Wednesday, December 21, 2005

शुभ नववर्ष


पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते
शुभ नववर्ष

Monday, December 19, 2005

दिखना


दिखना


आप कहाँ ज्यादा दिखते हैं?
अगर कोई कमरे के अंदर आपको खाता हुआ देख ले तो?
बाहर खाता हुआ दिखने और अंदर खाता हुआ दिखने में
कहाँ ज्यादा दिखते हैं आप?

कोई सूखी रोटी खाता हुआ ज्यादा दिखता है
जॉर्ज बुश न जाने क्या खाता है
बहुत सारे लोगों को वह जब दिखता है
इंसान खाते हुए दिखता है
आदम दिखता है हर किसी को सेव खाता हुआ
वैसे आदम किस को दिखता है !

देखने की कला पर प्रयाग शुक्ल की एक किताब है
मुझे कहना है दिखने के बारे में
यही कि सबसे ज्यादा आप दिखते हैं
जब आप सबसे कम दिख रहे हों।

--पहल-७६ (२००४)
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मेरी मित्र बंगलौर के बाहर अकेली रहती है। क्या वह सुरक्षित है?
क्या इस धरती पर कहीं भी महिलाएँ और बच्चे सुरक्षित हैं?
अगर महिलाएँ और बच्चे सुरक्षित न हों तो क्या आदमी सुरक्षित है?
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हाँ मसिजीवी, ठंड से भी, गर्मी से भी, ऐसे मरते हैं लोग मेरे देश में, कहीं भगदड़ में, कहीं आग में जलकर, कभी दंगों में, कभी कभी त्सुनामी ...

Saturday, December 17, 2005

जैसे

जैसे

जैसे हर क्षण अँधेरा बढ़ता
तुम शाम बन
बरामदे पर बालों को फैलाओ
खड़ी क्षितिज के बैगनी संतरी सी
उतरती मेरी हथेलियों तक

जैसे मैं कविताएँ ढोता
रास्ते के अंतिम छोर पर
अचानक कहीं तुम
बादल बन उठ बैठो
सुलगती अँगड़ाई बन
मेरी आँखों के अंदर कहीं।

--१९८७ (आदमी १९८८; 'एक झील थी बर्फ की' में संकलित)

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चंडीगढ़ के एक स्कूल में पढ़ाने आए युवा अमरीकी दंपति ने रोजाना अनुभवों पर खूबसूरत साइट बनाई है। उनसे मिले पूछे बिना ही सबसे कह रहा हूँ कि ज़रुर देखिए: jimmyandjen.blogspot.com चूँकि चिट्ठाकारी सार्वजनिक गतिविधि है, इसलिए मान कर चल रहा हूँ कि अनुमति की आवश्यकता नहीं है।

Friday, December 16, 2005

इंदौर बैंक की जय ! बोलो हे !

भास्कर अखबार में लिखे आलेख का पारिश्रमिक। मेरे बैंक (SBIndia) ने इसे वापस भेजा क्योंकि उचित अधिकारियों के हस्ताक्षर नहीं हैं। भास्कर दफ्तर खबर भिजवाई, उन्होंने फोटोकापी रख ली और कहा हो जाएगा। दस दिन हो गए, कुछ हुआ नहीं तो मैंने नेट से इंदौर बैंक का अतापता ढूँढा। शाहपुर, भोपाल शाखा को ई-मेल के साथ ऊपर वाली तस्वीर भेजी। कोई जवाब नहीं। दो दिन बाद उनके चंडीगढ़ शाखा का नंबर ढूँढा। फोन किया तो वह मैनेजर साहब का घर का नंबर निकला। दफ्तर का नंबर पता कर फोन किया। दस मिनट बाद फोन करो की हिदायत आई। किया। डीलिंग व्यक्ति ने साफ मना कर दिया कि वह मदद नहीं कर सकता। कल जाकर भास्कर के दफ्तर लौटा ही आया - सोचा इसको दिमाग से निकालें। चेतन डाँट रहा है कि कंज़्यूमर फोरम को चिट्ठी भेजो। पर मुझे लगता है कि अगर मैं चिट्ठाकारी से छुट्टी माँग रहा हूँ तो अदालतबाजी का वक्त कहाँ से निकालूँ।
फिलहाल पूरी बात पर हँसता रहता हूँ और गाता हूँ - जय, भारतीय पूँजीवाद की जय। भारत के सफेद कालर पेशेवरों की जय। बोलो हे!

Wednesday, December 14, 2005

इसमें क्या?

मैंने कुछ भ्रष्ट काम किए हैं, जिनके लिए मुझे जेल तो नहीं, पर जुर्माने ज़रुर हो सकते हैं। जैसे हमारे यहाँ अॉडिट का नियम है कि कागज़ात की बाइंडिंग का खर्च आप रिसर्च ग्रांट से नहीं ले सकते। हमें अक्सर शोध पत्र या विद्यार्थियों द्वारा बार बार इस्तेमाल की गई (फोटोकापी करवाई गई) किताबें या दूसरे कागज़ात बँधवाने पड़ते हैं। पैसे निकलवाने का आसान तरीका है कि आप दूकानदार से कहें कि वह आपको फोटोकापी का बिल बनवा दे। बात छोटी सी लगती है, पर इसके दो नतीजे हैं - एक तो यह कि हमारी कुढ़न कभी इतनी तीखी नहीं हो पाती कि हम इस निहायत ही बेहूदा नियम को बदलवाने के लिए हाथ पैर उछालें; दूसरी बात यह कि लकीर कहाँ खींचें, हम इतनी सी बेईमानी करते हैं तो कोई और संसद में सवाल उठाने के लिए पैसे लेने को तैयार होता है।

यह बात एक युवा पत्रकार मित्र से बतलाई तो उसने कहा - ऐसी बातें तो हर कोई करता है, जैसे मुझे साल में मेडिकल अलावेंस मिलता है, हम सब लोग जाली बिल बनवाते हैं कि पूरा पैसा ले सकें। यानी इसमें क्या? मेरी लकीर अगर यहाँ तक है कि जो पैसा मैंने वाकई काम के लिए खर्च किया है, वह मुझे मिलना चाहिए, तो उसकी लकीर उन पर्क्स या ऊपरी पैसों के पार है, जिन्हें तनख़ाह का हिस्सा मान लिया जाता है।

हम सभी लोग - एक बुज़ुर्ग साथी कहते हैं, खानदानी बदतमीज़ी और बेईमानी से ग्रस्त हैं। इसलिए इन बातों को करते हुए भी संदेह होता है कि क्या सुननेवाला व्यक्ति वाकई इतना कम भ्रष्ट है कि कहने का कोई फायदा भी है!

एक कुलपति सीना चौड़ा कर के भ्रष्ट न होने का दावा करता है। उसके बेटे की पत्नी एम एस सी करके पति के साथ रहने के लिए अमरीका पहुँच गई। पी एच डी के लिए भर्ती हो गई। पी एच डी के लिए शुरुआत में कोर्स करने हैं। कोर्स में होम असाइनमेंट या टर्म पेपर वगैरह होते हैं। ये कन्या से हल नहीं होते। तो हर बार असाइनमेंट मिलते ही फैक्स पहुँचता है और कुलपति का विशेष सहायक किसी अध्यापक के घर पहुँचता है, साब ने भेजा है। अध्यापक नाराज़गी दिखलाता है तो सहायक कहता है - औख्खा क्यों होते हो डाकसाब, किसी और से करवा लेंगे। इसमें क्या? हर बार किसी और से होता रहा।

अजीब बात यह है कि मुझे इस कहानी में यह इतना बुरा नहीं लगता कि कुलपति भ्रष्ट है या इतना नादान है कि अमरीकी यूनिवर्सिटी के सिस्टम के साथ खिलवाड़ कर रहा है, पकड़े जाने पर बहू बेटे को वापस भेज देने की पूरी संभावना है, मुझे सबसे बुरी बात यह लगती है कि वह खुद अध्यापक से बात क्यों नहीं करता, अपने मातहत को क्यों भेजता है ! यानी कि मेरी सोच इतनी भ्रष्ट हो चुकी कि बुनियादी बात से ही मैं भटक चुका हूँ। अंत में, जितने लोग इसमें जुड़े हैं, उनमें से कोई भी खुलकर सामने नहीं आएगा। यह एक और किस्म का भ्रष्टाचार है। ऐेसी घटनाएं देखने सुनने के हम इतने आदी हो चुके हैं कि घोर उदासीनता और असहायता के शिकार हो गए हैं। हर दूसरा व्यक्ति भ्रष्ट होगा, यही मान कर हम चलते हैं। इसलिए सामान्य काम करने में भी गलत तरीके अपनाने से हम परहेज नहीं करते।

पूरी की पूरी व्यवस्थाओं को भ्रष्ट कर डालने में हिंदुस्तानी दिमाग अव्वल दर्जे की काबिलियत रखता है। वैसे महानता का लबादा ओढ़ने वालों को इसमें आपत्ति होगी और दौड़ में हम थोड़े पीछे हैं बतलाने की उनकी कोशिश होगी। अपने अध्यापन के अनुभव में कई बार मैं ऐसी स्थितियों से वाकिफ हुआ हूँ, जिसमें किसी का नाजायज़ फ़ायदा होता दिख रहा है, कभी विरोध किया है तो कभी तंत्र की विशालता के सामने अक्सर यही मानकर रुक गया हूँ कि पहले ही गर्दन काफी कटवाई है, अब बचे हुए हिस्से से जितना भला खून बहता है, इसे बहने दें।

यह हिसाब कि भला करना चाहते हैं तो ज़िंदा भी रहना है, एक किस्म की अनंत पहेली है। सच भी है कि मेरे जैसे लोग व्यवस्था में वाकई कम हैं, अगर मैं भी पिट गया तो बाकी और भी कम रह जाएंगे। और पारिवारिक या अन्य कमज़ोरियाँ अपनी जगह पर। यह एक डिफीटिस्ट तर्क है, जो हमें दबाए रखता है।

विदेशों में छोटे मोटे कानून तोड़ने में भी हम हिंदुस्तानी ही सबसे आगे हैं। न्यूयार्क की जैक्सन हाइट्स में किसी भी हिंदुस्तानी दूकान में बिना सेल्स टैक्स लगाए सामान का बिल मिल जाता है। यह याद नहीं कि मैंने जब भी जैक्सन हाइट्स से जब भी सामान लिया, माँगकर सही सेल्स टैक्स वाला बिल लिया या नहीं पर ऐसी बातें याद कर भारतीय होने पर शर्म ज़रुर आती है। मुझे याद है कि भारतीय व्यापारियों का ऐसा तरीका देखकर मुझे लगता था कि नस्लभेद की प्रवृत्ति के अलावा शायद यह भी एक कारण था कि अफ्रीकी मुल्कों से उन्हें खदेड़ा गया। आखिर लूट कभी तो जाहिर होती ही है। पहले पहल जब मैं कई साल अमरीका में बिता कर लौटा तो यहाँ हर दूकानदार से लड़ाई हो जाती थी कि बिल क्यों नहीं देते। दूकानदार समझाता कि वह मेरा ही भला चाहता है, बिल देने से मुझे ज्यादा पैसे देने पड़ेंगे। मैं हैरान होता कि बंदा मेरा दो पैसा बचाकर खुद सरकार को टैक्स देने से बच रहा है। धीरे धीरे एक दिन मैंने भी यह लड़ाई छोड़ दी। साथ ही अमरीका खुद इतना बड़ा लुटेरा मुल्क है कि वहाँ के औसत आदमी की ईमानदारी का जज्बा अधिक देर तक प्रभाव नहीं छोड़ता।

तो क्या मैं यह कह रहा हूँ कि इस लड़ाई में हार ही हार है, नहीं मैं यह नहीं कह रहा। मैं कह रहा हूँ कि अपनी अपनी सीमाओं में रहकर अपनी वैचारिक और वैश्विक समझ में रहकर, हर एक अपनी छोटी लड़ाई लड़ते रहें। अगली बार मैं कोशिश करुँ कि लकीर को और पीछे खींचूँ और गर्दन को और आगे बढ़ाऊँ। यही मेरी कामना है। यह कामना इसलिए नहीं कि इससे मैं किसी बड़े धरातल पर पहुँच जाऊँगा, महज इसलिए कि कुदरत की तमाम खूबसूरत देन में से एक ईमान का अहसास है। ईमान की ज़िंदगी में कई अर्थ दिखते हैं, बेईमानी में इतनी ही अर्थहीनता। बेईमानी और भ्रष्टाचार खुद से नफरत बढ़ाते हैं। बेईमान प्रशासकों ने इतने पेंचीदे नियम कानून बना दिए हैं कि कई छोटी चीज़ों के लिए आदमी कानून को तोड़ने में लग पड़ता है। भ्रष्ट लोग कानूनी शिकंजों से भी और नियमों के प्रपंचों से बचने के गुर जानते हैं। भले लोग जब इससे बच जाते हैं यानी बिना कानून तोड़े कुछ करने में कामयाब हो जाते हैं, तो मन आसमान हो उठता है, वैसा ही जैसा मानसी ने दिखलाया है। जहाँ तक गर्दन कटने की बात है, एक नारी वादी चिंतक का कथन है - Behold the lie of lies - since I am all alone, I cannot change the world. हताशा जब घनघोर हो तो खुद से कहता हूँ कि अकेले नहीं हो, लाखों सर कलम करवा रहे हैं, तुम तो घर से निकलने में ही रोने लग गए, 'चलते चलो कि अब डेरे मंज़िल पर ही डाले जाएंगे।'

इस चिट्ठे को संपादित कर अखबार के आलेख के लिए तैयार कर रहा हूँ। अखबार पहुँचता तो हजारों तक है, पर शब्द-सीमा होती है और तमाम बातें सोचनी पड़ती हैं कि क्या छप सकता है क्या नहीं।

Monday, December 12, 2005

इधर वाला गेट बंद हो गया होगा

चूँकि मैं किसी ईश्वर में विश्वास नहीं करता, इसलिए कह सकता हूँ - हे ईश्वर! मेरी इच्छा शक्ति को क्या हो गया। छुट्टी की घोषणा कर दी और फिर बेहया से वापस लौट आए।

बहरहाल भाई ने गरियाया तो औरों को, पर मुझे इतना हिलाया कि मैं वापस आ गया। चिट्ठा चर्चा में यह तो लिख दिया कि मैंने छुट्टी की घोषणा कर दी (पुरानी कविताओं का तर्क देकर!) पर यह नहीं लिखा कि कुछ बातें और भी कह गया हूँ - साधारण सी ही, जैसे शिक्षा व्यवस्था पर और शिक्षकों के मूल्यांकन पर। पर महज इतना हिलने भर से हम कहाँ इस अवसाद से लबालब आठ ही बजे पाँच डिग्री सेल्सियस पहुँची रात को एक किलोमीटर चल के दफ्तर पहुँचते कि चिट्ठा लिखें। सच यह है कि मुझे हिन्दी चिट्ठाकारों से प्यार हो गया है। भले लोग हैं। भाई मनोज, सच है कि अनुनाद सिंह ने आड़ंबड़ंबड़ंबड़ंबड़ं... जैसा कुछ लिखा था, जो ई-मेल नैशनलिस्टों की मुहावरेबाजी का हल्का सा नमूना था, पर यह भी तो है न कि उसने लिखा तो। अब हम हैं कि रोते रहते हैं यार टाइम नहीं, टाइम नहीं, किसी का पढ़ा तो टिप्पणी नहीं छोड़ी, बदतमीज़ तो हम ही हुए न? वैसे इस आड़ंबड़ंबड़ंबड़ंबड़ं... एपिसोड से एक पुराना चुटकुला याद आया। यह एक नैशनलिस्ट से ही सुना था (उन दिनों ई-संस्कृति का प्रादुर्भाव नहीं हुआ था)। एक बार एक महाराज एक और महाराज से मिले। विनम्र भाव से बोले - महाराज, मैं अधम ! सुनते ही दूसरे महाराज बोले - अरे महाराज ! मैं तो अधमाधम ! पहले कहाँ पीछे रहने वाले थे, बोले - महाराज, अधमाधमधमधमादम !

भाई अनूप, मैं फक्कड़ मिजाज आदमी तो हूँ (हालाँकि प्रतीक मेरा चिट्ठा पढ़ते हुए धीरज खो बैठता है), पर इतना जिम्मेवार भी हूँ कि ढाई हफ्ते के लिए आई आई एस सी जाऊँ तो चिट्ठाकारी से बचूँ। फिर जिस लैब में रहूँगा वहाँ हिन्दी के लिए सही इनपुट मेथड है या नहीं, कट पेस्ट वगैरह आसानी से कर पाऊँगा या नहीं, ऐसी कई समस्याएँ हैं। बहरहाल अपनी बेशर्मी का ऐलान तो कर ही दिया, शायद लिख ही बैठूँ।

चिट्ठा चर्चा में सेलेक्टिव बयान से एक भारी खयाल दुबारा मन में बैठ गया। मैंने अतुल की रंगीन रात के सवाल के जवाब में कई भारतीय चिंतकों के नाम लिखे थे। उनमें अंबेदकर का नाम नहीं था। मैंने अंबेदकर पढ़ा नहीं है। हमारी स्कूल की पाठ्य-पुस्तकों में अंबेदकर नहीं होते थे, हालाँकि उन्होंने भारतीय संविधान लिखने के लिए बनाई गई समिति की अध्यक्षता की थी। खास तौर पर हिन्दी की पुस्तक का जिम्मा था कि वह हमें भाषा ज्ञान के अलावा बाकी चीज़ें पहले सिखाए, तो गाँधी जी, काका कालेलकर, घनश्याम दास बिड़ला सब थे, पर अंबेदकर नहीं। फिर भी मुझे लगा कि राजा राममोहन राय से लेकर विनोद मिश्र तक की लंबी लिस्ट में अंबेदकर को न रखना मेरी जाति-प्रश्न के प्रति संवेदना की कमी को दर्शाता है। लिखने के बाद चेतन को मैंने यह कहा (चेतन का कहना है कि जब भी उसे गाली देनी हो तो उसका जिक्र मैं चिट्ठे में कर देता हूँ। चेतन, इस वक्त गाली तुम्हें नहीं, खुद को ही दे रहा हूँ) और तब से इस सवाल पर सोचता रहा हूँ।

इसके अलावा अगर मैं युवा मित्र आशीष अलसिकंदर (अरे वही अलेक्ज़ेंडर) की बात कहे बिना छुट्टी ले ली होती तो अन्याय होता। छात्रों की संस्था क्रिटीक से न जुड़े पर बौद्धिक विचारों की कसरत में सक्रिय होने की इच्छा रखने वाले कुछ मित्रों को आशीष ने संगठित किया। ये लोग कभी कभी आर्ट्स म्युज़ियम (विश्वविद्यालय के) के सामने हरी घास पर बैठते हैं और मैं सबसे उम्रदराज़ पापी कभी कभार इनकी गुफ्तगू में शामिल होता हूँ। काश्मीर, विश्वविद्यालय में छात्र संगठनों के चुनाव, बढ़ती हुई अश्लीलता की संस्कृति, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे कई मुद्दों पर ये चर्चा कर चुके हैं। मैं चूँकि इनदिनों अकेला हूँ तो मेरे घर पर दो बार डी वी डी प्लेयर चलाकर फिल्में भी देख चुके हैं। तो दस तारीख को जिस दिन मानव अधिकार था, ये मेरे घर इकट्ठे हुए। संयोग से इन्हें पता चल गया कि उस दिन मेरा जन्मदिन भी था, तो मेरी बढ़ती उम्र का स्यापा भी मनाया गया। इसके दो दिन पहले आशीष ने तो कमाल ही कर दिया। खुशबू और सानिया मिर्जा के बयानों पर उठे बवालों और प्लेबॉय के भारतीय संस्करणों के संदर्भ में बुलाई बैठक में कोई बीस छात्र-छात्राओं के बीच अश्लीलता, यौन शिक्षा आदि पर खुली बहस का आयोजन। इन विषयों पर युवा छात्र-छात्राओं में ऐसी खुली चर्चा यहाँ मैंने पहली बार देखी और सुनी।

