Friday, February 21, 2014

"ग़म की लौ थरथराती रही रात भर"


कौन थरथराता है
किसकी रुकती है साँस
कायनात की सारी कारवाई रोक दी जाए
सारे अंजील और देव सारे उतर आओ धरती पर
कि किसी के ग़म की लौ से पिघलने लगा है शेषनाग का सीना
कौन काँपता है सिसकता हुआ
चाहत किस रब की
साझा करता कौन
मुझसे यूँ
और मैं धरती के सबसे ऊँचे पहाड़ पर खड़ा होकर चीखता हूँ

और मैं पिघलता जाता हूँ
आ कि तेरे नम चश्म को चूम लूँ
आ कि तेरी गोद में टपका दूँ मेरा आखिरी आँसू
आ तू
कि तेरी थरथराहट में
विलीन होता हुआ मैं खुद को रच लूँ
आ तू ।
(रविवारी जनसत्ता - 2013)


Wednesday, February 19, 2014

आम आदमी

शुक्रवार पत्रिका के फरवरी के दूसरे अंक में छपी कविता - 
 
आम आदमी

चाँद, तू भी क्या आम आदमी है?
सूरज शाम मधुशाला में छिप जाता है
तू बीस रातों को पहरेदारी करता है
क्या अमावस तेरा भयकाल है?

अँधेरा तुझे डराता वैसे ही क्या
जैसे मैं डरता हूँ भूतों से
भूत बढ़े चले आ रहे हैं
कितनी अमावसें छिपेंगे हम तुम

ऐसे ही चलेगा पूरनमासी और अमावस का खेल
और डर से ही भिड़ने
तुझे साथ लेने निकला हूँ
अँधेरे के भूतों देख लो
कि आम आदमी क्या बला है।

                     (शुक्रवार - 2014)

