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बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Thursday, November 16, 2023

ए-आई में इंसान जैसी चेतना है या नहीं?

 कैसे कहें कि ए-आई में इंसान जैसी चेतना है या नहीं?

- 'स्रोत' (अक्तूबर 2023) में प्रकाशित

'उसे कौन देख सकता कि यगाना है वो यकता / जो दुई की बू भी होती तो कहीं दो-चार होता' - ग़ालिब का यह शेर है तो ईश्वर के लिए, पर इसे इंसान या किसी भी चेतन प्राणी के लिए भी कहा जा सकता है। दुई या द्वैत - यानी हम दिखते तो एक ही हैं, पर हमारा चेतन मन और हमारा जिस्म या शरीर, क्या ये दोनों एक हैं? हज़ारों सालों से यह सवाल इंसान को परेशान करता रहा है। आज जब हर क्षेत्र में विज्ञान और टेक्नोलोजी का बोलबाला है, यह खयाल फलसफे के दायरे से निकलकर वैज्ञानिक शोध का एक अहम सवाल बन गया है। खास तौर पर आर्टीफिशियल इंटेलिजेंस (ए आई) यानी गैर-कुदरती समझ पर हर कहीं बातचीत हो रही है, और इस चर्चा में कॉंशस-नेस या चेतना पर जोर-शोर से बहस चल रही है। आखिर एक इंसान और मशीन में फ़र्क क्या है? हम अपने परिवेश के बारे में सचेत रहते हैं, चेतन होने की एक पहचान यह है। ऐसी रोबोट मशीनें अब बन रही हैं जो परिवेश की पूरी जानकारी रखती हैं। हमारी तरह ये मशीनें सड़क पर चलते हुए सामने पड़े पत्थर से बचकर निकल सकती हैं। कुछ हद तक ये मशीनें हमसे ज्यादा ताकतवर हैं, जैसे हम पत्थर के ऊपर से छलाँग लगाकर निकल सकते हैं तो मशीन ऊँचाई तक उड़ सकती है। कहीं आग लगी है तो हम वहाँ से दूर खड़े होकर आग बुझाएँगे, कहीं पानी पड़ा हुआ है तो हम कहीं से ईंटें उठाकर कीचड़ पार करने का तरीका ढूँढेंगे, ऐसे काम मशीनें भी कर सकती हैं। किसी भी सवाल पर जानकारी पाने के लिए हम जिस तरह किताबों-पोथियों में माथा खपाते हैं, कंप्यूटर पर चल रहे चैट-जी-पी-टी जैसे बड़े भाषाई मॉडल (लार्ज-लैंग्वेज़-मॉडल) हमसे कहीं ज्यादा तेजी से वह हासिल कर रहे हैं। मशीनें जटिल सवालों का हल बता रही हैं। दो साल पहले गूगल कंपनी में काम कर रहे इंजीनियर ब्लेक लीमोइन ने यह दावा किया कि LaMDA नामक जिस चैटबॉट का वह परीक्षण कर रहे थे, वह संवेदनशील था। इसकी वजह से आखिरकार उनको नौकरी छोड़नी पड़ी। पर इस घटना ने आम लोगों को मशीन में चेतना के सवाल पर विज्ञान कथाओं से परे शोध की दुनिया में ला पहुँचाने का काम किया।आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) सिस्टम, विशेष रूप से तथाकथित बड़े भाषा मॉडल जैसे कि एल-एम-डी-ए और चैट-जी-पी-टी, वाक़ई सचेत लग सकते हैं। लेकिन उन्हें मानवीय प्रतिक्रियाओं की नकल करने के लिए बड़ी तादाद में जानकारियों से प्रशिक्षित किया जाता है। तो हम वास्तव में कैसे जान सकते हैं कि क्या मशीनें हमारी तरह चेतन हैं? दरअसल पहली नज़र में जिस्मानी तौर पर इंसान और मशीन में फ़र्क वाक़ई अब कम होता दिख रहा है, जो फ़र्क हैं, उनमें अक्सर मशीन ज्यादा क़ाबिल और ताकतवर नज़र आती है। फिर भी हम मशीन को चेतन नहीं मानते। इसकी मुख्य वजह 'दुई' से जुड़ी है। ज़ेहन के बारे में जो वैज्ञानिक समझ हमारे पास है, उससे यह तो पता चलता है कि जिस्म के बिना चेतन वजूद नहीं होता, पर अब तक यह बहस जारी है कि क्या चेतना शरीर से अलग कुछ है? जैसे अलग-अलग कंपनियों के एक कंप्यूटरों में एक ही तरह का सॉफ्टवेयर काम करता है, क्या चेतना भी उसी तरह हमारे शरीर में मौजूद है, यानी अलग-अलग प्राणियों के शरीरों में वह एक जैसा काम कर रही है, जिससे हर प्राणी को सुख-दु:ख का एक जैसा एहसास होता है। या कि वाक़ई उसका कोई अलग वजूद नहीं है और हर प्राणी के शरीर में ज़ेहन में चल रही प्रक्रियाओं से ही चेतना बनती है? चेतना और संवेदना में फ़र्क किया जाता है; ऐंद्रिक एहसास संवेदना पैदा करते हैं, पर चेतना इससे अलग कुछ है जो अपने एहसासों से परे दूर तक पहुँच सकती है।


