Sunday, December 28, 2008

सबको नया साल मुबारक

लंबे समय से ब्लॉग लिखा नहीं। इधर कुछ कविताएँ पत्रिकाओं में आती रहीं तो लगा कि चलो कुछ तो लिखा। ऐसा होना नहीं चाहिए। जो लोग लिख रहे हैं अच्छा लिख रहे हैं। हालाँकि कभी कभी कुछ चीज़ें पढ़ कर हताशा होती है, फिर भी जो लिख रहे हैं, उनको धन्यवाद और बधाई। धरती पर बकवास करने वालों के लिए भी जगह है।

किसी जनाब ने मेल भेजी कि हमारा ब्लॉग पढ़ो। चलो भई देख लिया। क्या, कि इस मुल्क में गीता पढ़ना सांप्रदायिक माना जाता है, और अमरीका में किसी कालेज में सबको गीता पढ़ाई जा रही है। मैं तकरीबन एक लाख हिंदुस्तानियों को तो जानता ही हूँगा, बहुत कोशिश की कि कोई ऐसा व्यक्ति याद आए जो मुझे इस वजह से सांप्रदायिक मानता हो कि मैंने गीता पढ़ी है। जिन हजारों अमरीकी लोगों को जानता हूँ उनमें से याद करने की कोशिश की कि कितने लोग गीता पढ़े होंगे। चूँकि मैं भारतीय हूँ तो जानकार अमरीकी लोगों में बहुत बड़ी तादाद उन लोगों की है जिनकी भारत में रुचि है। फिर भी ज़िंदा लोगों में से कोई याद न आया जिसने अंग्रेज़ी में भी गीता पढ़ी हो। वैसे नाभिकीय बम के पहले प्रोजेक्ट मैनहाटान प्रोजेक्ट के डिरेक्टर प्रख्यात वैज्ञानिक राबर्ट ओपेनहाइमर ने पहला नाभिकीय धमाका देखकर गीता का श्लोक पढ़ा था। आज अगर इस प्रसंग से कोई गर्वित होता हो तो हमें तो अवसाद ही होता है। चलो, भले लोग कहेंगे कि ऐसी बातों पर क्यों वक्त जाया करते हो। मुसीबत यह है कि जब चारों ओर काली घटाएँ हों और ऐसे लोगों की तादाद बहुत बड़ी हो तो चिंता होती है। एक साथी है, कहता थकता नहीं कि उसके वामपंथी मित्रों को उसने सदा ही सम्मान किया है। पर जब भी कहीं किसी बेवकूफ ने कुछ ऐसा लिखा हो कि जन की बात करने वालो तुमलोग तो ऐसे हो वैसे हो तो तुरंत सबको मेल भेजता है। आउटलुक में किसी स्वघोषित पुलिस अफसर ने सभ्य भाषा में अरुंधती राय को गाली गलौज करते हुए लिखा कि भई तुम तो पुलिस के हर काम को बुरा और आतंकवादियों के हर काम को अच्छा मानती हो इत्यादि। तो जनाब ने तुरंत बटन दबाए और ये लो पढ़ो कौम के रखवालो। आम तौर पर मैं ऐसी ऊल जलूल चीजों को नज़रअंदाज कर देता हूँ, पर बंदे को समझाने के लिए लिखा कि पढ़े लिखे समझदार आदमी हो, वक्त लगा रहे हो और दूसरों का वक्त भी माँग रहे हो, तो तुम्हें पता जरुर होगा कि अरुंधती ने कहाँ यह लिखा है कि पुलिस का 'हर' काम खराब होता है और आतंकवादियों का 'हर' काम भला, तो हमें भी बतला दो तो अरुंधती के प्रति जो ईर्ष्या है उसमें कुंठित उल्लास भी मिल जाएगा। और नहीं मालूम तो भइया अब और मत लिखना। तो भाई साहब दो दिन बाद मेरे दफ्तर में ही हाजिर कि नहीं अरुंधती ने लिखा है कि गुजरात में यह हुआ वह हुआ और नरेंद्र मोदी अभी तक खुला घूम रहा है। तो पूछा कि इसमें गलत क्या लिखा है और जानना चाहा कि पढ़ा लिखा आदमी ऐसा बकवास क्यों करता है। तो भाई वापस उस लाइन पर आ गया कि नहीं हम वामपंथियों का बहुत सम्मान करते हैं। हे भगवान, इन बीमार लोगों का कुछ कल्याण करो। मुसीबत यह कि अपना कोई भगवान है नहीं इसलिए हमारी प्रार्थना भी किसी काम की नहीं।

अच्छी खबर यह कि इस बीच पाकिस्तान से एक मित्र सरमद अब्बासी ने मुंबई की घटनाओं पर गहरा दुःख प्रकट करते हुए और पाकिस्तान की मुख्यधारा से खुद को अलग करते हुए दोस्तों को मेल भेजी है कि पाकिस्तान पर दबाव बढ़े और वहाँ सेना, खुफिया एजेंसियाँ और आतंकवादियों के गठजोड़ ने पंद्रह करोड़ लोगों पर जो कहर बरपा रखा है वह खत्म हो। सरमद ने निजी तौर पर हर हिंदुस्तानी से माफी माँगी है कि बदकिस्मती से वह ऐसे भौगोलिक क्षेत्र में मौजूद है जहाँ आतंकवादी हरकतों को बढ़ावा मिल रहा है।

अब मेरी एक कविता जो हाल में दैनिक भास्कर में आई थी -

कितना गुस्सा होता है


कितने टुकड़ों में कटे आदमी
कि बदला लिया जा सकता है
एक बलात्कार का
एक जलाए घर का
एक बच्चे को अनाथ किए जाने का

कितना गुस्सा होता है आदमी को
आदमी से आदमियत छीने जाने के खिलाफ

यह ग़ैरज़रुरी सवाल सोचना ज़रुरी है
शामिल किया जाना चाहिए इस सवाल को
उपनिषदों या हदीसों में
धर्मगुरुओं ने युद्ध सरदारों के हाथ
मौत के मंत्र दिए या नहीं दिए कौन जानता है
यह लाजिमी है कि दिया जाना चाहिए
कोई बहीखाता जिसमें रखा जाए हिसाब मौतों के लेनदेन का

आइए कि ऐसा धर्म गढ़ें जिसमें
पहली बात यही हो कि
मौत बलात्कार आदि के सूत्र और समीकरण
सीख जाए आदमी
कितने बच्चे और हों सन्न
कितनी औरतें हों चीखतीं

अगली बार गुजरते हुए बाज़ार से कैलकुलेटर में
हिसाब लगाएँ कि आज फिर कैसे मरना है।
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और आखिर में सबको नया साल मुबारक।

Thursday, November 13, 2008

दो कवितायें

वागर्थ के नवंबर अंक में छः कविताएँ आयी हैं। आखिरी दो कवितायें मिलकर एक हो गयी हैं। यानी कि छठी कविता के शीर्षक का फोन्ट साइज कम हो गया है। यहाँ दुबारा पोस्ट कर रहा हूँ।

कल चिंताओं से रातभर गुफ्तगू की

कल चिंताओं से रातभर गुफ्तगू की
बड़ी छोटी रंग बिरंगी चिंताएँ
गरीब और अमीर चिंताएँ
स्वस्थ और बीमार चिंताएँ
सही और गलत चिंताएँ

चिंताओं ने दरकिनार कर दिया प्यार
कुछ और सिकुड़ से गए आने वाले दिन चार
बिस्तर पर लेटा तो साथ लेटीं थीं चिंताएँ
करवटें ले रही थीं बार बार चिंताएँ

सुबह साथ जगी हैं चिंताएँ
न पूरी हुई नींद से थकी हैं चिंताएँ।
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वैसे सचमुच कौन जानता है कि

वैसे सचमुच कौन जानता है कि
दुःख कौन बाँटता है
देवों दैत्यों के अलावा पीड़ाएँ बाँटने के लिए
कोई और भी है डिपार्टमेंट
ठीक ठीक हिसाब कर जहाँ हर किसी के लेखे
बँटते हैं आँसू
खारा स्वाद ज़रुरी समझा गया होगा सृष्टि के नियमों में
बाकायदा एजेंट तय किए गए होंगे
जिनसे गाहे बगाहे टकराते हैं हम घर बाज़ार
और मिलता है हमें अपने दुःखों का भंडार।

पेड़ों और हवाओं को भी मिलते हैं दुःख
अपने हिस्से के
जो हमें देते हैं अपने कंधे
वे पेड़ ही हैं
अपने आँसुओं को हवाओं से साझा कर
पोंछते हैं हमारी गीली आँखें

इसलिए डरते हैं हम यह सोचकर
कि वह दुनिया कैसी होगी
जहाँ पेड़ न होंगे।

Saturday, September 27, 2008

शब्दः दो कविताएँ

1


जैसे चाकू होता नहीं हिंस्र औजार हमेशा
शब्द नहीं होते अमूर्त्त हमेशा

चाकू का इस्तेमाल करते हैं फलों को छीलने के लिए
आलू गोभी या इतर सब्ज़ियाँ काटते हैं चाकू से ही
कभी कभी गलत इस्तेमाल से चाकू बन जाता है स्क्रू ड्राइवर या
डिब्बे खोलने का यंत्र
चाकू होता है मौत का औजार हमलावरों के हाथ
या उनसे बचने के लिए उठे हाथों में

कोई भी चीज़ हो सकती है निरीह और खूँखार
पुस्तक पढ़ी न जाए तो होती है निष्प्राण
उठा कर फेंकी जा सकती है किसी को थोड़ी सही चोट पहुँचाने के लिए
बर्त्तन जिसमें रखे जाते हैं ठोस या तरल खाद्य
बन सकते हैं असरदार जो मारा जाए किसी को

शब्द भी होते हैं खतरनाक
सँभल कर रचे कहे जाने चाहिए
क्या पता कौन कहाँ मरता है
शब्दों के गलत इस्तेमाल से।


2

सीखो शब्दों को सही सही
शब्द जो बोलते हैं
और शब्द जो चुप होते हैं

अक्सर प्यार और नफ़रत
बिना कहे ही कहे जाते हैं
इनमें ध्वनि नहीं होती पर होती है
बहुत घनी गूँज
जो सुनाई पड़ती है
धरती के इस पार से उस पार तक

व्यर्थ ही कुछ लोग चिंतित हैं कि नुक्ता सही लगा या नहीं
कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन कह रहा है देस देश को
फर्क पड़ता है जब सही आवाज नहीं निकलती
जब किसी से बस इतना कहना हो
कि तुम्हारी आँखों में जादू है
फर्क पड़ता है जब सही न कही गई हो एक सहज सी बात
कि ब्रह्मांड के दूसरे कोने से आया हूँ
जानेमन तुम्हें छूने के लिए।
(जनसत्ताः २१ सितंबर २००८)

