जैसे
जैसे हर क्षण अँधेरा बढ़ता
तुम शाम बन
बरामदे पर बालों को फैलाओ
खड़ी क्षितिज के बैगनी संतरी सी
उतरती मेरी हथेलियों तक
जैसे मैं कविताएँ ढोता
रास्ते के अंतिम छोर पर
अचानक कहीं तुम
बादल बन उठ बैठो
सुलगती अँगड़ाई बन
मेरी आँखों के अंदर कहीं।
--१९८७ (आदमी १९८८; 'एक झील थी बर्फ की' में संकलित)
**********************************
चंडीगढ़ के एक स्कूल में पढ़ाने आए युवा अमरीकी दंपति ने रोजाना अनुभवों पर खूबसूरत साइट बनाई है। उनसे मिले पूछे बिना ही सबसे कह रहा हूँ कि ज़रुर देखिए: jimmyandjen.blogspot.com चूँकि चिट्ठाकारी सार्वजनिक गतिविधि है, इसलिए मान कर चल रहा हूँ कि अनुमति की आवश्यकता नहीं है।
जैसे हर क्षण अँधेरा बढ़ता
तुम शाम बन
बरामदे पर बालों को फैलाओ
खड़ी क्षितिज के बैगनी संतरी सी
उतरती मेरी हथेलियों तक
जैसे मैं कविताएँ ढोता
रास्ते के अंतिम छोर पर
अचानक कहीं तुम
बादल बन उठ बैठो
सुलगती अँगड़ाई बन
मेरी आँखों के अंदर कहीं।
--१९८७ (आदमी १९८८; 'एक झील थी बर्फ की' में संकलित)
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चंडीगढ़ के एक स्कूल में पढ़ाने आए युवा अमरीकी दंपति ने रोजाना अनुभवों पर खूबसूरत साइट बनाई है। उनसे मिले पूछे बिना ही सबसे कह रहा हूँ कि ज़रुर देखिए: jimmyandjen.blogspot.com चूँकि चिट्ठाकारी सार्वजनिक गतिविधि है, इसलिए मान कर चल रहा हूँ कि अनुमति की आवश्यकता नहीं है।
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