पिछले कुछ दशकों में मस्तिष्क की जाँच पर वैज्ञानिक शोध में बड़ी तरक़्की हुई है। आम लोग इसे बीमारियों के इलाज़ के संदर्भ में जानते हैं, जैसे एम आर आई (मैग्नेटिक रोज़ोनेंस इमेजिंग) या पी ई टी (पॉज़िट्रॉन इमेज टोमोग्राफी) आदि तकनीकों से ज़ेहन में चल रही प्रक्रियाओं के बारे में अच्छी समझ बनी है और कई मुश्किल बीमारियों का इलाज इनकी मदद से होता है। चेतना के विज्ञान में भी इन तकनीकों के इस्तेमाल से सैद्धांतिक समझ बढ़ी है। कई नए सिद्धांत सामने आए हैं, जो हमारे ऐंद्रिक एहसासों को ज़ेहन के अलग-अलग हिस्सों के साथ जोड़ते हैं और इसके आधार पर चेतना की एक भौतिक (मेटेरियल) ज़मीन बन रही है। सवाल यह नहीं रहा कि चेतना जिस्म से अलग कुछ है या नहीं, बल्कि यह है कि चेतना ज़ेहन में चल रही किन प्रक्रियाओं के जरिए वजूद में आती है। तंत्रिकाओं में आपसी तालमेल का कैसा पैमाना हो, इसके पीछे कैसे बल या अणुओं की कैसी आपसी क्रिया-प्रतिक्रियाएँ काम कर रही हैं? कोई कंप्यूटरों को चलाने वाले लॉजिक-तंत्र में तो कोई क्वांटम गतिकी में इस सवाल के जवाब ढूँढ रहा है। इन तक़रीबन एक दर्जन सिद्धांतों में से किस की कसौटी पर मशीन में पनप रही समझ को हम चेतना कह सकते हैं? -आई या रोबोट मशीनों पर काम कर रहे वैज्ञानिकों के लिए यह अहम सवाल है।


हाल में वैज्ञानिक शोध के सार्वजनिक वेब-साइट आर्काइव-डॉट-ऑर्ग में छपे एक परचे में (arxiv.org/abs/2308.08708) उन्नीस कंप्यूटर वैज्ञानिकों, तंत्रिका-विज्ञानियों (न्यूरो-साइंटिस्ट्स)और दार्शनिकों का एक समूह नया नज़रिया लेकर आया है। उन्होंने चेतना की खासियत की एक लंबी जांच सूची बनाई है, यानी कुछेक बातों से ही मशीन को चेतन न कह कर इन सभी खासियत की कसौटी पर खरा उतरने पर ही मशीन को चेतन कहा जाए। जाहिर है किसी रोबोट या ए-आई मशीन में सभी विशेषताएं नहीं भी हो सकती हैं। इस हाल में देखा जाएगा कि सूची में मौजूद कितनी विशेषताओं को हम किसी मशीन में देख पाते हैं। इससे हम यह कह पाएँगे कि किसी मशीन में किस हद तक चेतन होने की संभावना है, यानी चेतन हो पाने का एक पैमाना सा बन गया है। ऐसी जाँच से अंदाज़ा लग सकता है कि मशीनी शोध में चेतना तक पहुँचने में किस हद तक कामयाबी मिली है, हालाँकि यह कह पाना अब भी नामुमकिन है कि कोई मशीन वाक़ई चेतन है या नहीं। इस सूची में शोधकर्ताओं ने मानव चेतना के सिद्धांतों पर 14 मानदंड रखे हैं, और फिर वे उन्हें मौजूदा ए-आई आर्किटेक्चर (खाके) पर लागू करते हैं, जिसमें चैट-जी-पी-टी को चलाने वाले मॉडल भी शामिल हैं।