Wednesday, September 10, 2008

चलो मन आज खेल की दुनिया में चलो

बिहार में बाढ़ की स्थिति और उड़ीसा के दंगों से मन ऐसा बेचैन था कि कई बार लिखते लिखते भी कुछ लिख न पाया। इसी बीच एक धार्मिक प्रवृत्ति के सहकर्मी ने कैंपस में हुई गणेश पूजा पर एक कविता लिखी। आम तौर पर मैं छंद में बँधी कविता में रुचि नहीं लेता, पर मुझे साथी की चिंताएँ ज़रुरी लगीं। उसे यहाँ दे रहा हूँ।
गणपति बप्पा
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गणपति बप्पा लाये गये, सत्कार किया गया उनका .
व्यवस्थित सज्जित कमरे में, आसन तैयार हुआ उनका.
बैठाकर लोग जो लाये थे, कुछ इधर हुये कुछ उधर हुये.
पता ही न चला उनका, जो लाये थे वे किधर गये.
सुना गणपति जी ने सत्कार घोष, मन में मोद मनाया.
क्षणिक थी वह घोष गर्जना,फिर छा गई चुप्पी छाया.
सोचा मन में क्यों लोगों ने, लाकर यहां बैठाया.
क्षणिक ही है यह श्रद्धा, सबने अपना व्यापार चलाया.
कोई नहीं समय है देता, भक्ति श्रद्धा पूजा में,
समय गंवाते मानव हैं सब, अपना पराया दूजा में.
भूला भटका कोई आया, माथ नवाकर चला गया.
कोई-२तो आकर बस, हाथ हिलाकर चला गया.
यूं ही आते जाते हैं, कदाचित् फल फूल भोग चढा गये.
एकान्त निर्जन कमरे में, लोग मुझे बस बिठा गये.
क्यों बिठाया कुछ न कहते,बस आकर देख चले जाते.
समय हुआ बैठाने का तो, ले जाकर लोग मुझे डुबाते.
करते हैं विसर्जन मेरा, स्वयं ही तो करके सर्जन .
इस सारी प्रक्रिया में, क्या होता है उनको अर्जन?
वैसे तो मानव लडते रहते, भेद भाव बढाते हैं.
ऊंच नीच की खाई करके, कब्रें यहां सजाते हैं.
नहीं रही है श्रद्धा मुझपे, मेरा तो अपमान है.
मेरी जैसी स्थिति में, सारे ही भगवान् हैं.
जैसे सत्कार किया लाने में, ले जाने में दो गुना होता.
मानव मुझे बहाने में, ज्यादा खुश है क्यों होता ?
मानव को मेरी क्या जरुरत, मानव मुझको क्यों लाता?
क्या मुझपे वह श्रद्धा रखता, या मुझको वह झुठलाता.
क्या मिलती है उसको शिक्षा ? क्या उसने मुझसे पाया?
अंध परम्परा और भक्ति का, पाखण्ड असत्य क्यों भाया?
मानव प्रदर्शन करता है, मुझे बैठाकर वैभव का.
और क्या मतलब हो सकता है, इन चन्द दिनों के उत्सव का?
इस बहाने वह करता है, निज मनोरंजन ओर प्रदर्शन भी.
मुझपे श्रद्धा और भक्ति तो, नहीं दीखती कहीं कुछ भी.
मानव मानव को मारे, क्या यही है सच्ची भक्ति ?
ईश खुदा भगवान् की ,क्या ऐसी उल्टी है शक्ति ?
जिसको पाकर मानव करता, जीवन का ही मर्दन.
पशुपक्षी और वृक्षवनस्पति, सबकी फंसी है गर्दन.

इसी बीच अनुराग वत्स ने अपनी ब्लॉग मैगज़ीन पर मुझपर और मेरी कविताओं पर एक पोस्ट डाला है। मेरी अप्रकाशित दो कविताएँ वहाँ हैं। एक कविता हाल में अमर उजाला में आई है

चलो मन आज खेल की दुनिया में चलो

चलो मन आज
खेल की दुनिया में चलो

स्वर्ण पदक ले लो
विजेता के साथ खड़े होकर
निशानेबाज बढ़िया हो बंधु कहो उसे

फुटबाल मैच जो नहीं हुआ
दर्शकों की दीर्घा में नाराज़
लोगों को कविता सुनाओ

पैसे वाले खेलों को सट्टेबाजों के लिए छोड़ दो
ऐसे मैदानों में चलो जहाँ खिलाड़ी खेलते हैं

खिंची नसों को सहेजो
घावों पर मरहम लगाओ
गोलपोस्ट से गोलपोस्ट तक नाचो
कलाबाजियों में देखो मानव सुंदर

खेलते हुए ढूँढता है घास हवा में अपना पूरक
कैसे बनता है वह हरे कैनवस पर भरपूर प्राण

चलो मन आज
खेल की दुनिया में चलो

Saturday, August 30, 2008

कामयाब ग़ज़ल

मैं आम तौर पर ग़ज़ल लिखता नहीं। भला हो उम मित्रों का जिन्होंने सही चेतावनी दी है समय समय पर कि यह तुम्हारा काम नहीं। पर कभी कभी सनक सवार हो ही जाती है।
तो गोपाल जोशी के सवाल का जवाब लिखने के बाद से मन में कुछ बातें चल रही थीं, उनपर ग़ज़ल लिख ही डाली। कमाल यह कि यह ग़ज़ल दोस्तों को पसंद भी आई। साथ में जो दूसरी ग़ज़लें लिखीं, उन को पढ़कर लोग मुँह छिपाते हैं, भई अब दाढ़ी सफेद हो गई है, दिखना नहीं चाहिए न कि कोई मुझ पर हँस रहा है।

तो यह है वह कामयाब ग़ज़लः


बात इतनी कि हाइवे के किनारे फुटपाथ चाहिए
कुछ और नहीं तो मुझे सुकूं की रात चाहिए

मामूली इस जद्दोजहद में कल शामिल हुआ
यह कि शहर में शहर से हालात चाहिए

आदमी भी चल सके जहाँ मशीनें हैं दौड़तीं
रुक कर दो घड़ी करने को बात चाहिए

गाड़ीवालों के आगे हैसियत कुछ हो औरों की
ज्यादा नहीं बेधड़क चलने की औकात चाहिए

कहीं मिलें हम तुम और मैं गाऊँ गीत कोई
सड़क किनारे ऐसी इक बात बेबात चाहिए

ज़रुरी नहीं कि हर जगह हो चीनी इंकलाब
छोटी लड़ाइयाँ भी हैं लड़नी यह जज़्बात चाहिए।
****************************

तो यह तो ठहरी ग़ज़ल। अब ताज़ा हालात परः
***********************

जाओ टिंबक्टू में शुरु कर दो एक दंगा।
फिर किसी मुसलमान ने ढूँढ लिया कि कुदरत ने बनाया है बर्फीला शिवलिंग।
करो तीर्थ, जुटाओ तामझाम कि आदमी को फिर आदमी रहने से रोका जा सके।

इतिहास लिखो राजाओं का और आदमी से कहो कि भूल जाए वह खुद को।
फिर किसी काफिर ने दी चुनौती तुम्हारे कारकुनों को।
हो जाए, बहा दो खून। मरें साले, मरने वाले, हमें क्या।
ढम ढम ढढाम ढढाम
ढम ढम ढढाम ढढाम
टिंबक्टू है देश महान
टिंबक्टू है देश महान।

Sunday, August 24, 2008

एक क्षण होता है ऐसा

देशभक्त

दिन दहाड़े जिसकी हत्या हुई
जिसने हत्या की।

जिसका नाम इतिहास की पुस्तक में है
जिसका हटाया गया
जिसने बंदूक के सामने सीना ताना
जिसने बंदूक तानी।

कोई भी हो सकता है
माँ का बेटा, धरती का दावेदार
उगते या अस्त होते सूरज को देखकर
पुलकित होता, रोमांच भरे सपनों में
एक अमूर्त्त विचार के साथ प्रेमालाप करता ।

एक क्षण होता है ऐसा
जब उन्माद शिथिल पड़ता है
प्रेम तब प्रेम बन उगता है
देशभक्त का सीना तड़पता है
जीभ पर होता है आम इमली जैसी
स्मृतियों का स्वाद
नभ थल एकाकार उस शून्य में
जीता है वह प्राणी देशभक्त ।

वही जिसने ह्त्या की होती है
जिसकी हत्या हुई होती है ।
मार्च २००४ (पश्यंती २००४)

Saturday, August 23, 2008

अंत में लोग ही चुनेंगे रंग

गोपाल जोशी ने सवाल उठाया है कि सिर्फ समस्याओं को कहना क्यों, समाधान भी बतलाएँ। अव्वल तो समाधान की कोशिश ब्लॉग पर करना या ढूँढना मेरा मकसद नहीं है, मैं तो सिर्फ अपनी फक्कड़मिजाज़ी के चलते चिट्ठे लिखता हूँ। फिर भी अब बात चली है तो आगे बढ़ाएँ। समस्याओं के साथ जूझने का हम सबका अपना अपना तरीका है। एक ज़माना था जब लोग लाइन या एक निश्चित वैचारिक समझ की बात करते थे। हमलोगों ने कभी दौड़ते भागते पिटते पिटाते जाना कि हम मूलतः स्वच्छंदमना प्राणी हैं और लाइन वाला मामला हमलोगों पर फिट नहीं बैठता। ऐंड वाइसे वर्सा। दूसरे हमने यह भी जाना कि कुछ बुनियादी बातें हैं, जैसे बराबरी पर आधारित समाज, सबको न्यूनतम पोषकतत्वयुक्त भोजन, शिक्षा और आश्रय, आदि बातें, जिनके लिए कोई खास समझ की ज़रुरत नहीं होती, बस यह जानना ज़रुरी होता है कि आदमी आदमी है। जानवरों के साथ भी अच्छा सलूक करना है, यह भी बुनियादी बात है, पर मैं मांसाहारी हूँ, इसलिए .....।

बहरहाल बात हो रही है समाधान की। भाई, जहाँ अंतरिक्ष और नाभिकीय विज्ञान जैसी चुनौतियों पर लोग भिड़े हुए हैं, वहाँ अगर गरीबी कैसे कम करें या गाँव गाँव में बेहतर स्कूल क्यों नहीं हैं, या हर कोई पुलिस को दुश्मन क्यों मानता है जैसे सवाल हमारे सामने हैं तो कहीं कुछ गड़बड़ है। सवाल यह है कि समस्या ही सबको दिखती है क्या! सचमुच हमें गरीबी दिखती है क्या? हम जिस वर्ग के लोग हैं, वहाँ लोगों को गरीबी नहीं दिखती, उनको हर जगह दिखते हैं कामचोर, ज्यादा बच्चा पैदा करने वाले (अब ऐसे लोग बढ़ने लगे है, जिनको लोग गरीब नहीं खुश दिखने लगे हैं)। इसलिए मैं बीच बीच में रो लेता हूँ, कभी घर बैठ कर सिरहाने पर रो लेता हूँ, कभी ब्लॉग पर रो लेता हूँ। तो गोपाल कुमार विकल की लाइन याद दिलाते हैं : ' मार्क्स और लेनिन भी रोए थे, पर रोने के बाद वे कभी नहीं सोए थे।'

