परसों दैनिक भास्कर से एक रीपोर्टर का फोन आया - इन-ब्रीडिंग पर आर्टिकल कर रहे हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार पी यू में ७८% अध्यापक यहीं से डिग्री लिए हुए हैं।
मैंने एक अरसे से इन-ब्रीडिंग के खिलाफ सार्वजनिक रुप से मत प्रकट कर अनेक दुश्मन बनाए है। कई बार निजी रुप से बंधुओं को समझाने की कोशिश की है कि मैं जो लोग पदों में नियुक्त हैं उनके खिलाफ नहीं हूँ। मेरा इस विषय पर एक मत है और वह शिक्षा व्यवस्था के बारे में एक मत है। पर जो लोग इन-ब्रेड हैं, इन्हें तो शायद ऐसा लगता है कि जैसे मैं पैदा ही उनका कत्ल करने के लिए हुआ हूँ। यह दुर्भाग्य पूर्ण है और हमारी सोच में लोकतांत्रिक तत्वों के अभाव को दर्शाता है। उस रीपोर्टर को मैं क्या कहता - मुझे इस तरह के फोन साक्षात्कारों से बड़ी चिढ़ है - मैंने कहा कि दुनिया भर में वे तमाम शिक्षा संस्थान जो अपने स्तर के लिए जाने जाते हैं, उनमें अध्यापकों की पृष्ठभूमि में खासी विविधता है। यह सार्वभौमिक सत्य है। भारत की एलिट संस्थाओं के बारे में कहा जा सकता है कि उनको आर्थिक अनुदान अधिक मिलते हैं, पर पैसे लेने के लिए भी जो बौद्धिक शक्ति चाहिए, वह प्रांतीय विश्वविद्यालयों में कम है या दरकिनार है। ऐसा इसलिए भी है कि इन संस्थाओं में जो मूल्य हावी हैं, वे इन-ब्रीडिंग से उपजे हैं।
पाँच साल पहले मेरे पी एच डी शोध अध्यापक (गाइड) प्रिंस्टन से आए थे। उन्हें मैं शिमला घुमाने ले गया। वहाँ शिक्षा व्यवस्था पर बातचीत के प्रसंग में मैंने पूछा कि अमरीका में यह कैसे हुआ कि अधिकतर संस्थाओं में इन-ब्रीडिंग नहीं है। उनका जवाब सोचने लायक था - हमने डेढ़ सौ साल पहले ही समझ लिया कि इन-ब्रीडिंग हमारे हित में नहीं है।
तब से मैं अक्सर कहता हूँ कि हमारे डेढ़ सौ साल अभी आने हैं और यह सही भी है। हमारा समाज अभी भी मूलतः सामंती है। उसी का प्रतिफलन हम अपनी संस्थाओं में देखते हैं। १९८५ में जब से मैं हिंदुस्तान लौटा, मैंने कई आलेखों में लिखा कि आई आई टी (या आई आई एस सी) और केंद्रीय विश्वविद्यालय हमारी शिक्षा व्यवस्था की बुर्ज़ुआ संस्थाएं हैं और प्रांतीय विश्वविद्यालय सामंती संस्थाएं। प्रांतीय विश्वविद्यालयों में अधिकतर लोगों की सोच विशुद्ध सामंती होती है। नतीज़तन आप प्रांतीय विश्वविद्यालयों में अक्सर हास्यास्पद स्थितियों का सामना करते हैं। अनंत उदाहरण हैं। एक ताज़ा उदाहरण है। सामंती सोच का एक पक्ष है बुर्ज़ुआ लोगों की नकल करने की कोशिश करना। इसलिए अगर आई आई टी में सेमेस्टर पद्धति है तो हम भी इसे अपनाएंगे। अच्छी बात है। पर चूँकि हम उनकी तरह परंपराओं से मुक्त नहीं हैं तो नतीज़ा यह कि हर मध्यावधि इम्तहान के वक्त पढाई बंद। औपचारिक रुप से नहीं (फिर तो कलई खुल जाएगी), व्यवहार में। पिछले साल किसी विषय में फेल किया हुआ छात्र इस साल उसी सेमेस्टर के पेपर में बैठेगा तो टाइम-टेबल को ऐडजस्ट करना पड़ेगा और सामंती व्यवस्था में इतनी छूट है नहीं कि अध्यापक ऐसा आसानी से कर ले; इसलिए पुराने साल फेल किए छात्रों के लिए अलग से इम्तहान होंगे। यानी कि साल में तकरीबन चार महीने इम्तहान ही इम्तहान। आई न हँसी। सबको नहीं आएगी। उन्हीं को आएगी, जिन्होंने बेहतर व्यवस्थाएं (यानी के बुर्ज़ुआ) देखी हैं। आजकल विश्वविद्यालयों पर भी दबाव है कि वे अपना खर्च कम करें तो बहुत सारा प्रशासनिक काम अध्यापकों को करना पड रहा है। इम्तहानों की व्यवस्था और प्राप्त अंकों को अंतिम सारणियों में (जिनके आधार पर मार्क शीट बनती है) लिखना, यह सब भी हम खुद करते हैं। तो हुआ क्या कि किसी के ५२ अंक थे और गलती से चढ़ गए २५, यानी कि फेल। जब छात्र इस काम के लिए जिम्मेवार अध्यापक के पास गई तो वे परेशान। सामंती सोच का एक बड़ा हिस्सा बेमतलब का डर और बेमतलब का दर्प भी होता है। तो छात्र को कह दिया गया कि हो जाएगा। काफी समय तक हो जाएगा का आश्वासन चलता रहा, आखिर एक समय छात्र ने औपचारिक रुप से आवेदन कर ही दिया। कोई छः महीनों के बाद मामला मेरे पास भी आया। मैंने कहा इसमें क्या है, गलती किसी से भी हो सकती है, सारे प्रमाण देख लिए जाएं, अगर हम आश्वस्त हैं, तो गलती सुधार ली जाए। सोचिए कि इस काम में अब तक कितने लोगों का कितना वक्त लगा होगा और काम अभी तक हुआ या नहीं। आखिरी बात पहले बतला दूँ, अभी तक नहीं हुआ, हालांकि मैंने छात्र को आश्वस्त किया है कि देश के राष्ट्रपति भी इस त्रुटि के संशोधन को नहीं रोक सकते। कम से कम पंद्रह अध्यापकों और प्रशासनिक कर्मचारियों ने और दर्जनों छात्रों ने इस पर कई महीनों से अपना वक्त लगाया है।
और दोस्तों, सच यह है कि यह कहानी देश के एक बेहतर प्रांतीय विश्वविद्यालय की है। वैसे सही मायने में यह प्रांतीय भी नहीं है। पर इसका स्वरुप और यहाँ की मानसिकता प्रांतीय है। पर इस सबका इन-ब्रीडिंग से क्या लेना-देना? है, जहाँ इन-ब्रीडिंग कम होती है, विविधता होती है, वहाँ लोगों को निजी संबंधों के जरिए नहीं, बल्कि प्रोफेशनल तरीकों से काम करने की आदत होती है। यह विषय, इसका मनोविज्ञान, जटिल है, विस्तार में लिखने के लिए मुझे हिन्दी टाइपिस्ट ढूँढना पड़ेगा। संक्षेप में, इन-ब्रीडिंग एक विकार है। इस एक विकार पर नियंत्रण हो पाए तो प्रांतीय विश्वविद्यालयों में व्याप्त भयंकर भ्रष्टाचार में काफी कमी आ जाए। मेरे जैसे कई लोगों के अपना नुकसान करवाते हुए लगातार शोर मचाने के कारण राष्ट्रीय स्तर पर इसके खिलाफ थोड़ी बहुत हलचल हुई है, पर अभी तक कोई प्रभावी कदम नहीं दिखता।