उम्र से याद आया, मैंने सोचा था कि उम्र पर एक पुरानी कविता पोस्ट कर दूँ। भाई मसिजीवी, अब इसपर ध्यान से टिप्पणी करना, फिर किसी महेश ने तुम्हारे ब्लॉग पर गाली दे देनी है, चोट मुझे लगती है।

उम्र

उम्र दर उम्र
ढूँढते हैं
बढ़ती उम्र रोकने का जादू

भरे छलकते प्याले हैं
एक-एक टूटता प्याला
लड़खड़ाते सोच सोच कि
टूटने से पहले प्यालों में
रंग कुछ और भी होने थे

टूटता हर प्याला
बचे प्यालों से होता बेहतर
झुर्रियों के साथ इकट्ठे बचते प्याले
डबल चार सौ बीस का जिन पर नंबर

जितनी बढ़ती तमन्ना जीने की
उतनी ही होती तकलीफ जीने की

टूटी सोच से डरे घबराए
बदतर प्याले ढोने को लाचार
गिरते और गहरे गड्ढों में

उम्र पर हँसने की सलाह देते हैं वैज्ञानिक।

--१९९५ (उत्तर प्रदेश पत्रिका-मार्च १९९७ ; विपाशा - १९९६)

चार सौ बीस का प्रसंग हमारे अत्यंत सम्माननीय अध्यापक अगम प्रसाद शुक्ला जी से चुराया (पैदा हुआ बनमानुष का बच्चा, बीस पर आधा चार सौ बीस, चालीस पर पूरे और साठ पर डबल - तो प्यारे छात्रों, हम तो चले डबल चार सौ बीसी की ओर, तुम ठहरे आधे, अब किसी तरह कहानी बनानी है)।

तो शुकुल जी, उम्र तो हो गई, पर काम के दबाव से नर्वस हम उतने ही हैं, जितने रंगीन रातों (अतुल वाली नहीं) के दौर में हुआ करते थे। हमारे बड़े दोस्त कोलैबोरेटर तेजवीर सिंह मुजफ्फरनगर वाले, जिनकी सिंथेटिक कार्बनिक रसायन में दम डालने के लिए कुछ कंप्यूटर का कमाल हम कर देते हैं, उन्होंने मेरे ऊपर ही डाल दिया कि अपनी मिलीजुली खुराफात का खुलासा विभाग के वार्षिक मेले में करुँ, जो इस साल कुछ फिरंग भाइयों की उपस्थिति में हो रहा है। यार, उसकी तैयारी कर लेने दो। तब तक बाज आओ मुझे हिलाने से, क्या ?

बाई द वे, अगर कोई ई-मेल नैशनलिस्ट मेरी बातों से आहत हो रहे हैं तो उनकी सांत्वना के लिए कह दूँ कि मैं और मेरा दोस्त विश्वंभर पति (जो दुनिया का सबसे खतरनाक व्यंग्यकार है, सामना होने पर पेट फटने की भरपूर संभावना होती है) एक जमाने में वामपंथी साहित्य पढ़ते हुए बोर होकर 'अमरीकी पूँजीवादी साम्राज्यवाद, सोवियत सामाजिक साम्राज्यवाद और भारतीय बुर्ज़ुआ दलालों' की जगह धड़ाम धड़ाम धड़ाम पढ़ा करते थे। इसलिए दोस्तों, आड़ंबड़ंबड़ंबड़ंबड़ं... बोलो, पर रीलैक्स यार। भारत महान बोलो, बाजार महान बोलो, आराम से यार।

सच तो यह है अतुल राष्ट्रवाद के नाम पर आदमी आदमी नहीं रहता - लिंडी इंग्लैंड और क्या वो दूसरी जारपिंस्की या ऐसी ही कुछ जिसे मर्द जिस्मों की जरा ज्यादा ही चाहत थी, .....इसलिए अतुल सवाल यह है, राष्ट्रगान की तोतारट कहाँ ले जा रही है। वैसे गाना अच्छा लगता है तो क्यों न गाओ, एक कविगुरु ने लिखा है (किसके लिए यह मत पूछना), दूसरा एक अंग्रेज़ी सरकार के मुलाजिम ने (किसकी भाषा में मत पूछना)। सुंदर है, साधु साधु।

धत् तेरी की, दस बज गए। इधर वाला गेट बंद हो गया होगा।

Sunday, December 11, 2005

महीने भर की छुट्टी

'लाल्टूजी अपना सारा पुराना स्टाक छापे दे रहे हैं नेट पर भी।' - चिट्ठा चर्चा

चिट्ठे में नई कविताएँ इसलिए नहीं डाल सकते कि कहीं प्रकाशन के लिए भेजनी होनी होती हैं।
अधिकतर जो कविताएँ डाली थीं, वे प्रासंगिक थीं और ज्यादातर चिट्ठाकारों के लिए तो नई ही होंगी। पुराने होने का विवरण साथ में देते हैं कि जिसने प्रकाशित किया उनका भी जिक्र होना चाहिए। कुछेक पुरानी कविताएँ पहले से कंप्यूटर पर पड़ी हैं,....

अब महीने भर की छुट्टी ले रहा हूँ। दस दिनों के बाद बंगलौर के भारतीय विज्ञान संस्थान जाना है, वहाँ ढाई हफ्ते।
जाने से ठीक पहले यहाँ विभाग में एक अंतर्राष्ट्रीय सिंपोज़ियम में भाषण देना है।

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पहली तारीख को हमारे एक साथी के अवकाशनिवृत्त होने पर हमलोगों ने उच्च शिक्षा पर एक गोष्ठी आयोजित की। उसी प्रसंग में बातें जो दिमाग में हैं (भारत को महान बनाने और बताने वालो, कुछ इस पर भी सोचो) -

भारतीय शिक्षा-व्यवस्था की समस्याओं के बारे में दो सबसे बड़े सचः-

१) सरकार ने अपने ही संवैधानिक जिम्मेवारियों के तहत बनाई समितिओं की राय अनुसार न्यूनतम धन निवेश नहीं किया है। लंबे समय से यह माना गया है कि यह न्यूनतम राशि सकल घरेलू उत्पाद का ६% होना चाहिए। आजतक शिक्षा में निवेशित धन सकल घरेलू उत्पाद के ३.२% को पार नहीं कर पाया है।
२) राष्ट्रीय बजट का ४०-४५% सुरक्षा के खाते में लगता है, जबकि शिक्षा में मात्र १०-११% ही लगाया जाता है।

भारतीय शिक्षा-व्यवस्था की सबसे शर्मनाक बातः-

अफ्रीका के भयंकर गरीबी से ग्रस्त माने जाने वाले sub-सहारा अंचल के देशों में भी शिक्षा के लिए निवेशित धन सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के पैमाने में भारत की तुलना में अधिक है।

भारतीय शिक्षा-व्यवस्था के बारे में दो सबसे बड़े झूठ:-

१) समस्या यह है कि हमने बहुत सारे विश्वविद्यालय खोल लिए हैं।
२) हमारे विश्वविद्यालयों में शिक्षा बहुत सस्ती है।

शिक्षा में जो सीमित संसाधन हैं भी, उनके उपयोग का स्तर अयोग्य और भ्रष्ट प्रबंधन की वजह से अपेक्षा से कहीं कम हो पाता है। खास कर, नियुक्तियों में व्यापक भ्रष्टाचार है।
वैसे बिना तुलनात्मक अध्ययन किए लोग, खास तौर पर हमारे जैसे सुविधा-संपन्न लोग, जो मर्जी कहते रहते हैं; कोई निजीकरण चाहता है, कोई अध्यापकों की कामचोरी के अलावा कुछ नहीं देख पाता। पश्चिमी मुल्कों से तो हम लोग क्या तुलना करें, जरा चीन के आँकड़ों पर ही लोग नज़र डाल लें (हालाँकि चीन के बारे में झूठ सच का कुछ पता नहीं चलता)। साथ में शाश्वत सत्य ध्यान में रखें - पइसा नहीं है तो माल भी नहीं मिलेगा। अच्छे अध्यापक चाहिए तो अच्छे पैसे तो लगेंगे ही। अच्छे लोग आएंगे तो भ्रष्टाचार भी कम होगा। राजनैतिक दबाव के आगे भी अच्छे लोग ही खड़े हो सकते हैं।

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चार दिन पहले कालेज और विश्वविद्यालय के शिक्षकों के लिए ओरिएंटेशन कोर्स में विचार-गोष्ठी का विषय था - अध्यापकों का मूल्यांकन।
मैं जब एम एस सी छात्र था, तो अध्यापकों का मूल्यांकन हमने किया था, जब टी ए (टीचिंग असिस्टेंट) था तो हमारा मूल्यांकन छात्रों ने किया। इसलिए जब यहाँ आया तो स्वाभाविक था कि उसी तरह अपना मूल्यांकन करवाते। पर कुछ शुभ चिंतकों ने रोका। पाँचेक साल के अनुभव के बाद मैंने शुरु कर ही दिया। तकरीबन पंद्रह साल हर कोर्स के अंत में मूल्यांकन करवाने के बाद आखिर पिछले साल बंद कर दिया। कारण - आजकल जो एन आर आई सीट के छात्र आते हैं, उनकी संख्या नियत नहीं होती, इसलिए शिक्षक के लिए औसत छात्र समझ पाना मुश्किल होता जा रहा है। मेरी एक भयंकर समस्या यह है कि पिछले कुछ सालों से ऐसे छात्र आने लगे हैं जिन्होंने हाई स्कूल के बाद गणित नहीं पढ़ी। हाई स्कूल में जो पढ़ा भी वह भूल गए। इसलिए मूल्यांकन का अर्थ ही नहीं रहता।
बहरहाल, मेरा मानना है कि मूल्यांकन न केवल अध्यापक की अपनी बेहतरी के लिए ज़रुरी है, शिक्षक और छात्र के बीच बेहतर और लोकतांत्रिक संबंध बनाने के लिए भी बहुत ज़रुरी है। पर मैं यह भी मानता हूँ कि छात्र भले ही मूल्यांकन के निष्कर्षों पर चर्चा करें, प्रशासन में व्यापक भ्रष्टाचार और गुटबाजियों को देखते हुए मूल्यांकन को प्रशासनिक हथकंडा बनाने के खिलाफ लड़ते रहना ज़रुरी है।

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एक महीने बाद फिर लिखेंगे। सबको नए साल की शुभकामनाएँ।

Saturday, December 10, 2005

सूरज सोच सकने को लेकर

मसिजीवी ने सच ही शक जाहिर किया।
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सूरज सोच सकने को लेकर

सूरज सोच सकने को लेकर
मैंने पहले भी कभी लिखा है
इन दिनों लड़ता हूँ इस शक से कि
सूरज सोचना शायद धीरे-धीरे
असंभव हो रहा है

सूरज सोच सकने के पूर्ववर्ती क्षणों में
वह बूढ़ा भर लेगा उन सभी जगहों को
अपने बच्चे की राख से
जहाँ मेरे पैर हैं
फिलहाल उसे सूरज नहीं सिर्फ एक रुपया
चाहिए या महज कुछ पैसे

मुझे लगता है मैं अभी भी
सूरज सोच सकता हूँ
शक है उस बूढ़े का असंभव ही हो
सूरज सोच सकना

1994
(पश्यंती-1995; 'डायरी में तेईस अक्तूबर में' संकलित)

Friday, December 09, 2005

सारी दुनिया सूरज सोच सके

कल मानव अधिकार दिवस है।
अपने पहले संग्रह 'एक झील थी बर्फ की' में से यह कविता -
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सारी दुनिया सूरज सोच सके

हर रोज जब सूरज उगता है
मैं खिड़की से मजदूरों को देखता हूँ
जो सड़क पार मकान बना रहे हैं

सूरज मेरी खिड़की पर सुबह सुबह नहीं आता
कल्पना करता हूँ कितना बढ़िया है सूरज

रात के अभिसार से थकी पृथ्वी को
आकाश हर रोज एक नया शिशु देता है

नंगी पृथ्वी
अँगड़ाई लेती
शरीर फैलाती है
उसकी शर्म रखने
अलसुबह उग आते
पेड़ पौधे, घास पात

पूरब जंघाएँ
प्रसव से लाल हो जाती हैं

ऐसा मैं सोचता हूँ
सूरज कल्पना कर

कभी कभी
मैंने मजदूरों की ओर से सोचने की कोशिश की है
मेरे जागने तक
टट्टी पानी कर चुके होते हैं
अपने काम में लग चुके होते हैं
एक एक कप चाय के सहारे

मैंने चाहा
वे सूरज को कोसें
शिकवा करें
क्यों वह रोज उग आता इतनी जल्दी

बार बार थक गया हूँ
अगर वे कभी सूरज सोच सकें
सूरज नहीं दुनिया सोचेंगे
षड़यंत्र करेंगे
सारी दुनिया सूरज सोच सके।

१९८८ (पहल -१९८९)

Thursday, December 08, 2005

जैसे खिलता है आसमान

"प्रेम सुधा में विष घुलेगा जब मन हो नहाया पाप से
मेरी व्यथा क्या समझेगा जो गुज़रा न हो उस ताप से" - मानसी

पाप ? पाप ?
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जैसे खिलता है आसमान

जैसे खिलता है आसमान
सीने में उल्लास की चीत्कार भर दौड़ो
प्यार जब चाहिए तो
चोटी पर बाँहें फैला सरगम गाओ

हो सकता है साथ आ बैठें दढ़ियल रवींद्रनाथ
हू हू बह निकले गंगा
महादेवी की जाने किन कविताओं से

प्यार जब चाहिए तो
होंठों को स्तब्ध न रखो
जिन आँखों को छूना है
जीवन की तहें वहाँ फैलाओ
साँस सिसकियाँ आवाज़ें
जिस्म रूह कविताएँ
होंठों की बाँसुरी में बजाओ
बाँसुरी नहीं चिरंतन फरीद वह
ईसा का सपना
खिलो जैसे खिलता है आसमान।

1994
(पश्यंती - 1995; 'डायरी में २३ अक्तूबर')

Wednesday, December 07, 2005

हालाँकि लिखना था पेड़

हालाँकि लिखना था पेड़

हालाँकि लिखना था पेड़
पेड़ पर दिनों की बारिश की गंध
लिखा पसीना हवा में उड़ता सूक्ष्म-सूक्ष्म
लिखा पसीना जो अपनी सत्ता
देश से उधार लिए बहता दिमाग़ में
स्पष्ट कर दूँ यह कोई मजदूर का नहीं
महज उस देश का पसीना
जिस पर तमाम बेईमानियों के ऊपर
मीठी सी हँसी का लबादा
हमारी एकता का हिस्स... ...
हमारी हें-हें हें समवेत हँसी का फिस्स... ...

हालाँकि लिखना था पेड़
पेड़ पर बंदर
आसपास थे घर और बंदर में घर
नहीं हो सकता
लिखा वीरानी जो चेहरे के भीतर बैठी
टुकड़े-टुकड़े
लिखा महाजन वरिष्ठ
लिखा राजन विशिष्ट मेरे इष्ट
जिन्हें इस बात का गुमान
कि पढ़े लिखों को
यूँ करते मेहरबान
जैसे नाले में कै लिखा कै के उपादान
पीलिया ग्रस्त देश के विधान

हालाँकि लिखना था पेड़
लिखी बातें लगीं संस्कृत असंस्कृत।

१९९४ (पश्यंती १९९५; 'डायरी में तेईस अक्तूबर' में संकलित)

Tuesday, December 06, 2005

सात दिसंबर 1992

यहाँ नहीं कहीं औरः सात दिसंबर1992


कहना दोधी से कम न दे दूध नहीं जा सकती इंदौर
कर दूँगा फ़ोन दफ्तर से मीरा को अनु को
तुम नहीं जा सकती इंदौर अब
मेसेज भेजा लक्ष्मी को मत करो चिंता
नहीं आएगी स्टेशन मरे हैं चार दिल्ली में कर्फ्यू भी है
एक पत्थर और पत्थर पर पत्थर गिरे गुंबदों से
समय अक्ष बन रहा अविराम समूह पत्थरों का


सभी हिंदुओं को बधाई
सिखों, मुसलमानों, ईसाइयों, यहूदियों, दुनिया के
तमाम मजहबियों को बधाई
बधाई दे रहा विलुप्त होती जाति का बचा फूल
हँस रहा रो रहा अनपढ़ भूखा जंगली गँवार


पहली बार पतिता शादी जब की अब्राह्मण से
अब तो रही कहीं की नहीं तू तो राम विरोधी
कहेगी क्या फिर विसर्जन हो गंगा में ही
निकाल फ्रेम से उसे जो चिपकाई लेनिन की तस्वीर
मैंने
मैं कहता झूठा सूरज झूठा सूरज रोती तू
अब तू जो कहती रही ग़लत है झगड़ा लिखा दीवारों पर
निश्चित तू धर्मभ्रष्टा
ओ माँ !


पुरुषोत्तम !
सभी नहीं हिन्दू यहाँ रो रही मेरी माँ आ बाहर आ
कुत्ता मरा पड़ा घर के बाहर पाँच दिनों से
ओवरसीयर नहीं देता शिकायत पुस्तिका
ला तू ही ला लिख दूँ सड़ती लाशें गली गली
कुछ कर हे ईश्वर !