आम तौर पर इस तरह का लिखा बड़ा सरलीकृत सा दृष्टिकोण माना जाएगा। पर सच यह है कि अगर मैं दस किताबें भी लिखूँ और बहुत सारे आँकड़े पेश करूँ फिर भी मूल बात यही होगी। क्या गरीबी कहने से ही दूर हो जाएगी? सही है, कहने मात्र से समस्याएँ खत्म नहीं होतीं। ऐसा नहीं होता कि देश के सारे पैसे लोगों में बाँट दें तो समस्याएँ मिट जाएँगी। कई लोग कहेंगे कि अरे पाकिस्तान के साथ दोस्ती कैसे करें, क्या वो लोग करेंगे। इनके भाईजान सरहद की दूसरी ओर लोगों को इसी तरह बरगलाने में लगे हैं। अब सोचो, दो लोगों की आपस में दोस्ती कराना ज्यादा आसान है या उनको लड़ाना ज्यादा आसान है। इन पंडितों की मानें तो समस्याएँ हमेशा ही विकट रहेंगी, कोई समाधान नहीं है। कुछ लोग हैं जो पूछेंगे दुनिया में कहाँ लोग सुखी हैं। चलो यह भी सही, पर यह तो बतलाओ कि दुनिया में कहाँ लोग सुखी होने के लिए जद्दोजहद नहीं कर रहे? तो चीज़ों को ऐसे देखना है तो देखो कि लड़ाई है बंधु, हम सब इस लड़ाई में शामिल हैं, वो लकीरें खींचते रहेंगे, हम उनको मिटाने के लिए लड़ते रहें, वो हिंदू मुसलमान बनाते रहें, हम इंसान के साथ खड़े रहेंगे। हमसे बंदूक उठती नहीं, जिसने अन्याय के खिलाफ बंदूक उठाई है, हम डरते हैं, पर उसे हम देशद्रोही तो नहीं कहेंगे। उन्हें ज़रुर देशद्रोही कहते रहेंगे जो लोगों का पैसा मौत की सौदागरी में लगा रहे हैं। जो इंसान को धर्म और जाति से परे नहीं देखते, जो मर्द और औरत को बराबरी का दर्जा नहीं देंगे, हम उनके साथ भिड़ते रहेंगे। यह सबकुछ यह जानते हुए कि हम भी अदने से हैं और हमारी गल्तियाँ, हमारे पाखंड कम नहीं यानी कि काफी सारी लड़ाई खुद से भी है।

तो गोपाल जी, किसी को हम क्या सलाह दें कि समाधान क्या है। अक्सर बच्चों से हम कहते हैं कि अपने आस पास देखो कि क्या दिखता है। कुछ पढ़कर दिखता है तो पढ़ो, कुछ कर के दिखता है तो करो। जुड़ो, कहीं जुड़ो। लड़ो तो और चीज़ों के साथ गुटबाजी के खिलाफ भी लड़ो। यह नहीं कि हमारे तुम्हारे जुड़ने से दुनिया रातोंरात बदल जाएगी, पर जो भी होगा वह बेहतरी के लिए होगा या जितनी बदहाली अन्यथा हो सकती है उससे कम ही होगी। और जुड़ने के लिए हजारों हाथ हैं। कोई संपूर्ण क्रांति के सपने देखता है तो कोई महज शहर की सड़क के किनारे फुटपाथ होने चाहिए यही कह रहा है। बड़े छोटे हर किस्म के इंकलाब हैं। अपने दुःखों और अपनी औकात के मुताबिक अपनी बात। अपने अपने इंकलाब। यह ज़रुरी नहीं कि हर जगह चीन जैसी सांस्कृतिक क्रांति ही हो, सड़क पर पड़ा हुआ केले का छिलका उठा कर परे करना भी एक छोटा सही पर ज़रुरी कदम है। बहुत सारी बातें हो रही हैं, लोकतांत्रिक ढाँचे में रहकर हजारों साथी बहुत महत्त्वपूर्ण काम कर रहे हैं।

आइए हाथ उठाएँ हम भी।

यह कविता आपके लिएः

अंत में लोग ही चुनेंगे रंग

चुप्पी के खिलाफ
किसी विशेष रंग का झंडा नहीं चाहिए

खड़े या बैठे भीड़ में जब कोई हाथ लहराता है
लाल या सफेद
आँखें ढूँढती हैं रंगों के अर्थ

लगातार खुलना चाहते बंद दरवाजे
कि थरथराने लगे चुप्पी
फिर रंगों के धक्कमपेल में
अचानक ही खुले दरवाजे
वापस बंद होने लगते हैं

बंद दरवाजों के पीछे साधारण नजरें हैं
बहुत करीब जाएँ तो आँखें सीधी बातें कहती हैं

एक समाज ऐसा भी बने
जहाँ विरोध में खड़े लोगों का
रंग घिनौना न दिखे
विरोध का स्वर सुनने की इतनी आदत हो
कि न गोर्वाचेव न बाल ठाकरे
बोलने का मौका ले ले

साथी, लाल रंग बिखरता है
इसलिए बिखराव से डरना क्यों
हो हर रंग का झंडा लहराता

लोगों के सपने में यकीन रखो
लोग पहचानते हैं आस का रंग
जैसे वे जानते हैं दुःखों का रंग
अंत में लोग ही चुनेंगे रंग।

(प्रतिबद्धः मई १९९८)

Friday, August 22, 2008

नहीं समझ सकते

बीस साल पहलेः
उन दिनों दक्षिण अफ्रीका में रंगभेदी अपार्थीड वाली सरकार थी।


नहीं समझ सकते

कितने अच्छे हो सकते हैं हम
उठ सकते कच्ची नींद सुबह
पहुँच सकते दूर गाँव
भीड़ भरी बस चढ़
भूल सकते दोपहर-भूख
एक सुस्त अध्यापक के साथ बतियाते
पी सकते एक कप चाय

समझ सकते हैं
पाँच-कक्षाएँ-एक-शिक्षक पैमाना समस्याएँ
लौटते शाम ढली थकान
ब्रेड आमलेट का डिनर
पढ़ते नई किताब

पर नहीं समझ सकते हम
कि है अध्यापक
नाखुश अपनी ज़िंदगी से

कितने अच्छे हो सकते हैं हम
बेसुरी घोषित कर सकते
सोलह-वर्ष-अंग्रेज़ी शिक्षा
फटी-चड्ढी-मैले-बदन-बच्चों से
सीख सकते नए उसूल
भर सकते आँकड़े रचे दर परचे

सभा बुला सकते हैं
सबको साथी मान
साझा कर सकते हैं
देश विदेश अपनी उनकी बातें
मौका दे सकते हैं
सबको बोलने का
लिख सकते डायरी में
मनन कर सकते
फिर भी नहीं समझ सकते कि
हैं कम पैसे वाले लोग
नाखुश अपनी ज़िंदगी से

कितने अच्छे हो सकते हैं हम
दारु, फिल्में, कॉफी-महक-परिचर्चाएँ
एक-एक कर छोड़ सकते हैं
बन सकते आदर्श
कई भावुक दिलों में
हो सकते इतने प्रभावी
कि लोग भीड़-धूल-सड़क में भी
दूर से पहचान लें
आकार लें हमारे शब्दों से
गोष्ठियाँ, सुधार-मंच, मैत्री संघ
पर नहीं समझ सकते
क्यों बढ़ते रहें झगड़े, कुचले जाएँ गरीब

हम हो सकते हैं बहुत अच्छे
गा सकते कभी नागार्जुन, कभी पाश...
सुना सकते फ़ैज ऐसे कि
लोग झूम उठें
नहीं समझ सकते फिर भी
कैसे घुस आता दक्षिण अफ्रीका
हर रोज घर में रोटियाँ पकाने
झाड़ू लगाने

हम यह सब नहीं समझ सकते
हम ऐसा नहीं बन सकते
कि ज़िंदगी में हम हों नाखुश इस कदर
कि उठाने लगें पत्थर
सोच समझ निशाने लगाएँ
तोड़ डालें काँच की दीवारें
जिनके आरपार नहीं दिखता हमें
जो हम नहीं सोच सकते।

(मूल रचनाः १९८७; मुंबई की एक पत्रिका में प्रकाशित (नाम याद नहीं) १९८९)

Thursday, August 14, 2008

गाओ गीत कि कोई नहीं सर्वज्ञ, कोई नहीं भगवान

पूछो कि क्या तुम्हारी साँस तुम्हारी है
क्या तुम्हारी चाहतें तुम्हारी हैं
क्या तुम प्यार कर सकते हो
जीवन से, जीवन के हर रंग से
क्या तुम खुद से प्यार कर सकते हो

धूल, पानी, हवा, आस्मान
शब्द नहीं जीवन हैं
जैसे स्वाधीनता शब्द नहीं, पहेली भी नहीं

युवाओं, मत लो शपथ
गरजो कि जीवन तुम्हारा है
ज़मीं तुम्हारी है
यह ज़मीं हर इंसान की है
इस ज़मीं पर जो लकीरें हैं
गुलामी है वह

दिलों को बाँटतीं ये लकीरें
युवाओं मत पहनो कपड़े जो तुम्हें दूसरों से अलग नहीं
विच्छिन्न करते हैं
मत गाओ युद्ध गीत
चढ़ो, पेड़ों पर चढ़ो
पहाड़ों पर चढ़ो
खुली आँखें समेटो दुनिया को
यह संसार है हमारे पास
इसी में हमारी आज़ादी, यही हमारी साँस
कोई स्वर्ग नहीं जो यहाँ नहीं
जुट जाओ कि कोई नर्क न हो

देखो बच्चे छूना चाहते तुम्हें
चल पड़ो उनकी उँगलियाँ पकड़
गाओ गीत कि कोई नहीं सर्वज्ञ, कोई नहीं भगवान
हम ही हैं नई भोर के दूत
हम इंसां से प्यार करते हैं
हम जीवन से प्यार करते हैं
स्वाधीन हैं हम।

Tuesday, August 12, 2008

क्या मैं विक्षोभवादी हूँ?

क्या मैं विक्षोभवादी हूँ?

मैं माँग करता हूँ हवा से पानी से कि
उनमें घुलते मिलते रंग गंध हों
और कोई कह रहा है कि मैं विक्षोभवादी हूँ

मुल्क में किसी भी समझदार व्यक्ति को पुकारा जाता है मार्क्सवादी कहकर
दाल रोटी ज्यादा ज़रुरी है जीवन के लिए
जानना मुश्किल कि मार्क्स कितना समझदार था

क्या मैं समझदार हूँ?