Tuesday, February 18, 2014

चेतन-6


बेंगलूरु में आई आई एस सी, आई एस आई, और चेन्नै में आईमैथ्स (इंस्टीटिउट ऑफ मैथेमेटिकल साइँसेस) के वैज्ञानिक साथियों ने नाभिकीय विस्फोटों के खतरों से अवाम को सचेत करने के लिए एक स्लाइ़ड शो तैयार किया था। आई एस आई (इंडियन स्टैस्टिकल इंस्टीटिउट) में मेरा बहुत ही प्रिय दोस्त विश्वंभर पति (प्रख्यात स्त्री-आंदोलन कार्यकर्त्ता कुमुदिनी का भाई) अध्यापक है। उससे स्लाइ़ड्स मँगवाईं। उन्होंने चेन्नै को ग्राउंड ज़ीरो  नाभिकीय बम जहाँ गिरता है उसके बिल्कुल पास का क्षेत्र) बनाकर दिखलाया था। चेतन ने इसे बदल कर चंडीगढ़ को ग्राउंड ज़ीरो बनाया। पता नहीं हमलोगों ने कितने स्कूलों, समुदाय केंद्रों में इसे दिखलाया। नाभिकीय विस्फोटों की बात करते हुए हम दक्षिण एशिया में शांति के पक्ष में और सांप्रदायिकता के खिलाफ तर्क रखते। अधिकतर जगह मैं भाषण देता। कहीं कहीं और साथी बोलते। हमने सांप्रदायिकता के खिलाफ मोर्चा बुलंद किया हुआ था। वह बड़ा कठिन समय था। 1998 के विस्फोटों के साल भर बाद कारगिल युद्ध हुआ। हमलोग लगे रहे। गुरशरण सिंह ने स्लाइड शो के आधार पर नाटक लिखा और वह सैंकड़ों जगह खेला गया। चेतन ने हजारों सी डी बनाईं। स्लाइ़ड शो के अलावा गौहर रज़ा की एक छोटी फिल्म ब्रेख़्त की रवानी और यूसुफ सईद की बसंत पर फिल्म और दलजीत अमी की छोटी फिल्म 'ज़ुल्म और अमन' – इन सबकी सी डी बना कर सचमुच हजारों की तादाद में बाँटीं। इस एक मामले में चेतन की कोई अहं की समस्या न थी।
बाद में स्थिति बदली। हिंदुस्तान-पाकिस्तान दोनों ओर के पंजाब में तनाव पिघला और वह कैसा पिघला जो जानते नहीं उनको समझाना मुश्किल है। सरकारी स्तर पर ही नहीं, आम लोगों में जैसे एक दूसरे के प्रति प्यार का तूफान उमड़ आया। राजनैतिक नाटक भी खूब हुए। हमारे पंजाब के मुख्य-मंत्री अमरिंदर सिंह नवाज शरीफ को हाथी उपहार दे आए। उधर के पंजाब में तो जैसे प्यार ही प्यार था।
इस प्रसंग में एक रोचक कहानी यहाँ दर्ज़ की जानी चाहिए। शायद जब से चंडीगढ़ शहर बना है, पंद्रह सेक्टर में तलवार की मिठाई की दूकान है। चेतन वहाँ अकसर कुल्फी खाने जाता था। पता चला कि दूकान के वर्त्तमान मालिक का नाम हरजिंदर सिंह तलवार है। जानते ही उसने मेरी चर्चा उसके साथ की। फिर एक बार हम दोनों जब वहाँ मौजूद थे, तलवार साहब ने कहानी सुनाई। किसी भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच के दौरान उनके परिवार ने एक पाकिस्तानी परिवार की मेजबानी की। वह परिवार तलवार परिवार के साथ ऐसे जुड़ गया जैसे वे एक ही परिवार हों। उनके (पाकिस्तान) यहाँ बेटी की शादी होनी थी। तलवार परिवार को समय पर वीज़ा न मिला। उन लोगों ने (पाकिस्तान) शादी रोक दी और कहा कि जब इनको वीज़ा मिल जाएगा तभी शादी करेंगे। यह सब याद कर आँसू बह आते हैं कि जब दोनों तरफ नफ़रत का सैलाब था, तब मैंने और चेतन ने जिस तरह काम किया, गुरशरण जी ने जिस तरह मदद की, और युवा साथियों ने जैसी मदद की, किसको याद है!
1999 में मैं पंजाब विश्वविद्यालय शिक्षक संगठन का सचिव चुना गया। मैं पहले से ही कोशिश में था कि लाहौर के पंजाब विश्वविद्यालय (जिसे चंडीगढ़ वाले अपना मूल विश्वविद्यालय मानते हैं) के शिक्षक संगठन से संपर्क किया जाए। मैं सफल नहीं हो पाया। वैसे भी संगठन की कार्यकारिणी में बाकी लोगों को इस तरह की बातों में कोई रुचि न थी। तीन साल बाद मैं अध्यक्ष चुना गया। इसी बीच मैंने पाकिस्तान में शांति आंदोलन के प्रसिद्ध कार्यकर्त्ता और वैज्ञानिक परवेज हूदभाई से संपर्क किया हुआ था। वे नहीं आ पाए, पर उनके कहने पर लाहौर यूनीवर्सिटी ऑफ मैनेजमेंट साइंसेस के युवा कंप्यूटर साइंस अध्यापक सरमद अब्बासी और उसके छः छात्रों को मैं चंडीगढ़ ले आने में सफल हुआ। उनके आने पर सारे शहर में उत्तेजना फैल गई। यूनीवर्सिटी में तो जैसे हिंद-पाक दोस्ती का सैलाब उमड़ आया। इस प्रकरण को मैं अपने जीवन का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय मानता हूँ। मुझे याद नहीं कि उस वक्त चेतन इसमें शामिल था या नहीं पर इसके पीछे यानी यहाँ तक आने में उसका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा था। शिक्षक संगठन के काम में मैंने पहली बार कंप्यूटर का भरपूर उपयोग किया था। चेतन ने संगठन के लिए वेबसाइट बनाई और हमने एक वरिष्ठ अध्यापक इंदर मोहन जोशी से उसका उद्घाटन करवाया। संगठन के इतिहास में पहली बार हर कार्रवाई सार्वजनिक हुई और हर ख़तो-किताबत, चाहे वह प्रशासन के साथ था या चाहे आपसी संवाद, हर कार्यक्रम – सास्कृतिक, राजनैतिक – सब कुछ वेबसाइट पर खुला था। मेरे एक साल के अध्यक्ष की अवधि खत्म होते ही मेरी कोशिशों के बावजूद वेबसाइट की यह धारणा आगे नहीं चली। आज तक इतने सालों के बाद शिक्षक संगठन उस तरह की वेबसाइट  वापस नहीं बना पाया है। हमारी और यूनीवर्सिटी के और लोगों की औसत दृष्टि में यह फर्क था। यह चेतन का बड़ा योगदान था।
पंजाब विश्वविद्यालय में रह कर काम करते हुए मुझे जिन तकलीफों का सामना करना पड़ रहा था, इससे वह भी परेशान था। जब 1998 में हैदराबाद में ट्रिपल आई टी (आई आई आई टी, जहाँ मैं कार्यरत हूँ और जहाँ से इन दिनों छुट्टी पर हूँ) संस्था खुली तो उसके एक दो साल बाद ही उसने मुझे कहा था कि मैं वहाँ नौकरी के लिए कोशिश करूँ। उसे यह बात बहुत अच्छी लगी थी कि वहाँ के छात्रों ने सड़क चौड़ी करते हुए दरख्तों के काटे जाने का विरोध किया था और उखाड़े गए दरख्तों को कैंपस में फिर से रोपित किया था - संस्था के वेबसाइट पर उसने देखा था। उन दिनों मैंने उसका सुझाव हँस कर उड़ा दिया था। आखिर 2006 की फरवरी में मैं दूसरे कारणों से आई आई आई टी - हैदराबाद आ ही गया।
फिल्में - इस पर विषद् लिखना चाहिए। जैसा मैंने पहले लिखा है, फिल्में चेतन की लाइफ लाइन थीं। आई आई टी कानपुर में छात्रावस्था में ही उसने फिल्म क्लब चलाने में महारत हासिल कर ली थी। फिर टी आई एफ आर में उसके फिल्म विशेषज्ञता का लाभ सभी अनुरागियों ने उठाया। वह अखिल भारतीय फिल्म सोसाइटी फेडरेशन का सदस्य था और देश के विभिन्न हिस्सों में वार्षिक फिल्मोत्सवों में हिस्सा लेता था। 2005 में मेरी कोशिश से दिल्ली की ब्रेकथ्रू संस्था ने पंजाब विश्वविद्यालय में अंतर्राष्ट्रीय डॉक्यूमेंट्री फिल्में दिखलाईं। स्क्रीन को लेकर परेशानी हो रही थी। मेरे घर से लाई सफेद चादरों पर साथी छात्रों के साथ मिलकर घंटों काम कर उसने लाजवाब स्क्रीन बनाई। इमटेक में वर्षों की कोशिश के बाद उसने फिल्म सोसाइटी बनाई थी, पर राष्ट्रीय प्रयोगशाला में फिल्म क्लब में बाहर को लोगों को सदस्यता दे पाने में दिक्कतें थीं। फिर जब फिल्में दिखलानी शुरू कीं तो लोगों मे सही रुचि विकसित करने में दिक्कतें आईं। लंबे समय तक सोसाइटी बंद रही। फिर इमटेक में निर्देशक बदलने और मेरे हैदराबाद आने के बाद फिर से शो शुरू हुए तो किसी को मोबाइल पर बातें करने से रोकने में दिक्कत। इसी बात पर किसी एक ऐसी महिला से उसकी लड़ाई हो गई जो किसी सरकारी अमले से जुड़ी थी और काफी प्रभावशाली थी। फिल्मों में उसकी पसंद उम्दा और अव्वल दर्जे की थी। इसलिए कई साथियों को गुरेज हो कि मैंने उसके इस पक्ष पर इतना कम क्यों लिखा। पर जब तक मैं वहाँ था, फिल्म क्लब की सक्रियता सीमित थी - मेरे जाने के बाद वह बढ़ी। हालाँकि मैं सोसाइटी के पहले सदस्यों में से था पर मुझे शोज़ का फायदा कम मिला। बाद में मैंने उससे अपने लिए बहुत सारी फिल्में ली, पर जैसा वह था, उसने जानबूझ कर बिना किसी क्रम में सजाए मुझे ढेर सारी फिल्में हार्ड डिस्क में भर दीं, जिनको आज तक मैं क्रम में सजा नहीं पाया हूँ।
चेतन के बारे में बातें करते हुए मुझे यहाँ रुकना पड़ेगा। करीब के दोस्त जानते हैं कि बदकिस्मती से मेरी और उसकी ज़िंदगी कुछ इस तरह गड्डमड्ड हो गई थी कि जिसमें कई बातें अभी सार्वजनिक नहीं की जा सकतीं क्योंकि इससे औरों की ज़िंदगियाँ प्रभावित होती हैं। चूँकि अब वह गुजर गया है तो शायद इतना उजागर कर सकता हूँ कि 2000 के आस-पास अपने दूर के रिश्ते की किसी भली इंसान से चेतन को भावनात्मक लगाव हो गया। बात काफी गंभीर स्तर तक पहुँच गई। उन दिनों वह घंटों फ़ोन पर होता और फिर मुझे, या जब दलजीत मिलता उसे, अपनी कहानी सुनाता। इसका नतीज़ा यह हुआ कि चेतन ने बलराम गुप्ता की वकालत की मदद से ही कॉनी से तलाक ले लिया। पर वह रिश्ता आगे बढ़ा नहीं और एकाकीपन का तीखा और पीड़ादायक अहसास उसे कचोटता रहता। मेरे हैदराबाद आने के बाद युवा स्त्री मित्रों के साथ उसके संबंधों के उतार-चढ़ाव रहे। मुझमें और उसमें यह भी एक समानता है कि हमें भावनात्मक रिश्तों में अपने साथी की बेइंतहा चिंता रहती है। अपने बारे में तो मैं कहने का हकदार नहीं हूँ, दूसरे लोग ही बतलाएँगे कि सच क्या है, पर उसके बारे में यह कह सकता हूँ।
मुझे नहीं पता कि किन परिस्थितियों में कॉनी वापस आई, पर मैं यह कह सकता हूँ कि पिछली तमाम बातों को भूलकर चेतन ने उसे अपनाया। मैं चंडीगढ़ साल में एक दो बार आता ही रहा हूँ और मेरा अहसास यह है कि दोस्तों में हर कोई इस बात को लेकर उदासीन ही था। सही भी था कि यह उनका निजी मामला था।
उसके चाहने वालों या करीब के दोस्तों की पीड़ा यह थी कि उसकी मदद करना खतरे से खाली न था। हम सब लोग अपनी-अपनी काली कोठरियों को पहचानते हैं। जब कोई मदद का हाथ बढ़ाए और लगे कि कहीं कुछ दाल में काला है तो ज्यादातर लोग चुपके से मदद लेने से इंकार कर देंगे। पर चेतन नहीं। वह खुद परेशान होगा और दूसरों को परेशान करेगा। इमटेक में कुछेक भले लोगों ने उसकी मदद करने की कोशिश की थी, पर चेतन की ज़िद के आगे उन्हें हटना पड़ा। मैं अपने दो दुखद अनुभवों का ज़िक्र यहाँ करता हूँ। इमटेक में चेतन बायोइन्फॉर्मेटिक्स डिवीज़न का प्रभारी था। उसके साथ एक जाहिल किस्म का बंदा था जिसकी बुनियादी समझ कमजोर थी। जब इमटेक ने चेतन से यह कार्य-भार छीन कर उसी को प्रभारी बना दिया तो चेतन के लिए यह अपमानजनक स्थिति थी। हम सब यह समझते थे और चाहते थे कि उसे किसी बेहतर जगह काम करने का मौका मिले। 1999 में एम एम पुरी पं. वि. वि. के कुलपति थे। उन्होंने कंप्यूटर साइंस में चंद्रशेखर मुक्कू की नियुक्ति की। मुक्कू भूतपूर्व कुलपति राम प्रकाश बांबा का दामाद है। मुक्कू अच्छा वैज्ञानिक है, पर जैसा सामंती संस्थाओं में होता है पं. वि. वि. में उसकी धाक उसके अपने गुणों से कम और निजी संबंधों की वजह से ज्यादा थी। विरोध भी था - अदालती कार्रवाइयाँ भी थीं, खैर वो बातें यहाँ प्रासंगिक नहीं हैं। मुक्कू ने कैंपस में ऑप्टिकल फाइबर बिछाकर वाइड एरिया नेटवर्क की योजना बनाई। काफी खर्चीला मामला था। कुछ निजी रास्तों से मैंने कुलपति के पास खबर भिजवाई कि चेतन को यूनिवर्सिटी में लाया जाए और उन्होंने मान लिया। चेतन को कंप्यूटर सेंटर का निर्देशक पद पर नियुक्ति की चिट्ठी भेजी गई। इसी बीच नेटवर्क की योजना पर बनी कमेटी की सभाओं में उसे बुलाया गया। चेतन और मुक्कू की भिड़ंत हो गई। चेतन यह कह रहा था कि कैंपस में नेटवर्क न बनाकर कंप्यूटर सेंटर में बड़े कंप्यूटर लाए जाएँ ताकि शोधकर्त्ताओं को वहाँ आकर काम करने की पूरी छूट हो और अपने विभागाध्यक्षों की मनमानी का शिकार होने से मुक्ति मिले। अपने अनुभव से मैं जानता था कि चेतन ग़लत पोज़ीशन ले रहा है। सारी दुनिया में डिस्ट्रीब्यूटेड कंप्यूटिंग और नेटवर्किंग की दिशा में काम हो रहा था। उसका तर्क यह था कि देखो लाल्टू जैसे लोग विभागीय राजनीति का शिकार हो कर कुछ कर नहीं पा रहे हैं। इसलिए सारी सुविधाएँ कंप्यूटर सेंटर में केंद्रित हों। नवंबर की एक शाम जिमनाज़ियम और ज़ूऔलॉजी और ऐंथ्रोपोलॉजी विभाग के बीच गोल चक्कर के सामने हम तीनों थे। कम से कम तीन घंटे चेतन और मुक्कू बहसते रहे। मैं कभी इधर हाँ तो कभी उधर हाँ करता रहा। अँधेरा घना हो गया, ठंड से मैं काँप रहा था, पर चूड़ीदार में भी चेतन को ठंड न लगती थी। आखिर मैं यह कहकर भागा कि बेटी को हिंदी का होमवर्क करवाना है। जिस दिन चेतन को नियुक्ति की चिट्ठी मिली, उसी दिन उसने कमेटी की मीटिंग में इतनी लड़ाई लड़ी कि कमेटी के अध्यक्ष कुलपति के पास पहुँच गए और कह दिया कि चेतन को कमेटी में बुलाया गया तो वे रीज़ाइन कर रहे हैं। अभी चेतन नियुक्ति की शर्तों को सोच ही रहा था कि दूसरे ही दिन चिट्ठी पहुँच गई कि नियुक्ति रद की जाती है। चेतन ने इसे बैठे बिठाए थप्पड़ माना और अखबारों में बयान दिया कि यूनिवर्सिटी में कंप्यूटर नेटवर्किंग का लाखों का घोटाला हो रहा है। वह सचमुच मानता था कि घोटाला है। मैं समझता हूँ कि उसका मानना बिल्कुल ग़लत था। हमारी सारी कोशिश कि वह इमटेक से निकले और सही तरह के काम पर लग जाए, बेकार गई। कई सालों बाद जब चेतन के रिटायर्मेंट का वक्त आया तो मैंने उसे सुझाव दिया कि अवकाश-प्राप्ति के बाद वह आई आई आई टी में सिस्टम्स एक्सपर्ट की हैसियत से काम करे। उसे एक छात्र के मौखिक इम्तहान के लिए बुलाया और निर्देशक से बात करवाई। निर्देशक स्वयं आई आई टी कानपुर में पढ़े थे और चेतन के अभिन्न मित्र मुकुल के मित्र और शोध-सहयोगी हैं। पहली ही मुलाकात में चेतन ने तिक्तता के साथ इमटेक में अपनी लड़ाइयों का जिक्र शुरू कर दिया और एक बार फिर मेरी कोशिश असफल रही।