अमेरिका के सैन-फ्रांसिस्को शहर के ए-आई सुरक्षा केंद्र के सह-लेखक रॉबर्ट लॉंग के मुताबिक यह सूची से तेजी से बढ़ रहे इंसान जैसी क़बिलियत वाले ए-आई के मूल्यांकन का एक तरीका पेश करती है। अब तक यह बेतरतीबी से हो रहा था, पर अब एक पैमाना बन रहा है।

मोनाश यूनिवर्सिटी के कम्प्यूटेशनल न्यूरोसाइंटिस्ट और कैनेडियन इंस्टीट्यूट फॉर एडवांस्ड रिसर्च (CIFAR) के फेलो अदील रज़ी, ने इसे एक अहम कदम माना है। हालाँकि वे भी मानते हैं कि सवालों के भरपूर जवाब नहीं मिल रहे, पर एक ज़रूरी चर्चा की शुरूआत हुई है। आज दुनिया भर में इन सवालों पर लगातार कार्यशालाएँ और विज्ञान-सभाएँ हो रही हैं और शोधकर्ता अपने काम पर परचे पढ़ रहे हैं। रॉबर्ट लॉंग और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के फ्यूचर ऑफ ह्यूमैनिटी इंस्टीट्यूट के दार्शनिक पैट्रिक बटलिन ने हाल में ही दो ऐसी कार्यशालाओं का आयोजन किया, जहाँ ए-आई में संवेदनशीलता का परीक्षण कैसे करें, इस पर चर्चाएँ हुईं।

अमेरिका के अर्वाइन शहर में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में काम कर रही एक कम्प्यूटेशनल न्यूरोसाइंटिस्ट मेगन पीटर्स जैसे कइयों के लिए इस मुद्दे का एक नैतिक आयाम है। अगर मशीन में चेतना की संभावना है तो क्या उसे भी इंसानों जैसी जिस्मानी बीमारियाँ होंगी, अगर हाँ तो इसका इलाज कैसे होगा। अब तक मानव-चेतना पर समझ शारीरिक क्रियाओं के साथ हमेशा मौजूद एक घटना सी रही है, जो बाहरी कारणों से नज़र, छुअन (या तंगनज़र होना या दर्द) आदि ऐंद्रिक एहसास तो पैदा करती है, पर एहसासों को खुद अंदरूनी तौर पर नहीं लाती; इसे फीनोमेनल कॉंशसनेस कहते हैं। इंसान की बीमारियों के इलाज के लिए एम आर आई या ई--जी (इलेक्ट्रो-एन्सेफलोग्राम) जैसी तकनीकें काम आती हैं, पर कंप्यूटर द्वारा चलने वाली मशीनों की बीमारी एल्गोरिदम में या प्रोग्राम में गड़बड़ी से होगी, तो उनकी जाँच कैसे की जाए? यहाँ एम-आर-आई या ई--जी काम नहीं आएँगे। तेल-अवीव विश्वविद्यालय के संज्ञान-तंत्रिका वैज्ञानिक (कॉग्निटिव न्यूरो-साइंस) लिआद मुद्रिक बताते हैं कि वे पहले एक सचेत होने की बुनियादी खासियत की पहचान के लिए मानव चेतना के मौजूदा सिद्धांतों की खोज करेंगे, और फिर इन्हें ए-आई के अंतर्निहित खाके में ढूँढेंगे। इस तरह से काम आने वाले सिद्धांतों की सूची बनाई जाएगी।

सूची में ऐसे ही सिद्धांत शामिल किए गए हैं, जो तंत्रिका-विज्ञान पर आधारित हैं और चेतना में हेरफेर करने वाली जाँच के दौरान मस्तिष्क के स्कैन से मिले आँकड़े जैसी प्रत्यक्ष जानकारी से जिनका प्रमाण मिलता है। साथ ही सिद्धांत में यह खुलापन होना ज़रूरी है कि चेतना जैविक न्यूरॉन्स की तरह ही कंप्यूटर के सिलिकॉन चिप्स से भी पैदा हो सकती है, भले ही वह गणना द्वारा होती हो।