वैसे विक्षोभवादी होने में क्या बुरा है?
सोचो तो रंग अच्छा है
मार्क्सवादी भी कहलाना अच्छी बात है
बशर्ते यह बात समझ में आ जाए कि
इसका मतलब गाँधीजी का अपमान नहीं है
हालांकि इसका मतलब यह ज़रुर है
हम गाँधी के साथ खड़े हो
जनता जनार्दन की जय कहते हैं

चलो तय हुआ कि मैं विक्षोभवादी हूँ
प्रबुद्ध जन तालियाँ बजाएँ वक्ता की बातें सुन
इसी बीच एक वक्ता को यह चिंता है कि दूसरा
उसका पर्चा छापेगा या नहीं

मैं विक्षोभवादी हूँ
मैं बाबा को याद करता गाता हूँ
'जली ठूँठ पर बैठ कर गई कोकिला कूक
बाल ना बाँका कर सकी शासन की बंदूक'।

Saturday, August 09, 2008

What have we done

हिरोशिमा पर एक पुराना स्लाइड शो छात्रों ने देखा और चर्चा की। १९९८ के हिंद-पाक नाभिकीय विस्फोटों के बाद मुख्यतः चेन्नई के इंस्टीच्यूट आफ मैथेमेटिकल साइंसेस आदि और बैंगलोर के विभिन्न विज्ञान शोध संस्थानों से वैज्ञानिकों ने मिलकर 'साइंटिस्ट्स अगेंस्ट न्यूक्लीयर वेपन्स' के लिए ये स्लाइड्स तैयार की थीं। शीर्षक था 'हिरोशिमा कैन हैपेन हीयर'। हमलोग चंडीगढ़ में युद्ध विरोधी और हिंद-पाक शांति के आंदोलनों में जुड़ कर प्रयास कर रहे थे। हमलोगों ने इन स्लाइड्स को अपनी स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार बदल कर कई स्कूलों में, सामुदायिक केंद्रों में, गाँवों में दिखलाया। प्रसिद्ध नुक्कड़ नाटक हस्ती गुरशरण सिंह ने भी हमें काफी मदद की और हमलोगों ने जगह जगह नुक्कड़ नाटक किए। यहाँ हैदराबाद में इतने साल बाद उन स्लाइड्स का प्रभाव वैसा ही रहा जैसा उनदिनों देखा था। हिबाकुशा (नाभिकीय विस्फोटों से प्रभावित बच गए लोग) के बयानों और उनके खींचे फोटोग्राफ्स और उनके अंकित तस्वीरों को देखकर भला कौन नहीं प्रभावित होगा। चर्चा के दौरान ऐसी बातें भी सामने आईं कि अगर ईराक के पास नाभिकीय बम होते तो क्या अमरीका की उसपर आक्रमण करने की हिम्मत होती।

यह आम धारणा है कि युद्ध सरदार किसी एक मुल्क के साथ जुड़े होते हैं। सच यह है कि लोगों की स्वाभाविक देशभक्ति को राजनेता अपने हितों के लिए इस्तेमाल करते हैं और राजनेताओं का इस्तेमाल वे लोग करते हैं जिन्के लिए पैसा और ताकत सबकुछ है। कल्पना करो कि ईराक ने अमरीका के हमले के जवाब में नाभिकीय मिसाइल दाग दिया। युद्ध सरदारों की प्रतिक्रिया क्या होगी? लोग मानते हैं कि आक्रोश होगा, बदले की भावना होगी। मेरा मानना है कि सचमुच व्यापक आक्रोश होगा, पर युद्ध सरदारों को नहीं, उन्हें सिर्फ मजा आएगा। लाखों लोगों का मारा जाना उनके लिए कोई बात नहीं है। उनका कोई देश नहीं है, कोई भी उनका अपना नहीं है। उन्हें बड़ी खुशी होगी कि रास्ता खुल गया है और अब आतिशबाजी शुरू।
नाइन इलेवेन का संदर्भ आया और बात स्पष्ट हुई कि न तो अल कायदा अफगानी संगठन है न ही तालिबान की पैदाइश अमरीका के अलावा कहीं और से हुई है। सब जानते हैं, फिर भी अफगानिस्तान को सपाट करने में कोई कमी न हुई। अमरीका की अर्थ-व्यवस्था शस्त्र बनाने और उनका सौदा करने पर बुरी तरह निर्भर है। ऐसा ही कई दूसरे मुल्कों के साथ भी है। भारत में भी ऐसे निहित स्वार्थों की कमी नहीं जो शस्त्र व्यापार को फायदा का सौदा मानते हैं। नाभिकीय शस्त्र इसी कड़ी में एक और भयंकर कदम है।

बहरहाल मुझे अपनी पुरानी डायरी में १९७७ के पन्नों पर एक कविता दिखी। यह १९४६ में प्रकाशित हरमान हागरडॉन की पुस्तक 'द बॉम्ब दैट फेल आन अमेरिका' से लिया उद्धरण है। नेट सर्च कर मैंने पाया कि यह पुस्तक वाकई काफी प्रसिद्ध है।

"The bomb that fell on Hiroshima fell on America too.


It fell on no city, no munition plants, no docks. It erased no church, vaporized no public buildings, reduced no man to his atomic elements. But it fell, it fell."

"When the bomb fell on America it fell on people.
It didn't dissolve them as it dissolved people in Hiroshima.
It did not dissolve their bodies
But it dissolved something vitally important to the greatest of them and the least.
What it dissolved were their links with the past and with future.
There was something new in the world that set it off forever from what had been.
Something terrifying and big, beyond any conceivable earthly dimensions.......
It made the Earth, that seemed so solid, Main street, that seemed so well paved, a kind of vast jelly, quivering and dividing underfoot.....
What have we done, my country, what have we done?

ढूँढते हुए मुझे एक युद्ध विरोधी उक्तियों की अच्छी साइट यहाँ मिली।

Wednesday, August 06, 2008

खोजते रहो, हर जगह होमो सेपिएन्स

'भारत' की खोज


पता चला कि भजन गायन के लिए साप्ताहिक सभा होती है, अब उसमें विचार विमर्श भी होगा। विमर्श का उद्देश्य 'भारत' की खोज है। बड़ी आशा और उत्सुकता के साथ मैं गया। मुझे भजन अच्छे लगते हैं। पिछले तीस सालों में प्रचलित हुए भौंडी आवाज में सुबह सुबह कुदरती शांति को नष्ट करने वाले, उत्तर भारत के फिल्मी पैरोडियों वाले भजन नहीं, पारंपरिक भक्ति गीत, खास कर अगर राग में बँधे हों, सुन कर अच्छा लगता है। जिस दिन मैं गया, भजन गाए गए। एक भजन में प्रभु को गोप्य कहा गया था, मैंने सवाल उठाया कि ऐसा क्यों तो थोड़ी चर्चा हुई। इसके बाद विचार के लिए चाणक्य श्लोक पढ़े गए। मुसीबत यह थी कि जिस पुस्तक से श्लोक पढ़े जा रहे थे, उसमें श्लोक और उनके हिंदी में अर्थ के अलावा टीका भी थी। यह टीका जिस स्वामी ने लिखी थी, स्पष्ट था कि वह पूर्वाग्रह-ग्रस्त और पुरातनपंथी है। टीका में भिन्न स्रोतों से उद्धरण थे। कुछ पंचतंत्र जैसे स्रोत थे तो कुछ महज लोकोक्ति। तीसरे ही श्लोक में मेरा धैर्य टूटने लगा। मैंने साथियों से कहा कि हमें श्लोक और उनके अर्थ पढ़कर अपने आप चर्चा करनी चाहिए, न कि टीकाकार पर निर्भर करना चाकिए। दुःख यह कि पुनरुत्थानवादी मानसिकता इतनी हावी थी कि दूसरों ने उस टीकाकार के पक्ष में तर्क रखे। मैंने कहा कि परंपरा के प्रति आलोचनात्मक दृष्टि न रखैं तो हम अपने पूर्वजों का अपमान कर रहे हैं, क्योंकि हम उन्हें उनकी मनुष्यता देने से इन्कार कर रहे हैं। एक टीका के अंश पढ़ने पर स्पष्ट हो जाएगा कि मुझे क्यों इतनी हताशा है। चाणक्य ने कहा कि जिस पुरुष के जीवन में 'दुष्टा नारी' की मौजूदगी हो, उसे वन में चले जाना चाहिए। अव्वल तो सोचने की बात यह है कि समझदार लोगों को भारत की खोज के लिए ऐसा हर कुछ पढ़ना क्यों जरुरी लगता है, जो भी सैंकड़ों साल पहले लिखा गया है। चाणक्य के कई उम्दा नीति श्लोक हैं, जिन्हें पढ़ा जाना चाहिए, कुछ छोड़े भी जा सकते हैं। बहरहाल टीकाकार हमें यह समझाता है कि 'दुष्टा नारी' क्या चीज है। पति दिन भर काम कर घर लौटा है और देखता है कि पत्नी ने खाना नहीं बनाया है। वह कहता है 'रे पापिन! तूने खाना क्यों नहीं बनाया है?' पत्नी कहती है, 'मैं क्यों पापिन होऊँ, पापी होगा तेरा बाप?' पति - 'री राँड़, क्या बकवास करती है....' बाकी का हिस्सा लिखकर मैं वक्त जाया नहीं करना चाहता। मेरा खयाल है कि इस तरह की सामग्री प्रकाशित करने वालों को और सामजिक रुप से इसे पढ़ने वालों के लिए ऐसी सजा का प्रावधान होना चाहिए जिससे उनकी वैचारिक समझ सुधरे, यह बेहतर सभ्यता की एक पहचान है। यह जरुरी नहीं कि हम 'हर बाला देवी की प्रतिमा' गाते रहें, पर यह जरुरी है कि हममें औरतों के प्रति स्वस्थ दृष्टि पनपे। देवी और दुष्टा दोनों ही विशेषण आपत्तिजनक हैं। अरे इंसान को इंसान कहो, भारत खोजो पाकिस्तान खोजो, खोजते रहो, हर जगह होमो सेपिएन्स ने ऐसे कारनामे किए हैं, जो खोजने लायक हैं।

देश के एक सक्रिय समाजसेवी के यहाँ आने पर सभा हुई। चूंकि एक समय मैं उसे जानता था तो खुशी मुझे भी थी कि पंद्रह साल बाद मिल रहा हूँ। जिन मुद्दों को लेकर हम परेशान हैं और कठिन परिस्थितियों में जिन पर हमने भी काम किया है, वह और उसके साथी लगातार उन मुद्दों पर संघर्ष कर रहे हैं। उसने छात्रों के साथ चर्चा की तो कुछ बातें तंग करती रहीं। मैंने देखा है कि सुविधाओं के साथ पले मध्य-वर्गीय परिवारों में पले लोग जब सामाजिक राजनैतिक क्षेत्र में काम करने आते हैं, तो सच्चाइयों को लेकर उनमें एक तरह की रुमानी प्रवृत्ति होती है। उसके कुछ वक्तव्य थे - गरीब अनपढ़ व्यक्ति पढ़े लिखों से ज्यादा समझदार है। हर व्यक्ति को जितने मर्जी बच्चे पैदा करने की छूट होनी चाहिए। गरीब बच्चे पैदा करते हैं, उन्हें कोई समस्या नहीं है।

यह सब पुरानी बहस है और आश्चर्य होता है कि लोग अभी भी एक या दूसरे छोर पर खड़े होकर बातें करते हैं। ऐसी बेमतलब की बातों से दूसरी जरुरी बातों का वजन कम हो जाता है। जिस तरह ऊपर से थोपी गई विकास की धारणा जन विरोधी है, ऊपर से थोपी गई गरीबी पूजा की सतही समझ भी जन विरोधी है। असली सवाल यह है कि जो भी ऐसा निर्णय लिया जाता है जिससे समूह प्रभावित होता हो, उसमें हर व्यक्ति की भागीदारी कितनी है। कोई सहज उत्तर तो नहीं मिल सकते, जैसा कि बॉब डिलन का पुराना गीत कहता है - द आन्सर इज़ ब्लोइंग इन द विंड।

Tuesday, July 22, 2008

कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम्हें अँधेरा निगलता जा रहा है

चेतन ने खबर भेजी कि विकी पर तुम्हारी कविताएँ हैं - देखा तो पुरानी तस्वीर के साथ कुछेक कविताएँ। उनमें से आखिरी कविता इशरत पर है। इशरत जहान को 2004 में जून के महीने में गुजरात की पोलीस ने मार गिराया था। मैं भूल ही गया था, कविता टुकड़ों में है और संभवतः दैनिक भास्कर के चंडीगढ़ संस्करण में आयी थीं। याद करने के लिए गूगल सर्च किया तो एक जनाब का गुजरात की पोलीस के पक्ष में लिखा यह तर्क मिलाः



The law in most countries assumes that the accused is 'innocent until proven guilty beyond reasonable doubt'. Both Ishrat Jahan and Javed Ghulam Sheikh undoubtedly deserve this protection, especially since they are no longer around to speak for themselves. But to the professional 'secularists' it is not these two who stand accused of intent to murder, it is the Gujarat police that is guilty of 'state terrorism'. So why are they unwilling to grant the same presumption of innocence to the Gujarat police?