तो यह था हमारा चेतन – अपनी, हमारी, दुनिया की लड़ाइयाँ लड़ता हुआ एक शख्स जो चला गया। पहली बार उसे दिल का हल्का दौरा जब पड़ा तब तक मैं हैदराबाद आ चुका था। मजाक में उसका कहना था कि मेरी ग़ल्ती है, मेरे चंडीगढ़ छोड़ देने से उसका नियमित पाँच किलो मीटर साइकिल चला पाना बंद हो गया है। चूँकि तीन साल मैं छुट्टी पर था, मेरी लैब चल रही थी, मेरा छात्र काम कर रहा था। पर पहला मौका मिलते ही तत्कालीन चेयरमैन ने लैब में ताला लगवा कर चेतन का वहाँ आना बंद करवा दिया। सामंती नाटक। सचमुच यही चेतन का सही वर्णन है - एक सामंती समाज में एक आधुनिक दिमाग की पीड़ाओं को झेलने में असमर्थ शख्स।

Monday, February 17, 2014

चेतन-5

आखिर चेतन में ऐसी क्या बात थी कि उस पर संस्मरण लिखा जाए। यह तो हर कोई जो उसे जानता था खुद सोचेगा, पर मुझे लगता है चेतन के बहाने मैं अपने ही अतीत की पड़ताल कर रहा हूँ।
किसी भी दो लोगों की तरह चेतन और मुझमें भी कुछ मिलती-जुलती बातें थीं और कुछ ऐसी जहाँ हमारा स्वभाव एक दूसरे से बिल्कुल अलग था। हम दोनों शहरी ग़रीब मजदूर पिता के बच्चे थे। चेतन के पिता कपड़े सीने का काम करते थे, मेरा बापू सरकारी ड्राइवर था। वे दो भाई एक बहन तो हम तीन भाई एक बहन। वे मुंबई में गुजराती तो हम कोलकाता में आधे पंजाबी। पृष्ठभूमि से वे इस्माइली मुसलमान तो हम आधे सिख। विचारों में दोनों नास्तिक, वाम की तरफ झुके पर अराजक। दोनों का बचपन सामुदायिक आवासों में गुजरा। वैसे पाँच की उम्र से हम सरकारी फ्लैट में आ गए थे।


सबसे बड़ी समानता दोनों में जहालत और सामंती मूल्यों के प्रति असहिष्णुता थी। मैं फिर भी काफी हद तक समझौता कर लेता, पर चेतन भिड़ जाता। साइकिल चलाते हुए अकसर ऐसे लोगों का सामना करना पड़ता है जो आपको साइकिल से भी कम समझते हैं। मैं तो अधिकतर नज़रअंदाज़ कर देता पर चेतन उनके साथ लड़ लेता। माउंट विउ होटल में सामने साइकिल खड़ी न करने देने पर उसने मैनेजर को बुलवाया और उससे लड़ कर साइकिल सामने ही खड़ी की।
फर्क कई थे - मैं भाइयों में छोटा तो वह बड़ा। मेरी बेटी है, उसकी कोई संतान न थी। ये बातें जीवन के प्रति हमारी सोच और समझ निर्धारित करती हैं।
संगठित राजनैतिक गतिविधि में मेरा विश्वास किशोरावस्था से रहा है, उसका टूटा और शायद फिर से बना। आरक्षण पर उसकी समझ आम मध्य-वर्ग के लोगों जैसी विरोध में थी, पर वह बदली। मुझे पता नहीं कब कैसे वैचारिक बदलाव आए या कि बस कुछ करने को चाहिए था, नब्बे के दशक के आखिरी सालों से हमारे काम में कंधे से कंधा मिला कर तो नहीं, पर कंप्यूटर के तकनीकी मामलों और नेटवर्किंग आदि में वह मेरे साथ था।  

चंडीगढ़ में मैं कई तरह की गतिविधियों में शामिल था। यूनिवर्सिटी में आते ही वाम पक्ष के अध्यापकों के साथ जुड़ गया था। इनमें शीर्षस्थ कैंपस में सी पी आई एम के पुराने कार्ड होल्डर और प्रतिबद्ध कामरेड केमिकल इंजीनियरिंग के प्रो. धरमवीर थे। मेरे प्रति उनका अपार स्नेह था। कोई दो साल पहले उनकी मृत्यु हुई है। उन्हीं के कहने पर शहर के स्थानीय वाम कार्यकर्त्ताओं के विरोध के बावजूद मैं 1987 में भारत जन विज्ञान जत्था की चंडीगढ़ इकाई का संयोजक बना था। अध्यापक राजनीति में तथाकथित वाम पक्ष वैचारिक रूप से लगातार विचलन का शिकार होता रहा। अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद अकादमिक और वैचारिक मसलों पर मैं अडिग था, इसलिए मेरी छवि एक ईमानदार अध्यापक और कार्यकर्त्ता की थी - इसे कितना निभा पाया यह तो और लोग ही जानते हैं। पर सांगठनिक काम के प्रति चेतन की उदासीनता के कम होने के पीछे और उसकी सक्रियता के बढ़ने के पीछे मेरा कुछ योगदान रहा होगा, ऐसा मैं सोचता हूँ। अध्यापक संगठन के लिए विविध राजनैतिक और वैचारिक विषयों पर सेमिनार करवाने में मैं सक्रिय था। अब लगता है कि उन दिनों पता नहीं क्या-क्या कर रहे थे। चंडीगढ़ शहर के निर्माण के साथ यह ध्यान रखा गया था कि हर किस्म के समुदाय को अपनी गतिविधियों के लिए जगह मिले। इसलिए शहर में कई सामुदायिक केंद्र हैं। इनमें से एक लाजपत राय भवन है। 1921 में लाला लाजपत राय की बनाई 'सर्वेंट्स ऑफ द पीपल सोसाएटी' नामक बुज़ुर्गों की एक संस्था इसका देख-रेख करती है। नब्बे के दशक में वहाँ के पुस्तकालय में नियमित व्याख्यान हुआ करते थे।  पहले इसके संयोजक प्रो. हरकिशन सिंह मेहता थे। बाद में उनके कहने पर मैंने यह भार लिया और करीब दो साल इसे सँभाला। शायद 1995 में प्रसिद्ध नाटककार और संस्कृति-कर्मी गुरशरण सिंह की पहल पर शहर के कुछ बुद्धिजीवियों ने 'चेतना मंच' नामक संस्था बनाई। इसकेऔर बाद में इसी में से निकले सहयोगी संगठन 'चंडीगढ़ साहित चिंतन', के संस्थापक सदस्यों में से मैं था। यानी कि शहर भर में जगह जगह ज़मीनी स्तर पर बौद्धिक हस्तक्षेप करने वालों में मैं शामिल था। इन सभाओं के लिए इश्तिहार तैयार करने और बँटवाने आदि के लिए मुझे भी काफी काम करना पड़ता और दौड़भाग भी करनी पड़ती। शायद यहीं से चेतन ने मेरी मदद शुरू की और संगठित कामों में उसकी भागीदारी बढ़ती चली। गुरशरण सिंह लंबी बीमारी के बाद दो साल पहले गुजर गए, पर साहित चिंतन अभी भी सक्रिय है और इसमें सरदारा सिंह चीमा की भूमिका महत्त्वपूर्ण है।

लाजपत भवन में कई तरह के स्वास्थ्य-सुविधा और तकनीकी प्रशिक्षण केंद्रों में एक युवाओं के लिए कंप्यूटर प्रशिक्षण केंद्र भी खुला था। जहाँ तक मुझे याद है मैंने शायद भवन में हो रहे सारे काम को कंप्यूटराइज़ करने पर जोर डाला था। सोसायटी के प्रबंधक ओंकार चंद मुझ पर काफी भरोसा करते थे और मेरे कहने पर चेतन को उन्होंने इस काम का भार दिया। चेतन ने उनके लिए कुछेक मशीनों का एक नेटवर्क भी डिज़ाइन किया। वहीं चेतन की मुलाकात आलोक महेंद्रू से हुई थी, जो चेतन का हमेशा के लिए दोस्त बन गया। आलोक और उसकी फ्रांसीसी पत्नी, जो हिमाचल के गद्दी जनजातियों के लिए एन जी ओ चलाती हैंपहले मैक्लियोड गंज के ऊपर धर्मकोट नामक गाँव में बसे, फिर कोई नौ साल पहले डलहौज़ी में कहीं रहने लगे हैं। 2001 में मैं और चेतन उनसे मिलने धर्मकोट गए थे। इसके पहले चेतन सपरिवार यानी अपने भाई बहन के परिवारों और माँ के साथ वहाँ गया था। बाद में 2003  में मैं फिर कैरन और शाना के साथ गया हूँ। वहाँ त्रिउंड की चोटी तक चढ़ कर हिमालय दर्शन का अद्भुत आनंद आता है।