सड़ती लाशें गली गली
नहीं यहाँ नहीं कहीं और
फिलहाल दुनिया की सबसे शांत
धड़कन है यहाँ
फिलहाल।

1992 (जनसत्ता -1992, परिवेश -1993, आधी ज़मीन - 1993, 'यह ऐसा समय है' (सहमत) और 'डायरी में तेईस अक्तूबर' संग्रहों में)

Monday, December 05, 2005

प्रेमचंद १२५

हरियाणा साहित्य अकादमी के आयोजन से आशा से अधिक संतुष्ट हुआ। प्रेमचंद की एक सौ पचीसवीं वर्षगाँठ पर सुबह व्याख्यान और शाम को रंगभूमि का मंचन। व्याख्यान सुनने देर से पहुँचा और पता चला कि मैनेजर पांडे आए नहीं। विकास नारायण राय और कमलकिशोर गोएनका को सुना। विकास पुलिस के अफसर हैं और अपने बड़े भाई विभूति नारायण राय ('वर्त्तमान साहित्य' के पहले संपादक और प्रसिद्ध उपन्यास 'शहर में कर्फ्यू' के लेखक) की तरह साहित्य में सक्रिय हैं। पहले हरियाणा और वह भी चंडीगढ़ के पास पंचकूला में ही पोस्तेड होते थे तो अक्सर मुलाकात होती थी। पर कल उनको सुनकर कहीं ज्यादा अच्छा लगा। प्रेमचंद की रचनाओं के subtext को सामने लाकर और समकालीन स्थितियों से तुलनाकर बड़े रोचक ढंग से बात रखी, जैसे गोहाना में हाल में लिए किसी साक्षात्कार का हवाला देकर प्रेमचंद के दलित चरित्रों की स्थिति को समझना आदि। कमलकिशोर गोएनका के लेख पढ़े थे, कभी सुना नहीं था। सुनकर अच्छा लगा और मन में पहले से बनी धारणा कि प्रेमचंद के बारे में फैली रोमांटिक किस्म की धारणाओं को गलत सिद्ध करने में उनकी कोई बुरी मंशा नहीं है, को सही पाया। दूसरी तरफ प्रेमचंद के अप्रकाशित रचना संसार से भी परिचय हुआ, जिससे वाकई एक नया प्रेमचंद सामने आता है। कमलकिशोर जी ने बतलाया कि भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन से उनका यह काम पुस्तक रुप में प्रकाशित हुआ है। मैं हमेशा मानता रहा हूँ कि साधारण में असाधारणता ही सोचने लायक या प्रेरणा लायक होती है। असाधारण तो कोई भी नहीं होता, कृतियाँ ही असाधारण होती हैं। पहले से ही किसी को असाधारण बना डालना एक तरह से उसका अपमान ही है।

रंगभूमि का मंचन दिल्ली से आई संस्था रंगसप्तक ने किया था। नाटक का मजा तो है ही, खासकर लोक शैली में गायन ('निरगुन' और 'रामायन') और बिदेसिया जैसी नृत्य शैली का समायोजन हो, पर अभिनय में स्टीरियोटाइप शैली से मैं बड़ा हताश होता हूँ। मुश्किल यह कि प्रेमचंद की रचना हो तो नाटक के अर्थ कई बन जाते हैं। वह साहित्य भी है, इतिहास भी है, नाटक से साहित्येतर कलात्मक पक्ष भी उसका है। रंगभूमि पर हाल में बहुत विवाद रहा है और दलितों के एक वर्ग ने उपन्यास की प्रतियाँ जलाई हैं। मैंने उपन्यास बचपन में पढ़ा था, इसलिए आपत्तिजनक क्या है, स्पष्ट याद नहीं। पर चूँकि दलित चरित्र हैं तो उनसे बुलवाई भाषा और उनके व्यवहार पर आपत्ति होगी। नाटक देखते हुए हम आपत्तिजनक अंश ढूँढते रहे। पर या तो वे सब छन चुके थे या उनका परिष्कार हो चुका था, कुछ भी आपत्तिजनक लगा नहीं।

सुनील के छायाचित्रों को देखकर सचमुच अपनी पुरानी कसरत याद आ गई। एक ज़माना था कि ओलिंपस का अपना कैमरा लेकर हम भी निकले होते थे। फॉल के रंग, जाड़ों की बर्फ, भई अब तो लगता है नोस्टाल्जिया में ही खो जाएंगे। एकबार बसंत के मौसम में एक महिला को समरसूट (बिकिनी किस्म की) पहने घर के सामने सड़क बुहारते देखा। इतना अच्छा लगा कि कोई उसे घूर नहीं रहा, स्वच्छंद मन से प्रोफेसर की पत्नी टाइप झाड़ू लगा रही है। उन दिनों कोडाक की कलर स्लाइड्स बनाने की फिल्में आती थीं और मेरे कैमरे में रील भरी हुई थी। तो अपनेराम ने महिला से गुहार की कि आपका फोटू लेना माँगता है। तुरंत न हो गई। बड़ा बुरा सा लगा। मैंने कहा कि दरअसल अपनी माँ और बहन को भेजना चाहता हूँ यह दिखलाने कि यहाँ औरतें कितनी आज़ाद हैं। महिला ने थोडी देर सोचा, फिर पूछा कि किसी पत्रिका (प्लेबॉय) का एजेंट तो नहीं, फिर मेरा थैला देखा और कहा खींचो।

वो स्लाइडें पच्चीस साल के बाद आज भी कहीं पड़ी हैं। कभी देखना चाहिए।

दिसंबर का पहला हफ्ता हाल के भारतीय इतिहास में अंधकार के समय का है। कल एक जहर फैला था भोपाल में और कल एक और जहर फैला था अयोध्या में। हमें बचपन में पता ही नहीं था कि अयोध्या है कहाँ! वैसे भी जहर की क्या बात करें!

Sunday, December 04, 2005

फ़ोन पर दो पुराने प्रेमी

सुनील यानी बकौल शुकुल जी 'भुलक्कड़ प्रेमी' का प्रेम प्रसंग बहाना है कि समय से पंद्रह दिन पहले ही आ टपकी शीत लहर (वैन्कूवर ही नहीं यहाँ भी) में कुछ प्यार की बातें हम भी कर लें। हाँ भई, लोगों ने मुझे भारी भरकम ही बना दिया! और छूट मिली भी तो चर्चित कहानीकार - अरे भाई, मैं कविताएँ भी लिखता हूँ! साहित्य की राजनीति और उठा पटक से दूर हूँ, पर हिन्दी कविता में भी सेंधमारी हमने भी की है । लिखने में जल्दबाजी का ज़ुर्म है, पर वो मेरे बस की बात नहीं....

फ़ोन पर दो पुराने प्रेमी


कहते कुछ
सोचते कुछ और हैं
फ़ोन पर बातचीत करते
पुराने प्रेमी

बातों में
पिछले संघर्षों के संदर्भ हैं
जिनमें एकाध जीते भी थे

आजकल जिन नौकरियों में लगे हैं
उनकी हताशाएँ एक दूसरे को
सुनाते हैं

ख़यालों में ज़िंदा
हैं पुराने गीत
एक दूसरे के शरीर की गंध
होंठों का स्वाद।

१९९० ( साक्षात्कार १९९२)

हरियाणा साहित्य अकादमी की ओर से आयोजित कार्यक्रम में व्याख्यान देने प्रोo मैनेजर पांडे आए हैं, सुनने जा रहा हूँ।
शाम को टैगोर थिएटर में 'रंगभूमि' का मंचन है। देखना है, एक अखबार के लिए समीक्षा भी लिखनी है।

मानसी और सुनील, अच्छे छायाचित्रों के लिए धन्यवाद। बहुत सारी पुरानी यादें ताज़ा हो गईं।

Saturday, December 03, 2005

कंप्यूटर

कंप्यूटर

स्मृति
का एक टुकड़ा इस कार्ड में है
दूसरा उसमें

एक टुकड़ा यह विकल्प देता है
कि स्मृति को हम
बचपन जवानी या बुढ़ापे में बाँटें
या बाँटें लिखने और पढ़ने के कौशल में
या देखने सूँघने या चखने की आदत में
बाँटने के अलग अलग विकल्पों की उलझन से
हमें उबारता है एक और टुकड़ा

हम बटनों पर बैठे हैं
निर्जीव स्मृतियाँ अब चमत्कार नहीं
हमारी उँगलियों के स्पर्श से पैदा करती हैं
स्पर्धाएँ
स्पर्धाओं में हार जीत
अहं, रक्तचाप

एक टुकड़ा
बुझते ही
बुझता है
एक टुकड़ा प्यार

चेतना और कंप्यूटर
में तुलना
चलती लगातार।

१९९५ (उत्तर प्रदेश(पत्रिका)-मार्च १९९७)

Friday, December 02, 2005

प्रत्यक्षा, धन्यवाद!

यार लाल्टू, चिट्ठाकारी में मत फँस। अपना काम कर। इग्ज़ाम-शिग्ज़ाम करा। रिसर्च का काम देख।
पर प्रत्यक्षा ने बच्चों पर इतना बढ़िया लिखा, उसके बारे में कुछ भी नहीं?
चलो ढूँढो वह कविता जो चकमक के सौवें अंक में आई थी, जो पुलकी पर लिखी थी।
'भैया ज़िंदाबाद' संग्रह में है, कहाँ गई वह किताब....
पागल हो क्या, अरे नौ बजे इग्ज़ाम करवाना है,
धत् तेरे की, आधे घंटे से मिल ही नहीं रही....

हे भगवान, चलो यह चकमक का सौवाँ अंक मिल गया,
****************************************************

वो आईं गाड़ियाँ

वो आईं गाड़ियाँ !
वो आईं गाड़ियाँ !

बत्ती जो हो गई हरी
वो आईं गाड़ियाँ ! वो आईं गाड़ियाँ !

पुलकी खिड़की पे खड़ी
वो आईं गाड़ियाँ ! वो आईं गाड़ियाँ !

पुलकी बदमाश बड़ी
खींच लाई कुर्सी
खिड़की पे जा चढ़ी

ओ हो हू हा
ऊँची मंज़िल से चीखे
पुलकी बार बार
नीचे हल्ला गुल्ला
दौड़ें खुल्लम खुल्ला
रंग रंग की कार

बहुत कहा मत करो शोर
पुलकी न मानी न मानी
रही अड़ी की अड़ी
वो आईं गाड़ियाँ ! वो आईं गाड़ियाँ !

अब बत्ती हो गई लाल
कैसा हुआ कमाल
छोटी गाड़ी बड़ी गाड़ी
लाल गाड़ी पीली गाड़ी
हल्की गाड़ी ट्रक भारी
रुक गईं सारी सारी की सारी

मन मसोस पुलकी ने की उतरने की तैयारी
कुर्सी पर उतारे पैर, फिर छलाँग मारी
तब तक हुई बत्ती हरी फिर से
और फिर ....

वो आईं गाड़ियाँ ! वो आईं गाड़ियाँ !
***********************************************१९९२ (चकमक १९९३)

प्रत्यक्षा, आप को इतना बढ़िया चिट्ठा लिखने के लिए धन्यवाद! बच्चों की सोचें तो मेरे जैसा नास्तिक भी प्रार्थना करने लगता है
हे ईश्वर ! बच्चों को सँभाले रख।
मेरी बेटी ने जब चलना ही सीखा था, उन दिनों यह कविता लिखी थी।
इन दिनों मुझसे बहुत दूर कहीं है। शायद यह चिट्ठा पढ़े।
*******************************************************************************
मिर्ची, इलाके की एक और खबर।
करनाल के पाश पुस्तकालय में एन एस डी यानी नैशनल स्कूल अॉफ ड्रामा की कार्यशाला चल रही है। मैं तो नहीं जा पा रहा।
तुम्हारा मूड हो तो उड़कर आ ही जाओ।
पंजाबी के क्रांतिकारी कवि (अवतार सिंह) पाश के नाम पर बनी यह लाइब्रेरी पुलिस विभाग के अधीन है और इसका संचालक एक पुलिस का कर्मचारी है - है न मज़ेदार बात।
दूसरी बात, अंबाला भी इतना बुरा नहीं, घर आओ तो हिन्दी साहित्य की बड़ी हस्ती स्वदेश दीपक से कभी ज़रुर मिलना। युवा कवि समर्थ वशिष्ठ से भी।

Thursday, December 01, 2005

दोस्तों, जवाब नहीं, कुछ बातें ही

मेरा दोस्त चेतन जो खुद लिखने के पचड़े में नहीं पड़ता, पीछे पड़ा है कि लोग सवाल उठाते हैं तो जवाब क्यों नहीं देते। आखिरकार उसने मजबूर किया कि रमण कौल के चिट्ठे में मेरे लिखे 'साझी लड़ाई' पर जो सवाल उठाए गए, उन्हें पढ़ूँ। मैं नहीं समझता कि किसी की तकलीफ को हम दो चार बातें कर के मिटा सकते हैं। इसलिए यह सोचना कि मैं कोई तर्कयुद्ध जीतने की कोशिश कर रहा हूँ, गलत होगा। बचपन से ही देश के बँटवारे और दंगों से पीड़ित लोगों की व्यथाएँ सुनते आया हूँ। मेरी माँ का बचपन पूर्व बंगाल (आज के बाँग्लादेश) में गुजरा। पिता पंजाबी सिख थे। मिर्ची यार, मेरा जद्दी गाँव (जैसा पंजाबी में कहते हैं) रामपुराफूल से थोड़ी दूर मंडी कलाँ (या गुलाबों की मंडी) है। बचपन में गाँव आते तो रात को सोने के पहले दादी से बँटवारे की कहानियाँ सुनते। यह भी सुना था कि किस तरह गाँव के मुसलमान आकर उससे पूछते थे कि गाँव के सरदार उनके बारे में क्या सोचते हैं। फिर एक दिन इस भरोसे के साथ कि तुम्हें सुरक्षित सीमा पार करवा देंगे मुसलमानों को गाँव के बाहर ले गए और वहाँ पहले से ही तलवारें और गँडासे लिए गुरु के सिख खड़े थे (अब सोचते हुए आँखें भर आती हैं, उन दिनों लगता था वाह खून का बदला खून!)। माँ और पिता दोनों ही साधारण नागरिक थे। मतलब दोनों ही में आम लोगों के पूर्वाग्रह और आम लोगों सी ही संवेदनाएँ थीं। इसलिए बचपन में मुसलमानों से नफरत करनी भी सीखी और साथ ही यह भी सीखा कि 'एक पिता सब वारिस उनके' (कबीर का है, गलती से नानक का लिखा कहा जाता है)। पिता जी सरकारी गाड़ी चलाते थे तो गरीबी भी देखी और अमानवीकरण भी। पिता की गाली गलौज, माँ का रोना धोना सब देखा (इसलिए गोर्की की 'माँ' को माँ समझा जैसे बाद में कुमार विकल की कविता में पढ़ा)। दोस्तो उस जमाने में हमारे जैसे बच्चे मेरी आज की ज़िंदगी की कल्पना नहीं कर पाते थे। चलो आत्मकथा लिखने जैसे बुढ़ापे का दौर अभी आया नहीं है, मूल बात यह कहनी है कि बेलेघाटा के तकरीबन झुग्गियों से लेकर एकबार जेसी जैक्सन की रीसेप्सन कमेटी में अकेला हिंदुस्तानी बनने तक बहुत रोना रोया है (कुमार विकल की लाइन हैः मार्क्स और लेनिन भी रोए थे, पर रोने के बाद वे कभी नहीं सोए थे)। दोस्तों, उनको तो मैं कुछ नहीं समझा सकता जिनके जीन्स में मार्क्स और लेनिन के नाम से नफरत के कोडॉन हैं या जिन्हें अपने अलावा दुनिया के सभी धर्मग्रंथ कट्टरपंथ के सांद्र वचन लगते हैं। पर खुले मन से बात हो तो दो चार बातें हैं।

एकबार आई आई टी कानपुर में पढ़ने के दौरान काश्मीर पर बहस छिड़ गई। तबतक मैं बिना किसी पार्टी का सदस्य बने भी ऐसी श्रेणी में आ चुका था कि सभ्य लोगों के बीच मुझे प्रगतिवादी, जनवादी, मार्क्सवादी, लेनिनवादी, माओवादी, नक्सलवादी हर कुछ कहकर दरकिनार किया जा सकता था। इस सबके बावजूद मैं था महज एक देशभक्त - हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान मेरे ऊपर पूरी तरह सवार था। काश्मीर के बारे सीधी सी समझ थी कि काश्मीर पर अमरीका की नज़र है, इसलिए काश्मीर आज़ाद तो हो ही नहीं सकता, या तो पाकिस्तान जैसे पिछड़ी हुई सोच वाले मुल्क को जाएगा या सीधे ही अमरीका के साथ हो जाएगा। एक गाँधीवादी मित्र ने बहुत दुत्कारा कि मैं अपने आप को सचेत समझते हुए भी भारत की इस गलत पोज़ीशन का कैसे समर्थन कर सकता हूँ कि संयुक्त राष्ट्र संघ के जनमत संग्रह के प्रस्ताव के बावजूद काश्मीर में जनमत संग्रह नहीं करवाया गया। स्पष्ट है कि काश्मीर के लोग भारत के साथ नहीं हैं, वगैरह वगैरह। पर हम थे कि नहीं यह काश्मीर के लोगों के हित में नहीं है कि काश्मीर भारत से अलग हो।

पता नहीं मेरे विचार कब कैसे कितना बदले। यह जानता हूँ कि यह बदलाव आसानी से नहीं आया। यह बहुत बड़ी तकलीफ के साथ ही हुआ है कि देशभक्ति - जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी - जिसके मुताबिक जन्मभूमि के चप्पे चप्पे के लिए हमारे खून का आखिरी कतरा तक न्यौछावर होना है, ऐसे महान विचार से हम आज अपने आप को सहमत नहीं पाते। शायद कालेज के दिनों से ही समझ आने लगा था कि राष्ट्र की अवधारणा (शायद बनारसी लाल चतुर्वेदी का लेख स्कूल में पढ़ा था कि भूमि, भाषा, संस्कृति, जन, आदि कुछ तत्व मिलकर राष्ट्र बनाते हैं) में काफी गड़बड़ है। हमारे बचपन में आजादी की लड़ाई के दौरान फले फूले अंध राष्ट्रवाद का बड़ा जोर था - खासकर उत्तर भारत में। विडंबना यह है कि भारत में सबसे पिछड़े और दबाए लोगों में - जैसे कोलकाता में काम कर रहे बिहारी मजदूरों में या मेरे पिता जैसे पंजाब से आए कामगारों में यह राष्ट्रवाद सबसे प्रबल था। हम उनके बच्चे थे और उन से उत्तराधिकार में हमें यह मिला था। पिताजी ने कुछ समय ब्रिटिश फौज से बंदी बनाए लोगों से बनी सुभाष बोस की आज़ाद हिन्द फौज में भी काम किया था। उत्तराधिकार में मिले राष्ट्रवाद का एक बड़ा हिस्सा कांग्रेस पार्टी के समर्थन में खड़े होना होता था, आखिर कांग्रेस के नेत्तृत्व में हमें आज़ादी मिली थी। खालसा स्कूल से प्रेसीडेंसी कालेज आते तक (१९७३) मुझमें एक बड़ा परिवर्त्तन यह हुआ कि मैं इस अजीब राष्ट्रवाद से निकला। अब अपनी बेटी का लिखा पढ़ते हैं जो पंद्रह साल की उम्र में राष्ट्रवाद ही नहीं देशभक्ति तक पर गंभीर प्रश्न उठाती है तो हँसी आती है।

दोस्तों, माफ़ करना कि न चाहते हुए भी आत्मकथा में फँस ही जा रहा हूँ। मेरी कोशिश यह कहने कि है कि प्रतिष्ठित मान्यताओं के विपरीत विचार बना पाना एक बड़ा दर्दनाक संघर्ष होता है। जीवन के अनुभव और गंभीर साहित्य के पढ़ने से ही ऐसे बदलाव आते हैं। अपने अनुभवों से मैंने पाया कि किसी भी व्यक्ति पर मुख्यधारा का हिस्सा बनने का बहुत बड़ा सामाजिक दबाव होता है, जबकि अपनी नैसर्गिक अराजक प्रवृत्तियों से मानव अपना अलग और स्वच्छंद अस्तित्व बनाना चाहता है। अमूमन इस लड़ाई में हम हार जाते हैं और ले दे कर मुख्यधारा में शामिल हो जाते हैं। जो नहीं हारता अगर वह अकेला पड़ जाता है तो उसे मानसिक रुप से विक्षिप्त मान लिया जाता है। पर इतिहास में ऐसे मोड़ प्रायः आते हैं जब मुख्यधारा से अलग विचार रखनेवालों की तादाद इतनी बड़ी होती है कि वे संगठित हो जाते हैं और धीरे धीरे उनका संगठन एक आंदोलन का रुप अख्तियार कर लेता है। यह आंदोलन सही हो कोई ज़रुरी नहीं, पर अगर इसे बलपूर्वक दबाया जाए तो यह बढ़ता ही रहता है। ऐसी परिस्थिति में मुख्यधारा से फायदा उठानेवाले लोग समझदार हों तो वे थोड़ी बहुत रियायतें देकर विरोधियों को खुद में शामिल कर लेते हैं (co-option)। कभी कभी पानी इतना ऊपर चढ़ आता है कि वापस लौटने का रास्ता नहीं दिखता।