मैंने कोई पच्चीस साल पहले प्रख्यात बाल चिकित्सक, नस्लवाद और लिंगभेद की राजनीति के खिलाफ वैज्ञानिक पुस्तकों के लेखक और मानवविज्ञान के प्रोफेसर ऐशले मोंटागु का एक भाषण सुना था। भाषण का विषय था बच्चों को माँ का दूध पिलाने की ज़रुरत पर। पर आखिर में सवाल जवाब के दौरान किसी ने डारविन के विकासवाद के विरोधियों (क्रीएशनिस्ट्स यानी ईश्वर द्वारा सृष्टि के बनाने में यकीन करने वालों) के साथ टेलीविज़न पर उनकी बहस का ज़िक्र कर दिया। खिन्नता के साथ मोंटागु ने कहा था - यह मेरी गलती थी कि मैं उस कार्यक्रम में शामिल हुआ। उस दिन मैंने सीखा कि Reasonable people you can reason with, bigots you should never talk to.



मैं मोंटागु का वह कथन भूलता नहीं हूँ। जब लगता है कि कोई बेवकूफ भोंपू बजा रहा है तो लोगों से कह देता हूँ बेवकूफ भोंपू बजा रहा है और कोशिश करता हूँ कि बहस से दूर रहूँ। ऐसा असंभव नहीं है कि इशरत या कोई भी, मैं तुम, कोई भी आतंकवादी हो, पर बिना किसी पक्के सबूत के एक जीती जागती युवा लड़की के सरेआम कत्ल के पक्ष में कोई ऐसा तर्क भी दे सकता है कमाल ही है। इसलिए दोस्तो, अँधेरा चतुर्दिक है, अगर कोई अँधेरे की ओर इंगित करता है, इसका मतलब यह नहीं कि उसकी नज़र धुँधली हो गई है। अगर लगता है कि कुछ और भी कहना है तो गरज कर कहो पर अँधेरे को उजागर करने वाले की नीयत पर शक होने लगे तो अपने बारे में सोचो, कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम्हें अँधेरा निगलता जा रहा है।



बहरहाल भोंपू वादकों की चर्चा छोड़ें।



इशरत
1
इशरत!
सुबह अँधेरे सड़क की नसों ने आग उगली
तू क्या कर रही थी पगली!
लाखों दिलों की धडकनें बनेगी तू
इतना प्यार तेरे लिए बरसेगा
प्यार की बाढ़ में डूबेगी तू
यह जान ही होगी चली!
सो जा
अब सो जा पगली।



2
इंतजार है गर्मी कम होगी
बारिश होगी
हवाएँ चलेंगी



उँगलियाँ चलेंगी
चलेगा मन



इंतजार है
तकलीफें कागजों पर उतरेंगी
कहानियाँ लिखी जाएंगी
सपने देखे जायेंगे
इशरत तू भी जिएगी



गर्मी तो सरकार के साथ है



3
एक साथ चलती हैं कई सडकें।
सडकें ढोती हैं कहानियाँ।
कहानियों में कई दुःख।
दुःखों का स्नायुतंत्रा।
दुःखों की आकाशगंगा
प्रवाहमान।



इतने दुःख कैसे समेटूँ
सफेद पन्ने फर फर उडते।
स्याही फैल जाती है
शब्द नहीं उगते। इशरत रे!



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Monday, July 21, 2008

'क्या यह व्यक्ति अँधेरावादी है?'


अँधेरा होता देखकर उसने कहा कि देखो अँधेरा गहरा रहा है। जिन्हें अँधेरे से फायदा है,वे तलवारें खींच लाए। जिन्हें अँधेरे से कोई परेशानी नहीं, वे लोग कहने लगे कि यह आदमी अँधेरे की ही बात करता रहता है। सबसे मजेदार वे लोग हैं जिन्हें अँधेरे से चाहे अनचाहे फायदा होता है तो भी वे छिपाना चाहते हैं और कहना चाहते हैं कि वे अँधेरे के खिलाफ हैं, वे सब उठकर कहने लग गए, कि यह आदमी अँधेरे का एजेंट है। कई तरह से वे इस बात को कहते हैं, कोई बहस छेड़ता है, 'क्या यह व्यक्ति अँधेरावादी है?' शीर्षक से वह उसकी अँधेरे के खिलाफ रचनाएँ चुन चुन कर ब्लॉग पर डालता है। कोई साफ कहता है कि देखो इस आदमी ने अँधेरे के बारे में इतनी बातें की हैं, इसकी नज़र धुँधली हो गई है।
इसी बीच अँधेरा घना होता रहता है। अँधेरे में भले से भले लोग फिसलते गिरते रहते हैं। उससे रहा नहीं जाता तो वह प्रतिवाद करता है कि यह क्या, मैंने तो बहुत कुछ कहा है, अँधेरा तो है ही सबके सामने। अँधेरे का जिक्र न करने से अँधेरा गायब तो नहीं होगा।
मजेदार लोग, मुल्क की तमाम संकीर्णताओं से उपजे लोग, घर-बाहर पुरुष, समाज में उच्च, जोर जोर से चिल्लाते रहते हैं कि वह अँधेरे की बात कर रहा है। चारों ओर फैला अँधेरा दानवी हँसी हँसता रहता है। तलवारें खींचे लोग पीछे हट गए यह कहते हुए कि मज़ेदार लोग हमारा काम कर ही रहे हैं।

पिता
वह गंदा सा चुपचाप लेटा है
साफ सफेद अस्पताल की चादर के नीचे
मार खाते खाते वह बेहोश हो गया था
उसकी बाँहें उठ नहीं रही थीं ।
धीरे चुपचाप वह गिरा
पथरीली ज़मीन पर हत्यारों के पैरों पर ।
सिपाही झपटा
और उसका बेहोश शरीर उठा लाया
उसकी भी तस्वीर है अखबारों में
मेरे ही साथ छपी
मैं बैठा वह लेटा
चार बाई पाँच में वह पिता मैं बेटा ।
                                       - अप्रैल 2002

 ठंडी हवा और वह
ठंडी हवा झूमते पत्ते
सदियों पुरानी मीठी महक
उसकी नज़रें झुकीं
वह सोचती अपने मर्द के बारे में ।
बैठी कमरे में खिड़की के पास
हाथ बँधे प्रार्थना कर रही
थकी गर्दन झुकी
वह सोचती अपने मर्द के बारे में ।
शहर के पक्के मकान में
गाँव की कमज़ोर दीवार के पास
दंगों के बाद की एक दोपहर
वह सोचती अपने मर्द के बारे में ।
                                    - मार्च 2002 (पश्यंती 2004) 

हमारा समय
बहुत अलग नहीं सभ्य लोगों के हाल और चाल।
पिछली सदियों जैसे तीखे हमारे दाँत और परेशान गुप्तांग।

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चेहरों में एक चेहरा
वह एक चेहरा हार का
नहीं, ज़िंदगी से हारना क्लीशे हो चुका
वह चेहरा है मौत से हार का
मौत की कल्पना उस चेहरे पर
कल्पना मौत के अलग-अलग चेहरों की

वहाँ खून है, सूखी मौत भी
वहाँ दम घुटने का गीलापन
और स्पीडी टक्कर का बिखरता खौफ भी

ये अलग चेहरे 
हमारे समय के ईमानदार चेहरे
जो बच गए दूरदर्शन पर आते मुस्कराते चेहरे

दस-बीस सालों तक मुकदमों की खबरें सुनाएँगे
धीरे-धीरे ईमानदार लोग भूल जाएँगे चेहरे
अपने चेहरों के खौफ में खो जाते ईमानदार चेहरे।
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जंगली गुलाब जड़ से उखाड़ते पर मशीनों से अब
लाचार बीमार पौधे पसरे हैं राहों पर उसी तरह 

राहें जो पक्की हैं
सदी के अंत में अब।
                                             - (
साक्षात्कार- मार्च 1997)

Monday, June 30, 2008

एर्नेस्तो गुएवारा दे ला सर्ना

हाल में कई उम्दा फिल्में देखीं। इनमें वाल्टर सालेस की चे गुएवारा पर बनाई फिल्म 'द मोटरसाइकिल डायरीज़' है। सालेस ब्राज़ीलियन है, जहाँ पुर्तगाली भाषा बोली जाती है, पर फिल्म का कथानक स्पानी भाषा में है और मूल स्रोत आर्ख़ेन्तीना के एक लेखक की किताब है। स्पानी भाषा में होने के बावजूद ब्राज़ील की ओर से यह फिल्म कई अंतर्राष्ट्रीय उत्सवों में पेश हुई। फिल्म में चे के दाढ़ी और टोपी वाले चे बनने से पहले की कहानी है। आर्ख़ेन्तीना के एर्नेस्तो गुएवारा दे ला सर्ना और उसका मित्र आल्बर्तो ग्रानादो डाक्टरी की पढ़ाई के आखिरी पड़ाव पर मोटर साइकिल पर दक्षिण अमरीकी देशों की सैर पर निकल पड़ते हैं। युवाओं का सफर जैसा होता है, बहुत कुछ वैसा ही है, कहानी में रोमांच है, प्रेम है, मस्ती है, पर यह चे की कहानी है और इसमें बीसवीं सदी के एक महान मानवतावादी क्रांतिकारी का बनना है। एक भावुक युवा का क्रांतिकारी बनना है, जिसने हमसे पहले और बाद तक की पीढ़ियों को प्रेरित किया। यात्रा के दौरान चे ने जाना कि दुनिया के मेहनती लोग किस तरह अन्यायपूर्ण सामाजिक राजनैतिक परिस्थितियों से जूझ रहे हैं। फिल्म के बेहतरीन दृश्यों में प्रेमी चे और कुष्ठ आश्रम का डाक्टर चे हैं। कहानी में चे सभी दक्षिण अमरीकी लोगों को एक समुदाय की तरह देखता है और क्रांति का आह्वान करता है, पर चे हमलोगों के लिए सिर्फ दक्षिण अमरीकी नहीं था, जहाँ भी अन्याय के खिलाफ संघर्ष है, चे सूरज की तरह रोशनी फैलाता हुआ वहाँ मौजूद है। सी आई ए ने उसे बोलीविया में भले ही मार दिया हो, वह छत्तीसगढ़ में कभी शंकर गुहानियोगी तो कभी बिनायक बन कर आ जाता है। चे कभी मर नहीं सकता, उसकी आत्मा हम सब लोगों में है, जहाँ भी इंसान का इंसान के लिए प्यार है, चे वहाँ मौजूद है।

ओम थानवी ने भारत में चे के सफर पर महत्त्वपूर्ण और रोचक आलेख लिखे हैं, जिन्होंने अभी तक पढ़े नहीं, सुनील दीपक के सौजन्य से यहाँ उपलब्ध हैं। बाद में ये लेख मोहल्ला या हाशिया में से किसी एक में आए थे - मुझे अब याद नही आ रहा किसमें देखा था।