'95
के आस-पास ही समाज विज्ञान के छात्रों ने 'क्रिटीक' नामक संस्था बनाई, जिसका मुख्य काम नियमित व्याख्यान-माला का आयोजन था। मैं और दो-एक और अध्यापक उन छात्रों को हौसला दे रहे थे। इसमें भी शुरूआती दौर में चेतन की कोई रुचि न थी, पर बाद में क्रिटीक की हर सभा और उनकी बैठकों में जाना उसकी नियमचर्या में आ गया था और उसने कई चर्चाओं में बढ़-चढ़ कर हिस्सा भी लिया।  'क्रिटीकके मूल संयोजकों में लल्लन सिंह बघेल कोई दस सालों से दर्शन शास्त्र का अध्यापक है। आशीष अलेक्ज़ेंद्र, जिसने बाद में कुछ समय तक एक और विमर्श समूह को चलाया, वह किसी अंग्रेज़ी प्रकाशन संस्था में काम करता है। दलजीत अमी ए आई एस एफ का पुराना कार्यकर्त्ता था, जो इन दिनों पंजाबी टी वी ऐंकर है। योगेश स्नेही दिल्ली में आंबेडकर यूनिवर्सिटी में इतिहास पढ़ा रहा है। दीपा, उसकी पत्नी दिल्ली में ही किसी संस्था में काम कर रही है।  कुछ और लड़कियाँ बहुत सक्रिय थीं, जिनके नाम याद नहीं आ रहे।

चेतन और मैंने इकट्ठे सबसे ज्यादा काम शायद सांप्रदायिकता के खिलाफ गतिविधियों में किया। पिछली सदी के आखिरी तीन दशकों में विज्ञान और वैज्ञानिक चेतना पर हमला जोरों का था। इन बातों पर मैंने इस ब्लॉग पर पहले कई चिट्ठे लिखे हैं। गुरशरण सिंह वाम चिंतन के साथ पुरानी तर्ज़ पर वैज्ञानिक चेतना को जोड़ कर देखते थे। मैं स्वयं जन- विज्ञान आंदोलन से जुड़ा था। इसलिए यह स्वाभाविक था कि हम किसी न किसी तरह के जन-विज्ञान संगठन को चलाते रहें। हमने 1989-90 के आस-पास चंडीगढ़ विज्ञान मंच बनाया था, कहने को कुछ सक्रियता भी थी, 1995 की पहली अप्रैल को एक क्षेत्रीय जन-विज्ञान कर्मियों की दो दिवसीय सभा भी की थी। वहीं अमदाबाद में बसे विनय महाजन और चारुल पहली बार मिले थे और उन्होंने अपने मेज को तबले सा बजाकर सांप्रदायिकता विरोधी गीत गाकर सुनाए थे। इस मंच से इसके बाद किया कोई खास काम याद नहीं आता।  मैं इधर उधर भाषण देता - कभी दूर दराज इलाकों में युवाओं की सभाओं में, कभी अध्यापकों के ओरिएंटेशन और विभिन्न विभागों के रीफ्रेशर कोर्सेस में, पर वे सब निजी प्रयास थे। बहरहाल इसी मंच को कभी - अब साल याद नहीं, शायद 1997 में - 'स्टैग' (STAG – साइंस ऐंड टेक्नोलोजी ऐक्टीविटी ग्रुप) नाम से फिर से ज़िंदा किया था, पर कोई खास काम नहीं हो रहा था। फिर 1998 की मई में पोखरन के धमाकों ने इस मंच में जान ला दी। शहर में गुरशरण सिंह और चेतना मंच की पहल से सांप्रदायिकता विरोधी आवाज बुलंद थी। बी जे पी की ताकत बढ़ने के साथ देश भर में हर स्तर पर सांप्रदायिक ताकतें मुखर हो रही थीं। पोखरन का मुद्दा एकसाथ विज्ञान और राष्ट्रवादी संकीर्णता का मुद्दा था। बी जे पी का राष्ट्रवाद सांप्रदायिकता का ही घिनौना स्वरूप था। हमने इसपर काम शुरू किया। हमें कई लोगों का सहयोग मिला, जिनमें बुज़ुर्ग कॉमरेड प्रेम सिंह बहुत याद आते हैं। इसके बाद चेतन की सक्रियता लगातार बनी रही। इस पर अगली बार।

Sunday, February 16, 2014

चेतन-4


चंडीगढ़ के हमारे युवा दोस्त जो अब इतने युवा नहीं रहे, उन्हें जानकर आश्चर्य होगा कि हमारे परिचय के शुरूआती अध्याय में चेतन को न केवल बड़े राजनैतिक मुद्दों में रुचि न थी, उसे इनसे चिढ़ थी। इस बात की जानकारी एक और साथी, मृगांक, जो एक जुझारू वाम दल का कार्यकर्त्ता है, उसे है। इमटेक में बस एक आदमी मृगांक था, जिसकी वाम राजनीति में गहरी रुचि और भागीदारी थी। बाद में उसने नौकरी छोड़ दी और वह पार्टी का पूर्णकालीन कार्यकर्त्ता बन गया। मेरी ही एक छात्रा से उसकी शादी हुई। इन दिनों वे दिल्ली में रहते हैं।

साहित्य में भी चेतन की रुचि सतही थी। चूँकि पिता इप्टा के स्वर्ण-युग के दिनों में मुंबई इकाई के सचिव रह चुके थे, इसलिए जन-गीतों में उसकी रुचि थी। इसके अलावा फिल्म उसकी लाइफ-लाइन थी। पर मेरे पहले कविता-संग्रह, जो 1991 में आ चुका था, में उसकी कोई रुचि न थी। कहानियों में फिर भी थोड़ी रुचि थी। 1995-96 तक चेतन से मेरा संबंध मुख्यतः कंप्यूटर और निजी संदर्भों का था। मैं सैद्धांतिक रसायन में शोध करता रहा हूँ और कागज़ कलम के अलावा कंप्यूटर ही मेरा मुख्य उपकरण है। पंजाब विश्वविद्यालय के रसायन विभाग में मैं क्यों पहुँचा, यह एक अलग कहानी है। अपनी प्रतिबद्धता के कारण मैं एलीट संस्थाओं से अलग हट कर किसी साधारण संस्था में काम करना चाहता था। पंजाब विश्वविद्यालय के अध्यापकों को अजीब तो लगेगा, पर मैं यही सोच कर वहाँ आया था कि वह नितांत सामान्य यूनिवर्सिटी है। आते ही वहाँ के घाघ विभागीय दादा लोगों की नज़र में मैं बड़ा दुश्मन बन गया। केमिस्ट्री विभाग उन दिनों काफी बड़ा था - 46 अध्यापक थे। इनमें से आधे अकार्बनिक रसायन के अध्यापक थे। कोई एक दर्जन तो एक पुराने स्थानीय दादा रामचंद पॉल के शिष्य थे और पॉल के विभागाध्यक्ष और कुलपति के लंबे कार्यकाल में उनके हाथ पैर पकड़ नौकरी में लगे थे।। पूरे विभाग में जहालत की बू थी। तीन-चार अध्यापक कैंपस की राजनीति में सक्रिय थे। ऐसे में मुझे दिक्कतें आनी ही थीं। और हालाँकि मुझे पंजाबी बोलनी आती थी, कोलकाता में जन्मे-पले होने के कारण सांस्कृतिक रूप से मैं बाहर का था। एक बात और थी कि मैं नाम से 'सिंघ' था और पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़, गुप्ता, शर्मा, मलहोत्राओं की यूनिवर्सिटी है (जैसे पंजाब के दीगर विश्वविद्यालय 'सिंघों' की यूनिवर्सिटियाँ हैं)। पता नहीं कितने किस्म के भेदभाव का शिकार मैं था, पर जवानी के उन दिनों में मुझे इन बातों की फिक्र कम थी। बेटी के जन्म के बाद जब आर्थिक दबाव बढ़े, तो मैं इन बातों को समझने लगा।

नौकरी पर लगने के बाद तकरीबन दस साल मेरे पास न कोई कंप्यूटर था, न ही कोई शोध विद्यार्थी। मैंने भी कोई खास रुचि न ली। शोध के नाम पर जिस तरह का बकवास काम चारों तरफ चल रहा था, उसमें शोध के लिए प्रेरित होना आसान भी न था। पर अपनी एलीट शैक्षणिक पृष्ठभूमि की वजह से राष्ट्रीय स्तर पर मेरी एक छवि बन चुकी थी। इसलिए अपने आप ही कुछ न कुछ काम करता रहता और राष्ट्रीय कान्फरेंसों में शिरकत करता। फिर दो साल के लिए यू जी सी फेलोशिप लेकर एकलव्य चला गया। इस उम्मीद के साथ गया था कि अब ज़मीनी काम में जुट जाएँगे। पर कई कारणों से वहाँ से लौटना पड़ा। मेरे शोध-कार्य में कठिनाइयाँ बहुत थीं। अपने विद्यार्थियों का कोई समूह न था। मैं जिन विषयों पर काम कर रहा था वे सैद्धांतिक रसायन के क्षेत्र में विश्व-स्तर पर समकालीन जटिल सवाल थे। मैं हमेशा से ही शोध के अलावा एकाधिक अन्य क्षेत्रों में भी गंभीर रुचि रखता रहा हूँ। इसलिए शोध में मेरी प्रतिबद्धता कभी भी शत-प्रतिशत नहीं रही।

