हैदराबाद फिल्म क्लब के शो अधिकतर अमीरपेट में सारथी स्टूडिओ में होते हैं। मुझे वहाँ पहुँचने में वक्त लगता है, इसलिए आमतौर पर फिल्में छूट ही जाती हैं। इस महीने किसी तरह तीन फिल्में देखने पहुँच ही गया। इनमें एक हंगरी के विख्यात निर्देशक इस्तवान स्ज़ाबो की '25 फायरमैन्स स्ट्रीट' थी और दूसरी पोलैंड के उतने ही प्रख्यात निर्देशक आंद्रस्ज़े वायदा की 'प्रॉमिज़ड लैंड'। मुझे वायदा की फिल्म हमारे समकालीन प्रसंगों में, खासतौर पर वाम दलों की राजनीति के संदर्भ में सोचने लायक लगी। हालांकि कहानी पूँजीवाद के शुरुआती वक्त की है, न कि आधुनिक पूँजीवाद की, पर मूल्यों के संघर्ष की जो अद्भुत तस्वीर वायदा ने पेश की है, उसमें बहुत कुछ समकालीन संदर्भों से जुड़ता है। कहानी में कारोल नामक एक अभिजात पोलिश युवा अपने एक जर्मन और एक यहूदी मित्र क साथ मिल कर अपनी फैक्ट्री बनाने के लिए संघर्ष करता है। एक शादीशुदा औरत के साथ संबंध की वजह से अंततः उसकी फैक्ट्री में आग लगा दी जाती है। एक के बाद एक समझौते करता हुआ वह शहर का प्रतिष्ठित संपन्न व्यक्ति बन ही जाता है। फिल्म के अंत में दबे कुचले श्रमिकों के संगठित विद्रोह और पूँजीवादी वर्ग और सत्ता द्वारा एकसाथ मिलकर किए दमन की ओर इंगित है। आखिरी दृश्य में एक मजदूर लाल झंडा उठाता हुआ दौड़ रहा है और उस पर गोली चलाई जा रही है। मजदूर वर्ग के संगठित विरोध और भयंकर दमन के उस युग को दुबारा देखते हुए यह सोचने को हम मजबूर होते हैं कि क्या कुछ बदला है और क्या अभी भी वैसा ही है।
लाल झंडे का इतिहास बड़ा ही गौरवमय है। इस पर नज़र डालनी चाहिए।
वायदा ने यह फिल्म सत्तर के दशक के बीच के वर्षों में बनाई थी। बाद में उसने साम्यवादी सरकार के साथ जुड़ी लालफीताशाही का विरोध करती 'मैन आफ आयरन' जैसी फिल्में बनाईं।
स्ज़ाबो की 'मेफिस्टो' पच्चीस साल पहले देखी थी, तब से उस की फिल्में मौका मिलते ही देखता हूँ। '25 फायरमैन्स स्ट्रीट' बर्गमैन के अंदाज़ में सपनों, फंतासी और विडंबनाओं का नाटक है। अपनी कोशिश में स्ज़ाबो अतिरेक कर बैठे हैं, ऐसा मुझे लगा। बहरहाल।
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