Thursday, June 05, 2008

सबको जेल में डाल दो

हाशिया का ब्लॉग खोलते ही बिनायक सेन की तस्वीर दिखती है। दाढ़ी वाली मुस्कराती शक्ल।
बहुत गुस्सा आता है कि ऐसा खूबसूरत शख्स जेल में बंद है। शायद देश के सभी भले लोगों को छत्तीसगढ़ चलना चाहिए और सरकार से कहना चाहिए कि हम सबको जेल में डाल दो।


हम सबको बंद कर लो, सरकार बहादुर
हम सब कभी कभी गलती से भले खयाल सोच लेते हैं।
हमने जेल में नक्सलियों से मुलाकात नहीं की
गाँधी को भी नहीं देखा, पर क्या करें जनाब
आते जाते इधर उधर की चर्चियाते
कोई न कोई अच्छी बात दिमाग में आ ही जाती है।
साँईनाथ, अरुंधती राय, अग्निवेश अभी बाहर खड़े हैं,
हममें से कोई कुछ पढ़ा रहा है, कोई गीत गा रहा है,
कोई और कुछ नहीं तो मंदिर मस्जिद जा रहा है।
हम सबको बंद कर लो, सरकार बहादुर
हम सब देश के लिए खतरनाक हैं

हमें गरीबी पसंद नहीं, पर गरीब पसंद हैं
हम यह तो नहीं सोचते कि गरीबों को पंख लग जाएँ
पर यह चाहते हैं कि गरीब भी इतना खा सकें कि
वे कविताएँ पढ़ने लगें
इतनी खतरनाक बात है यह
कानून की नई धाराएँ बनाइए मालिक
हमें बाहर न रखें, देश को देश से बचाएँ
बहुत बड़ा सा जेल बनाएँ, जिसमें हमारे अलावा
आस्मान भी समा जाए, इतनी रोशनी
न होने दो सरकार कि किसी को
दाढ़ी वाली मुस्कराती शक्ल दिख सके।


दो सालों के बाद फिर स्टोनहेंज देखने गया। साथ यहाँ हमारे मेजबान प्रोफेसर, मेरे दो शोधकार्य कर रहे छात्र और चीन से आया एक छात्र था। आसपास के कुछ और इलाके भी फिर से देखे।
अभी राजा राममोहन राय की कब्र दुबारा देखने जाना बाकी है।

Saturday, May 31, 2008

हिंसा

कला में क्या वाजिब है? हिंदी फिल्मों में अक्सर हिंसा को ग्लैमराइज़ किया जाता है, पर कृत्रिमता की वजह से उसमें कला कम होती है। पर हिंसा को कलात्मक ढंग से पेश किया जाए और देखने में वह बिल्कुल सच लगे तो क्या वह वाजिब है? मेरा मकसद सेंशरशिप को वाजिब ठहराने का नहीं है, मैं तो अभिव्यक्ति पर हर तरह के रोक के खिलाफ हूँ (बशर्ते वह स्पष्ट तौर पर किसी को नुकसान पहुँचाने के लिए न की गई हो)। पर यह एक पुरानी समझ है कि जब पेट भरा हो, तो चिताएँ अगले जून का भोजन ढूँढने की नहीं होतीं। रुप और कल्पना के ऐसे आयाम दिमाग पर हावी होते हैं, जो जीवन की आम सच्चाइयों से काहिल व्यक्ति को बकवास लगेंगे। हाल में १९९२ में बनी एक बेल्जियन फिल्म - मैन बाइट्स डॉग - देखी। बहुत ही सस्ते बजट में बनी इस फिल्म में एक साधारण सा दिखते आदमी पर 'mocumentary' या ब्लैक कामेडी बनाई गई। यह आदमी वैसे तो आम लोगों सा है, पर उसकी विशेषता यह है कि वह बिना वजह लोगों की हत्या करता है। हत्या करने में उसकी कुछ खासियतें हैं, जैसे वह बच्चों की हत्या उस तादाद में नहीं करता, जिस तादाद में बड़ों की करता है। उसे कविता का शौक है। वह भावुक और संवेदनशील है (स्पष्ट है कि हर किसी के लिए नहीं)। फिल्म में एक मोड़ ऐसा आता है कि क्रू का एक सदस्य किसी की गोली का शिकार हो जाता है।

शुरुआत में फिल्म के लिए पैसे नहीं थे, पर जैसे जैसे फिल्म बनती गई, पैसे जुटते गए (कहा जा सकता है कि फिल्म निर्माताओं को पेट की चिंता भी थी)। बहरहाल, मेरी समझ में नहीं आता कि कोई ऐसी फिल्म क्यों बनाना चाहता है। यह फिल्म बहुत पसंद की गई थी। ब्लर्ब में लिखा है कि जल्दी ही यह 'कल्ट' फिल्म का दर्जा अख्तियार कर चुकी थी।

चलो, यह भी सही।

मोहल्ला पर कनकलता मामले पर पोस्ट्स पढ़े। क्या कहा जाए - भारत महान! यह भी कि दिल्ली में घटना होती है तो देश भर को पता चलता है। सच यह है कि सारा देश अभी तक इस सड़न से मुक्त नहीं हुआ है। तीस साल पहले अमरीका में काले दोस्तों को मैं बतलाता था कि भारत में जातिगत भेदभाव कम हो रहा है और जल्दी ही खत्म होने वाला है। पर अब लगता नहीं कि यह अपने आप खत्म होने वाला है। हो सकता है दिल्ली के साथी इस पर एक राष्ट्रीय आंदोलन की शुरुआत कर सकें। अपूर्वानंद लंबे समय से बहुत अच्छा काम कर रहा है। इस बार भी इस मामले पर विस्तार से लिख कर उसने ज़रुरी काम किया है। इस मामले में जुड़े सभी साथियों से यही कहना है कि हम भी साथ हैं और यह लड़ाई रुकनी नहीं चाहिए। कनकलता मामले के दोषियों को (पुलिस के भ्रष्ट अधिकारियों समेत) सजा मिलनी चाहिए।

मार्टिन एमिस का उपन्यास 'अदर पीपल' पढ़ रहा हूँ। स्मृति खो चुकी एक लड़की की भटकी हुई ज़िंदगी में हो रही घटनाएँ। पिछले कुछ सालों से मेरे प्रिय समकालीन ब्रिटिश लेखकों में मार्टिन एमिस और हनीफ कुरेशी हैं। मार्टिन एमिस में भी हिंसा है, पर इस पर कभी और ....।

Tuesday, May 27, 2008

वाटर

23 मई:
१९९९ में दीपा मेहता की फिल्मों को लेकर हंगामा हो रहा था, मैंने पंजाब विश्वविद्यालय शिक्षक संघ की ओर से एक परिचर्चा आयोजित की थी। दीपा की मित्र और प्रख्यात नाट्य निर्देशक नीलम मानसिंह चौधरी ने बड़े जोरदार लफ्जों में सांस्कृतिक फासीवाद का विरोध किया था। मुझे वह परिचर्चा इसलिए याद है क्योंकि जिस साथी को मैंने नीलम को बुलाने का भार दिया था, वह स्वयं उन दिनों के सुविधापरस्त बुद्धिजीवियों में से था, जो गाँधीवादी राष्ट्रवाद जैसे किसी नए मुहावरे से दक्षिणपंथी व्यवस्था को भुनाने में लगे थे और उस दिन आखिरी क्षण में पता चला था कि नीलम को सूचना तक नहीं मिली। संयोग से नीलम तभी दिल्ली में दीपा में मिल कर आई थी और इस विषय पर भावुकता से भरी थी। मेरे कहने पर वह तुरंत पहुँची और गहराई और गंभीरता से विषय पर बोली। बहरहाल, तब से कई बार मौका मिलने पर भी दीपा मेहता की फिल्में देख नहीं पाया हूँ। कभी कभार कहीं टुकड़ों में कुछ हिस्से देखे थे। आज इतने सालों के बाद 'वाटर' देखी। कहानी तो खैर पहले से मालूम थी। छोटी बच्ची 'चुहिया' बाल-विधवा होने पर जबरन बंगाल के गाँव से उठाकर काशी में आश्रम में भेज दी जाती है। वहाँ दूसरी विधवाओं के साथ उसका रहना फिल्म की कहानी है। फिल्म देखता हुआ हमेशा की तरह रो पड़ा। ऐसे मौकों में अपराध बोध, गुस्सा, आक्रोश, अवसाद, सब एक साथ दिमाग पर हावी हो जाते हैं। वृंदावन की विधवाओं पर पहले बनी एक डाक्यूमेंट्री देख चुका हूँ। वह भी विदेश में देखी थी। वैसे बचपन से बांग्ला उपन्यासों में विधवाओं के बारे में पढ़ता रहा हूँ, फिल्मों में भी देखा है। पर संभवतः बच्ची की भूमिका में सरला के अभिनय ने मन पर काफी प्रभाव डाला। आखिर में गाँधी के शब्द '...मैं लंबे समय तक मानता था कि ईश्वर ही सत्य है ....मेरी समझ में आया है कि सत्य ही ईश्वर है,' एकबारगी उन तमाम नव-उदारवादियों को धत्ता बता जाते हैं जो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की चपेट से अभी तक निकले नहीं हैं। सत्य यह है कि भारत एक ऐसा मुल्क है जहाँ बहुलता दबी-कुचली है। जहाँ बच्चों के साथ अमानवीय सलूक होता है। फिल्म में दीपा ने मूल कहानी के मुताबिक १९३८ का भारत दिखलाया है, पर अभी भी अनगिनत बाल-विवाह होते हैं, विधवाओं के साथ बुरा बर्त्ताव होता है। सवाल सिर्फ विधवा होने न होने का नहीं है, आम तौर पर हमारे समाज शास्त्री जिन सवालों पर कलमें घिसते हैं, उसमें सच्चाई की जगह क्रमशः कम और पुनरुत्थानवादी चिंतन की जगह बढ़ती गई है। फिल्म में एक विधवा कल्याणी आत्महत्या कर लेती है क्योंकि उसका सामाजिक रुप से सचेत प्रेमी ऐसे बाप का बेटा है जिसने कल्याणी की मजबूरी का फायदा उठाकर उसका शरीर भोगा है। हम सब ऐसे ही बापों के बेटे हैं, इसलिए हमारा चिंतन धुंध में खोया है। बाप बेटे को समझाता है कि उस औरत के साथ उसके सोने से औरत का फायदा हुआ है। यह उसी तरह का तर्क है जो बहुत कम पैसों में घर में नौकर रखने के लिए दिया जाता है।

मैं लिखना तो बहुत कुछ चाहता हूँ पर सिर्फ इतना कहकर बात खत्म करुँ कि भारतीय सामाजिक विज्ञान की दुनिया में एक तरह का ढीठपन है, मुझे लंबे समय से लगता है यह हमारी अपनी सुविधापरस्त पृष्ठभूमि की वजह से है। जितना इस पर सोचा जाए, आश्चर्य होता है कि इतनी बड़ी तादाद में लोग एक अन्यायपूर्ण व्यवस्था के साथ जी रहे हैं और आज तक संसदीय प्रणाली से जुड़े जन-संगठनों पर पाखंडी कुलीनों का वर्चस्व बना हुआ है। मुझे अक्सर लगता है कि सुप्रीम कोर्ट को सुओ मोटो नोटिस लेना चाहिए कि भारत में अधिकांश बच्चे न केवल अच्छे स्कूल में नहीं जा पाते, उन्हें न्यूनतम पोषक तत्वों से पूर्ण खाना तक नहीं मिलता। यह सरकार की पहली जिम्मेवारी होनी चाहिए कि कम से कम चौदह साल तक की उम्र के बच्चों के लिए सारी और एक जैसी सुविधाएँ उपलब्ध हों। इसके लिए जो खर्च होगा, वह कई अन्य राष्ट्रीय व्ययों से कही ज्यादा कम है (जैसे पारमाणविक शोध, सुरक्षा खाता आदि)। हमारे लोग, हमारे बच्चे हमारे लिए अदृश्य हैं, क्योंकि वे हमारे बच्चे नहीं हैं, वे हम कुलीनों के बच्चे नहीं हैं।

Monday, May 19, 2008

बढ़िया रे बढ़िया!