प्रसिद्ध नक्सली नेता नागभूषण पटनायक एकबार हमारे विश्वविद्यालय (१९८६-८७) आए थे। तब हाल में ही उन को दी गई मौत की सजा हटा ली गई थी और वे कानूनी मान्यता प्राप्त संगठन 'इंडियन पीपल्स फ्रंट' के अध्यक्ष थे। भिन्न मतों के वामपंथियों से बात करते हुए भावुकता पूर्ण लहजे में उन्होंने एक बात कही कि सबसे पहले तो हम यह समझ लें कि हम सब देशभक्त हैं। उनकी यह बात मैं भूलता नहीं हूँ। सोचो दोस्तो, देशद्रोह के लिए मौत की सजा पाया व्यक्ति कहता है वह देशभक्त है, मौत की सजा देनेवाले कहते हैं वे देशभक्त हैं। स्पष्ट है कि देशभक्ति का अर्थ अलग अलग लोगों के लिए अलग अलग है। कुछ के लिए भूमि, भाषा प्रमुख है, तो दूसरों के लिए जन प्रमुख है। काश्मीरी लोगों के बारे में सोचें। आई आई टी कानपुर छोड़कर अमरीका जाने तक मैं किसी काश्मीरी मुसलमान से नहीं मिला था, हालाँकि काश्मीरी हिन्दू (पंडित) प्रोफेसरों को मैं जानता था। इतने सालों के बाद भी पंजाब में रहते हुए मैं एक ही काश्मीरी मुसलमान प्रोफेसर को जानता हूँ, जो आई आई टी दिल्ली में केमिस्ट्री पढ़ाते हैं। कई काश्मीरी बुद्धिजीवियों को मैं जानता हूँ जो संयोग से पंडित हैं। बेशक इस तरह से दुनिया को देखना एक सांप्रदायिक नज़रिया है, पर इसके बिना हम यह जान ही नहीं पाएंगे कि काश्मीरी बहु-संप्रदाय बौद्धिक रुप से हाशिए पर रहा है। मुसीबत यह है कि कुछेक मुसलमान परिवारों में सुविधाएं बाँटकर एक बहुत बड़े तबके को हमेशा अपने नियंत्रण में नहीं रखा जा सकता। सारा हिंदुस्तान जानता है कि काश्मीरियों को रियायतें दी गई हैं। पर जब आप काश्मीरी मुसलमान से मिलते हैं तो वह शिमला में 'अल्लाहू' कहता हुआ सामान ढो रहा होता है। मैं जानता हूँ कि आज काश्मीर के अंदर स्थिति ऐसी नहीं है। जबरन पंडितों को हटाकर मुसलमान नागरिकों को नौकरियाँ दी गई हैं। तकलीफ होती है कि फिर भी सभी काश्मीरी हिंदुस्तान के साथ नहीं हैं। मैं जब कहता हूँ कि एक आज़ादी की लड़ाई है, तो उसका मतलब यही है कि एक आज़ादी की लड़ाई है। उसमें मैं शामिल नहीं हूँ, पर एक लोकतांत्रिक देश में मुझे यह कहने का हक होना चाहिए कि यह एक आज़ादी की लड़ाई है। आज़ादी को बदलकर तथाकथित आज़ादी कर देने से वह तथाकथित आज़ादी नहीं बन जाती, हाँ यह ज़रुर सिद्ध हो जाता है कि भारतीय लोकतंत्र अभी परिपक्व नहीं है।

जो पीड़ित है, उसे हमेशा ही लगता है कि उसकी बात कम हुई है। रमण की तकलीफ को मैं या कोई भी शब्दों में नहीं बखान सकता। चाहे मीडिया में कितनी ही बार पांडुंग काश्मीर की बात हो, वह काफी नहीं हो सकता। मैंने एक ऐतिहासिक प्रक्रिया को अपने ढंग से देखकर उसे कहने की कोशिश की है। तो क्या मैं यह मानता हूँ कि काश्मीर पाकिस्तान में चला जाए? नहीं, मैं यह मानता नहीं और चाहता भी नहीं, पर मैं यह समझता हूँ कि ऐतिहासिक कारणों से औसत काश्मीरी भारत के साथ नहीं है। हो सकता है यह स्थिति जल्दी ही बदल जाए, पर यह सीमा को बंद रखकर और आम नागरिकों की तकलीफों को बढ़ाकर नहीं हो सकता। जो कुछ भी हो, सही गलत, यह निर्णय काश्मीरियों के द्वारा ही होगा। पाकिस्तान और भारत दोनों ही सरकारें इस मामले में अपराधी हैं और इतिहास इन दोनों सरकारों को मुआफ़ नहीं करेगा।

हममें से हर कोई इस मसले पर भावुक होकर सोचता है। मैं भी होता हूँ। यह मेरा सपना है -मैंने इस पर कई साल पहले अखबारों के op-ed आलेखों में लिखा भी है - भारत पाकिस्तान और काश्मीर समेत दक्षिण एशिया के अन्य देश खुली सीमाओं वाले एक महासंघ का हिस्सा बनें। इसके लिए ज़रुरी है कि काश्मीर को पच्चीस साल तक संयुक्त राष्ट्र संघ के हाथ छोड़ा जाए। भारत और पाकिस्तान दोनों की फौजें वहाँ से निकलें। इन पच्चीस सालों में भारत और पाकिस्तान की सीमाएं खुलें, जम्मू से राजस्थान के उत्तरी क्षेत्र तक की अंतर्राष्ट्रीय सीमा की हजार मील वाली उपजाऊ जमीन पर पूरी फसल उपजे, खुला व्यापार हो, सांस्कृतिक और बौद्धिक आदान-प्रदान हो, आदि आदि। पच्चीस सालों के बाद काश्मीर में जनमत संग्रह हो और जो भी निकले वह सर्वमान्य हो।

जब अफगानिस्तान पर रुसी नियंत्रण था, उसके आखिरी दौर में शायद फरवरी १९८४ में National Geographic का एक दक्षिण एशिया विशेषांक (जिसके आवरण पर एक सचमुच की नीली आँखों वाली - यानी ऐश्वर्य राय नहीं- खूबसूरत अफगानी महिला की तस्वीर थी) निकला, जिसमें एक साम्यवाद विरोधी अमरीकी रीपोर्टर ने लिखा कि जो रुसी डाक्टर अफगानिस्तान के गाँवों में काम कर रहे थे, वे किसी वैचारिक आग्रह से नहीं, बल्कि मानवतावादी दृष्टिकोण से काम कर रहे थे। मैंने यह भी पढ़ा है कि तत्कालीन साम्यवादी शासक दल के कार्यकर्त्ता गाँवों में जाकर लड़कियों को पढ़ाने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करते थे, उनकी पिटाई होती थी - कई तो मार ही दिए गए। जो कुछ भी ऊपर से थोपा जाता है, वह कितना भी भला क्यों न हो, अक्सर मनुष्य इसके खिलाफ होता है और अनुकूल परिस्थितियों में (अफगानिस्तान में अमरीका और पाकिस्तान की और काश्मीर में पाकिस्तान की मदद से) यह व्यापक विद्रोह का रुख ले लेता है। यह धर्मग्रंथों की वजह से नहीं, विशुद्ध मानवीय प्रवृत्तियों की वजह से होता है। एक ऐसे मुल्क में जहाँ अधिकतर लोग व्यवहारिक रुप में निरक्षर हैं, वहाँ सरकारें कभी भी जनपक्षधर नहीं हो सकतीं, चाहे वे वामपंथी हों या दक्षिणपंथी। सरकारों का रवैया कितना जनविरोधी होता है, इसका एक उदाहरण मुझे दो काश्मीरी पंडित मित्रों ने अलग अलग वक्त पर दिया है - कहा जाता है कि नब्बे के दशक की शुरुआत में काश्मीर के तत्कालीन राज्यपाल ने पंडितों के मुख्य प्रतिनिधियों को बुलाया और उनसे आग्रह किया कि वे अपने समुदाय से कहें कि कुछ समय के लिए घाटी छोड़कर चले जाएं, ताकि आतंकवाद विरोधी प्रशासनिक कार्रवाई में उनको क्षति न पहुँचे। मैं राजनीति शास्त्र का विद्यार्थी तो नहीं कि इस बात की सच्चाई पर शोध करुँ, पर अगर ऐसा हुआ तो सोचिए कि कितनी मूर्खतापूर्ण बात है, जो सभी काश्मीरियों के हितों के खिलाफ है। इन सरकारों ने असंख्य निर्दोष जानें ली हैं। जो फौज की नौकरी करते मारे जाते हैं, वे मारे ही जाते हैं, चाहे हम जितना भी कुछ आँख में भर लो पानी गाकर इसे भूलते रहें। यह भी सोचने की बात है कि जिस तरह अमरीका का सैन्य-तंत्र अपना वजूद बनाए रखने और राष्ट्रीय बजट में अपने अनुदान बनाए रखने के लिए जगह जगह जंगें करवाने को मजबूर है, क्या उसी तरह पाकिस्तानी और भारतीय सैन्य-तंत्र और राजनैतिक स्वार्थ भी काश्मीर की समस्या को बनाए रखने के लिए मजबूर नहीं?


एक चिंता हम सब लोगों को खाती रहती है:

बकौल रमण: "हम तो अपनी जन्मभूमि कश्मीर खो ही चुके हैं, अब चाहे उसे आज़ादी दे दें या पाकिस्तान को दे दें हमारी बला से। पर क्या इस्लाम के कारण कश्मीर को अलग करना भारत के सेक्यूलरिज़्म को नकारना नहीं होगा? देश के बाकी हिस्सों में इस का क्या असर होगा? और क्या इस से जिहादी चुप हो जाएँगे? उन का ध्येय तो तब पूरा होगा, जब पूरे भारत में ही नहीं, पूरे विश्व में “रौशनी” नहीं फैलती, भले ही वह तलवारों से और बमों से ही क्यों न फैले।"

हो सकता है यही सच हो। पर मैं नहीं मानता ऐसा है। मैं यह भी मानता हूँ कि ऐसा कहते हुए जाने अंजाने (सचमुच न चाहते हुए भी) रमण यह कह रहे हैं कि हमारी तकलीफ तो जो है सो है काश्मीर में किसी भी हालत में बहु-संख्यक लोगों का राज्य नहीं होने देंगे, चाहे इसके लिए हजारों जानें जाती रहें, करोड़ों की संपत्ति नष्ट हो (सिर्फ काश्मीरियों की नहीं, तकरीबन पूरे दक्षिण एशिया की) मैं दुबारा कह रहा हूँ, न तो विद्रोह या प्रगति और न ही इनको दबाने कि प्रवृत्तियाँ धर्मग्रंथों से आती हैं। किसी एक कारण को सही मान कर गैरलोकतांत्रिक दमनकारी ताकतों के साथ खड़े होने की गल्ती सभ्य समाज ने कई बार की है और बहुत बाद में जब कुछ बच नहीं जाता, इस पर रोना धोना होता रहता है। मेरे कई अच्छे अपूर्ण कामों में से एक है Howard Zinn की पुस्तक 'A People's History of the United States' का हिन्दी अनुवाद। प्रकाशित बारह (अनूदित) अध्यायों में पहला अध्याय १९८८ में 'पहल' में आया था। इसमें ज़िन ने इतिहास लेखन पर टिप्पणी की है और सवाल उठाया है कि कोलंबस और उसके बाद अमरीकी महाद्वीप पर आ बसे दूसरे यूरोपी मूल के लोगों ने वहाँ के मूल निवासियों का जो कत्ले-आम किया था, उसे हम नज़र अंदाज़ क्यों नहीं कर सकते या दूसरे इतिहासकारों की तरह उसके बारे में जरा सा कहकर आगे क्यों नहीं बढ़ सकते। ज़िन का मानना है कि इतिहास को सीमित और वैचारिक आग्रहों के नज़रिए से देखने की वजह से ही बार बार कत्ले-आम होते रहे हैं: जैसे पश्चिमी सभ्यता को बचाने के नाम पर हिरोशिमा नागासाकी, साम्यवाद को बचाने के नाम पर स्टालिन के ज़ुल्म और पूर्वी यूरोप पर रुसी बर्बरताएं आदि।

रमण, इस सूची में आप हम जोड़ रहे हैं, इस्लाम से बचाने के नाम पर काश्मीरियों के साथ ही दक्षिण एशिया के अनगिनत दूसरे लोगों की लगातार चल रही हत्याएं (यह तकलीफ जरुर देती है, पर बात तो यही है, देशभक्ति के नाम पर हत्याएं - जैसे गुलाब किसी और नाम से गुलाब ही होता है, हत्या भी किसी और नाम से हत्या ही होती है)।

आखिर में, अलसिकंदरिया (Alexandria) के पुस्तकालय को ध्वंस कर और वहाँ अकथ मेहनत से इकट्ठी की गई पोथियाँ जलानेवाले मूर्तिपूजक थे, सोमनाथ का ध्वंस करने वाले मूर्तिपूजा के विरोधी थे। मार्कोपोलो भारत के जिन इलाकों में पहुँचा, वहाँ उसे घिनौने, लंपट और उसकी नजरों में असभ्य लोग मिले। इन सब बातों का अर्थ देश-काल के सीमित संदर्भों में ही होता है। यह आपकी मर्जी कि आप बहुत सारे लोगों को अपना दुश्मन मानते रहें। लोग हर जगह एक जैसे ही होते हैं, इसलिए नहीं कि धर्मग्रंथों में ऐसा लिखा है, महज इसलिए की वे जैविक रुप से एक जैसे हैं। अब तो HGR (Human Genomics Research) ने भी यह साबित कर दिया है। धर्मग्रंथों को हमें पढ़ना चाहिए क्योंकि ये हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं। जितनी जल्दी हम समझ जाएं कि धर्मग्रंथों में तथ्यात्मक रुप से कुछ भी प्रामाणिक नहीं और जिसकी जैसी मर्जी उनकी व्याख्या करता रहता है, उतना ही भला।

बिहार और देश के दूसरे इलाकों में पृथकतावादी आंदोलन क्यों नहीं? वाजिब सवाल है। सीमावर्त्ती सभी इलाकों में पृथकतावादी आंदोलन किसी न किसी स्वरुप में रहे हैं, कहीं ज्यादा तो कहीं कम। उत्तर-पूर्व के इलाकों में बिना किसी दूसरे मुल्क के सीधे हस्तक्षेप के उग्र पृथकतावादी आंदोलन रहे हैं, एक समय वे काश्मीर से भी ज्यादा तीव्र थे। यहाँ तक कि पश्चिम बंगाल में 'आमरा बाँगाली' आंदोलन ने थोड़ी बहुत ज़मीन बनाई थी। यह भी देश की मुख्यधारा से नाराज़ तबके का ही आंदोलन था। पर मुख्यधारा वाली वाम पार्टयों की पकड़ लोकमानस पर ज्यादा गहरी थी और पृथकतावादी भावनाएँ धीरे धीरे कमज़ोर पड़ गईं। हिन्दी प्रदेश के राज्यों में भयंकर असंतोष तो है ही, यह तो हर कोई जानता है। जहानाबाद का जेल ब्रेक कोई ऐसे ही तो नहीं हुआ।

दोस्तो, मेरा लिखा अक्सर किसी न किसी को बुरा लगेगा और सवाल भी उठेंगे। अगर अंग्रेज़ी की ही स्पीड से टंकण कर पाता तो भी सवालों के जवाब देने लायक हालत में नहीं हूँ। कई सारी चीज़ों में टाँग अड़ाना एक उम्र तक तो ठीक है, पर अब नहीं हो पाता। यह कोई बचने की कोशिश नहीं, अपने आप से ही क्षमा याचना है, क्योंकि गंभीर विषयों पर कुछ कह देना और फिर कहना कि समय नहीं है, यह अच्छी बात नहीं है। पर, कुछ कविताएं लिखने को भी समय तो चाहिए न? सबको नहीं कुछ को तो पसंद होती ही हैं, क्यों प्रत्यक्षा जी :-)
इसलिए अब आप लोग बहस करते रहिए, मैं और जवाब नहीं दे पाऊँगा।

देशभक्त

दिन दहाड़े जिसकी हत्या हुई
जिसने हत्या की।

जिसका नाम इतिहास की पुस्तक में है
जिसका हटाया गया
जिसने बंदूक के सामने सीना ताना
जिसने बंदूक तानी।

कोई भी हो सकता है
माँ का बेटा, धरती का दावेदार
उगते या अस्त होते सूरज को देखकर
पुलकित होता, रोमांच भरे सपनों में
एक अमूर्त्त विचार के साथ प्रेमालाप करता ।

एक क्षण होता है ऐसा
जब उन्माद शिथिल पड़ता है
प्रेम तब प्रेम बन उगता है
देशभक्त का सीना तड़पता है
जीभ पर होता है आम इमली जैसी
स्मृतियों का स्वाद
नभ थल एकाकार उस शून्य में
जीता है वह प्राणी देशभक्त ।

वही जिसने हत्या की होती है
जिसकी हत्या हुई होती है ।

मार्च २००४ (पश्यंती २००४)

Tuesday, November 29, 2005

अबोहर का नाम और पंजाब की खस्ताहाल सड़कें

अबोहर का नाम कैसे पड़ा? युवा साथी योगेश डी ए वी कालेज में इतिहास पढ़ा रहा है। अबोहर में ही पला है। उसने बतलाया कि अबोहर में पिछले पाँच हजार साल से लगातार लोग बसे हुए हैं। बृहत्तर हड़प्पा सभ्यता का शहर है। आज भी ऐसी जगहें वहाँ हैं जहाँ खुदाई तो नहीं हुई है, पर इधर उधर प्राचीन काल के स्मारक पड़े हुए मिल जाते हैं। इब्न बतूता तक ने अपने संस्मरणों में अबोहर का उल्लेख किया है। योगेश कर्मठ और सचेत है। चंडीगढ़ में क्रिटीक संस्था में सक्रिय था। अबोहर में छात्रों को नई दिशाएं दिखलाने का बीड़ा उठाया है। जब हम वहाँ गए तो उस रात अभी हाल में पारित सूचना अधिनियम के बारे में राजस्थान से उपलब्ध कुछ दृश्य सामग्री छात्रों को दिखला रहा था। उसने बतलाया कि छात्रों को स्थानीय माइक्रो-हिस्ट्री के अध्ययन के लिए भी वह प्रेरित करता रहता है।

एकलव्य में काम करने के दौरान जो रोचक अनुभव हुए थे, उनमें स्थानीय इतिहास का अध्ययन भी है। मूल प्रकल्पना संस्था के कार्यकर्त्ताओं की होती थी, पर उत्साही शिक्षकों के बल पर ही बात आगे बढ़ती थी। शायद जे एन यू से आए सुब्रह्मण्यम और रश्मि पालीवाल ने यह अभ्यास सोचा था, पर एक गाँव में काम कर रहे किसी शिक्षक के उत्साह से ही मैंने इसे गजब का होते देखा था। माध्यमिक स्तर पर छठी सातवीं के बच्चों को कहा गया था कि वे बड़ों से पूछकर अपने परिवार का वंश-वृक्ष बनाएं और गाँव के बसने और उसके विकास का इतिहास तैयार करें। फिर हर बच्चे से अपना लिखा पढ़ने को कहा गया। बच्चे कल्पनाशील होते हैं और इस तरह का काम करते हुए न जाने कितनी कहानियाँ बनी होंगी। अभी मैंने कैलिफोर्निया के सांता क्रूज़ से प्रकाशित बच्चों की पत्रिका Stone Soup (May/Jun '05) में ग्यारह साल की रोज़ली स्टोनर की कहानी 'Pompeii's Last Day' पढ़ी। कहानी ९७ ईस्वी के समय पर है। विदेशों में बच्चों के इस तरह के काम आम बात है, पर १९८८ में मध्य प्रदेश के पिछड़े गाँव में इतने सारे किशोर इतिहासकारों को देखना सचमुच गजब की बात थी। हमारे बच्चों को मौके मिलें तो वे भी कितना कुछ लिख डालते हैं। मेरी बिटिया अच्छा लिखती है, पर वह अंग्रेज़ी में लिखती है। एकलव्य में काम कर रहे उन दिनों के अधिकतर साथी अभी भी वहीं हैं, हालाँकि अब वह कार्यक्रम अपने मूल स्वरुप में नहीं है। सरकार ने होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम और साथ चल रहे सामाजिक विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम को असंख्य लोगों के विरोध के बावजूद बंद कर दिया। बच्चों की विज्ञान पत्रिका (जिसमें विज्ञान के अलावा बहुत कुछ होता है) 'चकमक' अभी भी निकल रही है। हिन्दी में जो भयंकर शून्य बाल-साहित्य का है, उसको कुछ हद तक पूरा कर रही है।