मेरे आने के ठीक पहले विभाग में एक बंगाली प्रोफेसर, बी एम देब, निजी कारणों से आई आई टी बॉम्बे से यहाँ आए थे। वे राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित थे। मैं उन्हीं के कमरे में एक कोने में बैठता था। उनके साथ पहले अच्छी बनी, खास तौर पर इसलिए कि हम दोनों स्थानीय लोगों से एक जैसे पीड़ित थे। बेटी के जन्म के बाद हमें भयंकर स्थितियों से गुजरना पड़ा था और उन्होंने और उनके परिवार ने हमारी जो मदद की थी, उसे मैं भूल नहीं सकता। पर वे भी खुदगर्ज़ी और भयंकर आत्म-मोह का शिकार थे। उन्हीं की लैब में 1991 में एक अपोलो वर्कस्टेशन पर काम करता था। मुझसे वरिष्ठ पीढ़ी के होने के कारण कंप्यूटर के ऑपरेटिंग सिस्टम और प्रोग्रामिंग के बारे में उनकी समझ कमजोर थी। मैं उनके शोध विद्यार्थियों को इन बातों में मदद करता था।

मैं अकादमिक काम पर ध्यान केंद्रित करने की कोशिश करता, पर कोई न कोई ऐसी बड़ी घटना हो जाती कि मैं सामाजिक गतिविधियों में शामिल हो जाता। '92 का दिसंबर और '93 की जनवरी में योगेंद्र यादव कैंपस में 'एकता मंच' के बैनर तले सक्रिय था और मैं उनकी सभाओं में शामिल होता। योगेंद्र ने '87 में जन विज्ञान आंदोलन के दौरान मेरे साथ काम किया था। हमारा घनिष्ठ परिचय था। शाना के जन्म के तुरंत बाद जब उसे खून देने की ज़रूरत पड़ी तो रक्तदान करने वालों में योगेंद्र भी था।

ऐसे में चेतन के साथ परिचय होना हमारे लिए फायदेमंद था। 92 के दिसंबर महीने में अधिकतर दिनों में चेतन चंडीगढ़ में नहीं था। पिता की अस्वस्थता की वजह से मुंबई गया हुआ था। फिर उनकी मृत्यु हो गई। चेतन से हमारा परिचय नया-नया ही था। 1992-93 में जब हम 38 सेक्टर के एक कोने में रहने लगे थे, कई रातों को कैरन एकलव्य की पाठ्य-पुस्तकों, बाल-वैज्ञानिक सीरीज़, का अंग्रेज़ी में अनुवाद करने और दूसरे काम करने इमटेक जाती और चौथी पहर में चेतन उसे छोड़ जाता। हमारे लिए कठिन दिन थे, पर उन दिनों इस तरह का काम करने का यही सबसे अच्छा उपाय था। परिवार का जो बिखराव तब शुरू हुआ, वह अभी सार्वजनिक करने की इच्छा मुझमें नहीं है। फिर कैरन और शाना दो साल के लिए वापस अमेरिका चले गए।

1993 में चेतन की मदद से यूनिवर्सिटी में ई-मेल की सुविधा आ गई। शहर में अन्यत्र भी, जैसे आला पुलिस अफ्सरों के दफ्तरों में यह सुविधी उसी ने मुहैया करवाई। 1993 में अक्तूबर-नवंबर में मैं वापस अमेरिका गया। उस दौरान इसी ई-मेल सुविधा का इस्तेमाल कर मैंने प्रो. देब के छात्रों के लिए न्यूमेरिकल एनालिसिस के दर्जनों प्रोग्राम भेजे, जो उन दिनों मुफ्त में नहीं मिलते थे। पर वापस आने के कुछ ही समय बाद पता चला कि किसी बेवकूफ ने कुलपति को समझा दिया है कि आतंकवादी ई-मेल का ग़लत इस्तेमाल कर सकते हैं। कुछ इस कारण से और कुछ इस मामले पर बनी कमेटी के प्रोफेसरों के अप्रिय बर्ताव के नतीज़तन चेतन ने सहयोग करना बंद कर दिया। फिर यूनिवर्सिटी में ई-मेल सुविधा लौटने में दो साल लग गए और जब वह वापस मिली भी तो निक-नेट (एन आई सी - नैशनल इन्फॉर्मेशन ऐंड कम्युनिकेशन नेटवर्क) से मिली और वह गुणात्मक रूप से घटिया स्तर की थी।

चेतन की समस्या यह थी कि भले ही वह इमटेक में वरिष्ठता अनुसार उप-निर्देशक के पद पर पहुँच चुका था, बाकी लोगों की नज़रों में वह एक मेधावी टेक्निकल व्यक्ति था। उसे प्रोफेसर या वैज्ञानिक जैसा सम्मान न मिलता था और इसका तीखा अहसास उसे था। शायद इसी लिए वह कई वर्षों तक एमीनो-एसिड कुल बीस ही क्यों होते हैं, इस बुनियादी वैज्ञानिक सवाल पर टी आई एफ आर में कुछ साथियों के साथ शुरू किए काम को वापस देखता रहता, हालाँकि मुझे शक है कि उसने इसके लिए पर्याप्त अध्ययन कभी किया हो। पर इस पर कुछ डेटा उसने सँभाल कर रखा हुआ था। सामान्य तौर पर विज्ञान में उसकी गहरी रुचि थी। इमटेक में शोध-पत्रों को पढ़ कर चर्चा करने के लिए जर्नल क्लब की शुरूआत भी उसी की कोशिश से हुई थी। ऐसी ही एक सभा में 'साइंस' पत्रिका में एडेलमैन के डी एन ए कंप्यूटिंग पर प्रकाशित पर्चे को उसने स्वयं समझाया था। उस सभा में मैं मौजूद था। बेहतर शोध-कार्य करने में मेरी दिक्कतों को वह करीब से देख-समझ रहा था और इस पर न केवल उसे मेरे प्रति सहानुभूति थी, मेरे आक्रोश को भी वह साझा कर रहा था।

कॉनी भी थोड़े समय बाद चली गई। इमटेक में चेतन के लिए स्थिति बिगड़ती जा रही थी। पर जब तक बात बहुत बिगड़ी न थी, हम सामाजिक रूप से मिलते। मुझे याद है कि एक बार हमारे मित्र शुभेंदु घोष जो दिल्ली यूनिवर्सिटी में बायोफिज़िक्स का प्रोफेसर है और रामपुर घराने के हाफिज़ खान का शिष्य है, उसका एक शास्त्रीय संगीत और ग़ज़ल गायन चेतन के घर हुआ था, जिसमें ओम थानवी भी आए थे और इमटेक से भी कई भले लोग शामिल हुए थे। एक बार इमटेक के कुछ और दोस्तों के साथ मिलकर हम सुखना झील के पीछे जंगलों में पिकनिक करने गए थे। तब तक शायद अदालती मामलों का दौर शुरू नहीं हुआ था।

मैं 1994 में अपने विभाग के एक प्रोफेसर साहब के अमेरिका जाने पर दो साल के लिए कैंपस में उनके घर आ गया। अड़तीस सेक्टर वाले मेरे घर में स्थानीय एन जी ओ, आई डी सी (इन्सटीटिउट ऑफ डेवलपमेंट ऐंड कम्युनिकेशन) में काम करने आए भूपेंद्र यादव और उसकी पत्नी वंदना महाजन रहने लगे। इस दौरान चेतन अक्सर मेरे घर आता, कभी हमलोग अक्षरों से शब्द बनाने का खेल स्क्रैबल खेलते, कभी 'द हिंदू' के क्रॉसवर्ड पहेली का हल निकालते। चेतन की अंग्रेज़ी मुझसे बेहतर नहीं हो सकती थी, क्योंकि मैं करीब सात साल अमेरिका में बिता चुका था, पर मजाल क्या है कि कभी मैंने उसे स्क्रैबल में पछाड़ा हो या क्रॉसवर्ड पहेली उससे पहले हल की हो। स्क्रैबल में सभी सातों अक्षरों का इस्तेमाल करने पर दुगुने पॉएंट मिलते हैं और वह हर बार ऐसा एकाधिक बार कर लेता! इन चीज़ों में उसकी पुरानी महारत थी।