छह सिद्धांत इन पैमानों में खरे निकले हैं। इनमें एक रेकरिंग (आवर्ती) प्रोसेसिंग सिद्धांत है, जिसमें फीडबैक लूप (चक्कर) के माध्यम से जानकारी पारित करना चेतना की कुंजी माना गया है। एक और सिद्धांत ग्लोबल न्यूरोनल वर्कस्पेस थीओरी का तर्क है कि चेतना तब पैदा होती है जब सूचना की खुली धाराएं रुकावटें पार कर कंप्यूटर क्लिप-बोर्ड (जैसे आम कक्षाओं के ब्लैक-बोर्ड) जैसे पटल पर जुड़ती हैं, जहाँ वे आपस में जानकारियों का लेन-देन कर सकती हैं।

एच ओ टी (हॉट – हायर ऑर्डर थीओरी) या ऊँचे स्तर की थीओरी कहलाने वाले सिद्धांतों में चेतना में इंद्रियों से प्राप्त बुनियादी इनपुट को पेश करने और व्याख्या करने की प्रक्रिया शामिल है। दीगर सिद्धांत ध्यान को नियंत्रित करने के लिए तंत्र के महत्व और बाहरी दुनिया से सही-ग़लत की जानकारी पाने वाले ढाँचे पर जोर देते हैं। छह शामिल सिद्धांतों में से टीम ने सचेत अवस्था के अपने 14 संकेत निकाले हैं। कोई ए-आई आर्किटेक्चर इनमें से जितने अधिक संकेतकों को दिखलाता है, उसमें चेतना होने की संभावना उतनी ही अधिक होती है। मशीन लर्निंग विशेषज्ञ एरिक एल्मोज़निनो ने चेक-लिस्ट (जाँच की सूची) को अलग-अलग आर्किटेक्चर वाले कई ए-आई नमूनों पर लागू किया। जैसे इनमें तस्वीरें बनाने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले डाल-2 नामक एआई शामिल हैं। किस पर जाँच की जाए, यह फैसला करना मुश्किल है और इसके लिए अनजान क्षेत्रों में हाथ-पैर चलाने पड़ते हैं। कई आर्किटेक्चर ऐसे थे जिन पर रेकरिंग प्रोसेसिंग सिद्धांत के संकेतकों के लिए बने खाने पर टिक ( - सही का चिह्न) लगाया गया। चैट-जी-पी-टी जैसा एक बड़ा-भाषा-(एल एल एम) मॉडल ग्लोबल न्यूरोनल वर्कस्पेस की खासियत के करीब दिखा।

गूगल का PaLM -E, जो विभिन्न रोबोटिक सेंसरों से इनपुट लेता है, "एजेंसी और एंबाडीमेंट (चेतना की ढाँचे में मौजूदगी)" की कसौटी पर खरा उतरा। और एल्मोज़्निनो के मुताबिक जरा सी छूट दें तो इसमें कुछ हद तक ग्लोबल न्यूरोनल वर्कस्पेस भी दिखता है।

डीपमाइंड कंपनी का ट्रांसफॉर्मर-आधारित एडेप्टिव एजेंट (ए डी ए), जिसे एक बनावटी 3-डी (तीन-आयामी) स्पेस में एक नमूना नियंत्रित करने के लिए प्रशिक्षित किया गया था, वह भी "एजेंसी और एंबाडीमेंट" के लिए सही निकला, भले ही इसमें PaLM -E जैसे भौतिक सेंसर का अभाव है। ए डी ए में मानकों के अनुरूप होने की सबसे अधिक संभावना थी, क्योंकि इसमें परिवेश के भौतिक फैलाव की अच्छी समझ दिखी।

यह देखते हुए कि किसी भी ए-आई पर मुट्ठी भर खानों से अधिक पर टिक नहीं लगाए जा सकते हैं, इनमें से कोई भी चेतना के लिए एक तगड़ा उम्मीदवार नहीं है, हालांकि एल्मोज़निनो के मुताबिक इन खासियत को ए-आई के डिजाइन में डालना मामूली बात होगी।" अभी तक किसी के ऐसा नहीं कर पाने की वजह यह है कि इनकी मौजूदगी से मिलने वाले फायदें पर साफ समझ नहीं है।