जिस दिन लुधियाना से अबोहर चले तो लोगों ने पहले ही सावधान कर दिया कि लुधियाना बरनाला सड़क बहुत खराब है, इसलिए मोगा मुक्तसर होकर मलोट जाएं। मोगा तक तो ठीक था, पर आगे मुक्तसर और फिर मलोट तक सड़क इतनी खराब थी कि मेरी गर्दन का कचूमर निकला ही, साथ में यह चिंता खाती रही कि मेरी छोटी गाड़ी का कितना कचूमर निकल रहा है। जाना भी पश्चिम की ओर था और लगातार तीखी धूप चेहरे पर पड़ रही थी। शुकर है कि जाड़ा शुरु हो चुका है नहीं तो बीमार पड़ ही जाते। लौटकर जुखाम तो हो ही गया है।

वैसे अजीब बात यह है कि शहरों के अंदर की सड़कें सब से ज्यादा खराब हैं। हाइवे में जहाँ मरम्मत हो रही है वहाँ तो समस्या है ही, दूसरी जगहों में कोटकपूरा के पास हाइवे की हालत ज्यादा खराब थी। अगर इतने ज्यादा एन आर आई वाले राज्य का यह हाल है तो दूसरी जगहों का क्या होगा। ऐसा भी नहीं कि अभी ही ऐसा हाल है, करीब दस महीने पहले विज्ञान चेतना मशाल लेकर जगराँव से रायकोट गया था, अरे बाप रे बाप इतनी खराब सड़कें! इसी तरह एक बार विज्ञान चेतना वर्ष की कार्यशाला के लिए कोटकपूरा गए तो भी यही नज़ारा। इससे तो मध्य प्रदेश के वही गाँव अच्छे थे, जहाँ जीप नहीं जा पाती थी और साइकिलों पर जाना पड़ता था। कई साल हुए उस ओर गया नहीं हूँ, पता नहीं वहाँ का क्या हाल है। कमाल यह कि ऐसी ही जगहों में जहाँ आवा-जाही में इतनी मुश्किलें हैं, सांस्कृतिक और सामाजिक गतिविधियों के लिए समर्पित लोग मिलते हैं!

तो अबोहर नाम कैसे पड़ा? योगेश के अनुसार पुरानी रियासतों के कागजात ढूँढना बहुत मुश्किल काम है, फिर भी आम मान्यता है कि यहाँ कोई राजा अभय सिंह हुआ था, जिसके नाम पर अबोहर पड़ा। ऐसा भी माना जाता है कि यहाँ बहुतायत में उगनेवाली चाँदी जैसी कपास की आभा से अबोहर बना।

Sunday, November 27, 2005

सभ्य लोगों की हाई बीम

मीरा नंदा ने हमें बतलाया था कि सत्तर के दशक के आखिरी सालों में विज्ञान और वैज्ञानिक सोच की प्रासंगिकता पर बहस छिड़ी थी। मैं जब यहाँ नौकरी पर लगा ही था राजस्थान के झुँझनू में रुपकँवर सती हुई। आज़ादी के चालीस साल बाद सती की घटना ने सभी भले लोगों को चौंका दिया। न केवल सती, उसकी पूजा, पूरा एक व्यापार छिड़ गया और लाखों रुपयों का कारोबार शुरु हो गया। मीरा ने शोध किया है और अपनी पुस्तक में इस पर और ऐसी ही दूसरी घटनाओं पर चर्चा की है। बहरहाल प्रबुद्ध माने जाने वाले एक समकालीन चिंतक ने उन दिनों एक आलेख में कुछ विवादास्पद बातें लिखी थीं, जिसका सारांश यह था कि हमारे जैसे लोग जो आधुनिकता में रचे बसे हैं, हमें कोई हक नहीं कि हमलोग रुपकँवर कांड पर बहस करें। इस घटना के बाद से मीरा जैसे लोगों ने आक्रामक रुख अख्तियार किया और प्रतिक्रियाशील तत्वों के लगातार बढ़ते जा रहे प्रभाव में इन नए वाम चिंतकों को भागीदार माना। यह बौद्धिक लड़ाई आज तक चल रही है और इसलिए बहुत कुछ जाने समझे बिना अखाड़े में उतरने को मेरे जैसा व्यक्ति तैयार नहीं। इस प्रसंग में शिव विश्वनाथन की पुस्तक 'A Carnival for Science: Essays on Science, Technology and Development' (OUP) की समीक्षा करते हुए ध्रुव रायना ने Current Science (Indian Academy of Science, Bangalore), vol. 74, Apr 1998, p. 709, कुछ तीखी टिप्पणियाँ की हैं।

इस बौद्धिक लड़ाई से बचे हुए हमलोग जनविज्ञान आंदोलन में थोड़ी बहुत भागीदारी करते रहे। मैं और मेरी पत्नी चंडीगढ़ और आसपास के इलाकों में स्कूलों, सामुदायिक केंद्रों वगैरह में साइकिल पर डिपार्टमेंट का प्रोजेक्टर लेकर स्लाइड्स दिखाते। अक्सर साथ में युवा छात्र भी होते। बाद में मैं विश्वविद्यालय से छुट्टी लेकर दो साल मध्य प्रदेश में कार्यरत संस्था एकलव्य में काम करने हरदा गया। उस बारे में फिर कभी।

इतना ज़रुर कहा जा सकता है कि नब्बे के दशक के आखिरी साल और इक्कीसवीं सदी के शुरुआती साल भारत में वैज्ञानिक सोच के लिए घोर संकट का समय था। सच यह है कि हमें लगने लगा था कि हम ऐसे भँवर में फँस गए हैं जिनसे निकलना असंभव ही है। पर हर दौर के अपने विरोधाभास होते हैं और जैसी पुरानी कहावत है, समय बड़ा बलवान।
अंधकार के उस दौर में बहुत सारे गलत लोग प्रभावी पदों पर ज़रुर पहँच गए हैं और लंबे समय तक ये लोग भले लोगों को दुःखी भी करते रहेंगे, पर भँवर से हम निकल आए हैं, ऐसा लगता है।

यह वह दौर था जब एक प्रांत में सरकारी स्कूलों में आधुनिक बीजगणित हटा कर वेदिक गणित के नाम पर किसी मठ के महामहोपाध्याय के सूत्र पढाने की कोशिश की गई। विश्वविद्यालयों में हस्त-रेखा शास्त्र, पौरोहित्य जैसे विषयों पर कोर्स शुरु करवाकर डिग्रियाँ देने की कोशिश की गई। और जो कत्ले आम हुए, वह अलग। भारतीय लोकतंत्र की ताकत माननी होगी कि देश इस दौर में से निकला। हमलोग देख रहे थे कि कैसे जर्मनी के तीस के दशक का इतिहास यहाँ दुहराया जा रहा है, पर अंततः वह दौर खत्म हुआ।

काश कि इतना वक्त होता और मैं हिन्दी टंकन में इतना कुशल होता! बहुत कुछ लिखने का मन होता है........

लुधियाना के सरकारी कालेज के भौतिक शास्त्र विभाग ने 'भौतिक शास्त्र वर्ष' मनाने के सिलसिले में मुझे बुलाया था। वहाँ विज्ञान में माडेलिंग में reductionism से holism पर व्याख्यान था और आणविक विज्ञान के कुछ उदाहरण लेकर और दस आयामी ब्रह्मांड के सैद्धांतिक पहलुओं के अलावा कलाकृतियों के उदाहरण लेकर बात समझाने की कोशिश की। मैंने reductionism के एक पुराने उदाहरण (भौतिक शास्त्री द्वारा गाय पर अध्ययन) पर एक कार्टून बनाया है (आइडिया मौलिक नहीं, पर कार्टून मौलिक है), जिसमें गाय की जगह क्रमशः एक और एकाधिक गोलक रख गाय की गतिकी समझने की कोशिश है। दूसरी ओर holism के लिए मिचिओ काकू की प्रसिद्ध पुस्तक 'हाइपरस्पेस' से चींटियों का उदाहरण लेकर समझाया कि किस तरह reductionist पद्धति में ही सीमित रह गए तो काट-छाँट करता ही रह जाऊँगा और कभी न जान पाऊँगा कि एक रानी चींटी भी होती है, मजदूर चींटियाँ भी होती हैं आदि। इन सब कामों में बहुत वक्त जाया होता है, पर किसी को तो यह करना ही होगा। जब बेहतर लोग (यानी कि इन विषयों पर ज्यादा पढ़े या काम किए लोग) साधारण कालेजों में ऐसी चर्चाएं करने लगेंगे तो मैं रुक जाऊँगा। अभी तो ऐसी हालत है कि सवाल आते हैं कि सर, आत्मा पर फलाँ व्यक्ति ने यह प्रयोग किया.... बड़े धैर्य के साथ समझाना पड़ता है कि भाई, यह विज्ञान के दायरे का सवाल नहीं है। लुधियाना के छात्रों को सूज़न ब्लैकमोर की 'कांससनेस: ए वेरी शार्ट इंट्रोडक्शन' पढ़ने को कह आया ताकि विज्ञान के दायरे में ऐसे सवालों को कैसे देखा जाता है उसे जानें।

अबोहर के डी ए वी कालेज में केमिस्ट्री में एम एस सी की पढाई शुरु हुई है। मैं और एक साथी अध्यापक इसी बाबत वहाँ एक्सटेंशन लेक्चर देने गए थे। कुछ छोटे शहर का अपनापन और कुछ डी ए वी की अपनी परंपराएं... बड़े स्नेह के साथ हमें रीसीव किया गया। मेरा विषय सैद्धांतिक है और आम तौर पर केमिस्ट्री के विद्यार्थियों को इससे घबराहट होती है (अधिकतर शिक्षक साथी भी परेशान ही रहते हैं - पर उनके कारण कुछ और हैं)। बहरहाल मुझे मजा आया। इसके तुरंत बाद हिन्दी विभाग में समकालीन कविता, रचना प्रक्रिया आदि पर बात करनी थी। वहाँ बात खत्म ही न होती अगर केमिस्ट्री वाले वापस बुलाने न आते। बहुत सारी बातें हुईं। वहाँ के अध्यापकों ने, खासकर रवि दत्त ने बड़ी शिद्दत के साथ पूरा आयोजन किया था। केदार नाथ सिंह, विनोद कुमार शुक्ल, Anne Sexton और Langston Hughes की कविताएं पढ़ीं। अपनी भी पढ़ीं। नागार्जुन से लेकर Harlem Rennaisance तक बातचीत हुई।

निकलने में देर हो गई। अँधेरे में गाड़ी चलाने से मैं डरता हूँ। सौ (कि.मी.) की रफ्तार से चलाते हुए पटियाले के पास आकर रुके। फिर चाय पी और भारत के सभ्य लोगों की हाई बीम झेलते हुए ज़िंदा लौट ही आए।

Dear Mysterouge,
... Phenomenology, band बजा लो जी is part of a song (aka noise) that I and Pati (my good old mathematician friend now in Bangalore and also known as Johny to ol'timers) used to sing late evenings coming out from a bar cum restaurant called Annex in Princeton in the early eighties. Both of us are against 'A philosophy or method of inquiry based (merely/only) on events as they are perceived' and we prefer people to go deep into the microscopic (or dialectic in the social sphere) origins of events. So we had this song.
The moon in that poem was not used as a symbol of aspirations of Indian people. The first reference is a satirical observation on India planning to spend money on a moon exploration (this is debatable, some people may ask why not?) followed by a nonsensical reference to a popular film song based on a myth that the bird चकोर is fond of the moon (the real meaning being the male lover seeking the female consort), the third reference is to people who are too delicate and cannot tolerate workers going on strike (a High Court decreed a couple of years back - around the time when the moon project was announced - that going on strike is illegal (presumably on the ground that it creates a lot of inconvenience to common people)).......... bapu

Saturday, November 26, 2005

अहा ग्राम्य जीवन भी ...

अबोहर में गया तो केमिस्ट्री का भाषण देने, पर हिन्दी वालों को पता चला तो उन्होंने भी गोष्ठी आयोजित कर ली। अभी अभी लंबी ड्राइव के बाद लौटा हूँ। सुखद आश्चर्य यह कि मेरी पंद्रह साल की बिटिया ने भी मेरा लिखा पढ़ा। चलो इसी खुशी में एक और कविता :

अहा ग्राम्य जीवन भी ...

शाम होते ही उनके साथ उनकी शहरी गंध उस कमरे में बंद हो जाती है ।
कभी-कभी अँधेरी रातों में रजाई में दुबकी मैं सुनती उनकी साँसों का आना-जाना ।
साफ आसमान में तारे तक टूटे मकान के एकमात्र कमरे के ऊपर मँडराते हैं ।

वे जब जाते हैं मैं रोती हूँ । उसने बचपन यहीं गुज़ारा है मिट्टी और गोबर के बीच,
वह समझता है कि मैं उसे आँसुओं के उपहार देती हूँ। जाते हुए वह दे जाता है
किताबें साल भर जिन्हें सीने से लगाकर रखती हूँ मैं ।

साल भर इंतज़ार करती हूँ कि उनके आँगन में बँधी हमारी सोहनी
फिर बसंत राग गाएगी। फिर डब्बू का भौंकना सुन माँ दरवाजा खोलेगी
कहेगी कि काटेगा नहीं ।

फिर किताब मिलेगी जिसमें होगी कविता - अहा ग्राम्य जीवन भी ...
(पल-प्रतिपल २००५)

Thursday, November 24, 2005

अभी ब्रेक चलेगा

कल लुधियाना, परसों अबोहर।
इसलिए फिलहाल ब्रेक चलेगा।
शायद रविवार को वापस वक्त मिले।
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भारत में जी

बायोटेक्नोलोजी, फेनोमेनोलोजी, ऐसे शब्द है जिनमें आखिर में जी आता है ।
ऐसे शब्द मिलकर गीत गाते हैं । शब्द कहते हैं बैन्ड बजा लो जी।
इसी बीच भारत बैन्ड बजाता हुआ चाँद की ओर जाता है।

चाँद पर कविता उसने नहीं पढ़ी।
भारत को क्या पड़ी थी कि वह जाने चाँद को चाहता है चकोर।
भारत ने चाँद जैसे सलोने लोगो से कह दिया
– ओ बायोटेक्नोलोजी, बैन्ड बजा लो जी।
ओ चाँद बजा लो जी, ओ फेनोमेनोलोजी ।

चाँद जैसे लोगो ने कहा – हड़ताल पर जाना देशद्रोह है।
चाँद उगा टूटी मस्जिद पर। ईद की रात चाँद उगा ।
हर मजलूम का चाँद उगा ।
भारत में। जी।

(फरवरी-२००३; पश्यंती- २००४)

Tuesday, November 22, 2005

क ख का ब्रेक

क कथा

क कवित्त
क कुत्ता
क कंकड़
क कुकुरमुत्ता ।

कल भी क था
क कल होगा ।

क क्या था
क क्या होगा।

कोमल ? कर्कश ?

अक्तूबर २००३ (पश्यंती २००४)
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ख खेलें

खराब ख
ख खुले
खेले राजा
खाएं खाजा ।

खराब ख
की खटिया खड़ी
खिटपिट हर ओर
खड़िया की चाक
खेमे रही बाँट ।

खैर खैर
दिन खैर
शब बखैर ।

अक्तूबर २००३ (पश्यंती २००४)

Monday, November 21, 2005

प्रवेश मीरा नंदा

पिछले चिट्ठे से आगे - ३

११९६ में EPW में जब सोकल अफेयर के बारे में और ऐलन सोकल और मीरा नंदा के आलेख पढ़े तो मैं उछल पड़ा। वर्षों से कालेज और विश्वविद्यालय के शिक्षकों के ओरिएंटेशन कोर्स वगैरह में जनविज्ञान आंदोलनों और वैज्ञानिक चेतना पर बातें करते हुए आत्म-चेतन सा होते हुए विज्ञान की नारीवादी और पर्यावरणवादी आलोचनाओं का उल्लेख मैं करता था, पर सचमुच कुछ समझ में नहीं आता था। हालाँकि तीसरी दुनिया के संदर्भ में विज्ञान की निरपेक्षता पर सवाल उठाने की प्रक्रिया से मैं भी गुजर चुका था। रेगन के जमाने में प्रिंस्टन में शोधकार्य के दौरान वक्त निकाल कर बहस करते ही रहते थे। बॉस्टन से निकलनेवाली साइंस फर द पीपल नाम की पत्रिका लगातार पढ़ना और दूसरों को पढ़ाना हमारा धर्म-कर्म था। उन्हीं दिनों 'the neutrality of fundamental science: a third world perspective on the myth' नाम से एक आलेख भी लिखा था। कहीं छपा नहीं और न ही वह जमाना चिट्ठाकारी का था। बहरहाल, विज्ञान की वह आलोचना बड़ी सरलीकृत थी, जिसमें मूल मुद्दा वैज्ञानिक कार्य के लिए सवालों के चयन और निर्णायक भूमिका में सुविधासंपन्न और शासक/शोषक वर्गों का नियंत्रण माना गया था। १९८७ में जब देशभर में जनविज्ञान का आंदोलन छिड़ा, एक सरल से नारे में इसे कुछ इस तरह से बखाना गया: विज्ञान क्या है मेहनत है, मेहनत किसकी, इंसान की, विज्ञान भी हो इंसान का। इन बातों से अलग जिस आलोचना का जिक्र हम यहाँ कर रहे हैं, वह बड़ी जटिल है और इसके मुताबिक विज्ञान की बुनियादी संरचना में ही मानव विरोधी, प्रकृति विरोधी और द्वंद्वात्मक स्तर पर नारी/पर्यावरण विरोधी तत्व हैं। अगर संरचना के स्तर पर विज्ञान में खामियाँ हैं, तो लोगों तक विज्ञान फैलाने का सवाल ही कैसे उठता है। सोकल अफेयर से पहले लोकतांत्रिक होने की कोशिश में हर तरह के विचार को मैं सामने रख तो देता, पर कहीं न कहीं मन में अनसुलझी गुत्थियाँ रह जातीं। सोकल में हमें अपनी आवाज़ सुनाई पड़ने लगी। मीरा ने अपने आलेखों में विज्ञान को आत्म-संघर्ष और मुक्ति के साधन के रुप में देखा था। इससे मैं प्रभावित था।

