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बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Monday, December 12, 2005

इधर वाला गेट बंद हो गया होगा

चूँकि मैं किसी ईश्वर में विश्वास नहीं करता, इसलिए कह सकता हूँ - हे ईश्वर! मेरी इच्छा शक्ति को क्या हो गया। छुट्टी की घोषणा कर दी और फिर बेहया से वापस लौट आए।

बहरहाल भाई ने गरियाया तो औरों को, पर मुझे इतना हिलाया कि मैं वापस आ गया। चिट्ठा चर्चा में यह तो लिख दिया कि मैंने छुट्टी की घोषणा कर दी (पुरानी कविताओं का तर्क देकर!) पर यह नहीं लिखा कि कुछ बातें और भी कह गया हूँ - साधारण सी ही, जैसे शिक्षा व्यवस्था पर और शिक्षकों के मूल्यांकन पर। पर महज इतना हिलने भर से हम कहाँ इस अवसाद से लबालब आठ ही बजे पाँच डिग्री सेल्सियस पहुँची रात को एक किलोमीटर चल के दफ्तर पहुँचते कि चिट्ठा लिखें। सच यह है कि मुझे हिन्दी चिट्ठाकारों से प्यार हो गया है। भले लोग हैं। भाई मनोज, सच है कि अनुनाद सिंह ने आड़ंबड़ंबड़ंबड़ंबड़ं... जैसा कुछ लिखा था, जो ई-मेल नैशनलिस्टों की मुहावरेबाजी का हल्का सा नमूना था, पर यह भी तो है न कि उसने लिखा तो। अब हम हैं कि रोते रहते हैं यार टाइम नहीं, टाइम नहीं, किसी का पढ़ा तो टिप्पणी नहीं छोड़ी, बदतमीज़ तो हम ही हुए न? वैसे इस आड़ंबड़ंबड़ंबड़ंबड़ं... एपिसोड से एक पुराना चुटकुला याद आया। यह एक नैशनलिस्ट से ही सुना था (उन दिनों ई-संस्कृति का प्रादुर्भाव नहीं हुआ था)। एक बार एक महाराज एक और महाराज से मिले। विनम्र भाव से बोले - महाराज, मैं अधम ! सुनते ही दूसरे महाराज बोले - अरे महाराज ! मैं तो अधमाधम ! पहले कहाँ पीछे रहने वाले थे, बोले - महाराज, अधमाधमधमधमादम !

भाई अनूप, मैं फक्कड़ मिजाज आदमी तो हूँ (हालाँकि प्रतीक मेरा चिट्ठा पढ़ते हुए धीरज खो बैठता है), पर इतना जिम्मेवार भी हूँ कि ढाई हफ्ते के लिए आई आई एस सी जाऊँ तो चिट्ठाकारी से बचूँ। फिर जिस लैब में रहूँगा वहाँ हिन्दी के लिए सही इनपुट मेथड है या नहीं, कट पेस्ट वगैरह आसानी से कर पाऊँगा या नहीं, ऐसी कई समस्याएँ हैं। बहरहाल अपनी बेशर्मी का ऐलान तो कर ही दिया, शायद लिख ही बैठूँ।

चिट्ठा चर्चा में सेलेक्टिव बयान से एक भारी खयाल दुबारा मन में बैठ गया। मैंने अतुल की रंगीन रात के सवाल के जवाब में कई भारतीय चिंतकों के नाम लिखे थे। उनमें अंबेदकर का नाम नहीं था। मैंने अंबेदकर पढ़ा नहीं है। हमारी स्कूल की पाठ्य-पुस्तकों में अंबेदकर नहीं होते थे, हालाँकि उन्होंने भारतीय संविधान लिखने के लिए बनाई गई समिति की अध्यक्षता की थी। खास तौर पर हिन्दी की पुस्तक का जिम्मा था कि वह हमें भाषा ज्ञान के अलावा बाकी चीज़ें पहले सिखाए, तो गाँधी जी, काका कालेलकर, घनश्याम दास बिड़ला सब थे, पर अंबेदकर नहीं। फिर भी मुझे लगा कि राजा राममोहन राय से लेकर विनोद मिश्र तक की लंबी लिस्ट में अंबेदकर को न रखना मेरी जाति-प्रश्न के प्रति संवेदना की कमी को दर्शाता है। लिखने के बाद चेतन को मैंने यह कहा (चेतन का कहना है कि जब भी उसे गाली देनी हो तो उसका जिक्र मैं चिट्ठे में कर देता हूँ। चेतन, इस वक्त गाली तुम्हें नहीं, खुद को ही दे रहा हूँ) और तब से इस सवाल पर सोचता रहा हूँ।