मैंने एक अरसे से इन-ब्रीडिंग के खिलाफ सार्वजनिक रुप से मत प्रकट कर अनेक दुश्मन बनाए है। कई बार निजी रुप से बंधुओं को समझाने की कोशिश की है कि मैं जो लोग पदों में नियुक्त हैं उनके खिलाफ नहीं हूँ। मेरा इस विषय पर एक मत है और वह शिक्षा व्यवस्था के बारे में एक मत है। पर जो लोग इन-ब्रेड हैं, इन्हें तो शायद ऐसा लगता है कि जैसे मैं पैदा ही उनका कत्ल करने के लिए हुआ हूँ। यह दुर्भाग्य पूर्ण है और हमारी सोच में लोकतांत्रिक तत्वों के अभाव को दर्शाता है। उस रीपोर्टर को मैं क्या कहता - मुझे इस तरह के फोन साक्षात्कारों से बड़ी चिढ़ है - मैंने कहा कि दुनिया भर में वे तमाम शिक्षा संस्थान जो अपने स्तर के लिए जाने जाते हैं, उनमें अध्यापकों की पृष्ठभूमि में खासी विविधता है। यह सार्वभौमिक सत्य है। भारत की एलिट संस्थाओं के बारे में कहा जा सकता है कि उनको आर्थिक अनुदान अधिक मिलते हैं, पर पैसे लेने के लिए भी जो बौद्धिक शक्ति चाहिए, वह प्रांतीय विश्वविद्यालयों में कम है या दरकिनार है। ऐसा इसलिए भी है कि इन संस्थाओं में जो मूल्य हावी हैं, वे इन-ब्रीडिंग से उपजे हैं।
पाँच साल पहले मेरे पी एच डी शोध अध्यापक (गाइड) प्रिंस्टन से आए थे। उन्हें मैं शिमला घुमाने ले गया। वहाँ शिक्षा व्यवस्था पर बातचीत के प्रसंग में मैंने पूछा कि अमरीका में यह कैसे हुआ कि अधिकतर संस्थाओं में इन-ब्रीडिंग नहीं है। उनका जवाब सोचने लायक था - हमने डेढ़ सौ साल पहले ही समझ लिया कि इन-ब्रीडिंग हमारे हित में नहीं है।
तब से मैं अक्सर कहता हूँ कि हमारे डेढ़ सौ साल अभी आने हैं और यह सही भी है। हमारा समाज अभी भी मूलतः सामंती है। उसी का प्रतिफलन हम अपनी संस्थाओं में देखते हैं। १९८५ में जब से मैं हिंदुस्तान लौटा, मैंने कई आलेखों में लिखा कि आई आई टी (या आई आई एस सी) और केंद्रीय विश्वविद्यालय हमारी शिक्षा व्यवस्था की बुर्ज़ुआ संस्थाएं हैं और प्रांतीय विश्वविद्यालय सामंती संस्थाएं। प्रांतीय विश्वविद्यालयों में अधिकतर लोगों की सोच विशुद्ध सामंती होती है। नतीज़तन आप प्रांतीय विश्वविद्यालयों में अक्सर हास्यास्पद स्थितियों का सामना करते हैं। अनंत उदाहरण हैं। एक ताज़ा उदाहरण है। सामंती सोच का एक पक्ष है बुर्ज़ुआ लोगों की नकल करने की कोशिश करना। इसलिए अगर आई आई टी में सेमेस्टर पद्धति है तो हम भी इसे अपनाएंगे। अच्छी बात है। पर चूँकि हम उनकी तरह परंपराओं से मुक्त नहीं हैं तो नतीज़ा यह कि हर मध्यावधि इम्तहान के वक्त पढाई बंद। औपचारिक रुप से नहीं (फिर तो कलई खुल जाएगी), व्यवहार में। पिछले साल किसी विषय में फेल किया हुआ छात्र इस साल उसी सेमेस्टर के पेपर में बैठेगा तो टाइम-टेबल को ऐडजस्ट करना पड़ेगा और सामंती व्यवस्था में इतनी