परचे के लेखकों का कहना है कि उनकी चेक-लिस्ट पर काम चल रहा है। और यह इस तरह की अकेली कोशिश नहीं है। रज़ी के साथ समूह के कुछ सदस्य, सी आई एफ ए आर के अनुदान से शुरू हुई, चेतना पर बड़ी जाँच (शोध) की योजना में शामिल हैं, जिसमें तंतुओं से बने अंगों-जैसे ऑर्गेनॉएड्स, जानवरों और नवजात शिशुओं पर काम किया जा सकता है। उन्हें अपने शोध पर अगले कुछ महीनों में एक और परचा तैयार करने की उम्मीद है।

ऐसी सभी योजनाओं के लिए समस्या यह है कि अभी जो सिद्धांत हमारे पास हैं, वे मानव चेतना की हमारी अपनी समझ पर आधारित हैं। पर चेतना दीगर रूपों में आ सकती है, यहां तक कि हमारे साथी स्तनधारी प्राणियों में भी वह मौजूद हो सकती है। अमेरिकन दार्शनिक थॉमस नेगल ने साठ साल पहले कभी यह सवाल रखा था कि अगर हम चमगादड़ होते तो कैसे होते यानी एक तरह की चेतना चमगादड़ों में भी है, हम कैसे जानें कि वह हमारी जैसी है या नहीं। जाहिर है कि ये सवाल जटिल हैं और आगे इस दिशा में तेजी से तरक़्की होने की उम्मीदें बरकरार हैं।



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Sunday, April 16, 2023

चैट-जीपीटी

 चैट-जीपीटी - इंसानी अजूबा या धोखेबाजों के हाथ नया औजार?

- 'स्रोत' के फरवरी अंक में प्रकाशित

मैं जिस संस्थान में काम करता हूँ,  पिछले ढाई महीनों से वहां कई अध्यापक ईमेल पर 'चैट-जीपीटी' पर चर्चा कर रहे हैं। दरअसल दुनिया भर में तालीम और अध्यापन से जुड़े लोगों में बड़ी संजीदगी से  यह चर्चा चल रही है। खास तौर पर मौलिक लेखन को लेकर एक संकट सा फैलता दिख रहा है। यह चैट-जीपीटी क्या है? 

ए-आई की दौड़ में मील का पत्थर - चैट-जीपीटी

हाल में कंप्यूटर साइंस और सूचना टेक्नोलॉजी में जो बड़े पैमाने की तरक्की हुई है, उसी की एक कड़ी ए-आई यानी कृत्रिम बुद्धि या गैर कुदरती समझ में हुए शोध की है। इस के कई अलग पहलुओं में रोबोटिक्स, भाषा की प्रोसेसिंग (एन-एल-पी या नैटरल लैंग्वेज़ प्रोसेसिंग) आदि हैं। चैट-जीपीटी या (ChatGPT - Chat Generative Pre-trained Transformer) ओपन-एआई नाम की एक कंपनी द्वारा बनाया ऐसा सॉफ्टवेयर है, जिससे पहले से 'प्री-ट्रेन्ड' या पर्याप्त रूप से पढ़ाया जा चुका कंप्यूटर, किसी विषय को समझ कर उसके बारे में नए लेख 'जेनरेट' यानी अपनी ओर से पेश कर सकता है। इसके अलावा इसके और भी कई चमत्कार हैं, जैे कलाकृतियाँ या गीत आदि पेश करना, पर लेखन में इसकी महारत को लेकर ज्यादा शंकाएँ हैं।

एल-एल-एम यानी  लार्ज लैंग्वेज़ मॉडल -  चैटबॉट

नवंबर 2022 के आखिरी दिन बाज़ार में आया यह सॉफ्टवेयर दरअसल लंबे समय से चले आ रहे शोध की एक कड़ी है। ऐसे पहले आ चुके मॉडल GPT-3 सिलसिले के के लार्ज लैंग्वेज़ (large language) मॉडल (LLM) या चैट-बॉट (chatbot) कहलाते थे। बॉट शब्द रोबोट से आया है। 'चैट' यानी कंप्यूटर से गुफ्तगू। जब इंटरनेट पर मौजूद किसी सॉफ्टवेयर-प्रोग्राम से बार-बार खास किस्म का काम करवाया जा सके (भला या बुरा कुछ भी), तो उसे बॉट कहा जाता है। चैट-जीपीटी को भी चैट-बॉट ही कहा जाता है; इस की खासियत पहले आए मॉडल की तुलना में कहीं ज्यादा बेहतर समझ और उसके मुताबिक लेख तैयार करने में है। 