इसके अलावा अगर मैं युवा मित्र आशीष अलसिकंदर (अरे वही अलेक्ज़ेंडर) की बात कहे बिना छुट्टी ले ली होती तो अन्याय होता। छात्रों की संस्था क्रिटीक से न जुड़े पर बौद्धिक विचारों की कसरत में सक्रिय होने की इच्छा रखने वाले कुछ मित्रों को आशीष ने संगठित किया। ये लोग कभी कभी आर्ट्स म्युज़ियम (विश्वविद्यालय के) के सामने हरी घास पर बैठते हैं और मैं सबसे उम्रदराज़ पापी कभी कभार इनकी गुफ्तगू में शामिल होता हूँ। काश्मीर, विश्वविद्यालय में छात्र संगठनों के चुनाव, बढ़ती हुई अश्लीलता की संस्कृति, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे कई मुद्दों पर ये चर्चा कर चुके हैं। मैं चूँकि इनदिनों अकेला हूँ तो मेरे घर पर दो बार डी वी डी प्लेयर चलाकर फिल्में भी देख चुके हैं। तो दस तारीख को जिस दिन मानव अधिकार था, ये मेरे घर इकट्ठे हुए। संयोग से इन्हें पता चल गया कि उस दिन मेरा जन्मदिन भी था, तो मेरी बढ़ती उम्र का स्यापा भी मनाया गया। इसके दो दिन पहले आशीष ने तो कमाल ही कर दिया। खुशबू और सानिया मिर्जा के बयानों पर उठे बवालों और प्लेबॉय के भारतीय संस्करणों के संदर्भ में बुलाई बैठक में कोई बीस छात्र-छात्राओं के बीच अश्लीलता, यौन शिक्षा आदि पर खुली बहस का आयोजन। इन विषयों पर युवा छात्र-छात्राओं में ऐसी खुली चर्चा यहाँ मैंने पहली बार देखी और सुनी।

उम्र से याद आया, मैंने सोचा था कि उम्र पर एक पुरानी कविता पोस्ट कर दूँ। भाई मसिजीवी, अब इसपर ध्यान से टिप्पणी करना, फिर किसी महेश ने तुम्हारे ब्लॉग पर गाली दे देनी है, चोट मुझे लगती है।

उम्र

उम्र दर उम्र
ढूँढते हैं
बढ़ती उम्र रोकने का जादू

भरे छलकते प्याले हैं
एक-एक टूटता प्याला
लड़खड़ाते सोच सोच कि
टूटने से पहले प्यालों में
रंग कुछ और भी होने थे

टूटता हर प्याला
बचे प्यालों से होता बेहतर
झुर्रियों के साथ इकट्ठे बचते प्याले
डबल चार सौ बीस का जिन पर नंबर

जितनी बढ़ती तमन्ना जीने की
उतनी ही होती तकलीफ जीने की

टूटी सोच से डरे घबराए
बदतर प्याले ढोने को लाचार
गिरते और गहरे गड्ढों में

उम्र पर हँसने की सलाह देते हैं वैज्ञानिक।

--१९९५ (उत्तर प्रदेश पत्रिका-मार्च १९९७ ; विपाशा - १९९६)

चार सौ बीस का प्रसंग हमारे अत्यंत सम्माननीय अध्यापक अगम प्रसाद शुक्ला जी से चुराया (पैदा हुआ बनमानुष का बच्चा, बीस पर आधा चार सौ बीस, चालीस पर पूरे और साठ पर डबल - तो प्यारे छात्रों, हम तो चले डबल चार सौ बीसी की ओर, तुम ठहरे आधे, अब किसी तरह कहानी बनानी है)।

तो शुकुल जी, उम्र तो हो गई, पर काम के दबाव से नर्वस हम उतने ही हैं, जितने रंगीन रातों (अतुल वाली नहीं) के दौर में हुआ करते थे। हमारे बड़े दोस्त कोलैबोरेटर तेजवीर सिंह मुजफ्फरनगर वाले, जिनकी सिंथेटिक कार्बनिक रसायन में दम डालने के लिए कुछ कंप्यूटर का कमाल हम कर देते हैं, उन्होंने मेरे ऊपर ही डाल दिया कि अपनी मिलीजुली खुराफात का खुलासा विभाग के वार्षिक मेले में करुँ, जो इस साल कुछ फिरंग भाइयों की उपस्थिति में हो रहा है। यार, उसकी तैयारी कर लेने दो। तब तक बाज आओ मुझे हिलाने से, क्या ?

बाई द वे, अगर कोई ई-मेल नैशनलिस्ट मेरी बातों से आहत हो रहे हैं तो उनकी सांत्वना के लिए कह दूँ कि मैं और मेरा दोस्त विश्वंभर पति (जो दुनिया का सबसे खतरनाक व्यंग्यकार है, सामना होने पर पेट फटने की भरपूर संभावना होती है) एक जमाने में वामपंथी साहित्य पढ़ते हुए बोर होकर 'अमरीकी पूँजीवादी साम्राज्यवाद, सोवियत सामाजिक साम्राज्यवाद और भारतीय बुर्ज़ुआ दलालों' की जगह धड़ाम धड़ाम धड़ाम पढ़ा करते थे। इसलिए दोस्तों, आड़ंबड़ंबड़ंबड़ंबड़ं... बोलो, पर रीलैक्स यार। भारत महान बोलो, बाजार महान बोलो, आराम से यार।