इसी दौरान '95 में मैं, दलजीत अमी, भूपेंद्र यादव, ऑनोहिता मजुमदार, हरीश धवन, करम बरशट और मृगांक ने मिल कर नागरिक अधिकारों के लिए मंच 'चंडीगढ़ सिटीज़न्स कमिटी' बनाई और हमने 'न्यू चंडीगढ़' योजना और 52 गाँवों के लोगों के विस्थापन के खिलाफ काफी काम किया। इसमें चेतन की कोई रुचि न थी। मेरे घर मंच की सभाएँ होतीं। मैं सबको गुड़ की चाय पिलाता। ई पी डब्ल्यू और स्थानीय अखबारों में इस पर लिखा तो दिल्ली से लोग हमसे मिलने आने लगे। मैं उन्हें अपने स्कूटर पर आस-पास के गाँव घुमाने ले जाता। इन सभाओं में चेतन ने कभी शिरकत न की। इसी तरह उन दिनों मेरे घर पर युवाओं के साथ होती कविता-गोष्ठियों में भी उसकी रुचि न थी। अगर ऐसे किसी वक्त वह आ जाता तो या तो थोड़ी देर में चला जाता या अपना कोई काम करता रहता। वह दूसरे वक्त आता, देर तक ठहरता, इमटेक और भारतीय विज्ञान प्रशासन पर आक्षेप भरी बातें कहता और फिर चला जाता। ऐसे ही दिनों में एक रात मेरे समझाने के जवाब में वह मुझे लताड़ कर यह संकेत कर गया कि वह विदेश चले जाने की सोच रहा है। उसकी लताड़ ऐसी थी जैसे मैं इमटेक निर्देशक के पक्ष में कह रहा होऊँ। खैर, '94-'95 के उन दिनों में हम दोनों में परिवार के प्रति वफादारी थी और शायद चेतन कॉनी के साथ मिल-बसने के खयाल में परेशान था और मैं अपने परिवार से बिछुड़ा परेशान था। अवसाद और आक्रोश जीवन में भरपूर था और आज तक रहा। याद आता है कि शायद '94 की दीवाली थी जब शहर जश्न मना रहा था और मैं, चेतन और मृगांक पूरे परिवेश से कटे कहीं खाना खाने के लिए मिलने की जुगत कर रहे थे। तय यह हुआ था कि अरोमा होटल के सामने मिलें और फिर किसी छोटे ढाबे में बैठ कर खाना खाएँ। साइकिल पर जाना। या कि मैं स्कूटर पर था। मैं समय पर पहुँचा। ये लोग पहुँचे न थे। मोबाइल तो होता न था। अरोमा के रीसेप्शन पर पैसे देकर फ़ोन किया, पर किसी ने उठाया नहीं। आखिर तंग आकर उदास मन अकेले किसी ढाबे में खाकर लौट आया। फिर शायद फ़ोन पर बात हुई। दोनों घंटे भर बाद पहुँच कर मेरा इंतज़ार कर रहे थे। मुझे याद है कि '94-'95 की 31 दिसंबर की रात को मैंने अमेरिका फ़ोन किया, चार साल की बेटी से बात की और उत्तेजना में ओम थानवी को, जिनसे कुछ दिनों पहले कोई झड़प हो चुकी थी, यह बतलाने के लिए फ़ोन किया, कि हमारे भी अपने सुख हैं। फ़ोन भाभी जी ने पकड़ा और हँस कर मेरी बात सुन ली।  

'95 की गर्मियों में कैरन और शाना वापस आ गए।

चेतन से कंप्यूटर के लिए मदद माँगनी भी एक समस्या थी। मेरे खयाल से जितने भी लोगों ने उससे मदद ली है, वे सब उसका आभार मानते होंगे, पर साथ ही हर कोई याद करता होगा कि उसे एक बार कह देने पर कैसी मुसीबतें आती थीं। चेतन कोई इलेक्ट्रीशियन या मेकानिक न था, वह एक मेधावी इंजीनियर था। इसलिए उसकी अपेक्षा यह होती कि लोग विस्तार से मशीन की समस्या समझें, पर किसको इतनी फुर्सत या रुचि? अक्सर वह मशीन ठीक करते हुए उसे खोलकर अपने लिए काम बढ़ा बैठता और दूसरों को समझ न आता कि वह इतने झंझट में क्यों पड़ रहा है।

उसके मुरीदों में भूगर्भ विज्ञानी प्रोफेसर अशोक साहनी थे, जो भारत में 'राजासॉरस' नामक डायानोसॉर के अंडे के जीवाश्म की खोज के लिए जाने जाते हैं। जब इमटेक में स्थिति काफी बिगड़ गई और चेतन के लिए वहाँ वक्त गुजारना तक कठिन हो गया, तो वह रातों को नियमित पाँच कि.मी. साइकिल चलाकर प्रोफेसर साहनी की लैब में आकर काम करने लगा। उनकी लैब से ई-मेल की अलग ही व्यवस्था हो गई। एक दो साल बाद जब तक मेरे प्रति प्रो. देब की नाराज़गी काफी तीखी हो चुकी थी, लड़ झगड़ कर मेरी अपनी लैब (दस साल के अध्यापन के बाद 1996 में– वह भी एक रीटायर्ड प्रो. के साथ साझा) बनी और मुझे 1 GB हार्ड डिस्क और 32 kB RAM का पहला COMPAQ सिस्टम मिला - तब वह रातों को मेरी लैब में आकर काम करने लगा। साल भर में ही डी एस टी से अनुदान लेकर मैंने दो मशीनें और ले लीं, जिनमें सबसे अधिक RAM शायद 1 MB का और हार्ड डिस्क 20 GB की थी। उसके काम को काम कहना ठीक है या नहीं मुझे नहीं पता। क्योंकि वह कोई दफ्तरी या पेशे का काम न था। चेतन कंप्यूटर और सूचना प्रौद्योगिकी में समकालीन प्रगति के साथ वाकफियत रखने की दौड़ में लगा रहता। साथ ही मेरे जैसे मित्रों के लिए शोध से जुड़े काम की सूचनाएँ इकट्ठी करनीं, बाद के सालों में ('99-2000 के आस-पास) कभी कोई गीत, डाउनलोड करना, यही करता रहता। फिल्म डाउनलोड करना उन दिनों संभव न था। ऐसे ही कभी किसी अमेरिकी रेडियो चैनल पर उसने के एल सहगल की शैली में गाए मुकेश के विख्यात गीत 'दिल जलता है तो जलने दो' का रीमिक्स ढूँढ निकाला और उसे सुन-सुन कर हम हँसते-हँसते पागल हुए जा रहे थे। शायद वह पहली बार मैंने कोई रीमिक्स सुना था।

Saturday, February 15, 2014

चेतन-3


नब्बे के दशक के पहले सालों में भारत से इंटरनेट पर जाने वाली सारी मेल मुंबई में टी आई एफ आर में मौजूद 'शक्ति' नामक एक सर्वर से होकर जाती थी। चंडीगढ़ से मुंबई के इस गेटवे तक मेल के जाने के लिए एस टी डी (दूर संचार) फ़ोन के अलावा कोई तरीका न था। फ़ोन का खर्चा दिन को अधिक होता, रात को कम। आजकल युवाओं को यह सब अजीब लग सकता है, पर बीसेक साल पहले भी टेक्नोलोजी इसी स्तर की थी। चेतन की रात को काम करने की आदत थी। वह सुबह देर से उठता और ग्यारह-बारह बजे के पहले दफ्तर न आता। पर रात को देर तक सबकी इकट्ठी हुई मेल शक्ति गेटवे तक भेजता। उन दिनों सूचना प्रौद्योगिकी की जो स्थिति थी, कई तरह की गड़बड़ियाँ होती रहतीं। पर चूँकि चंडीगढ़ आने के पहले टी आई एफ आर में जो भी कंप्यूटर और सूचना प्रोसेसिंग की मशीनें थीं, उन पर चेतन ने काम किया हुआ था, कई तो उसने खुद इंस्टाल और कन्फिगर की थीं और उन दिनों देश भर में इस तरह की मशीनों पर काम करने वाले इने गिने लोगों से वह न केवल परिचित था, बल्कि उनको सलाह-मशविरा देता रहता था। इसलिए कहीं कोई दिक्कत होती तो चंडीगढ़ में बैठे ही फ़ोन पर बात कर वह समस्या सुलझा लेता। इसका इमटेक के सभी वैज्ञानिकों को काफी फायदा मिल रहा था। इसलिए सभी चेतन से खुश भी थे।

राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं के निर्देशकों के पास एक तरह की असीमित ताकत होती है। मुसीबत यह हुई कि एक नए निर्देशक आए जो लखनऊ की केंद्रीय औषधि शोध संस्था में काम कर चुके थे और वहाँ की लालफीताशाही और गैरबराबरी को सामने रख कर चलने वाली व्यवस्था के आदी थे। उन्होंने नियम कानून पर जोर देना शुरू किया और फरमान जारी किया कि सारे कर्मचारी सुबह नौ बजे तक दफ्तर ज़रूर मौजूद हों। हालाँकि ज्यादातर वैज्ञानिकों को यह खुली सोच के परिवेश के लिए हानिकारक लगा, पर चेतन के अलावा किसी ओर ने इसका विरोध न किया। इमटेक में सुरक्षा-प्रबंध भी टी आई एफ आर की तुलना में काफी सख्त था - राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं में ऐसा ही होता है और चंडीगढ़ तो वैसे भी पंजाब के आतंक के साए में था। सुरक्षा अधिकारी दबंग थे और चेतन को उनसे चिढ़ थी। निर्देशक से भिड़ने के कुछ समय पहले चेतन को मौका मिला था कि वह सुरक्षा अधिकारी को हड़का सके। हुआ यह था कि संस्था की मुख्य इमारत पर राष्ट्रीय झंडा उल्टा लहरा रहा था। यह कानून की दृष्टि से अपराध था। चेतन ने सुरक्षा अधिकारी को डाँट तो दिया, पर शिकायत ऊपर पहुँच गई। यह छोटी सी घटना अंततः चेतन के लिए लंबी लड़ाई का सबब बन गई। संस्था में निर्देशक के पक्ष में भी कुछ चापलूस किस्म के लोग थे। कुछ गिरगिट स्वभाव के भी थे, जो सामने कुछ और पीछे कुछ और कहते। सामान्य वैज्ञानिकों में अधिकतर जिनको विज्ञान से सिर्फ रोटी कमानी होती है, इसी स्वभाव के होते हैं। यह माहौल टी आई एफ आर के बौद्धिक माहौल की तुलना में बहुत ही दमघोटू था। टी आई एफ आर में भी चेतन के बारे में यह माना जाता था कि वह सामान्य मुद्दों को गंभीरता से ले बैठता है, पर चूँकि वहाँ का बौद्धिक स्तर उच्च मान का था, लोगबाग इस स्वभाव को नज़रअंदाज़ कर चेतन के गुणों को देखते और सराहते।