अफलातून, सुकुमार राय की एक और कविता (आबोल ताबोल से):


बढ़िया रे बढ़िया!

भाई जी! देखा दूर तक सोचकर -
इस दुनिया में सबकुछ बढ़िया,
असली बढ़िया नकली बढ़िया,
सस्ता बढ़िया महँगा बढ़िया,
तुम भी बढ़िया, मैं भी बढ़िया,
छंद यहाँ गीतों के बढ़िया
गंध यहाँ फूलों की बढ़िया,
मेघ लिपा आस्माँ बढ़िया,
लहर नचाती हवा है बढ़िया,
गर्मी बढ़िया बरखा बढ़िया,
काला बढ़िया गोरा बढ़िया,
पुलाव बढ़िया कुर्मा बढ़िया,

परवल-मच्छि मसाला बढ़िया,
कच्चा बढ़िया पक्का बढ़िया,
सीधा बढ़िया टेढा बढ़िया,
ढोल बढ़िया घंटा बढ़िया,
टिक्की बढ़िया गंजा बढ़िया,
ठेला बढ़िया ठेलना बढ़िया,
ताजी पूड़ी बेलना बढ़िया,
ताईं ताईं तुक सुनना बढ़िया,
सेमल की रुई बुनना बढ़िया,
ठंडे जल में नहाना बढ़िया,
एक चीज है सबसे बढ़िया -
पाँवरोटी और गुड़ शक्कर।

Sunday, May 18, 2008

गर्मी

तकरीबन एक महीना गर्मी से बहुत परेशान रहे। दफ्तर और घर दोनों ऊपरी मंज़िल पर। संयोग से वर्षों से ऐसा रहा है। अब जिस कमरे में अस्थायी रुप से बैठ रहा हूँ, वहाँ ए सी है तो कम से कम काम के वक्त राहत है। हर कोई कहता है कि गर्मी बढ़ रही है। हैदराबाद में ए सी की ज़रुरत होनी नहीं चाहिए, पर या तो उम्र बढ़ रही है इस वजह से या सचमुच गर्मी बहुत होने की वजह से इस साल परेशानी ज्यादा है। चारों ओर कंक्रीटी जंगल फैल रहा है। बहुत पहले कभी बच्चों के लिए एक कविता लिखी थी, शीर्षक था 'पेड़ों को गर्मी नहीं लगती क्या?' कभी ढूँढ के पोस्ट करेंगे। फिलहाल तो बेटी के ताने सुन रहा हूँ कि बस गर्मी गर्मी रट लगाए हुए हो।

गर्मी ज्यादा हो तो स्वतः अवसाद होता है। जो भी ठीक नहीं है वह कई गुना बेठीक लगने लगता है। स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है। कहते ही हैं, ज्यादा गर्मी मत दिखाओ। ऐसे में कभी कभार शाम को ठंडी बयार चल पड़े तो लगता है जन्नत के दौरे पर निकले हैं। ऊपरी मंज़िल होने का यह फायदा है कि बरामदे पर इधर से उधर चलना भी सैर जैसा है। बदकिस्मती से पड़ोस वालों ने मकान पर एक मंजिल और बढ़ा ली है, इसलिए उधर से हवा रुक गई है, फिर भी हवा को बलखाने के लिए कोण मिल ही जाते हैं। और फिर पिछवाड़े में छोटा सा जंगल है, जहाँ ऊँचे पेड़ों के पत्ते सरसराते रहते हैं।

तीन दिनों बाद कुछ हफ्तों के लिए विदेश जाना है। गर्मी से तो राहत मिलेगी, पर यह शाम का मजा मिस करेंगे। और जो अनगिनत लोग इसी गर्मी में मर खप रहे हैं, उनको कैसे भूलें!

आज हिंदू में हर्ष मंदेर का विनायक सेन पर अच्छा आलेख है।

Friday, May 16, 2008

विनायक सेन जेल में क्यों है?

विनायक सेन जेल में क्यों है?
- इसलिए कि दो हजार आठ में भी हिंदुस्तान एक पिछड़ा हुआ मुल्क है, जहाँ ढीठ सामंती हाकिमों और अफसरशाही का राज है।
सोचने पर कमाल की बात लगती है कि मामला इतनी दूर तक पहुँच गया कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दबाव आना लाजिमी हो गया।
- इसलिए भी कि जनपक्षधर लोगों में भी एकता नहीं है और काफी हद तक हम सब लोग सामंती सोच से ही ग्रस्त हैं।

जयपुर के धमाकों से हर कोई जैसे खुमारी से जागा है और हमें याद आया है कि क्रिकेट के हंगामे से अलग हिंदुस्तान की सच्चाई कुछ और भी है।
मीडिया में बार बार सवाल उठाया जा रहा है कि जयपुर क्यों? कैसा बेकार सवाल है जैसे कि और कुछ पूछने को नहीं है तो यही पूछ लें।
जैसे कि जयपुर न होकर कोई और शहर होता तो ठीक था।
सोचता हूँ कि आज के युवाओं और बच्चों में भविष्य के लिए क्या उम्मीदें होंगी? आश्चर्य होता है कि सब कुछ अपने नियमं से चलता ही रहता है। एक जमाना वह भी था जब कोई टी वी नहीं था। पता चलता कि शहर में कहीं दंगा हो गया है। लोग अपने मुहल्लों में टिके रहते। चर्चाएँ, बहसें होतीं और लगता जैसे धरती परिधि पर कहीं रुक गई है। अब हम बार बार मृत और घायलों को देखते हैं और मशीन के पुर्जों जैसे वापस क्रिकेट देखने लग जाते हैं।

Tuesday, May 13, 2008

So how should I presume?

हल्की ठंडक भरी पठारी हवा।
तपने को तैयार कमरा, अभी अभी बिजली गई है।

खबरें। मानव मूल्य।

नैतिकता।
कछ दिनों पहले किसी ने अरस्तू और अफलातून के संवादों का जिक्र किया था।

-क्या नैतिकता सिखाई जा सकती है। अगर हाँ तो कैसे?

-मै नही जानता कि नैतिकता है क्या, सिखाना तो दूर की बात।

कुछ लोग जबरन मानव मूल्य नामक एक कोर्स पर बहस करते हैं।

जिनका वर्चस्व है, वे चाहते हैं कि वे युवाओं से चर्चा करें कि भला क्या है, बुरा क्या है। विरोध करता हूँ तो कभी औचित्य पर सवाल उठते हैं तो कभी 'प्रोफेसर साहब बहुत विद्वान हैं' सुनता हूँ। सुन लेता हूँ, और समझौतों की तरह यह भी सही।

तकरीबन सौ साल के बाद भी एलियट की पंक्तियाँ ही सुकून देती हैं।

For I have known them all already, known them all:—
Have known the evenings, mornings, afternoons,
I have measured out my life with coffee spoons;
I know the voices dying with a dying fall
Beneath the music from a farther room.
So how should I presume?

मेरी चिंताएँ इतनी विकट हैं कि यह सब बेकार की बहस लगती है। फिलहाल ज़िंदगी और मौत की चिंताएँ हैं। सबको ज़िंदा रहना है। एक दिन और ज़िंदा रहना है।

साइंटिफिक अमेरिकन में आलेख है कि बीस की उम्र के बाद ही मस्तिष्क में सफेद पदार्थ या 'माएलिन' बनने की रफतार में बढ़ोतरी आती है, इसिलए 'वयस्क' निर्णय लेने की क्षमता हमें बीस से पचीस की उम्र तक ही मिल पाती है। पर अनुभव
से 'माएलिन' बनने में तेजी आ सकती है। जिस क्षेत्र का अनुभव अधिक होगा, उसी से जुड़े मस्तिष्क के क्षेत्र में माएलिन ज्यादा बनेगा। 'वयस्क' निर्णय में ज़िंदा रहना भी है। सतही तौर पर पढ़ा जाए तो युवाओं के खिलाफ षड़यंत्र सा लगता है। और इसका फायदा उठाने वाले उठाएँगे भी।

जब तक संभव है, सबको ज़िंदा रहना है। किसी को ज़िंदा रखने की जिम्मेवारी है तो निभाना है।

दोस्त फोन पर कह रहा है कि वह उदास है, हर खबर और अधिक उदासी लाती है। मै बुज़ुर्ग साहित्यकार मित्र को सालों पहले भेजा कार्ड याद करता हूँ (बाद में बच्चों और नवसाक्षरों के लिए संग्रहों मे शामिल गीत) - जीतेंगे, जीतेंगे हम जीतेंगे रे जीतेंगे।
कोई सुनाता है कि कोलकाता की क्रिकेट टीम का नारा है। जैसे पिछले साल टी वी पर किसी लाखों की गाड़ी के विज्ञापन में साठ के दशक का चुराया हुआ सुर था - लिटल हाउसेस आन द हिल टाप दे आल लुक जस्ट द सेम।

रात को न आते आते भी नींद आती है। इंतज़ार करता हूँ नई सुबह का, नई कविता की नई सुबह।

Wednesday, March 26, 2008

इक्कीसी कानून

जब समय कम हो और लग रहा हो कि बहुत वक्त बीत गया, कुछ पोस्ट नहीं किया, तो या तो अपनी कोई प्रकाशित कविता या फिर सुकुमार राय - यही फिलहाल।
तो दोस्तो, आबोल-ताबोल से एक और अनुवाद।


इक्कीसी कानून


शिव ठाकुर के अपने देश,
आईन कानून के कई कलेष।
कोई अगर गिरा फिसलकर,
प्यादा ले जाए पकड़कर।
काजी करता है न्याय-
इक्कीस टके दंड लगाए।

शाम वहाँ छः बजने तक
छींको तो लगे टिकट
जो छींका टिकट न लेकर,
धम धमा दम, लगा पीठ पर,
कोतवाल नसवार उड़ाए-
इक्कीस दफे छींक मरवाए।

जो किसी का हिला भी दाँत
चार टके जुर्माना माँग
किसी की निकली मूँछ
सौ आने की टैक्स पूछ -
पीठ कुरेदे गर्दन दबाए
इक्कीस सलाम लेता ठुकवाए।

चलते हुए कोई देखे अगर
दाँए बाँए इधर उधर
राजा तक दौड़े खबर
उछलें पल्टन बाजबर
भरी दोपहर धूप खटाए
इक्कीस कड़छी जल पिलाए।

जो लोग कविता करते हैं
उन्हें पिंजड़ों में रखते हैं
पास कानों के नाना सुर में
पढ़ें पहाड़ा सौ मुष्टंडे
बहीखाते मोदी के पकड़ाए
इक्कीस पन्ने हिसाब लगवाए।