पहली बार सोकल पढ़ते ही मैंने हमारे राजनीति शास्त्र के जाने माने प्रोफेसर भुपिंदर बराड़ को फोन किया और उनसे आग्रह किया कि वे जल्दी ही सोकल अफेयर पर कोई चर्चा आयोजित करें। बराड़ साहब ने जे एन यू से पी एच डी की थी और मेरे जैसे पागलों के रहनुमाओं में से हैं। वैसे ऐसी चर्चा आज तक नहीं हुई। मुझे सचमुच यह घटना बहुत बडी लगती रही और कुछ वर्षों बाद मैं सोचता रहा कि कहीं फेलोशिप लेकर जाके जम कर साइंस स्टडीज़ की जाए। बस सोचता ही रहा। वैसे ठीक भी था। हर ज़रुरी काम के लिए लंगोट बाँधे दौड़ते रहना ठीक नहीं। वैसे भी अपने मूल काम से अलग सिर्फ एक ही चीज़ मैं जी लगाकर कर पाता हूँ, वह है कहानी कविताएँ पढ़ना। तो इसलिए अनुनाद जी, विचार मेरे नहीं, मूल वैचारिक काम तो औरों ने ही किया है, मैं तो सिर्फ अलग-अलग धारणाओं को सामने रख रहा हूँ। हाँ, किसी एक पक्ष में मैं खड़ा हूँ, दूसरे पक्ष से सकारात्मक कुछ सीखते हुए। अभी कल ही किसी छात्र ने मुझसे पूछा कि ज़िंदगी (मूल्य) कैसे जिएं (भावुक हो रहा था, साढ़े तीन महीनों बाद यह डेरा छोड़ रहा हूँ, मैं भी रोता हूँ, कुछ ये युवा दोस्त रोते हैं)। मैंने कहा, हम संवेदनशील बनें- सिर्फ तकलीफों के प्रति नहीं, विचारों के प्रति। तो इसलिए वैचारिक गड्डमड्ड है।

जितना भी गंभीर लगता हो, चिट्ठाकारी तो सेल्फ-थीरेप्युटिक अभ्यास है। अगर वैचारिक कसरत की इच्छा होती तो मैं कहीं और लिख रहा होता।

बहरहाल, लंबे समय से मीरा नंदा को ढूँढता रहा। कहीं से उसका ई-मेल न मिला। इसी बीच दिल्ली के अपने जाने माने समाज-विज्ञान के विद्वानों के साथ बातचीत से यह भी लगा कि यह महिला कोई बहुत लोकप्रिय भी नहीं है। भारतीय सामाजिक विज्ञान में पोलेमिक्स (शास्त्रार्थ भी गाली गलौज भी) की परंपरा की जड़ें गहरी हैं। न ये कम, न वो कम। इतना पता चला था कि मीरा का प्रशिक्षण जीव विज्ञान (पी एच डी) में हुआ और उसके बाद किसी अखबार के लिए विज्ञान पत्रकारिता की। आखिर 'फ्रंटलाइन' में एक सांवादिक मित्र के जरिए पता मिल ही गया। मैंने मेल भेजी तो पता चला कि पहाड़ खुद ही मौला से मिलने आ रहा है। सुखद आश्चर्य था कि मीरा चंडीगढ़ की ही पली हुई है और जब संपर्क हुआ तो वह यहीं आ रही थी। मुझे अपनी पत्नी और बेटी को सी ऑफ करने दिल्ली जाना था, उसी रात उसे पहुँचना था। यह बड़ी रोचक कहानी है कि उस दिन वह पहुँची नहीं और मैंने कोशिश कर पता लगाया कि वह अगली रात वाली फ्लाइट से आ रही है। कुढ़ता हुआ वापस लौटा। रास्ते में ही असद जैदी (प्रख्यात कवि और मीरा के पुराने मित्र) को फोन किया और दूसरी रात असद ने उसे रीसीव कर सुबह चंडीगढ़ रवाना किया। दिन आगे पीछे होने की गड़बड़ मैंने नहीं, उसी ने की थी :-)।

जाना कि मीरा की माइक्रोबायोलोजी में बी एस सी, एम एस सी की पढ़ाई हमारे ही विश्वविद्यालय से है। १९७९ में जब मैं आई आई टी कानपुर (जिसे हम अमरीका का चौवनवाँ राज्य कहते थे) से निकल कर प्रिंस्टन चला, उसी साल मीरा बायोटेक्नोलोजी में पी एच डी करने आई आई टी दिल्ली पहुँची। दिल्ली में बौद्धिक जगत में विज्ञान, सार्वभौमिक बनाम स्थानीय सत्य और हाशिए पर खड़े लोगों और संस्कृतियों के विज्ञान की चर्चाएं गर्म थीं। मीरा ने विज्ञान के पक्ष में बात रखी और बाद में अमरीका में आकर विज्ञान के दर्शन और इतिहास पर शोध किया और दूसरी पी एच डी डिग्री ली। इन दिनों अपने इंजीनियर पति और बेटी के साथ अमरीका में ही रहती है।

हमलोगों ने छात्रों की संस्था 'क्रिटीक' के फोरम पर मीरा को सुना। हमलोग पिछले दस साल के एक ऐसे समय में से निकल रहे थे जब आज़ादी के बाद पहली बार देश अंधकार की ओर जाता दिख रहा था। ऐसे में पुनरुत्थानवादियों के खिलाफ मीरा के वैचारिक संघर्ष की बातें सुन से हम लोगों को काफी ताकत मिली, हालाँकि सामाजिक विज्ञान में लोग उसे गंभीरता से नहीं ले रहे और भारतीय वैज्ञानिकों को तो उसकी भाषा समझ में ही नहीं आती। इस प्रसंग में यह कहना ज़रुरी है कि अमेरिकन फ़िज़िकल सोसाएटी के बुलेटिन 'फ़िज़िक्स टुडे' में साइंस वार् स पर अच्छी बहस हुई है और पक्ष विपक्ष दोनों ओर के मत सामने आए हैं (देखिए "The Sokal Hoax: At Whom Are We Laughing?" by Mara Beller, Physics Today, Sep 1998, p. 68 और इसके पहले और बाद के कई संपादकीय, आलेख और ख़तो-किताबत और पुस्तक समीक्षा, "Bringing Reason and Context to the Science Wars", Physics Today, May 2001, p.57 )।

बहुत हो गया, यारों। अब अगली बार।

Sunday, November 20, 2005

पिछले चिट्ठे से आगे - २

आधुनिकता ने सार्वभौमिक सत्य ढूँढने की कोशिश की, तो इसके आलोचकों ने उन्हें नकार कर 'स्थानीय सत्य' को मान्यता दी। हर संस्कृति, हर समाज या वर्ग की अपनी तर्कशीलता होती है। वैज्ञानिक तर्कशीलता ऐसी कई संभावनाओं में से एक है। जैसे हर स्थानीय सत्य का सामाजिक आधार होता है, वैज्ञानिक सत्यों के भी सार्वभौमिक चरित्र होने की कोई वजह नहीं है। कम से कम इतना तो है ही कि वैज्ञानिक सोच से बेहतरी की ओर बढ़ने की कोई गारंटी नहीं है। हिरोशिमा में क्षण भर में वाष्पित हो गए लोगों के पीछे विकिरण से बच गई जगहों के चिन्हों की भयावहता हमें यह बताती है।

एक ओर आलोचना के उपरोक्त विन्दुओं को नकारा नहीं जा सकता तो दूसरी ओर वैज्ञानिक सत्यों की सार्वभौमिकता पर उठते सवालों को कितनी गंभीरता से लिया जाए, यह सोचने की बात है। ऐलन सोकल (www.physics.nyu.edu/faculty/sokal.html) इस बात से चिंतित था कि सामाजिक विज्ञान में विज्ञान की धुनाई करने की प्रवृत्ति हद से आगे बढ़ गई है और बेतुकी बातें ज्यादा हो रही हैं। यहाँ नोट करने की बात है कि सामाजिक विज्ञान में इस तरह के सैद्धांतिक काम में भारतीय विद्वानों की भागीदारी बहुत बड़ी है। सोकल ने १९९६ में "Transgressing the Boundaries: Toward a Transformative Hermeneutics of Quantum Gravity" शीर्षक से अमरीका के सबसे प्रसिद्ध सामाजिक विज्ञान की पत्रिका Social Text में एक बेतुका आलेख लिखा। Social Text के संपादन मंडल (जिनमें मुख्य महान चिंतक फ्रेडरिक जेम्सन थे) ने इसपर सोचा विचारा और Science Wars नामक विशेष अंक में इसे प्रकाशित किया। कहते हैं सोकल ने कुल १२ पन्नों के फुट नोट नारीवादी और पर्यावरणवादी आलोचकों की उक्तियों के दिए। जब आलेख छप गया, सोकल ने प्रेस कान्फरेंस बुलाई और खुलासा किया कि उसने ऐसा यह दर्शाने के लिए किया कि सामाजिक विज्ञान में विज्ञान की आलोचना ऐसी बेतुकी हो गई है कि इसे गंभीरता से नहीं लिया जा सकता।

सोकल अफेयर से जाने जाने वाली इस घटना ने उत्तरआधुनिक आलोचकों को थोड़े दिन परेशान किया, पर आखिर में उन्होंने इसे नज़रअंदाज़ करना शुरु कर दिया। भारत की प्रसिद्ध सामाजिक राजनैतिक और आर्थिक मुद्दों की पत्रिका Economic and Political Weekly ने १९९६ से ही इस पर बहस की शुरुआत कर दी थी। सोकल की वेबसाइट पर (www.physics.nyu.edu/faculty/sokal/) ये संदर्भ उपलब्ध हैं। सोकल ने बड़े गंभीर सवालों को उठाया है। एक ओर तो उसने यह दिखलाया है कि विज्ञान की जरा सी जानकारी रखने वाले को भी आसानी से उसके आलेख के बेतुके होने का अंदाजा हो सकता था। वैज्ञानिक सत्यों की सार्वभौमिकता पर उसने हलके अंदाज़ में कहा है कि मेरे मकान की खिड़की से छलाँग लगा कर देख लो कि गुरुत्त्वाकर्षण सार्वभौमिक सत्य है या नहीं। वैज्ञानिक सत्यों को उनके सामाजिक आधार के नाम पर नकार कर हम धरती के गर्म होने या एड्स जैसी खतरनाक बीमारियों से जूझ नहीं सकते। उसके अधिकतर संदर्भ पश्चिमी मुल्कों के साथ जुड़े हैं। भारतीय संदर्भ में मीरा नंदा की पुस्तकें (Prophets Facing Backward: Postmodern Critiques of Science and Hindu Nationalism in India और Why the Religious Right Is Wrong: About Separation of Church & State) और आलेख ज्यादा प्रासंगिक हैं। एक तीसरी किताब भी हाल में आई है।

मीरा के बारे में कुछ निजी प्रसंग अगले चिट्ठे में (मिर्ची जी, बोर तो खूब हो रहे होंगे, पर सोचिए कि क्या बात कि अमरीका में रह रही मीरा नंदा चंडीगढ़ में पली हैं और अब भी यहीं अपनी माँ से मिलने आती हैं)...

Thursday, November 17, 2005

पिछले चिट्ठे से आगे

आधुनिकता से त्रस्त होकर बीसवीं सदी के चिंतकों ने सोचना शुरु किया कि आखिर माजरा क्या है। खासकर यूरोप में आलोचना के नए पैमाने बने, जिनके आधार पर यह तय हुआ कि कुछ भी सार्वभौमिक नहीं होता। जो कुछ भी हम सोचते हैं, वह जितना भी निरपेक्ष लगे, उसके पीछे दरअसल हमारे पूर्वाग्रह काम कर रहे होते हैं, जो हमें समाज से या अपने परिवेश से मिले होते हैं। यहाँ तक बात पहुँच गई कि पूँजीवादी व्यवस्था के शोषण और जंगखोर सरकारों के खिलाफ जो आक्रोश साठ के दशक में पश्चिमी देशों में हुआ, उसका बौद्धिक नेतृत्व कई जगह इन नए चिंतकों के हाथ आया। तीसरी दुनिया के देशों में भी एक नई वाम चिंतकों की श्रेणी उभर कर सामने आई, जिन्होंने वैज्ञानिक तर्कशीलता पर गंभीर प्रश्न खड़े किए। विज्ञान की बुनियादी संरचना में ही पर्यावरण के विनाश के तत्व हैं और पुरुषप्रधान सोच हावी है, ऐसा माना जाने लगा। आधुनिकता ने व्यक्ति स्वतंत्रता की जो संभावनाएं सामने ला खड़ी की थी, उसे शक की नज़रों से देखा जाने लगा। आखिर व्यक्ति स्वतंत्रता से मानव का जीवन तो सुखमय नहीं हो पाया था। अजीब स्थिति थी कि जो लोग विज्ञान को कटघरे पर खडा कर रहे थे, वे सब अपनी बातों को सामने लाने के लिए या अपनी जीवन शैली को बेहतर बनाने में वैज्ञानिक और तकनीकी उपायों का या आधुनिक मूल्यों का इस्तेमाल करने से नहीं हिचकते थे।

आधुनिक सोच ने कला और साहित्य में मौलिकता की जिस धारणा को प्रतिष्ठित किया था, क्या वह वांछनीय है? भीमबैठका की गुफाओं में मौजूद प्रागैतिहासिक कलाकृतियाँ जिनमें कलाकार की मौलिक पहचान नहीं है, क्या ये मध्यकालीन कृतियों से कमतर हैं? हर आधुनिक कृति को उसकी सामाजिक पृष्ठभूमि में विखंडित किया जा सकता है - इस तरह कुछ भी आखिरकार मौलिक नहीं है। इस तर्क को खींचकर विज्ञान के बुनियादी सिद्धांतों पर भी लागू किया जाने लगा।

वैज्ञानिक पेशा और वैज्ञानिक संस्कृति की कई सीमाओं का खुलासा उत्तर-आधुनिक चिंतन ने किया है। बाकी के समाज से अलग एक जादुई दुनिया में खोए होने का भ्रम तो औसत वैज्ञानिकों में होता ही है। साथ ही पेशे के आधार पर सुविधाओं की नई खाइयाँ भी वैज्ञानिक संस्कृति की उपज है। गहराई से देखा जाए तो वैज्ञानिक संस्कृति के अनगिनत विरोधाभास हैं, जिन पर बहस होनी चाहिए और उत्तर-आधुनिक चिंतन के जरिए यह बौद्धिक व्यवसाय का हिस्सा बना है।

वैज्ञानिक पद्धति का एक मुख्य अंग है जटिल विषय-वस्तु को टुकड़ों में बाँटकर देखना। इसे अंग्रेज़ी में reductionism कहते हैं। जब इस पद्धति को सामाजिक मुद्दों पर लागू किया जाता है तो बहुत गंभीर समस्याएं आ खड़ी होती हैं, क्योंकि व्यक्ति का और उसके बाद समाज का एक सर्वांगीण स्वरुप होता है, जिसे टुकड़ों में बाँटकर समझा नहीं जा सकता। पिछली सदियों में विज्ञान और वैज्ञानिक पद्धति के विकास में reductionism और holism यानी विषय-वस्तु को उसके सर्वांगीण स्वरुप में समझने पर काफी बहस होती रही है, पर उत्तर-आधुनिक आलोचकों ने इसको नज़रअंदाज़ कर विज्ञान और वैज्ञानिक पद्धति को reductionist पद्धति के अलावा और कुछ मानने से इन्कार कर दिया। वैसे यह ठीक नहीं कि सभी उत्तर-आधुनिक आलोचक इस तरह से सोचते थे, पर यह सही है कि उत्तर-आधुनिक चिंतन का मुख्य विंदु यही रहा है।

चारों ओर करो धुनाई विज्ञान की जैसा एक माहौल पैदा हो गया। यानी कि उत्तर-आधुनिक आलोचना के नाम पर बगैर सोचे समझे आधुनिक सोच में से सब कुछ निकाल फेंकने की प्रवृत्ति बढ़ने लगी।

जब पानी मुँह तक आ गया और वैकल्पिक संस्कृति के संघर्ष में शामिल वैज्ञानिक घबराने लगे कि यह क्या चल रहा है, कुछ पल्ले नहीं पड़ रहा, तब विरोध भी बढ़ने लगा। साहित्य और समाज के क्षेत्र में शुरु से ही उत्तर-आधुनिकता के उद्देश्यों पर कट्टर मार्क्सवादी सवाल उठा रहे थे, अंत में वैज्ञानिक भी रणक्षेत्र में उतर आए। इनमें से खासकर न्यूयार्क यूनीवर्सिटी के एक वैज्ञानिक ऐलन सोकल, जिसने पश्चिमी साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई में अपनी छोटी सी भागीदारी की थी, ने १९९६ में यह साबित कर तहलका मचा दिया कि नारीवादी और पर्यावरणवादी उक्तियों के आधार पर विज्ञान की आलोचना पर कोई भी बेसिरपैर का आलेख समाज विज्ञान की बड़ी से बड़ी पत्रिका में प्रकाशित किया जा सकता है । इसपर अगली बार..........

Wednesday, November 16, 2005

आधुनिकता = विज्ञान और उत्तरआधुनिक आलोचना

आधुनिकता = विज्ञान और उत्तरआधुनिक आलोचना

आम तौर पर विज्ञान और आधुनिकता को एक दूसरे का पर्याय मान लिया जाता है। कई मायने में यह ठीक भी है। हमारे लिए आधुनिकता पश्चिम की देन है। जिसे हम विज्ञान कहते हैं, वह भी पश्चिम से ही आया है। हाल की सदियों में दोनों का विकास एक साथ हुआ है। पर साहित्य, कला और दर्शन में आधुनिकता का एक विशेष अर्थ है। साहित्य में आधुनिकता का अर्थ साहित्य में विज्ञान नहीं है। इसलिए आधुनिकता को उसके स्वतंत्र अर्थ में समझना जरुरी है।

मध्यकालीन यूरोप में नवजागरण के साथ साहित्य, कला और दर्शन में जो उथलपुथल हुई, उसके साथ जो नया मूल्यबोध समाज में आया, उसे आधुनिकता कहते हैं। इसके अनुसार एक व्यक्ति-केंद्रिक मूल्य बोध बना, जिसमें प्रकृति को समझने के लिए व्यक्ति ने प्रकृति से अलग अपनी सत्ता बनाई। मैं जो सोचता हूँ, वह मेरी निजी सोच तो है, पर अपने अवलोकनों से मैं निरपेक्ष धारणाएं भी बना सकता हूँ। ये निरपेक्ष धारणाएं सार्वभौमिक सत्यों को सामने लाएंगी। इन सत्यों के जरिए हम प्रकृति के रहस्यों को समझ सकते हैं। आधुनिकता से पहले ईश्वर सर्वशक्तिमान था, उसके नाम पर कोई भी धूर्त्त दूसरों का शोषण कर सकता था। आधुनिकता ने ईश्वर की सर्वशक्तिमान सत्ता को बनाए रखा, पर अब ईश्वर तक पहुँचने के लिए किसी माध्यम की आवश्यकता नहीं रही। बाद में निरीश्वरवाद या नास्तिक मत भी तर्क के आधार पर आधुनिक सोच का हिस्सा बने। यानी वाद-विवाद की संस्कृति का जन्म हुआ, जिसमें मत (थीसिस), विमत (ऐंटी-थीसिस) दोनों के लिए जगह थी और एक अंतर्निहित विरोध का तत्व आवाँ-गार्द (avant-garde) के रुप में मौजूद था।

आधुनिकता की सोच ने मानव मन में यह आशा जगाई कि प्राकृतिक आपदाओं से मुक्ति संभव है और प्रकृति पर विजय पाकर मानव सुखी जीवन व्यतीत कर सकता है। बीसवीं सदी की शुरुआत में इस सोच की ताकत से चिंतकों ने उत्पीड़ितों की मुक्ति का सपनों को सच्चाई में बदल रहे जन-आंदोलनों को व्यापक समर्थन दिया। रुस के इन्कलाब और तीसरी दुनिया के अन्य मुल्कों में आज़ादी की लहर ने दुनिया बदल डाली। पर पचास के दशक तक आधुनिकता और विज्ञान पर गंभीर सवाल उठने खड़े हो गए। स्टालिन का रुस और हिरोशिमा नागासाकी पर अमरीका के नाभिकीय बम - इतना ही काफी था। फिर नारीवादी और पर्यावरण आंदोलनों ने नए और बहुत ज़रुरी सवाल खड़े किए। सामाजिक विज्ञान में पिछले साठ सालों में जितना सैद्धांतिक काम हुआ है, वह आधुनिकता और विज्ञान की आलोचना पर आधारित है। उत्तरआधुनिक आलोचना का प्रमुख अंग यही है।