शंकाएँ

क़माल इस बात का है कि हालांकि चैट-जीपीटी से तैयार किए गए लेख पूरी तरह सही नहीं होते, और ध्यान से पढ़ने पर उनमें ग़लतियां दिख जाती हैं, फिर भी हर किस्म के लेखन की दुनिया में इसे लेकर बड़ी फिक्र जताई जा रही है। विज्ञान की नामी शोध पत्रिकाओं में, जिनमें 'नेचर' शामिल है, आम पाठकों और वैज्ञानिक समुदाय को इसके ग़लत इस्तेमाल पर सचेत करते हुए आलेख छपे हैं। यह आशंका जताई गई है की आधुनिक विज्ञान की जटिलता की वजह से चैट-जीपीटी की मदद से तैयार किए गए जाली लेखों के सार पढ़कर विषय के माहिर यह तय नहीं कर पाएंगे कि यह लेख जाली हैं और ऐसे लेखों को छापने की रज़ामंदी दे देंगे। 

 न्यूरॉन-तंत्र से प्रेरित जटिल सॉफ्टवेयर

चैट-बॉट को समझने का एक आसान तरीका गूगल-ट्रांसलेशन हो सकता है। अगर आप गूगल कंपनी के इस तकनीक का इस्तेमाल करते हैं, तो आप जानते होंगे कि बार-बार इस्तेमाल करने से तरजुमा का स्तर बेहतर होता जाता है; यानी कि पहली कोशिश में जो ग़लतियां होती हैं और हम उन्हें सुधारते हैं तो कंप्यूटर उस सुधार को समझ लेता है और अगली कोशिशों में वह संशोधित शब्द या वाक्य ही सामने लाता है। चैट-बॉट की बुनियाद में इसे और भी ऊँचे स्तर तक ले जाया गया है। ए-आई यानी कृत्रिम बुद्धि के शोध में इसे मशीन-लर्निंग यानी मशीन का सीखना कहा जाता है। जैविक न्यूरॉन-तंत्र से प्रेरित जटिल सॉफ्टवेयर तैयार किए गए हैं, जिनमें जैविक-तंत्र की तरह ही सूचना की प्रोसेसिंग होती है, और जैसे हमारा ज़हन किसी प्राप्त जानकारी के प्रति कोई प्रतिक्रिया रखता है, उसी तरह कंप्यूटर भी दी गई जानकारी को सीख कर किसी कहे मुताबिक एक प्रतिक्रिया सामने रखता है। इसी तरह के शोध की सबसे अगली कड़ी में चैट-बॉट होते हैं। इनका इस्तेमाल दरअसल लेखन को बेहतर बनाने के लिए यानी ग़लतियों को कम करने के लिए ही किया जाना चाहिए। इस का फायदा उठाते हुए कई लोगों ने शोध के आंकड़ों को चैट-बॉट में दर्ज करते हुए बेहतरीन परचे तैयार किए हैं। जाहिर है कि पूरी तरह चैट-बॉट का लिखा परचा सही नहीं हो सकता, क्योंकि मशीन आखिर मशीन है और उससे सौ फ़ीसदी सही नतीजा नहीं आ सकता। फिर भी गड़बड़ी की आशंका बेवजह नहीं है -  जैसे बिल्कुल नए किसी शोध पर भरपूर महारत ना होना, या व्यस्तता के कारण सरसरी निगाह से सामने आए लेख को देखना, आदि कई वजहों से, अक्सर पूरी तरह सही ना होते हुए भी लेख छप जाते हैं। इसी तरह अध्यापक अगर बड़ी तादाद में छात्रों की कॉपियां जांचते हैं तो अक्सर किसी का लिखा पूरा पढ़ पाना मुमकिन नहीं होता; यानी तजुर्बे के आधार पर जितना हो सके पढ़कर जांच का नतीजा तय लेता है - यहीं पर चैट-जीपीटी जैसे ताकतवर सॉफ्टवेयर से खतरा पेश आता है।