वे साल किसी भी उदार सोच के भारतीय के लिए कठिन और दर्दनाक साल थे। चेतन का परिवार गुजराती इस्माइली संप्रदाय के साथ ताल्लुक रखता था। आगा खाँ के अनुयायी इस संप्रदाय में अन्य संप्रदायों के तुलना में कट्टरता कम है। चेतन तो वैसे भी नास्तिक था। पर उन दिनों देश में, खास तौर पर उत्तरी भारत में, सांप्रदायिकता बढ़ती जा रही थी। 1988-89 में मैंने खुद मध्य प्रदेश में हरदा में रहते हुए आँखों के सामने माहौल बिगड़ते हुए देखा था। आखिर 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद टूटने के साथ दंगों का दौर शुरू हुआ। चेतन के पिता की मृत्यु इसके एक हफ्ते बाद हुई थी, जब मुंबई में दंगे के बाद तनाव का माहौल था। उनके शरीर को अस्पताल में चिकित्सा-शोध के लिए दान करना था और इसमें उनके परिवार को शहर में तनाव के चलते कई दिक्कतें आई थीं। मृत्यु के दिन सुबह उन्होंने बेटों को याद दिलाया कि उनके देह को दफनाना नहीं, बल्कि वर्षों पहले औपचारिक रूप से दर्ज़ की गई इच्छा मुताबिक अस्पताल में दान देना है। आज मैंने इस प्रसंग पर चेतन के भाई केतन से जो मुंबई में रहते हैं, उनसे इस प्रसंग पर फिर से सही सूचना प्राप्त की। पिछले साल जब चेतन की मृत्यु हुई, उसका शरीर भी इसी तरह किसी अस्पताल में दान दिया गया। यही उसकी इच्छा थी।

इमटेक में कहने को चेतन के साथ सहानुभूति कऱने वाले लोग कई थे, पर सचमुच उसके साथ खड़े होने का साहस रखने वाले कम ही थे। आखिर इमटेक कोई टी आई एफ आर तो था नहीं। परेशानी लगातार बढ़ती रही। पारिवारिक स्थिति भी बहुत अच्छी न थी। कॉनी के साथ सड़क पर लोगों का व्यवहार अकसर थकाने वाला होता था। एक गोरी औरत के साथ आम उत्तर भारतीय का व्यवहार कैसा होता है, इसका अनुभव हम दोनों परिवारों का एक जैसा था। मेरे साथ यह समस्या इतनी बड़ी न थी, क्योंकि इस मुद्दे पर कैरन की तुलना में मैं ज्यादा बिगड़ता था। पर कॉनी खुद काफी नाराज़ होती थी। उन दिनों हम सब लोग साइकिल पर ही आना जाना करते थे। मैंने कुछ सालों के बाद स्कूटर ले लिया था, पर चेतन आजीवन साइकिल ही चलाता रहा। बाद के वर्षों में जब उस हैसियत का कोई भी आदमी साइकिल चलाता न दिखता था, वह चंडीगढ़ में एक अजूबा सा था, उस पर इसी प्रसंग में अखबार में रिपोर्ताज भी छपा था। साइकिल चलाते हुए कॉनी नीचे नज़रें किए रहती। उसे हर आते-जाते आदमी से 'आई लव यू' किस्म की टिप्पणियाँ सुनते हुए तीखी चिढ़ हो चुकी थी. उसके लिए सड़क पर दिखता-चलता हर हिंदुस्तानी बदमाश था। चेतन की स्मृति सभा में उसने इसी बात को बार बार दुहराया था।

कॉनी के साथ चेतन का परिचय चंडीगढ़ आने के कुछ ही समय पहले ई-मेल के जरिए हुआ था। आज इस तरह के रिश्ते आम बात हैं, पर उस जमाने में सिर्फ टी आई एफ आर जैसी संस्थाओं में काम कर रहे किसी के लिए ही ऐसे प्रेम करना संभव था। कॉनी का भाषा-प्रेम तीव्र था, पर उतनी ही नफ़रत उसे भारतीय ज़मीनी परिस्थितियों से थी। इसलिए इमटेक के फ्लैट में गर्मी और धूल से बचने के लिए ए सी (ए सी का प्रचलन तब कम था, ए सी महँगा होता था और ज्यादातर घरों में पानी वाले कूलर चलते थे), नहाने के लिए बाथ टब, आदि कई प्रबंध उन्होंने किए थे। कॉनी के चले जाने के बाद वही घर विशृंखला का नमूना था। महीनों से इकट्ठे किए अखबार, चारों ओर धूल, हमेशा यही स्थिति थी। हम जब भी जाते, उसे डाँटते, पर खैर...।

बहरहाल परिवार की खिटपिट – दो साल बाद कॉनी अमेरिका वापस चली गई और फिर कोई दस सालों बाद उनमें तलाक हो गया; आखिरी सालों में वह फिर वापस आई – सांप्रदायिक माहौल, और संस्था में निर्देशक की तानाशाही, इन सबके साथ चेतन को अकेले लड़ना था। प्रतिबद्ध पिता को आजीवन सांगठनिक काम में जुटा देखकर और उससे हुए अपने तिक्त अनुभवों से शायद उसे पारंपरिक ट्रेड यूनियन में कोई विश्वास न रह गया था, इसलिए अखिल भारतीय राष्ट्रीय प्रयोगशाला शोधकर्त्ताओं की यूनियन से मदद मिलने पर भी उसने मदद न ली। मुझे यह पता नहीं कि किस साल और निर्देशक के किस विशेष कदम के खिलाफ उसने कानूनी लड़ाई शुरू की थी, पर वह एक कभी खत्म न होने वाली लड़ाई थी। शहर के सबसे प्रसिद्ध वकील बलराम गुप्ता की मदद से केंद्रीय प्रशासन कोर्ट में उसने यह मामला लड़ा। वकील के पास कागज़ात वह खुद ही तैयार कर के ले जाता। कानूनी समझ उसमें कमाल की थी। आखिरी सालों में समझौतों की हर कोशिश को वह ठुकराता रहा, क्योंकि यह उसके लिए सिद्धांतों की लड़ाई थी। समझौता हुआ और यह कुछ उसके और कुछ संस्थान के पक्ष में था, पर वह फिर भी सालों पुरानी किसी तारीख से अपनी वरिष्ठता को बहाल किए जाने को लेकर लड़ता रहा। हम दोस्त-बाग उसे समझाते हुए थक गए कि इस तरह की लड़ाई से उसका अपना ही नुकसान है, पर वह न माना। नब्बे के आखिरी सालों में जब अमित घोष इमटेक के निर्देशक बने, तो उसे उम्मीद थी कि संस्थान उससे औपचारिक रूप से माफी माँग लेगा, पर ऐसा कैसे हो सकता था। इमटेक भारत सरकार की राष्ट्रीय प्रयोगशाला है और उसका निर्देशक एक कर्मचारी के सामने, वह कितना भी वरिष्ठ क्यों न हो, संस्थान को झुका नहीं सकता। चेतन की प्रतिक्रिया यह होती कि वह व्यक्तिगत संबंध बिगाड़ लेता। अमित और संस्था में बाकी लोग कोशिश कर भी उसे मना न पाते। उसके तर्क अकाट्य होते और उसकी माँग यह होती कि कोई समझौता नहीं चलेगा। कभी केंद्र सरकार के किसी मंत्री के पास, कभी विज्ञान और प्रौद्योगिकी परिषद के अध्यक्ष के पास अपनी शिकायत ले जाता। उसने कपिल सिब्बल जैसे मंत्रियों से कई बार बात की (राष्ट्रीय प्रयोगशालाएँ मानव संसाधन मंत्रालय के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के अधीन हैं)। उन दिनों ओम थानवी चंडीगढ़ में जनसत्ता के स्थानीय संपादक थे। मेरे जरिए उनके साथ भी चेतन का परिचय था। उसे लगता कि मुझे ओम से कहकर उसकी लड़ाई के पक्ष में खबरें छपवानी चाहिए। एक दो बार ओम को - जब वे दिल्ली आ गए, उसके बाद भी - परेशान भी किया। शायद एक दो बार प्रशांतभूषण से भी उसकी बात करवाई थी। मेरा अपना रवैया, जैसा औरों का भी रहा होगा, यह होता कि हम उसकी बातों को सुन लेते, सहानुभूति प्रकट करते, फिर भूल जाते - अंत में उसे अकेले ही लड़ना था। उसकी हम सबके प्रति यह शिकायत थी कि हमने उसकी तकलीफों को कभी उतनी गंभीरता से लिया नहीं जितना उसने चाहा था। यह हम सब जानते थे कि हम सबके जीवन में अपनी-अपनी ऐसी ही लड़ाइयाँ थीं जैसी चेतन लड़ रहा था, पर हम सब जल्दी ही समझौते कर लेते थे, पर वह समझौता करने को तैयार न होता।

