Monday, November 21, 2005

प्रवेश मीरा नंदा

पिछले चिट्ठे से आगे - ३

११९६ में EPW में जब सोकल अफेयर के बारे में और ऐलन सोकल और मीरा नंदा के आलेख पढ़े तो मैं उछल पड़ा। वर्षों से कालेज और विश्वविद्यालय के शिक्षकों के ओरिएंटेशन कोर्स वगैरह में जनविज्ञान आंदोलनों और वैज्ञानिक चेतना पर बातें करते हुए आत्म-चेतन सा होते हुए विज्ञान की नारीवादी और पर्यावरणवादी आलोचनाओं का उल्लेख मैं करता था, पर सचमुच कुछ समझ में नहीं आता था। हालाँकि तीसरी दुनिया के संदर्भ में विज्ञान की निरपेक्षता पर सवाल उठाने की प्रक्रिया से मैं भी गुजर चुका था। रेगन के जमाने में प्रिंस्टन में शोधकार्य के दौरान वक्त निकाल कर बहस करते ही रहते थे। बॉस्टन से निकलनेवाली साइंस फर द पीपल नाम की पत्रिका लगातार पढ़ना और दूसरों को पढ़ाना हमारा धर्म-कर्म था। उन्हीं दिनों 'the neutrality of fundamental science: a third world perspective on the myth' नाम से एक आलेख भी लिखा था। कहीं छपा नहीं और न ही वह जमाना चिट्ठाकारी का था। बहरहाल, विज्ञान की वह आलोचना बड़ी सरलीकृत थी, जिसमें मूल मुद्दा वैज्ञानिक कार्य के लिए सवालों के चयन और निर्णायक भूमिका में सुविधासंपन्न और शासक/शोषक वर्गों का नियंत्रण माना गया था। १९८७ में जब देशभर में जनविज्ञान का आंदोलन छिड़ा, एक सरल से नारे में इसे कुछ इस तरह से बखाना गया: विज्ञान क्या है मेहनत है, मेहनत किसकी, इंसान की, विज्ञान भी हो इंसान का। इन बातों से अलग जिस आलोचना का जिक्र हम यहाँ कर रहे हैं, वह बड़ी जटिल है और इसके मुताबिक विज्ञान की बुनियादी संरचना में ही मानव विरोधी, प्रकृति विरोधी और द्वंद्वात्मक स्तर पर नारी/पर्यावरण विरोधी तत्व हैं। अगर संरचना के स्तर पर विज्ञान में खामियाँ हैं, तो लोगों तक विज्ञान फैलाने का सवाल ही कैसे उठता है। सोकल अफेयर से पहले लोकतांत्रिक होने की कोशिश में हर तरह के विचार को मैं सामने रख तो देता, पर कहीं न कहीं मन में अनसुलझी गुत्थियाँ रह जातीं। सोकल में हमें अपनी आवाज़ सुनाई पड़ने लगी। मीरा ने अपने आलेखों में विज्ञान को आत्म-संघर्ष और मुक्ति के साधन के रुप में देखा था। इससे मैं प्रभावित था।

पहली बार सोकल पढ़ते ही मैंने हमारे राजनीति शास्त्र के जाने माने प्रोफेसर भुपिंदर बराड़ को फोन किया और उनसे आग्रह किया कि वे जल्दी ही सोकल अफेयर पर कोई चर्चा आयोजित करें। बराड़ साहब ने जे एन यू से पी एच डी की थी और मेरे जैसे पागलों के रहनुमाओं में से हैं। वैसे ऐसी चर्चा आज तक नहीं हुई। मुझे सचमुच यह घटना बहुत बडी लगती रही और कुछ वर्षों बाद मैं सोचता रहा कि कहीं फेलोशिप लेकर जाके जम कर साइंस स्टडीज़ की जाए। बस सोचता ही रहा। वैसे ठीक भी था। हर ज़रुरी काम के लिए लंगोट बाँधे दौड़ते रहना ठीक नहीं। वैसे भी अपने मूल काम से अलग सिर्फ एक ही चीज़ मैं जी लगाकर कर पाता हूँ, वह है कहानी कविताएँ पढ़ना। तो इसलिए अनुनाद जी, विचार मेरे नहीं, मूल वैचारिक काम तो औरों ने ही किया है, मैं तो सिर्फ अलग-अलग धारणाओं को सामने रख रहा हूँ। हाँ, किसी एक पक्ष में मैं खड़ा हूँ, दूसरे पक्ष से सकारात्मक कुछ सीखते हुए। अभी कल ही किसी छात्र ने मुझसे पूछा कि ज़िंदगी (मूल्य) कैसे जिएं (भावुक हो रहा था, साढ़े तीन महीनों बाद यह डेरा छोड़ रहा हूँ, मैं भी रोता हूँ, कुछ ये युवा दोस्त रोते हैं)। मैंने कहा, हम संवेदनशील बनें- सिर्फ तकलीफों के प्रति नहीं, विचारों के प्रति। तो इसलिए वैचारिक गड्डमड्ड है।

जितना भी गंभीर लगता हो, चिट्ठाकारी तो सेल्फ-थीरेप्युटिक अभ्यास है। अगर वैचारिक कसरत की इच्छा होती तो मैं कहीं और लिख रहा होता।