मैं न केवल पेशेवर वैज्ञानिक हूँ, विज्ञान में मेरी गहरी आस्था है। इसलिए इस विषय पर पढ़ता रहा हूँ। अगले चिट्ठे में थोड़ा उत्तरआधुनिक आलोचना पर और फिर विज्ञान की ओर से कुछ लिखूँगा। हाल के दशकों में हिंदुस्तान में जो बड़ी उथलपुथल हुई है, उसको समझने के लिए इन विषयों पर सोचना जरुरी है।

Saturday, November 12, 2005

ऐब हो तो कितना

सुबह तेज कदमों से इंजीनियरिंग कालेज और स्टेडियम के बीच से डिपार्टमेंट की ओर चला आ रहा था। दो लड़के इंजीनियरिंग कालेज की ओर से मेरे सामने निकले। उनके वार्त्तालाप का अंशः एक- यार, जालंधर देखा है, कितना बदल गया है। बहुत बदला है हाल में। दूसरा- सब एन आर आई की वजह से है। तुझे पता है जालंधर में कितने एन आर आई हैं। अकेले जालंधर में पंद्रह हजार एन आर आई हैं भैनचोद, तू देख ले भैनचोद।

कहते हैं पौने तीन हजार साल पहले सिकंदर ने सेल्युकस से कहा था, सच सेल्युकस! कैसा विचित्र है यह देश! शायद सिकंदर और सेल्युकस के सामने ऐसे ही दो युवक ऐसा ही कोई वार्त्तालाप करते हुए चल रहे होंगे।

पंजाबी इतनी मीठी जुबान है, पर हर दूसरे वाक्य में भैनचोद आने पर एक अच्छी भली मीठी भाषा भी गंदी लगने लगती है। ऐसा नहीं कि हमने कभी गालियाँ नहीं दीं, न ही यह कि गालियाँ सिर्फ पंजाबी में ही दी जाती हैं। पर पढ़े-लिखे लोग बिना आगे-पीछे देखे गालियों का ऐसा इस्तेमाल करें, यह उत्तर भारत में ही ज्यादा दिखता है। सुना है कि दक्षिण में गुलबर्ग इलाके में भी खूब गाली-गलौज चलती है। तमिल में भी जबर्दस्त गालियों की संस्कृति है। कोलकाता में फुटबाल का खेल देखते हुए बड़ी क्रीएटिव किस्म की गालियाँ भी बचपन में सुनी थीं। आखिर एक ऐसे मुल्क में जहाँ हम यह कहते थकते नहीं कि हम औरतों को देवियों का स्थान देते हैं, हमारी जुबान में जाने अंजाने माँ बहनों के लिए ऐसे हिंसक शब्द इतनी बार क्यों आते हैं? मेरे दिमाग में कोई भी महिला देवी नहीं होती। अधिकतर वयस्क महिलाओं को उनके जैविक और लैंगिक स्वरुप में ही मैं देखता हूँ। पर हर दूसरे वाक्य में भैनचोद कोशिश करके भी मैं नहीं कह सकता। तो क्या यह इसलिए है कि मुझे ऐसी गालियों का अर्थ पता है, पर उन युवकों के दिमाग मुझसे ज्यादा साफ और पाक हैं; वे इसमें कोई हिंसक यौनेच्छा न तो देखते हैं, न सोचते हैं। संभव है कि यही सच है, फिर भी कितना अच्छा हो कि ऐसे शब्द भाषा में कम से कम प्रयुक्त हों।

प्रसिद्ध लोक नाटककार गुरशरण भ्रा (भाई) जी ने एकबार आंदोलन चलाया था कि ऐसी गालियाँ इस्तेमाल करने के खिलाफ कानून बने और उस कानून में अलग-अलग श्रेणी के लोगों के लिए अलग-अलग किस्म की सजा का प्रावधान हो। अगर कोई पुलिस वाले को ऐसी गाली बोलते पाया जाए तो उसको सबसे अधिक सजा दी जाए, गैर-पुलिस सरकारी अधिकारियों को उससे कम और साधारण नागरिकों को सबसे कम। तात्पर्य यह था कि माँ बहन को जोड़ कर बनाई गई गालियाँ निशचित रुप से हिंसक भावनाएं प्रकट करने के लिए इस्तेमाल होती हैं और सरकारी पदों पर नियुक्त लोग जब हिंसक भावनाएं प्रकट करते हैं तो वे अपने पदों का गलत उपयोग भी कर रहे होते हैं, इसलिए उनको अधिक सज़ा मिलनी चाहिए।

१९९० में शमशीर नामक एक संस्था, जो खुद को नारी हितों में काम कर रही बतलाती थी, ने शिमला, चंडीगढ़ जैसे शहरों में 'मेरा भारत महान' नामक एक नाटक खेला। इसमें उनके अनुसार 'मध्य वर्ग की सेंसिबिलिटी को झकझोर देने के लिए' महिला चरित्रों ने भाईचोद जैसी गालियों का प्रयोग किया। जब मैंने उनसे कहा कि न केवल वे अपने उद्देश्य में पूरी तरह से असफल हुए हैं, बल्कि जीन्स पहनी शहरी लड़कियों से ऐसी गालियाँ कहलाके उन्होंने गाँवों और छोटे शहर से आए धनी परिवारों के लड़कों को घटिया यौन-सुख पाने का एक मौका दिया तो वे बड़े नाराज़ हुए। मुझे आज भी यही लगता है कि पुरुषों के घटियापन को महिलाओं के घटियापन से दूर नहीं किया जा सकता।

इसी प्रसंग में याद आता है हमारी यूनीवर्सिटी के एक डीन थे, जो कभी नोबेल विजेता खगोल-भौतिकी के प्रसिद्ध वैज्ञानिक चंद्रशेखर के विद्यार्थी रह चुके थे। औपचारिक सभाओं में भी ये सज्जन माँ बहन की गालियाँ देते थे। चमन नाहल ने अपने उपन्यास 'आज़ादी' में पंजाबी भाषा का गुणगान करते हुए एक चरित्र से कहलवाया है - गंगा का पानी भैनचोद इतना पवित्र है....

कभी कभी ऐसी विकृतियाँ ही जीवन को अर्थ देती हैं। अगर सचमुच हममें कोई ऐब न हो तो जीवन जीने लायक न होगा। पर यह भी हमें ही सोचना है कि ऐब हो तो कितना।

Thursday, November 10, 2005

इन-ब्रीडिंग

परसों दैनिक भास्कर से एक रीपोर्टर का फोन आया - इन-ब्रीडिंग पर आर्टिकल कर रहे हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार पी यू में ७८% अध्यापक यहीं से डिग्री लिए हुए हैं।
मैंने एक अरसे से इन-ब्रीडिंग के खिलाफ सार्वजनिक रुप से मत प्रकट कर अनेक दुश्मन बनाए है। कई बार निजी रुप से बंधुओं को समझाने की कोशिश की है कि मैं जो लोग पदों में नियुक्त हैं उनके खिलाफ नहीं हूँ। मेरा इस विषय पर एक मत है और वह शिक्षा व्यवस्था के बारे में एक मत है। पर जो लोग इन-ब्रेड हैं, इन्हें तो शायद ऐसा लगता है कि जैसे मैं पैदा ही उनका कत्ल करने के लिए हुआ हूँ। यह दुर्भाग्य पूर्ण है और हमारी सोच में लोकतांत्रिक तत्वों के अभाव को दर्शाता है। उस रीपोर्टर को मैं क्या कहता - मुझे इस तरह के फोन साक्षात्कारों से बड़ी चिढ़ है - मैंने कहा कि दुनिया भर में वे तमाम शिक्षा संस्थान जो अपने स्तर के लिए जाने जाते हैं, उनमें अध्यापकों की पृष्ठभूमि में खासी विविधता है। यह सार्वभौमिक सत्य है। भारत की एलिट संस्थाओं के बारे में कहा जा सकता है कि उनको आर्थिक अनुदान अधिक मिलते हैं, पर पैसे लेने के लिए भी जो बौद्धिक शक्ति चाहिए, वह प्रांतीय विश्वविद्यालयों में कम है या दरकिनार है। ऐसा इसलिए भी है कि इन संस्थाओं में जो मूल्य हावी हैं, वे इन-ब्रीडिंग से उपजे हैं।

पाँच साल पहले मेरे पी एच डी शोध अध्यापक (गाइड) प्रिंस्टन से आए थे। उन्हें मैं शिमला घुमाने ले गया। वहाँ शिक्षा व्यवस्था पर बातचीत के प्रसंग में मैंने पूछा कि अमरीका में यह कैसे हुआ कि अधिकतर संस्थाओं में इन-ब्रीडिंग नहीं है। उनका जवाब सोचने लायक था - हमने डेढ़ सौ साल पहले ही समझ लिया कि इन-ब्रीडिंग हमारे हित में नहीं है।

तब से मैं अक्सर कहता हूँ कि हमारे डेढ़ सौ साल अभी आने हैं और यह सही भी है। हमारा समाज अभी भी मूलतः सामंती है। उसी का प्रतिफलन हम अपनी संस्थाओं में देखते हैं। १९८५ में जब से मैं हिंदुस्तान लौटा, मैंने कई आलेखों में लिखा कि आई आई टी (या आई आई एस सी) और केंद्रीय विश्वविद्यालय हमारी शिक्षा व्यवस्था की बुर्ज़ुआ संस्थाएं हैं और प्रांतीय विश्वविद्यालय सामंती संस्थाएं। प्रांतीय विश्वविद्यालयों में अधिकतर लोगों की सोच विशुद्ध सामंती होती है। नतीज़तन आप प्रांतीय विश्वविद्यालयों में अक्सर हास्यास्पद स्थितियों का सामना करते हैं। अनंत उदाहरण हैं। एक ताज़ा उदाहरण है। सामंती सोच का एक पक्ष है बुर्ज़ुआ लोगों की नकल करने की कोशिश करना। इसलिए अगर आई आई टी में सेमेस्टर पद्धति है तो हम भी इसे अपनाएंगे। अच्छी बात है। पर चूँकि हम उनकी तरह परंपराओं से मुक्त नहीं हैं तो नतीज़ा यह कि हर मध्यावधि इम्तहान के वक्त पढाई बंद। औपचारिक रुप से नहीं (फिर तो कलई खुल जाएगी), व्यवहार में। पिछले साल किसी विषय में फेल किया हुआ छात्र इस साल उसी सेमेस्टर के पेपर में बैठेगा तो टाइम-टेबल को ऐडजस्ट करना पड़ेगा और सामंती व्यवस्था में इतनी छूट है नहीं कि अध्यापक ऐसा आसानी से कर ले; इसलिए पुराने साल फेल किए छात्रों के लिए अलग से इम्तहान होंगे। यानी कि साल में तकरीबन चार महीने इम्तहान ही इम्तहान। आई न हँसी। सबको नहीं आएगी। उन्हीं को आएगी, जिन्होंने बेहतर व्यवस्थाएं (यानी के बुर्ज़ुआ) देखी हैं। आजकल विश्वविद्यालयों पर भी दबाव है कि वे अपना खर्च कम करें तो बहुत सारा प्रशासनिक काम अध्यापकों को करना पड रहा है। इम्तहानों की व्यवस्था और प्राप्त अंकों को अंतिम सारणियों में (जिनके आधार पर मार्क शीट बनती है) लिखना, यह सब भी हम खुद करते हैं। तो हुआ क्या कि किसी के ५२ अंक थे और गलती से चढ़ गए २५, यानी कि फेल। जब छात्र इस काम के लिए जिम्मेवार अध्यापक के पास गई तो वे परेशान। सामंती सोच का एक बड़ा हिस्सा बेमतलब का डर और बेमतलब का दर्प भी होता है। तो छात्र को कह दिया गया कि हो जाएगा। काफी समय तक हो जाएगा का आश्वासन चलता रहा, आखिर एक समय छात्र ने औपचारिक रुप से आवेदन कर ही दिया। कोई छः महीनों के बाद मामला मेरे पास भी आया। मैंने कहा इसमें क्या है, गलती किसी से भी हो सकती है, सारे प्रमाण देख लिए जाएं, अगर हम आश्वस्त हैं, तो गलती सुधार ली जाए। सोचिए कि इस काम में अब तक कितने लोगों का कितना वक्त लगा होगा और काम अभी तक हुआ या नहीं। आखिरी बात पहले बतला दूँ, अभी तक नहीं हुआ, हालांकि मैंने छात्र को आश्वस्त किया है कि देश के राष्ट्रपति भी इस त्रुटि के संशोधन को नहीं रोक सकते। कम से कम पंद्रह अध्यापकों और प्रशासनिक कर्मचारियों ने और दर्जनों छात्रों ने इस पर कई महीनों से अपना वक्त लगाया है।
और दोस्तों, सच यह है कि यह कहानी देश के एक बेहतर प्रांतीय विश्वविद्यालय की है। वैसे सही मायने में यह प्रांतीय भी नहीं है। पर इसका स्वरुप और यहाँ की मानसिकता प्रांतीय है। पर इस सबका इन-ब्रीडिंग से क्या लेना-देना? है, जहाँ इन-ब्रीडिंग कम होती है, विविधता होती है, वहाँ लोगों को निजी संबंधों के जरिए नहीं, बल्कि प्रोफेशनल तरीकों से काम करने की आदत होती है। यह विषय, इसका मनोविज्ञान, जटिल है, विस्तार में लिखने के लिए मुझे हिन्दी टाइपिस्ट ढूँढना पड़ेगा। संक्षेप में, इन-ब्रीडिंग एक विकार है। इस एक विकार पर नियंत्रण हो पाए तो प्रांतीय विश्वविद्यालयों में व्याप्त भयंकर भ्रष्टाचार में काफी कमी आ जाए। मेरे जैसे कई लोगों के अपना नुकसान करवाते हुए लगातार शोर मचाने के कारण राष्ट्रीय स्तर पर इसके खिलाफ थोड़ी बहुत हलचल हुई है, पर अभी तक कोई प्रभावी कदम नहीं दिखता।

Wednesday, November 09, 2005

कुछ फ्रांस, कुछ अपना दुःख

फ्रांस में जो कुछ हो रहा है, इस पर कितना सच हमें पता चल रहा है और कितना नहीं! हमारी पीढ़ी तक के लोग कालेज के दिनों में अल्जीरियाई मनःश्चिकित्सक और सैद्धांतिक चिंतक फ्रांत्स फानों की पुस्तकें, खास कर 'रेचेड आफ द अर्थ' पढ़ा करते थे। उत्पीड़ित की हिंसा, इन्कलाबी हिंसा और आतंकवादी हिंसा या जिसे मोटिवलेस हिंसा कहते हैं, इनमें फर्क क्या है, यह समझना ज़रुरी है और पहली दो किस्म की हिंसाओं को समझने में फ्रांत्स फानों की पुस्तक मदद करती है। दुनिया में जितना कुछ गलत है, उसको देखते हुए आश्चर्य होता है कि सचमुच चारों ओर हिंसा इतनी कम कैसे है। फिर भी, जैसे रवींद्रनाथ ठाकुर ने लिखा है, 'है दुःख, है मृत्यु, विरह दहन लागे, फिर भी शांति, फिर भी आनंद, अनंत... ' ।
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इतनी उम्र हो गई, अब भी यहाँ की लालफीताशाही पर गुस्सा आता है। सरकारी एजेंसी का पैसा, उन्हीं की मीटिंग, फिर भी तीन महीनों से टी ए बिल पास नहीं हुआ। क्या हुआ कि वी सी साहब ने दरखास्त पर 'ऐज़ पर रुल्स' लिख दिया है। आखिर इसमें क्या समस्या है, हर चीज़ ही ऐज़ पर रुल्स होनी चाहिए। पर यहाँ इसका मतलब होता है कि क्लर्क बाबू जी समझ लें साहब को कोई गरज़ नहीं कि पैसा पास होता है या नहीं। जब मैं शिक्षक संगठन का अध्यक्ष था, एक बार उन्हें बतलाया था, तो बोले मैं तो हमेशा ही ऐज़ पर रुल्स लिखता हूँ। मैंने बतलाया कि मैं ऐसे मामलों से वाकिफ हूँ जब विश्वविद्यालय के पैसे लेकर कभी शोध कार्य न करने वाला और पदोन्नति में रुका हुआ व्यक्ति भी हवाई जहाज से उड़कर दूर शहरों में घूम आया है। साहब को क्या फर्क पड़ना था, साहब तो साहब हैं, अपने पराए का एक हिसाब है तो है।
बहरहाल इन बातों से दिमाग नाहक परेशान ही रहता है।
इसलिए दोस्तो, हमारे जैसे बिंदास लोग भी विश्वविद्यालयों में दुखी ही रहते हैं। कह सकते हैं कि दुःख नंबर एक सौ दो आपने आज जाना। धीरे-धीरे बाकी पाँच सौ छियासठ भी जान जाएंगे। इसलिए बड़े दुखी मन से ही मैं भी यहाँ से चलने की तैयारी में हूँ। वैसे भी अपने विभाग में कभी भी अपने आप को वांटेड महसूस नहीं किया। जब आया था, तब शोधकार्य में वैसे ही कोई महत्वाकांक्षा नहीं थी, मतलब जो भी होगा ठीक है मानकर प्रिंसटन से सीधा यहाँ आया था। दस-बारह साल तक तो पूरा गैंग बनाकर कुछ लोग परेशान करते रहे। बिंदास था, बेहतर दुनिया देखी थी, इसलिए लगातार परेशानी के बावजूद ज़िंदा रहा। जब करने को कुछ था ही नहीं तो दो साल मध्य प्रदेश में 'एकलव्य' संस्था में रहा। फिर मुख्यतः पारिवारिक कारणों से ही थोड़ी देर के लिए अमरीका वापस गया। विज्ञान, साहित्य, पत्रकारिता, थोड़ी बहुत सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियाँ, सब कुछ साथ साथ चलता रहा। छात्रों की तीन-चार पीढ़ियों के साथ अलग-अलग तरह के काम किए।
नागरिक अधिकारों के लिए, लोगों में वैज्ञानिक चेतना फैलाने के लिए, साक्षरता आंदोलन, कुछ न कुछ करते ही रहे। अब यहाँ से मुक्त होने का समय आ रहा है, तो तकलीफ होती ही है।

