गया प्लांक उसकी नियति क्या होगी
अनगिनत समीकरण सापेक्ष निरपेक्ष छूट रहे हैं
उन्मत्त साँड़ चीख रहा कि वह साँड़ नहीं शेर है
किशोर किशोरियाँ आतंकित हैं
प्रेम के लिए अब जगह नहीं
साँड़ के पीछे चले हैं कई साँड़
लटकते अंडकोषों में भगवा टपकता जार जार
आतंकित हैं वे सब जिन्हें जीवन से है प्यार
बार बार पूर्वजों की गलतियों को धो रहे हैं
ड्रेस्डेन के फव्वारों में
दौड़ रहा है आइन्स्टाइन एक बार फिर
इस बार बर्लिन नहीं अहमदाबाद से भागना है।
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ये जो लोग हैं
जो कह देते हैं कि हम इनसे दूर चले जाएँ
क्योंकि हमारे सवाल उन्हें पसंद नहीं
ये लोग सुंदर लोग हैं
अत्याचारी राजाओं के दरबारी सुंदर होते हैं
दरबार की शानोशौकत में वे छिपा रखते हैं
जल्लादों को जो इनके सुंदर नकाबों के पीछे होते हैं
धरती पर फैलता है दुःखों का लावा
मौसम लगातार बदलता है
सुंदर लोग मशीनों के पीछे नाचते हैं
अपने दुःखों को छिपाने की कोशिश करते हैं
सड़कों मैदानों में हर ओर दिखता है आदमी
फिर भी सुंदर लोग जानना चाहते हैं कि मनुष्य क्या है
सुंदर नकाब के पीछे छिपे जल्लाद से झल्लाया प्राणी
हर पल बेचैन हर पल उलझा
सच और झूठ की पहेलियाँ बुनता
ये सुंदर लोग हैं
ये कह देते हैं कि हम इनसे दूर चले जाएँ
क्योंकि हमारे सवाल उन्हें पसंद नहीं
ये लोग सुंदर लोग हैं।
- (जनसत्ता 2008, सुंदर लोग और अन्य कविताएँ - वाणी प्रकाशन 2012)
Comments
लटकते अंडकोषों में भगवा टपकता जार जार
वाह...वाह...वाह...शब्द और भाव का ऐसा संगम बहुत कम देखने को मिलता है. आप की चारों रचनाएँ बहुत बहुत बहुत अच्छी हैं.सोचने को मजबूर और फ़िर मन ही मन इंसान को शर्मिंदा करती हुई.बधाई
नीरज
क्योंकि हमारे सवाल उन्हें पसंद नहीं.
यह हमारे अंदर उन गलियों की लड़ाई है
जो हमारी अंतड़ियों से गुजरती हैं।
वाकई बहुत अच्छी रचनाएँ.बधाई.
क्योंकि हमारे सवाल उन्हें पसंद नहीं.
यह हमारे अंदर उन गलियों की लड़ाई है
जो हमारी अंतड़ियों से गुजरती हैं।
वाकई बहुत अच्छी रचनाएँ.बधाई.
वाकई, चेहरे के आवरण में कुटिलता तो छुप ही जाती है ..