बहरहाल, लंबे समय से मीरा नंदा को ढूँढता रहा। कहीं से उसका ई-मेल न मिला। इसी बीच दिल्ली के अपने जाने माने समाज-विज्ञान के विद्वानों के साथ बातचीत से यह भी लगा कि यह महिला कोई बहुत लोकप्रिय भी नहीं है। भारतीय सामाजिक विज्ञान में पोलेमिक्स (शास्त्रार्थ भी गाली गलौज भी) की परंपरा की जड़ें गहरी हैं। न ये कम, न वो कम। इतना पता चला था कि मीरा का प्रशिक्षण जीव विज्ञान (पी एच डी) में हुआ और उसके बाद किसी अखबार के लिए विज्ञान पत्रकारिता की। आखिर 'फ्रंटलाइन' में एक सांवादिक मित्र के जरिए पता मिल ही गया। मैंने मेल भेजी तो पता चला कि पहाड़ खुद ही मौला से मिलने आ रहा है। सुखद आश्चर्य था कि मीरा चंडीगढ़ की ही पली हुई है और जब संपर्क हुआ तो वह यहीं आ रही थी। मुझे अपनी पत्नी और बेटी को सी ऑफ करने दिल्ली जाना था, उसी रात उसे पहुँचना था। यह बड़ी रोचक कहानी है कि उस दिन वह पहुँची नहीं और मैंने कोशिश कर पता लगाया कि वह अगली रात वाली फ्लाइट से आ रही है। कुढ़ता हुआ वापस लौटा। रास्ते में ही असद जैदी (प्रख्यात कवि और मीरा के पुराने मित्र) को फोन किया और दूसरी रात असद ने उसे रीसीव कर सुबह चंडीगढ़ रवाना किया। दिन आगे पीछे होने की गड़बड़ मैंने नहीं, उसी ने की थी :-)।

जाना कि मीरा की माइक्रोबायोलोजी में बी एस सी, एम एस सी की पढ़ाई हमारे ही विश्वविद्यालय से है। १९७९ में जब मैं आई आई टी कानपुर (जिसे हम अमरीका का चौवनवाँ राज्य कहते थे) से निकल कर प्रिंस्टन चला, उसी साल मीरा बायोटेक्नोलोजी में पी एच डी करने आई आई टी दिल्ली पहुँची। दिल्ली में बौद्धिक जगत में विज्ञान, सार्वभौमिक बनाम स्थानीय सत्य और हाशिए पर खड़े लोगों और संस्कृतियों के विज्ञान की चर्चाएं गर्म थीं। मीरा ने विज्ञान के पक्ष में बात रखी और बाद में अमरीका में आकर विज्ञान के दर्शन और इतिहास पर शोध किया और दूसरी पी एच डी डिग्री ली। इन दिनों अपने इंजीनियर पति और बेटी के साथ अमरीका में ही रहती है।

हमलोगों ने छात्रों की संस्था 'क्रिटीक' के फोरम पर मीरा को सुना। हमलोग पिछले दस साल के एक ऐसे समय में से निकल रहे थे जब आज़ादी के बाद पहली बार देश अंधकार की ओर जाता दिख रहा था। ऐसे में पुनरुत्थानवादियों के खिलाफ मीरा के वैचारिक संघर्ष की बातें सुन से हम लोगों को काफी ताकत मिली, हालाँकि सामाजिक विज्ञान में लोग उसे गंभीरता से नहीं ले रहे और भारतीय वैज्ञानिकों को तो उसकी भाषा समझ में ही नहीं आती। इस प्रसंग में यह कहना ज़रुरी है कि अमेरिकन फ़िज़िकल सोसाएटी के बुलेटिन 'फ़िज़िक्स टुडे' में साइंस वार् स पर अच्छी बहस हुई है और पक्ष विपक्ष दोनों ओर के मत सामने आए हैं (देखिए "The Sokal Hoax: At Whom Are We Laughing?" by Mara Beller, Physics Today, Sep 1998, p. 68 और इसके पहले और बाद के कई संपादकीय, आलेख और ख़तो-किताबत और पुस्तक समीक्षा, "Bringing Reason and Context to the Science Wars", Physics Today, May 2001, p.57 )।

बहुत हो गया, यारों। अब अगली बार।

3 comments:

मिर्ची सेठ said...

आई आई टी को चौवनवां राज्य मानना पहली बार सुन रहा हूँ वह भी १९७९ में। मेरे पी ई सी के सहपाठी सिंगापुर में कार्यरत हैं व वे सिंगापुर को अमरीका का अगला राज्य ही मानते हैं। पर एक बात समझ नहीं आई चौवनवां क्यों? अगर होना चाहिए तो इकयावनवां क्यूंकि ५० राज्य हैं।

Kaul said...

यह बात काफी रोचक है, क्योंकि मैं अपने ऑस्ट्रेलिया में बसे अपने दोस्त से बात कर रहा था, उसका ऑस्ट्रेलिया के बारे में भी यही कहना था। यही अनुभव मेरा कैनाडा में रहने के बाद हुआ। इन सब देशों में रहने वाले (मज़ाक में ही सही) अपने देश को अमरीका का एक प्रदेश मानें, पर आम अमरीकी को यह नहीं पता होता के अमरीका के बाहर भी दुनिया है।

रवि रतलामी said...

कैसे धारदार अनुभव रहे हैं आपके!

रचनाकार पर आपकी रचनाओं की प्रतीक्षा है.