यह सब पढ़ कर लग सकता है कि चेतन तो बड़ा खुंदकी आदमी था। सचमुच वह था। उस पर संस्मरण लिखना उसकी झल्लाहटों की लंबी सूची बनाए बिना संभव नहीं। उसे जानने वाले हर किसी को यह अहसास तीखा था। पर मेरा मकसद यहाँ सिर्फ यह बतलाना नहीं कि वह खुंदकी था। मैं उस आदमी को याद कर रहा हूँ जो हम सबके विवेक की प्रतिनिधि पहचान बनकर हमारे जीवन में आया था। वह हमलोगों का इतना करीबी दोस्त था तो उसमें भली बातें भी खूब सारी थीं। उसमें बहुत कुछ ऐसा था जिसने उसके संपर्क में आए हर किसी को गहराई से प्रभावित किया। उसने खुद किसी सामाजिक या राजनैतिक आंदोलन की शुरूआत नहीं की, पर बेहतर और बराबरी पर आधारित समाज निर्माण की लड़ाई में उसकी प्रतिबद्धता आखिरकार उसे हमारे कई सीमित प्रयासों के साथ जुड़ने को मजबूर कर गई और हम जितने भी साथी इस तरह की थोड़ी बहुत कोशिश कर रहे थे, हमें चेतन की भरपूर मदद मिली। चंडीगढ़ के इतिहास में समतावादी इन प्रयासों में उसकी भूमिका महत्त्वपूर्ण थी। इस पर अगली बार।

Friday, February 14, 2014

चेतन-2


कई दोस्तों ने कहा कि यह संस्मरण पूरा होना चाहिए। यह शायद मेरे लिए संभव न हो। पर थोड़ा-थोड़ा जोड़ते चलें तो शायद बात कुछ बढ़े। आखिर क्या-क्या लिखें। हिंदी में टाइप करना भी कहाँ कोई आसान काम है। इसी बीच हमारे प्रिय, जन-गीतों के गायक पीट सीगर की मौत हो गई। जैसे एक जमाना गुजर गया। कभी उन पर भी लिखना है।

चेतन से पहली मुलाकात का किस्सा ई-मेल के इतिहास से जुड़ा है। अस्सी के शुरूआती सालों में मैं जब अमेरिका में पी एच डी के लिए शोध कार्य कर रहा था, -मेल तब नई बात थी। और मेल सिर्फ स्थानीय स्तर पर, अपनी ही संस्था तक सीमित थी। बाद में हालाँकि ई-मेल का इस्तेमाल वैज्ञानिकों ने ही शुरू किया था, पहले-पहल व्यापक तौर पर इसका फायदा अमेरिका और नेटो ताकतों के साथ जुड़ी सुरक्षा-संस्थाओं के लोगों को मिला। हमलोग यानी आम वैज्ञानिक लोग इसका इस्तेमाल तकरीबन 1989 साल से ही कर पाए थे। मैंने पहली बार 1990 में सांता फे इंस्टीटिउट में एक समर स्कूल में भागीदारी करते हुए अपने शहर से बाहर किसी को ई-मेल भेजी थी। उसी साल देश लौट आए तो हमारी बेटी शाना जन्मी। उसकी गंभीर शारीरिक समस्याओं की वजह से 1991 में हमें फिर चिकित्सा की खोज में अमेरिका लौटना पड़ा। कैरन ने न्यूयॉर्क के माउंट साइनाई मेडिकल इंस्टीटिउट में और थोड़ी देर बाद मैंने प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी में शोध-कर्त्ताओं के काम किए। तब तक ई-मेल अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक शुरू हो गई थी। 1992 में जब लौट कर आए तो चंडीगढ़ में सिर्फ एक सरकारी राष्ट्रीय प्रयोगशाला इमटेक (इंस्टीटिउट ऑफ माइक्रोबियल टेक्नोलोजी) में ई-मेल की व्यवस्था थी। विदेशों से लौट रहे किसी भी व्यक्ति को ई-मेल की आदत पड़ चुकी थी और इसके बिना उनको बड़ी दिक्कत होती।

इमटेक में ई-मेल का जादू चेतन का कमाल था। चेतन ने 1990 में इमटेक में नौकरी ली थी। चेतन प्रेमाणी आई आई टी कानपुर के इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग का मेधावी छात्र था। बी टेक की डिग्री लेने के बाद वह अपने कई दोस्तों की तरह या तो विदेश पढ़ने जा सकता था या किसी बड़ी कंपनी में अच्छी तनख़ाह की नौकरी ले सकता था। पर कुछ शोध के प्रति रुचि, कुछ कम्युनिस्ट विचारधारा के पिता से मिले देश-प्रेम, कुछ बड़ा बेटा होने से परिवार को आर्थिक सहयोग और कुछ बस अपने झक्की मिजाज़ की वजह से उसने मुंबई की प्रख्यात शोध-संस्था टी आई एफ आर (टाटा इंस्टीटिउट ऑफ फंडामेंटल रीसर्च) में सहयोगी टेकिनिकल स्टाफ की नौकरी ली। सोलह साल तक वह आणविक जैवविज्ञान विभाग में प्रख्यात वैज्ञानिक ओबेद सिद्दीकी (जिनका छ: महीने पहले बंगलौर में दुर्घटना में दुखद निधन हो गया) के शोध-दल के साथ बतौर इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियर काम करता रहा। राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं में साइंटिस्ट के पद होते हैं - जो '' से शुरू होते हैं और 'जी' तक चलते हैं। टी आई एफ आर छोड़ते वक्त चेतन साइंटिस्ट-सी पद पर था। आतंकवाद के माहौल में चंडीगढ़ आने को सहमत होने पर उसे दो जंप यानी छलाँगें लगाकर साइंटिस्ट-ई पद मिला। इस पद पर इमटेक में आने वाले तीन लोगों में वह एक था। यह बात महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इस हिसाब से वह संस्था के तीन वरिष्ठतम लोगों में से था, पर 2012 में नौकरी से अवकाश लेते वक्त तक यानी 22 वर्षों की नौकरी में उसे कोई पदोन्नति नहीं मिली थी।

आई आई टी कानपुर और टी आई एफ आर में चेतन को जानने वाले कई ऐसे लोग थे, जिनके साथ उसका स्थाई भावनात्मक संबंध था। उनमें से कई 20 फरवरी 2013 को आई सी एस एस आर सभागृह में मौजूद थे और उनमें से एक, चेतन से उम्र में तीनेक साल बड़े, मुकुल सिन्हा उसकी याद में कहते हुए रो पड़े थे। पुराने साथी स्तरीय काम की माँग (परफेक्शन) के लिए उसके ज़िद्दी स्वभाव के अलावा उसकी ईमानदारी, उसकी मेधा और फिल्म क्लब चलाने जैसी उसकी विलक्षणताओं के कायल थे। इस पर वे ही कभी लिखेंगे। मैं तो सिर्फ मेरे जीवन में उसके आने और उसी संदर्भ में उसकी भूमिका को लेकर ही लिख सकता हूँ।

उससे पहली बार बात करने से पहले मैंने एक बार उसे देखा था। 1990-91 में मैं 38 सेक्टर में रहता था। इमटेक का नया कैंपस 39 सेक्टर में बन चुका था। उन दिनों आतंकवाद की वजह से चंडीगढ़ में जनसंख्या का दबाव कम था - दिल्ली आदि से कम ही लोग वहाँ आकर बस रहे थे। कभी कभी जैसे मैं 37 सेक्टर के बाज़ार खाने की सामग्री लेने जाता, वैसे ही इमटेक से भी लोग वहाँ पहुँचते। वहाँ एक आम शाकाहारी ढाबा शक्ति ढाबा था, जहाँ अक्सर मैं जाता - पास में ही फर्राटे की अंग्रेज़ी बोलने वाले एक नरबीर सिंह ने चीनी खाने की दूकान खोली हुई थी। वहीं एक बार मैंने चेतन को अमित घोष (हैजा पर शोध करने वाले सूक्ष्मजीवी-वैज्ञानिक जो बाद में इमटेक के निर्देशक बने) के साथ देखा था। दोनों की ही शक्लें आकर्षक थीं। अमित की फ्रेंचकट दाढ़ी थी और चेतन के छरहरे शरीर पर माथे पर सफेद बाल। दोनों ही चश्मुद्दीन और लंबे कुर्ते पहने हुए बुद्धिजीवी शक्ल का प्रभाव छोड़ने वाले। चेतन को कभी पैंट पहने देखा हो याद नहीं आता। भयंकर ठंड में भी वह चूड़ीदार पाजामा और नागराई टाइप के जूते पहनता। बाद के वर्षों में अमित काफी फूलते गए पर चेतन वैसा का वैसा आकर्षक शक्ल का ही बना रहा। उस वक्त मेरा उनसे परिचय न था, पर स्थानीय लोगों की तुलना में उनमें कई बातें साफ तौर पर अलग दिख रही थीं और मैं चुपचाप उनकी बातें सुनता रहा।

साल बाद 1992 में जब हम वापस देश लौटे तो मित्र सत्यपाल सहगल (हिंदी के कवि और तब तक शायद यूनिवर्सिटी में अध्यापक लग चुके थे) ने पहले चेतन की पत्नी कॉनी का ज़िक्र किया जो भाषाविद थी और सत्यपाल से हिंदी सीखने यूनिवर्सिटी आया करती थी। सत्यपाल का खयाल था कि हमें चेतन और कॉनी से मिलना चाहिए क्योंकि हमारी रुचियों में समानता है। फिर कभी सत्यपाल ने ही बतलाया कि चेतन ने इमटेक में ई-मेल की व्यवस्था की हुई है। उससे पहली मुलाकात का कारण दरअसल ई-मेल ही था।

संभवतः 1992 के नवंबर में हम उससे इमटेक में मिलने गए। मदद वह सब की करता था, पर चेतन के स्वभाव में उससे ई-मेल के लिए मदद माँगने वालों के प्रति चिढ़ सी थी, खासकर यूनिवर्सिटी से आने वाले लोगों के प्रति उसमें पूर्वग्रह था। हम जब मिले तो उसे और कॉनी को यह जानने में ज्यादा देर न लगी कि चंडीगढ़ में रहते हुए हम दो परिवारों में संबंध होना दोनों की ज़रूरत थी।