वहाँ अचानक रात दोपहर
भरे खर्राटे नींद में अगर
झट जोरों से सिर में रगड़
कसैले बेल में घुला गोबर
इक्कीस चक्कर घुमा घुमाकर
इक्कीस घंटे रखें लटकाकर।

Friday, February 29, 2008

प्रोफेशनल अवसादी और धंधा-ए-अवसाद

मैं अपने आप को प्रोफेशनल अवसादी कह सकता हूँ। करें भी क्या - चारों ओर रुलाने के लिए भरपूर सामग्री है। एक मित्र ने पूछा कि सुखी हो - मैंने लिखा कि सुखी तो नहीं हूँ, पर दुःखों के साथ जीना सीख लिया है। यहाँ तक कि अपने दुःखों के साथ जीते हुए दूसरों को सुख देने में भी सफल हूँ। एक और मित्र का कहना है कि फिर मेरा अवसादी होने का दावा ठीक नहीं है। उसके मुताबिक विशुद्ध अवसादी वही हो सकता है जो दूसरों को रुलाने में सफल है। उस तरह से देखा जाए तो बुश और मोदी में अच्छी प्रतियोगिता हो सकती है कि अवसाद विधा में नोबेल पुरस्कार किस को मिलेगा।

बहरहाल एक साथी अध्यापक ने इस चिंता के साथ कि मेरे अवसाद को अड्डरेस किया जाना चाहिए, मुझे बतलाया कि मुझे अवसाद मोचन के धंधे में जुटी एक कंपनी द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम की जानकारी पानी चाहिए। वह खुद अपने किसी बुज़ुर्ग अध्यापक के कहने पर इस कंपनी के चार दिवसीय कार्यक्रम को झेल रहा था। आखिरी दिन यानी मंगलवार की शाम को प्रतिभागियों को कहा गया था कि वे अपने किसी परिचित को साथ लाएँ ताकि इस अद्भुत इन्कलाबी शिक्षा की जानकारी मेहमानों को भी मिल सके।

बहरहाल मैंने अपने उदारवादी होने के निरंतर दावे के मुताबिक मान लिया कि मुझे एक शाम इस जरुरी काम के लिए बितानी चाहिए। दफ्तर से साढ़े पाँच बजे निकले थे। हैदराबाद की गंदी ट्रैफिक से जंग लड़ते हुए हम दोनों वक्त से पहले ही सभागार पहुँचे। यह तो अच्छा था कि पंद्रह मिनट हाथ में थे, इससे एक कप चाय पीने का वक्त मिल गया। साथी ने बाद में बतलाया कि साढ़े सात से शुरु होने वाला सेशन पौने ग्यारह तक चलेगा और राहत के लिए सिर्फ पानी। वैसे उनके चार दिवसीय कार्यक्रम के लिए फीस है साढ़े छः हजार रुपए।

सेशन की शुरुआत दिल्ली के व्यापारी से पहचानशिला शिक्षा के अग्रणी बने अधेड़ के भाषण से हुआ। कि कैसे जनाब नहीं नहीं करते भी एक बार इस शिक्षा को ले ही बैठे और तब से जीवन बदल चुका है - जीवन में अवसाद की जगह नहीं बची, पत्नी से संबंध बेहतर हो गए हैं आदि आदि। फिर चार दिनों में लाभ उठा चुके दो लोगों ने - एक युवती और एक अधेड़ ने सुनाया कि उन्हें क्या लाभ पहुँचा। सुंदरी युवती दूर शहर से अपनी चचेरी बहन के कहने पर कालेज की परीक्षाएँ न देकर पहचानशिला शिक्षा के लिए आई थी। अधेड़ ने जाना था कि उसे अपने पिता से बात किए लंबा अवसर गुजर चुका था और इन चार दिनों में ही उसने पिता से फोन पर बात की। सुनते हुए मुझे लगा कि मेरी माँ जो रोती रहती है कि मैं उसे फोन नहीं करता मुझे तुरंत उसे फोन करना चाहिए। पर ऐसा निकम्मा हूँ कि इस बात को पाँच दिन हो गए, अभी भी नहीं किया।

बहरहाल, कई बार तालियाँ बजाने के बाद मेहमानों और प्रतिभागियों को अलग अलग कमरों में बाँट दिया गया। गौरतलब यह कि बड़े करीने से सोच समझके जुट बनाए गए। मैं जरा चिढ़ा कि मेरे समूह में ज्यादातर मेरे जैसे खूसट ही दिख रहे थे। फिर दिल्ली की ही (दिल्ली वैसे भी हर कमाल की बात में सामने होती है - या होता है, बाप रे मसिजीवी फिर पकड़ेगा) नितांत प्रवीणा सचमुच की अध्यापिका का दो घंटे का भाषण सुना। जिन बातों को कभी मैं बचपन में उपन्यास पढ़कर सीख चुका हुँ, उनको वृत्त, त्रिभुज आदि आकारों में उभरते देखा। ज्यामिति में जाना कि भविष्य अतीत से मुक्त नहीं होता है। मुसीबत यह कि गलती से ज्यादा पढ़लिख चुकने की वजह से हमेशा की तरह नौसिखियापन की बौछार से चिढ़ता रहा। किसी वजह से कोई कमरे से निकलता तो पीछे पीछे स्वयंसेवक/विका होता/ती। बहुत सारा समय इस बात में लगा कि इस महान शिक्षा से वंचित मत होवो, साढ़े छः हजार से वंचित हो जाओ। मुझे जोर से भूख लगी थी (अवसादी होने का मतलब यह नहीं कि पेट चुप मार जाए या फिर यही सच कि मेरा दावा गलत है)। अंत में मैं धीरे धीरे निकला और अभी तक अचंभित हूँ कि किसी ने पीछा नहीं किया या बाद में मुझे फोन नहीं किया (नंबर पहले ही लिखवा चुके थे)। फिर सोचा कि ये अवसादमोचन के धंधा करने वाले हैं, इन्हें भी यही लगा होगा कि बंदा अवसादी नहीं है। अब तो सचमुच मुझे सोचना ही पड़ेगा।

वैसे अगर सच ही हर कोई सुखी हो जाए, तो अवसाद मोचन के धंधों में जुटे इन ओझा टाइप्स का क्या होगा? सारे बेकार हो जाएँगे।

पारंपरिक सत्संगों और कथाओं की जगह ले रहे ये नए - जीने की कला, पहचानशिला मंच और तमाम ऐसे धंधे - कोई साढ़े छः हजार में और कोई मुफ्त - इन सबको वर्षों के अध्ययन से प्राप्त मनश्चिकित्सा की कुशलता से बहुत दुश्मनी है। वैसे आधुनिक चिकित्सा-तंत्र से चिढ़ मुझे भी है, पर मेरी चिढ़ सही पेशेवर प्रवृत्तियों के अभाव से है (एक गलाकाटू पेशेवर प्रवृत्ति भी होती है, मैं उसकी बात नहीं कर रहा, मैं कठिन श्रम और ईमानदारी की बात कर रहा हूँ), खुली सोच के व्यापक अभाव से है - न कि ज्ञान और अनुसंधान से। बदकिस्मती से बहुत सारे भले लोग अपनी सोच में इतने संकीर्ण हो गए हैं कि आधुनिक विज्ञान की संरचनात्मक संकीर्णता की तलाश करते करते वे अपने किस्म की ओझागीरी और रुढ़ि रचते जा रहे हैं और खुद को और दूसरों को उनका शिकार बनाते जा रहे हैं।

तो दोस्तो, रोने की तो आदत ही है। मेरे साथी ने मुझे बतलाया कि उसके सेशन में भी आगे के अडवांस्ड कोर्स में दाखिला लेना क्यों जरुरी है, यही चलता रहा। और बेचारा मेरे ही जैसा भूख का मारा चुपचाप झेलता रहा। अब वह भी चिढ़ गया है। कोई आश्चर्य है कि मुझे रोना आ रहा है!? यह पूछकर और मत रुलाओ कि क्या उस समझदार साथी ने इस कंपनी को साढ़े छः हजार थमाए थे - मैं जानना नहीं चाहता। इससे भी ज्यादा अत्याचार करना है तो मुझे याद दिला दो कि इस साथी का अध्यापक (जिसके कहने पर वह इस पहचानशिला मंच के प्रपंच में पड़ा) देश की सबसे अग्रणी माने जाने वाली विज्ञान शिक्षण और अनुसंधान संस्था में प्रोफेसर है।

प्रतिभागियों को भूखे रखने के पीछे वैज्ञानिक कारण है। पेट रोएगा तो दिमाग रोएगा और इससे कंपनी का धंधा बढेगा। मैं ऐसा खड्डूस हूँ कि चाहे जितना भूखा मार लो, साढ़े छः हजार हाथ से निकलने न दूँगा। दे ही नहीं सकता भाई। शायद यह गरीबी चेहरे पे दिखती होगी, इसीलिए तो किसी ने पीछा नहीं किया।

Monday, January 14, 2008

साथ रह गए कभी न छूटने वाले इन घावों में

यह जो गाँव पास से गुज़र रहा है
इसमें तुम्हारा जन्म हुआ
जब भी यहाँ से गुज़रता हूँ
स्मृति में घूम जाती हैं तुम्हारी आँखें
बचपन में जिन्हें तस्वीर में देखते ही हुआ सम्मोहित

तब से कई बार धरती परिक्रमा कर चुकी सूरज के चारों ओर
तुम्हारे शब्द कई बार बन चुके बहस के औजार
लंबे समय तक कुछ लोगों ने तुम्हारी पगड़ी पर सोचा
छायाचित्रों में तुम नहीं तुम्हारी पगड़ी का होना न होना देखा
और हमने जाना कि यह वक्त तुम्हें नहीं तुम्हारे नाम को याद रखता है

हमारे वक्त में दुनिया बदलती नहीं किसी के आने-जाने से
चिंताएँ, हँसी मजाक, दूरदर्शन, खेलकूद
सब चलते रहते हैं
ब्रह्मांड के नियमों अनुसार
यह छायाओं का वक्त है
चित्र हैं छायाओं के जिनसे आँखें निकाल दी हैं वक्त के जादूगरों ने

रंग दे बसंती गाते हुए हर कोई सीना ठोकता है
और फिर या तो जादूगरों की जंजीरों में गला बँधवा लेता है
या दृष्टिहीन छायाओं में खो जाता है
गीत गाता हुआ आदमी मूक हो जाता है
गाँव के पास से गुज़रते हुए
देखता हूँ गाँव अब शहर बन रहा है
आस पास जो झंडे लगे हैं
वह जिन हवाओं में लहरा रहे हैं
उनमें खरीद फरोख्त के मुहावरे हैं

बीच सड़क गुज़रते हुए
सीने से लगाता हूँ बचपन की स्मृति
तमाम मायावी झंडों के बीच आज़ाद लहरा रही है मेरी स्मृति
बूँद जो अब होंठों पर खारापन ला चुकी है
उँगलियों से उसे समेटता हूँ

फिर दिखने लगते हैं परचम
जिनमें तुम्हारी आँखें है
जो इक अलग तर्ज़ में बसंती रंग में रँग जाती हैं
जिस्म में फैले पचास वर्षों में मिले अनगिनत घाव।

गाँव पीछे छूट गया
साथ रह गए तुम कभी न छूटने वाले इन घावों में।

१४ सितंबर २००७ (उद्भावना - भगत सिंह स्मृति विशेषांक, २००७)