आमतौर पर नकल या जाली काम पकड़ने के लिए प्लेजियरिज़्म यानी नकल-पकड़ चेकर (plagiarism checker)  सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल होता है। ऐसा पाया गया है कि अक्सर चैट-बॉट से तैयार लेखों के सार इस तरह की जांच से बच निकले हैं। इससे वैज्ञानिक लेखन की नैतिकता को लेकर बड़े सवाल सामने आए हैं और नेचर पत्रिका और ए-आई पर होने वाले सबसे मशहूर सम्मेलनों में आने वाले परचों के लिए चैट-जीपीटी के इस्तेमाल पर मनाही हो गई है। दुनिया भर में तालीम के संस्थान चैट-जीपीटी पर नई नीतियां तय कर रहे हैं; मसलन न्यूयॉर्क शहर में सभी स्कूलों में चैट-जीपीटी के इस्तेमाल पर पाबंदी लगा दी गई है, यानी इन स्कूलों में मौजूद किसी भी कंप्यूटर पर और इंटरनेट के जरिए उपलब्ध संसाधनों में चैट-जीपीटी पर रोक लगा दी गई है। यह रोक छात्रों के सही ज्ञान पाने और मिल रही जानकारी की प्रमाणिकता को लेकर शंकाओं की वजह से लगाई गई है।  कई विषयों में सामान्य जानकारियाँ सुनकर चैट-बॉट बेहतरीन निबंध तैयार कर सकता है। इससे छात्रों को अभ्यास के लिए दी गई सामग्री की जांच के नतीजे सही ना हो पाने की आशंका बढ़ गई और ऐसा लगने लगा कि चैट-बॉट की मदद से जाली काम और नकल को बढ़ावा मिलेगा। अमेरिका के कई दूसरे शहरों में भी इस तरह के प्रतिबंध लगाए जा रहे हैं या उन पर सोचा जा रहा है।

रोक लगाना समस्या का हल नहीं

ऐसी शंकाएँ पहले भी जताई जा चुकी हैं, जब चैट-बॉट जैसे ताकतवर सॉफ्टवेयर नहीं होते थे और कंप्यूटर या ए-आई टेक्नोलोजी में कोई विलक्षण तरक्की हुई थी। इसलिए कई माहिरों का कहना है कि रोक लगाने से समस्या का निदान  नहीं होता है। दूसरी ओर चैट-जीपीटी से जो फायदे होने हैं, रोक लगने पर उनसे छात्र वंचित रह जाएँगे। बेहतर यह है कि अभ्यास के लिए कैसा काम दिया जाए, इस पर सोचा जाए, जैसे हाल में मिली जानकारियों पर आधारित काम दिए जाएँ, जिन पर चैट-जीपीटी के तंत्र में जानकारी नहीं होगी। ऐसा भी हो सकता है कि छात्रों से सचेत रूप से चैट-जीपीटी का इस्तेमाल करने को कहा जाए और इससे मिले आउटपुट पर आलोचनात्मक टिप्पणी करने को कहा जाए, ताकि यह पता चल सके कि छात्र को वाक़ई विषय की कितनी समझ है। या उन्हें क्लास में सवालों के जवाब पूछे जाएँ, जिससे उनकी क़ाबिलियत का सही अंदाज़ा हो सके। 

मूल समस्या पूँजीवादी समाज-तंत्र 

मूल समस्या यह है कि पूँजीवादी समाज-तंत्र में कम लागत पर ज्यादा से ज्यादा काम लेने की कोशिश की वजह से ये सारे विकल्प नाकामयाब रह जाते हैं, क्योंकि अक्सर अध्यापकों के पास इतना वक्त नहीं होता कि वे जाँच के लिए ज़रूरी भरपूर ध्यान दें। साथ ही जहाँ समाज में गैर-बराबरी है, अगर चैट-जीपीटी का कोई फायदा है तो बस उनके लिए है जो इसके इस्तेमाल का खर्चा उठा पाएँगे। 

