Tuesday, July 22, 2008

कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम्हें अँधेरा निगलता जा रहा है

चेतन ने खबर भेजी कि विकी पर तुम्हारी कविताएँ हैं - देखा तो पुरानी तस्वीर के साथ कुछेक कविताएँ। उनमें से आखिरी कविता इशरत पर है। इशरत जहान को 2004 में जून के महीने में गुजरात की पोलीस ने मार गिराया था। मैं भूल ही गया था, कविता टुकड़ों में है और संभवतः दैनिक भास्कर के चंडीगढ़ संस्करण में आयी थीं। याद करने के लिए गूगल सर्च किया तो एक जनाब का गुजरात की पोलीस के पक्ष में लिखा यह तर्क मिलाः



The law in most countries assumes that the accused is 'innocent until proven guilty beyond reasonable doubt'. Both Ishrat Jahan and Javed Ghulam Sheikh undoubtedly deserve this protection, especially since they are no longer around to speak for themselves. But to the professional 'secularists' it is not these two who stand accused of intent to murder, it is the Gujarat police that is guilty of 'state terrorism'. So why are they unwilling to grant the same presumption of innocence to the Gujarat police?



मैंने कोई पच्चीस साल पहले प्रख्यात बाल चिकित्सक, नस्लवाद और लिंगभेद की राजनीति के खिलाफ वैज्ञानिक पुस्तकों के लेखक और मानवविज्ञान के प्रोफेसर ऐशले मोंटागु का एक भाषण सुना था। भाषण का विषय था बच्चों को माँ का दूध पिलाने की ज़रुरत पर। पर आखिर में सवाल जवाब के दौरान किसी ने डारविन के विकासवाद के विरोधियों (क्रीएशनिस्ट्स यानी ईश्वर द्वारा सृष्टि के बनाने में यकीन करने वालों) के साथ टेलीविज़न पर उनकी बहस का ज़िक्र कर दिया। खिन्नता के साथ मोंटागु ने कहा था - यह मेरी गलती थी कि मैं उस कार्यक्रम में शामिल हुआ। उस दिन मैंने सीखा कि Reasonable people you can reason with, bigots you should never talk to.



मैं मोंटागु का वह कथन भूलता नहीं हूँ। जब लगता है कि कोई बेवकूफ भोंपू बजा रहा है तो लोगों से कह देता हूँ बेवकूफ भोंपू बजा रहा है और कोशिश करता हूँ कि बहस से दूर रहूँ। ऐसा असंभव नहीं है कि इशरत या कोई भी, मैं तुम, कोई भी आतंकवादी हो, पर बिना किसी पक्के सबूत के एक जीती जागती युवा लड़की के सरेआम कत्ल के पक्ष में कोई ऐसा तर्क भी दे सकता है कमाल ही है। इसलिए दोस्तो, अँधेरा चतुर्दिक है, अगर कोई अँधेरे की ओर इंगित करता है, इसका मतलब यह नहीं कि उसकी नज़र धुँधली हो गई है। अगर लगता है कि कुछ और भी कहना है तो गरज कर कहो पर अँधेरे को उजागर करने वाले की नीयत पर शक होने लगे तो अपने बारे में सोचो, कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम्हें अँधेरा निगलता जा रहा है।



बहरहाल भोंपू वादकों की चर्चा छोड़ें।



इशरत
1
इशरत!
सुबह अँधेरे सड़क की नसों ने आग उगली
तू क्या कर रही थी पगली!
लाखों दिलों की धडकनें बनेगी तू
इतना प्यार तेरे लिए बरसेगा
प्यार की बाढ़ में डूबेगी तू
यह जान ही होगी चली!
सो जा
अब सो जा पगली।



2
इंतजार है गर्मी कम होगी
बारिश होगी
हवाएँ चलेंगी



उँगलियाँ चलेंगी
चलेगा मन



इंतजार है
तकलीफें कागजों पर उतरेंगी
कहानियाँ लिखी जाएंगी
सपने देखे जायेंगे
इशरत तू भी जिएगी



गर्मी तो सरकार के साथ है



3
एक साथ चलती हैं कई सडकें।
सडकें ढोती हैं कहानियाँ।
कहानियों में कई दुःख।
दुःखों का स्नायुतंत्रा।
दुःखों की आकाशगंगा
प्रवाहमान।



इतने दुःख कैसे समेटूँ
सफेद पन्ने फर फर उडते।
स्याही फैल जाती है
शब्द नहीं उगते। इशरत रे!



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Monday, July 21, 2008

'क्या यह व्यक्ति अँधेरावादी है?'