छूट है नहीं कि अध्यापक ऐसा आसानी से कर ले; इसलिए पुराने साल फेल किए छात्रों के लिए अलग से इम्तहान होंगे। यानी कि साल में तकरीबन चार महीने इम्तहान ही इम्तहान। आई न हँसी। सबको नहीं आएगी। उन्हीं को आएगी, जिन्होंने बेहतर व्यवस्थाएं (यानी के बुर्ज़ुआ) देखी हैं। आजकल विश्वविद्यालयों पर भी दबाव है कि वे अपना खर्च कम करें तो बहुत सारा प्रशासनिक काम अध्यापकों को करना पड रहा है। इम्तहानों की व्यवस्था और प्राप्त अंकों को अंतिम सारणियों में (जिनके आधार पर मार्क शीट बनती है) लिखना, यह सब भी हम खुद करते हैं। तो हुआ क्या कि किसी के ५२ अंक थे और गलती से चढ़ गए २५, यानी कि फेल। जब छात्र इस काम के लिए जिम्मेवार अध्यापक के पास गई तो वे परेशान। सामंती सोच का एक बड़ा हिस्सा बेमतलब का डर और बेमतलब का दर्प भी होता है। तो छात्र को कह दिया गया कि हो जाएगा। काफी समय तक हो जाएगा का आश्वासन चलता रहा, आखिर एक समय छात्र ने औपचारिक रुप से आवेदन कर ही दिया। कोई छः महीनों के बाद मामला मेरे पास भी आया। मैंने कहा इसमें क्या है, गलती किसी से भी हो सकती है, सारे प्रमाण देख लिए जाएं, अगर हम आश्वस्त हैं, तो गलती सुधार ली जाए। सोचिए कि इस काम में अब तक कितने लोगों का कितना वक्त लगा होगा और काम अभी तक हुआ या नहीं। आखिरी बात पहले बतला दूँ, अभी तक नहीं हुआ, हालांकि मैंने छात्र को आश्वस्त किया है कि देश के राष्ट्रपति भी इस त्रुटि के संशोधन को नहीं रोक सकते। कम से कम पंद्रह अध्यापकों और प्रशासनिक कर्मचारियों ने और दर्जनों छात्रों ने इस पर कई महीनों से अपना वक्त लगाया है।
और दोस्तों, सच यह है कि यह कहानी देश के एक बेहतर प्रांतीय विश्वविद्यालय की है। वैसे सही मायने में यह प्रांतीय भी नहीं है। पर इसका स्वरुप और यहाँ की मानसिकता प्रांतीय है। पर इस सबका इन-ब्रीडिंग से क्या लेना-देना? है, जहाँ इन-ब्रीडिंग कम होती है, विविधता होती है, वहाँ लोगों को निजी संबंधों के जरिए नहीं, बल्कि प्रोफेशनल तरीकों से काम करने की आदत होती है। यह विषय, इसका मनोविज्ञान, जटिल है, विस्तार में लिखने के लिए मुझे हिन्दी टाइपिस्ट ढूँढना पड़ेगा। संक्षेप में, इन-ब्रीडिंग एक विकार है। इस एक विकार पर नियंत्रण हो पाए तो प्रांतीय विश्वविद्यालयों में व्याप्त भयंकर भ्रष्टाचार में काफी कमी आ जाए। मेरे जैसे कई लोगों के अपना नुकसान करवाते हुए लगातार शोर मचाने के कारण राष्ट्रीय स्तर पर इसके खिलाफ थोड़ी बहुत हलचल हुई है, पर अभी तक कोई प्रभावी कदम नहीं दिखता।
1 comment:
मेरी कम जानकारी को क्षमा करें। मैं तो इन-ब्रीडिंग के बारे में जानता भी नहीं। क्या आप इसपे थोड़ा अधिक प्रकाश डाल सकते हैं?
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