Tuesday, November 08, 2005

भारतीय होने पर गर्व

अभी साइमन सिंह की 'फेर्माज़ लास्ट थीओरेम' कुछ ही पन्ने पढ़े थे, इसी बीच एक और अच्छी किताब मिल गई - सूज़न ब्लैकमोर की 'कांससनेस: ए वेरी शार्ट इंट्रोडक्शन'। जितना पढा मज़ा आ गया। बहुत पहले साइंटिफिक अमेरिकन में जोसेफसन के बारे में पढा था कि कैसे अतिचालकता (सुपरकंडक्टिविटि) पर काम कर नोबल पुरस्कार पाने के बाद वे कांससनेस (चेतना) पर शोध करने लगे थे। काफी हद तक अपनी सुध-बुध खोकर काम करते थे। बहरहाल ब्लैकमोर की पुस्तक में थोड़े से पन्नों में चेतना के दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक और जैववैज्ञानिक पक्ष पर बखूबी से लिखा गया है। अनुवादक ध्यान दें, यह अनुवाद करने लायक पुस्तक है। जिन्हें वैदिक ज्ञान या पुनर्जन्म आदि ढकोसलों की खोज है, वे इसे न पढ़ें। यह एक विशुद्ध वैज्ञानिक विषय-वस्तु की पुस्तक है, आम पाठक के लिए लिखी हुई।
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काश्मीर में भारत-पाक सीमा की खबर आज सुर्खियों में थी। लोगों ने सीमा पार कर अपने रिश्तेदारों से मिलने के लिए बेताबी से कोशिश की और पाकिस्तानी पुलिस ने आँसू-गैस बरसा कर उन्हें रोका।
पता नहीं कितने समय तक काश्मीर के लोगों को यह यातना सहनी होगी। भारत में उनके हकों की लड़ाई लड़ने को देशद्रोह माना जाता है। उनके पक्ष में बोलने वाले लोग कोई नहीं। थोड़े बहुत जो हैं भी, उन्हें पापुलर मीडिया में जगह नहीं मिलती। एकबार किसी सभा में मैंने इसे भारतीय लोकतंत्र की कमज़ोरी कहा तो एक वक्ता ने प्रतिवाद करते हुए कहा कि अखबारों में हर रोज़ पृथकतावादियों के बयान छपते हैं, जबकि मेरा आशय पृथकतावादियों से नहीं, बल्कि हमारे जैसे साधारण नागरिकों से था, जो काश्मीर के प्रति भारत या पाकिस्तान की नीतियों से सहमत नहीं। हाल में एक राष्ट्रीय अखबार में मेरे लिखे एक लेख में काश्मीर प्रसंग में लिखे शब्द 'आज़ादी' को 'कथित आज़ादी' कर दिया गया, बिना मुझसे पूछे ही। स्पष्ट है कि डेस्क संपादक को लगता है कि आज़ादी शब्द से कहीं खतरा है। जबकि सच्चाई यह है कि इस तरह की मानसिकता हमारे लोकतांत्रिक रुप से पिछड़े होने को ही दर्शाती है। दूसरी ओर प्रोफेसर परवेज़ हूदभाई की रीपोर्ट में यह पढ़कर भारतीय होने पर गर्व से जी भर आया कि इकबाल अहमद फाउंडेशन द्वारा एकत्रित भूकंप राहत-कोष में सबसे अधिक राशि एक आप्रवासी भारतीय ने दिए हैं - दस हजार डालर।

Sunday, November 06, 2005

अभिव्यक्ति और समर्थ

शहर में जो साहित्यिक गतिविधियाँ लगातार होती हैं, उनमें महीने के पहले शनिवार वीरेंद्र मेंहदीरत्ता के घर होने वाली 'अभिव्यक्ति' नामक गोष्ठी प्रमुख है। कई वर्षों से यह गोष्ठी लगातार होती रही है। इस बार निर्मल वर्मा और अमृता प्रीतम पर बात होनी स्वाभाविक थी। निर्मल वर्मा के आखिरी उपन्यास “अंतिम अरण्य“ पर अतुल वीर अरोड़ा ने अच्छा आलेख पढ़ा। मेरा दुर्भाग्य कि न ही मैंने उपन्यास पढ़ा है और न ही समय पर गोष्ठी में पहुँचा, पर आखिरी दो-चार बातें जो सुन पाया, लगा कि अतुल का यह काम महत्वपूर्ण है। इतना सुना नहीं कि न्यायपूर्ण ढंग से कोई टिप्पणी कर सकूँ, इसलिए अगर इसे पढ़कर किसी को इस आलेख के बारे में जिज्ञासा हो तो उन से सीधे संपर्क करें।
इस पाठ के बाद की चर्चा अच्छी नहीं रही। विचारधारा और साहित्यिक व्यक्तित्व आदि पर झगड़ा होता रहा। कितना अच्छा होता अगर उनकी कुछ रचनाएं पढ़ी जातीं। अमृता पर तो कोई बात ही नहीं हुई।
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साहित्य में क्या उत्कृष्ट है, क्या नहीं, इस पर विवाद तो हमेशा ही रहेगा। अधिकतर लोग एक सीमा से अधिक न तो अमूर्त्त चिंतन कर सकते हैं, न ही नवाचार का प्रयास कर सकते हैं। इसलिए बात संप्रेषणीयता और लिखने के मकसद पर आ जाती है। कुछ लोग आज भी सौ साल पहले के अंदाज़ मे ही लिखते रहते हैं। आप लाख समझाइए, वे अपनी शैली जरा भी नहीं बदल सकते। कुछ और लोग कथ्य को कुछ मानते ही नहीं। वे रुप की ही तलाश में रहते हैं। अच्छा है कि मैं साहित्य का नहीं, विज्ञान का अध्यापक हूँ और इन बातों को देखता-सुनता हूँ तो एक अलग ही किस्म के रसास्वादन के साथ। बहरहाल, गोष्ठी में अक्सर ऐसी रचनाएं पढ़ी जाती हैं, जिनका साहित्यिक स्तर बहुत ही निम्न होता है। कई-कई बार इन लोगों को यह बताया गया है कि सिर्फ चरित्र या विषय-वस्तु अच्छी रचना नहीं बनाते। पर ... ... ...
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कभी इसी गोष्ठी में समर्थ से मेरा परिचय हुआ। बदकिस्मती से जिन दिनों सबसे पहले उसका नाम सुना था, कुछ लोगों ने अंग्रेज़ी में लिखी उसकी कविताओं को बहुत तूल दिया हुआ था। अभी स्कूल से निकला ही था, अंबाला में पला, अंग्रेज़ी लिखता भी तो क्या लिखता। मुझे उसके संग्रह की समीक्षा लिखने के लिए भी कहा गया। और मैंने बात अनसुनी कर दी। दो-तीन साल बाद जब गोष्ठी में मैंने उसे समझाया कि अंग्रेज़ी उसकी natural भाषा नहीं है, तो वह माना नहीं। धीरे-धीरे उसकी अंग्रेज़ी भी सुधरी, जयंत महापात्र की 'चंद्रभागा' जैसी कुछ अच्छी पत्रिकाओं में रचनाएं भी छपीं। अब कहा जा सकता है कि वह अंग्रेज़ी में अच्छी कविताएं लिखता है। अब दिल्ली में काम करता है और अंग्रेज़ी के माहौल में है, पर अब छः महीने से अंग्रेज़ी में लिखना बिल्कुल बंद कर दिया है और हिन्दी में लिखता है। शायद किसी भी अच्छे रचनाकार को यह अहसास होगा ही कि अपने परिवेश की बोली में ही बेहतरीन सृजन हो सकता है।
समर्थ ने कल बतलाया कि 'पहल' में उसकी कविताएं आ रही हैं। समर्थ कविता-कर्म को गंभीरता से लेता है। अगर आज की दौड़-भाग में अपने कवि को वह ज़िन्दा रख सके, तो हिन्दी के एक बेहतरीन कवि को आप जान रहे हैं।
'बेहतरीन सृजन' से याद आया। संस्कृत और फारसी के शब्दों (और साथ देशज) का जैसा गड्ड-मड्ड हिन्दी में संभव है और किसी भाषा में शायद ही हो। इस मायने में हिन्दी में लोकतांत्रिक संभावनाएं अनंत हैं।
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कुछ तो मुझे विज्ञान की दुनिया के बारे में भी लिखना चाहिए। चूँकि यह मेरे लिए रोटी से जुड़ी दुनिया है, इसमें मेरी तकलीफें ज्यादा हैं। लिखेंगे, कभी उस पर भी लिखेंगे।

Friday, November 04, 2005

सांस्कृतिक आंदोलन की नई शुरुआत

हिन्दी में ब्लॉग लिखना हमारे जैसों के लिए कोई आसान बात नहीं। करीब पंद्रह साल पहले हावर्ड ज़िन की अमरीका के जन-इतिहास वाली पुस्तक का अनुवाद करते हुए हिन्दी में टाइपिंग शुरू की थी। दसेक पन्ने कर के दम निकल गया था। वापस हाथ से लिखने पर आ गया था। यह तो मेरे मित्र चेतन के लगातार कहते रहने पर टाइपिंग भी और ब्लॉग भी शुरू किया। अपने दफ्तरी काम के लिए मैं लिनक्स का इस्तेमाल करता हूँ, पर ओपेनऑफिस में हिन्दी का ध्वन्यात्मक फॉन्ट मिल नहीं रहा था। इसलिए विंडोज़ में शुरू किया। आखिर चेतन ने लिनक्स के लिए भी हिन्दी का इनपुट मेथड और ध्वन्यात्मक फॉन्ट इस्तेमाल ढूंड ही निकाला। हालांकि अभी भी जीएडिट से करना पड़ रहा है, पर अगर आप मेरे पहले वाले चिट्ठे देखें तो पाएंगे कि यह निश्चित ही बेहतर फॉन्ट है। जिन्होंने भी इस पर काम किया है, सब को धन्यवाद।
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सांस्कृतिक आंदोलन की नई शुरुआत

कल शाम टैगोर थीएटर में इप्टा का कार्यक्रम था। तीन नाटक थे। कुछ ही दिन पहले युवा छात्रों के एक समूह को मैं इप्टा के बारे में बता रहा था। बड़ा अजीब लगता है कि इस मुल्क में एक ही साथ कितनी संस्कृतियाँ हैं। ऐसे युवा छात्र जिन में सामाजिक चेतना काफी है, वे इप्टा के बारे में कुछ नहीं जानते हों तो आश्चर्य होगा ही। आखिर गाँव-गाँव तक फैला हुआ एक सांस्कृतिक आंदोलन दो पीढ़ियों में ही स्मृति से विलुप्त होने लगे तो चिंता होनी चाहिए। फिर मैंने गौर किया कि जिन छात्रों से मैं बात कर रहा था वे सभी बड़े शहरों से थे। बड़े शहरों में, खासकार उत्तर भारत में, वैश्वीकरण और उपभोक्ताबाद का असर बहुत ज्यादा है। इसी का एक फल विरोध की संस्कृति का स्मृति से विलुप्त होना है।
कल तीन नाटक और कुछ लोक गीतों का कार्यक्रम था। पहला हमारे विश्वविद्यालय के इंडियन थीएटर विभाग से हाल में ही अवकाशनिवृत्त प्रोफेसर रानी बलवीर कौर का लिखा और निर्देशित मुख्यतः कैफी आजमी के गीतों पर आधारित “वक्त ने किया क्या हसीं सितम“ था। इस में ज्यादातर फिल्मी गाने ही थे। भावुक माहौल था और नाटक का अंदाज़ भी भावुकता से भरपूर था। दूसरा नाटक अजमेर औलख का लिखा और जगदीश खन्ना निर्देशित “चिनाव दे पाणी“ मुझे बहुत अच्छा लगा। गंगा देवी नाम की एक बिहारी लड़की को पंजाब का एक किसान खरीद लाता है। पर गरीबी की वजह से उसे एक मानसिक रुप से पिछड़े हुए लड़के को बेच डालता है। उस लड़के के बाप की नज़र लड़की पर है। इसी बीच गंगा देवी जो अब हरवंस कौर बन चुकी थी और सुबह-सुबह गुरुद्वारा जाने लगी थी, अचानक अपने किशोरावस्था के पुराने प्रेमी को घर पर पाती है। वे भागने का षड़यंत्र करते हैं। लड़के के बाप को पता चलता है तो अपने हाथ से लड़की छूटते देख वह उसे मार डालता है। नाटक पारंपरिक शैली में है, संवादों में लोकगीतों की भरमार थी, पर सबसे अच्छी बात इसका विषय-वस्तु है। पंजाब में यू पी बिहार से आए लोगों के साथ वैसे तो भेदभाव नहीं किया जाता, पर उन्हें अवहेलना की नज़रों से देखा जाता है। यहाँ तक कि पिछले तीस वर्षों में “भइया“ शब्द ही अपमानजनक विशेषण बन गया है। ऐसे में यह नाटक लिखा जाना काबिले तारीफ है और यह दर्शाता है कि पंजाब में भले लोगों की कमी नहीं है।
तीसरा नाटक संतोख सिंह धीर की कहानी पर आधारित संजीवन सिंह का लिखा और निर्देशित "डैन (डायन)" था। अंधविश्वासों और खासकर इनकी वजह से के औरतों के शोषण के खिलाफ यह नाटक कला पक्ष से तो कमज़ोर था, पर चूँकि बात साधारण लोगों तक पहुँचने की है, इसलिए इसे सिर्फ कला के नज़रिए से देखना गलत होगा।
गीत गाने वाले छोटे शहरों से आए युवा गायक थे और बिना किसी साज के जिस तरह दर्द भरी आवाज़ में उन्होंने गाया, वह सचमुच कमाल का था।

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Wednesday, November 02, 2005

निर्मल वर्मा अमृता प्रीतम

अल्लाह ! यह कौन आया है
कि लोग कहते हैं
मेरी तक़दीर के घर से मेरा पैगाम आया है...
ज़िस दिन निर्मल वर्मा के निधन का समाचार आया, मैंने कहीं लिखा कि प्राहा के दिन, लंदन की रातें और शिमला की ज़िंदगी भी क्या होती अगर निर्मल वर्मा कल तक न होते। कैसा दुर्योग कि दो ही दिनों बाद अमृता प्रीतम चल बसीं। लंबे समय से दोनों ही बीमार थे, इसलिए एक तरह से मानसिक रुप से हम लोग तैयार थे कि किसी भी दिन हमारे ये प्रिय जन रहेंगे नहीं। मेरा दुर्भाग्य यह है कि मैं दोनों से ही कभी नहीं मिल पाया। एक बार जब निर्मल चंडीगढ़ आए तो मैं यहाँ नहीं था। शिक्षक संघ का अध्यक्ष बनने के बाद उनको भाषण के लिए निमंत्रित किया तो गगन जी ने फोन पर बतलाया कि वे बीमार थे। अमृता पंजाबी में लिखती थीं और चंडीगढ़ के बाहर के पंजाबी रचनाकारों से मेरा सरोकार वैसे ही कम रहा। यह सोचता हूँ तो लगता है कि केमिस्ट्री पढ़ने-पढ़ाने से अलग दूसरी दुनिया में मुझे साहित्य से इतर और मामलों से बचना चाहिए।
अमृता को मैंने निर्मल से पहले पढ़ा। कलकत्ता के खालसा स्कूल की लाइब्रेरी से उनका उपन्यास आल्ल्ना (आलना) पढ़ा था। इसके पहले शायद एक ही पंजाबी उपन्यास पढा था, नानक सिंह का चिट्टा लहू। अमृता के उपन्यास का गहरा असर मुझ पर पड़ा था। निर्मल की कहानियाँ पहले पढ़ीं, उपन्यास बाद में। तब तक उम्र भी ऐसी बातों को समझने लायक हो गई थी, जिन पर इन रचनाकारों ने लिखा था। प्रिंस्टन से न्यूयार्क आकर कोलंबिया यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी से मुक्तिबोध की कविताओं के साथ ही एक बार निर्मल वर्मा का वे दिन ले गया।
मुझे लगता है कि इन दोनों रचनाकारों की जो बात मुझे सबसे ज्यादा आकर्षित करती है, वह है उनका अराजक आत्म-घोष। अमृता ने एक बार शायद ज्ञानपीठ सम्मान मिलने के बाद एक बांग्ला अख़बार आजकल को दिए इंटरविउ में यह कहा कि हम प्यार में गिरना क्यों कहते हैं, (ह्वाई डू वी फॉल इन लव), हम तो प्यार में उठते हैं। साक्षात्कार लेने वाले ने कमरे का वर्णन देते हुए लिखा था कि प्रवेश करते ही कमरे की दीवार पर टंगी एक विवस्त्र महिला की तस्वीर दिखती है, जिसके अंग कविता के शब्दों से ढँके हैं। मेरी माँ को यह इंटरविउ इतना अच्छा लगा कि उसने इसकी कटिंग डाक से मुझे प्रिंस्टन भेज दी। मैं हैरान था और बाद में मैंने समझा कि यही कवि की ताकत होती है कि वह अपनी बात से किसी भी व्यक्ति को अंदर तक झिंझोड़ जाता है।
मैं निर्मल को भी मूलतः कवि प्रकृति का मानता हूँ। प्राहा या यूरोप के उनके अन्य इलाकों पर आधारित उनकी रचनाओं में दरअसल एक अपूर्ण प्रेम की बेतहाशा तलाश ही मुझे लगातार दिखती है। बाद में गंभीर स्वर में (जैसे धुंध से उठती धुन में संकलित संस्मरणों में) उन्होंने जो लिखा उसमें उनका मूल कवि स्वरुप खो गया लगता है।
मैं जब चंडीगढ़ आया था तो वे पंजाब में आतंकवाद के शुरुआती दौर के दिन थे। अमृता की मैं आखां वारिस शाह नूँ और दीगर रचनाएं जगह-जगह पढ़ी जाती थीं। पंजाबी के सभी कवि लेखक एक जुट होकर सांप्रदायिकता के खिलाफ मुखर थे, हालांकि कुछ ही साल पहले हो चुके दिल्ली के दंगों का गहरा सदमा उन पर छाया हुआ था। अमृता की भूमिका इन दिनों बिल्कुल स्पष्ट थी। उन्होंने कट्टरपंथ को हाशिए भर की भी जगह न दी। उनकी पत्रिका नागमणी पढ़ने पर ऐसा लगता था कि जैसे किसी और ही पंजाब में हम रहते हैं।
थोड़े ही दिनों पहले उनके बारे में कई आलेख, इमरोज़ के साक्षात्कार आदि पंजाबी के अखबारों में छप रहे थे। पढ़कर उनके प्रति मन में अगाध प्यार उमड़ आता था। मेरे मित्र फिल्म-निर्माता दलजीत अमी ने एक बार बतलाया कि किसी ने अमृता से कभी पूछा था कि यौवन और बढ़ती उम्र के बारे में उनके क्या खयाल हैं, तो उनका जवाब था कि क्या आपको लगता है मेरी उम्र सोलह साल से ज्यादा है? इसी तरह निर्मल का रचनाकार भी स्वभाव से चिरकुमार था।
अंत में अपनी पसंद की अमृता की कुछ पंक्तियाँ:
ओ, मिल के मालिक
तू मांस की एक कोठरी तो देता
कि जिसकी ओट में
मैं घड़ी भर अलसाती
पैरों को माँजती
एड़ियों को कूजती
उबटन लगाती
और कुछ निश्चिंत होकर
मैं अपने मरद से मिलती
ओ खुदाया....।
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हिन्दी कविता की एक ब्लॉग साइट देखी (hindipoetry.blogspot.com)। कितना ही अच्छा होता अगर समकालीन कविता को इसमें अधिक जगह मिलती। पर शायद मुनीश (जो साइट चला रहे हैं) को मधुर कविताएं ही अच्छी लगती हैं। हम जो प्यार को भी विरोध मान कर चलते हैं, हमारी कविताएं उन्हें नहीं भाएंगीं। बहरहाल, अच्छा काम कर रहे हैं, उन्हें बधाई देता हूँ।
मेरी १९९५ तक की कविताओं का संग्रह, डायरी में तेईस अक्तूबर पिछले साल रामकृष्ण प्रकाशन, विदिशा से प्रकाशित हुआ है। इसकी एक समीक्षा २८ सितंबर के इंडिया टूडे (हिन्दी) में आई है। यह मेरा दूसरा कविता संग्रह है। समकालीन ताज़ा कविताएं पल-प्रतिपल के ताज़ा अंक में हैं।