अँधेरा होता देखकर उसने कहा कि देखो अँधेरा गहरा रहा है। जिन्हें अँधेरे से फायदा है,वे तलवारें खींच लाए। जिन्हें अँधेरे से कोई परेशानी नहीं, वे लोग कहने लगे कि यह आदमी अँधेरे की ही बात करता रहता है। सबसे मजेदार वे लोग हैं जिन्हें अँधेरे से चाहे अनचाहे फायदा होता है तो भी वे छिपाना चाहते हैं और कहना चाहते हैं कि वे अँधेरे के खिलाफ हैं, वे सब उठकर कहने लग गए, कि यह आदमी अँधेरे का एजेंट है। कई तरह से वे इस बात को कहते हैं, कोई बहस छेड़ता है, 'क्या यह व्यक्ति अँधेरावादी है?' शीर्षक से वह उसकी अँधेरे के खिलाफ रचनाएँ चुन चुन कर ब्लॉग पर डालता है। कोई साफ कहता है कि देखो इस आदमी ने अँधेरे के बारे में इतनी बातें की हैं, इसकी नज़र धुँधली हो गई है।
इसी बीच अँधेरा घना होता रहता है। अँधेरे में भले से भले लोग फिसलते गिरते रहते हैं। उससे रहा नहीं जाता तो वह प्रतिवाद करता है कि यह क्या, मैंने तो बहुत कुछ कहा है, अँधेरा तो है ही सबके सामने। अँधेरे का जिक्र न करने से अँधेरा गायब तो नहीं होगा।
मजेदार लोग, मुल्क की तमाम संकीर्णताओं से उपजे लोग, घर-बाहर पुरुष, समाज में उच्च, जोर जोर से चिल्लाते रहते हैं कि वह अँधेरे की बात कर रहा है। चारों ओर फैला अँधेरा दानवी हँसी हँसता रहता है। तलवारें खींचे लोग पीछे हट गए यह कहते हुए कि मज़ेदार लोग हमारा काम कर ही रहे हैं।

पिता
वह गंदा सा चुपचाप लेटा है
साफ सफेद अस्पताल की चादर के नीचे
मार खाते खाते वह बेहोश हो गया था
उसकी बाँहें उठ नहीं रही थीं ।
धीरे चुपचाप वह गिरा
पथरीली ज़मीन पर हत्यारों के पैरों पर ।
सिपाही झपटा
और उसका बेहोश शरीर उठा लाया
उसकी भी तस्वीर है अखबारों में
मेरे ही साथ छपी
मैं बैठा वह लेटा
चार बाई पाँच में वह पिता मैं बेटा ।
                                       - अप्रैल 2002

 ठंडी हवा और वह
ठंडी हवा झूमते पत्ते
सदियों पुरानी मीठी महक
उसकी नज़रें झुकीं
वह सोचती अपने मर्द के बारे में ।
बैठी कमरे में खिड़की के पास
हाथ बँधे प्रार्थना कर रही
थकी गर्दन झुकी
वह सोचती अपने मर्द के बारे में ।
शहर के पक्के मकान में
गाँव की कमज़ोर दीवार के पास
दंगों के बाद की एक दोपहर
वह सोचती अपने मर्द के बारे में ।
                                    - मार्च 2002 (पश्यंती 2004) 

हमारा समय
बहुत अलग नहीं सभ्य लोगों के हाल और चाल।
पिछली सदियों जैसे तीखे हमारे दाँत और परेशान गुप्तांग।

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चेहरों में एक चेहरा
वह एक चेहरा हार का
नहीं, ज़िंदगी से हारना क्लीशे हो चुका
वह चेहरा है मौत से हार का
मौत की कल्पना उस चेहरे पर
कल्पना मौत के अलग-अलग चेहरों की

वहाँ खून है, सूखी मौत भी
वहाँ दम घुटने का गीलापन
और स्पीडी टक्कर का बिखरता खौफ भी

ये अलग चेहरे 
हमारे समय के ईमानदार चेहरे
जो बच गए दूरदर्शन पर आते मुस्कराते चेहरे

दस-बीस सालों तक मुकदमों की खबरें सुनाएँगे
धीरे-धीरे ईमानदार लोग भूल जाएँगे चेहरे
अपने चेहरों के खौफ में खो जाते ईमानदार चेहरे।
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जंगली गुलाब जड़ से उखाड़ते पर मशीनों से अब
लाचार बीमार पौधे पसरे हैं राहों पर उसी तरह 

राहें जो पक्की हैं
सदी के अंत में अब।
                                             - (
साक्षात्कार- मार्च 1997)