विज्ञान लेखन में नैतिकता 

नैतिकता को ध्यान में रख कर, कई वैज्ञानिक चैटबॉट का इस्तेमाल करने पर लेखकों की प्रकाशित सूची में चैट-जीपीटी को भी शामिल कर रहे हैं, पर वैज्ञानिकों में से ज्यादातर इसके खिलाफ हैं। यह मुमकिन है चैट-जीपीटी को लेखक कहना एक मजाक हो सकता है - पालतू जानवरों और नकली नामों को शामिल करने के ऐसे मजाक पहले भी होते रहे हैं। पर ऐसा भी हो सकता है कि शोध की जानकारियों को ग़लत ढंग से लिखने या जाली बातें लिख कर पकड़े जाने से बचने के लिए भी कोई चैट-जीपीटी को लेखकों में शामिल करे। इसलिए प्रकाशन-संस्थाएँ इस बात को संजीदगी से ले रही हैं और लेखकों को अपने लिखे की पूरी जिम्मेदारी लेने के लिए कह रही हैं। वैज्ञानिक परचों में एक से ज्यादा लेखकों का होना आम बात है, क्योंकि शोध के काम में कोई मूल सवालों पर सोचता है, कोई प्रयोग करता है, आदि, और इस वजह से अलग-अलग किस्म की भागीदारी होती है, जिसकी सही स्वीकृति मिलना लाजिम है।  

टेक्नोलोजी बनाम इंसान

सूचना टेक्नोलोजी की बड़ी कंपनी माइक्रोसॉफ्ट ने ओपेन-आई कंपनी में दस बिलियन (अरब) डॉलर पैसा लगाने का तय किया है, जो कुछ सालों तक लगातार किश्तों में खर्च किया जाएगा।  माइक्रोसॉफ्ट ने पहले ही तीन अरब  डॉलर ओपेन-आई में लगाए हैं। जाहिर है कि बड़ी टेक-कंपनियों ने चैट-जीपीटी की कामयाबी को बड़ी संजीदगी से लिया है। पर इससे एक और खतरा सामने आता दिखता है। हाल में ही माइक्रोसॉफ्ट समेत कई कंपनियों ने बड़ी तादाद में कर्मचारियों की छँटाई की घोषणा की है। जैसे-जैसे मशीनों की काबिलियत बढ़ेगी, इंसान की मेहनत गैर-ज़रूरी होती जाएगी। इससे बेरोज़गारी बढ़ेगी और समाज में तनाव बढ़ेंगे।  माइक्रोसॉफ्ट के मुख्य प्रबंधन प्रभारी सत्य नेडेला ने कहा है कि दस हजार लोगों के छँटाई के बाद कंपनी ए-आई के शोध पर ज्यादा फोकस कर पाएगी। 

जैसा अक्सर होता है, ओपेन-आई कंपनी की शुरूआत मुनाफा न कमा कर शोध पर काम करने के लिए हुई थी, पर वक्त के साथ शोध के लिए पैसे जुटाने के लिए कंपनी में तैयार सॉफ्टवेयर को बाज़ार में बेचा जाने लगा और आज यह चैटबॉट बनाने वाली सबसे कामयाब और बेइंतहा मुनाफा कमाने वाली कंपनी बन चुकी है। 

रोचक बात यह है कि टेक्नोलोजी से आई बीमारियों का इलाज़ सतही तौर पर टेक्नोलोजी में ही ढूँढा जाता है। बेशक जहाँ पर्याप्त सुविधा हो, ए-आई का इस्तेमाल बढ़ता चलेगा। इसे खारिज करना आसान नहीं है, पर सावधानी और ग़लत इस्तेमाल के रोकथाम की गुंजाइश रहेगी। आखिर कौन नहीं चाहता कि कोई धोखेबाज हमें उल्लू न बनाए! चैट-जीपीटी के ग़लत इस्तेमाल को पकड़ने के लिए कई नए सॉफ्टवेयर तैयार हो चुके हैं, जिनमें  ओपेन-आई-डिटेक्टर, जी-एल-टी-आर, जीपीटी-ज़ीरो आदि मुख्य हैं। इनकी मदद से अध्यापक यह पकड़ सकते हैं कि किसी छात्र ने खुद अभ्यास का काम न कर  चैटबॉट की मदद से किया है। जहाँ इम्तहानों में छूट दी जाती है कि छात्र घर बैठ कर भी सवाल हल कर सकें, वहाँ भी इन चैट-जीपीटी प्रतिरोध ऐप आदि से पकड़ना आसान हो गया है कि किसी ने मौलिक काम किया है या नहीं। इस दिशा में बहुत सारा शोध जारी है और उम्मीद यही है कि  चैट-जीपीटी से जितना खतरा आँका गया है, आखिर में ऐसा न होकर इसका बेहतर इस्तेमाल ही होता रहेगा।  फिलहाल यही कहा जा सकता है कि आखिरी जीत इंसान की समझ और इल्म की ही होगी और टेक्नोलोजी एक हद तक ही हमें मात दे पाएगी। 


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