Saturday, December 17, 2005

जैसे

जैसे

जैसे हर क्षण अँधेरा बढ़ता
तुम शाम बन
बरामदे पर बालों को फैलाओ
खड़ी क्षितिज के बैगनी संतरी सी
उतरती मेरी हथेलियों तक

जैसे मैं कविताएँ ढोता
रास्ते के अंतिम छोर पर
अचानक कहीं तुम
बादल बन उठ बैठो
सुलगती अँगड़ाई बन
मेरी आँखों के अंदर कहीं।

--१९८७ (आदमी १९८८; 'एक झील थी बर्फ की' में संकलित)

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चंडीगढ़ के एक स्कूल में पढ़ाने आए युवा अमरीकी दंपति ने रोजाना अनुभवों पर खूबसूरत साइट बनाई है। उनसे मिले पूछे बिना ही सबसे कह रहा हूँ कि ज़रुर देखिए: jimmyandjen.blogspot.com चूँकि चिट्ठाकारी सार्वजनिक गतिविधि है, इसलिए मान कर चल रहा हूँ कि अनुमति की आवश्यकता नहीं है।

3 comments:

Kaul said...

सुन्दर कविता और एक सुन्दर चिट्ठे की कड़ी देने के लिए धन्यवाद। सही है, चिट्ठाकारी न सिर्फ एक सार्वजनिक गतिविधि है, बल्कि कड़ी से कड़ी मिलाना इस का प्रमुख भाग है।

मसिजीवी said...

इस अच्‍छे ब्‍लाग के लिंक के लिए शुक्रिया हालांकि चिट्ठाकारी सार्वजनिक गतिविधि है। यह उतना सहज स्‍वीकार किया जाता कथन नहीं है जितना होना चाहिए। मसलन कमेंट माडरेशन के विषय में क्‍या कहेंगे।

Pratyaksha said...

वाह ! सुंदर कविता