सच तो यह है अतुल राष्ट्रवाद के नाम पर आदमी आदमी नहीं रहता - लिंडी इंग्लैंड और क्या वो दूसरी जारपिंस्की या ऐसी ही कुछ जिसे मर्द जिस्मों की जरा ज्यादा ही चाहत थी, .....इसलिए अतुल सवाल यह है, राष्ट्रगान की तोतारट कहाँ ले जा रही है। वैसे गाना अच्छा लगता है तो क्यों न गाओ, एक कविगुरु ने लिखा है (किसके लिए यह मत पूछना), दूसरा एक अंग्रेज़ी सरकार के मुलाजिम ने (किसकी भाषा में मत पूछना)। सुंदर है, साधु साधु।

धत् तेरी की, दस बज गए। इधर वाला गेट बंद हो गया होगा।

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8 Comments:

Blogger Pratyaksha said...

आपको पढ कर अच्छा लगता है. लगता है जैसे आमने सामने बात हो रही हो.
कविता बहुत अच्छी लगी........

कई बार
दरकते प्याले भी
सहेजते रहे
छिपाते रहे
टूटे निशान
और ओढते रहे
चेहरे पर
एक नारा
मुस्कुराते रहो
हमेशा
कई बार
पाया कि
टूटे प्यालों से
दरके प्याले
ज्यादा अज़ीज लगे
उम्र की टोंटी टूटी
तो क्या
प्याला कुछ कुछ
साबुत है
अब भी


प्रत्यक्षा

11:49 AM, December 13, 2005  
Anonymous Anonymous said...

लाल्टु जी,

आपको पढकर अच्छा लगता है, ऐसी बेबाक बयानी काफी कम ही दिखाई देती है.
आप कबीर की परंपरा को आगे बढा रहे हैं, वही फक्कड अंदाज !
आप जैसे साहित्यकार का चिठ्ठा विश्व मे आना, चिठ्ठो के उज्जवल भविष्य का संकेत है.

आशीष

3:30 PM, December 13, 2005  
Blogger लाल्टू said...

वाह, देखो मसिजीवी, जुगलबंदी में और भी शामिल हैं हमसुखन ! प्रत्यक्षा, आपने लंबे समय से लिखा नहीं, मैं तो नाहक ही चिल्लाता रहा कि छुट्टी चाहिए !

4:18 PM, December 13, 2005  
Blogger अनूप शुक्ल said...

लाल्टूजी,अच्छा लगा कि आप छुट्टी का हल्ला मचा के फिर से लिखने में जुट गये। वहां भी मन करेगा लिखने का। लिखियेगा। जन्मदिन की बधाई देर कोई ज्यादा तो नहीं हुई न!

11:11 PM, December 13, 2005  
Blogger Pratyaksha said...

छुट्टी करें लेकिन लिखने से नहीं, फिर हम छुट्टी में क्या करेंगे :-), अगर पढ भी न पायें.

व्यस्त हूँ कहना बहाने ढूँढना जैसा लगता है, इसलिये न लिखने का कोई बहाना नहीं.जल्द ही कुछ पोस्ट करूँगी.

प्रत्यक्षा

4:37 PM, December 14, 2005  
Blogger मसिजीवी said...

लाल्‍टू।
प्रतिक्रिया के लिए :)
अपनी अल्‍पमति व मंदमति दोनों के लिए क्षमा मैं इस पोस्‍ट में तो वस्‍तु पर ध्‍यान दे ही नहीं पाया क्‍योंकि अपन तो आपकी शैली पर ही मुग्‍ध होते रहे। चालू रहो। वैसे कुछ आलोचना निन्‍दा वगैरह का मसाला भी इकटृठा हो रहा है, कॉलेज के एसाइनमेंट जॉंचने के काम से कुछ राहत मिलते ही गुबार टाईप कर पोस्‍ट करूंगा

10:51 PM, December 14, 2005  
Blogger Laxmi said...

लाल्टू जी,

जन्मदिन मुबारक, कुछ देर से। अम्बेदकर के बारे में आपइकी बात बिल्कुल सही है। मैंने भी कुछ नहीं पढ़ा स्कूल में, अम्बेदकर के बारे में। आपकी कविता भी अच्छी लगी, खासकरये पंक्तियाँ:

जितनी बढ़ती तमन्ना जीने की
उतनी ही होती तकलीफ जीने की

9:33 PM, December 15, 2005  
Anonymous Anonymous said...

Chetan Premani
to me

here is मरीज़ (मरीझ in Gujarati) told you about:

जिंदगीना रसने पीवामां करो जल्दी, 'मरीझ'
एक तो ओछी मदिरा छे ने गळतुं जाम छे.

Literal translation:

जिंदगी के रस को पीने में करो जल्दी, 'मरीझ'
एक तो क़म मदिरा है और चूता जाम है

It's जाम here, not प्याला, but your poem reminded me of this.

9:36 AM, December 16, 2005  

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