Wednesday, September 23, 2020

मुंशीगंज की वे

' आलोचना' पत्रिका के अंक 62 में प्रकाशित 


मुंशीगंज की वे

दूसरी ओर दो सौ कदम आगे से मकानों की खिड़कियों पर शाम के वक्त सज-धज कर खड़ी होती थीं। सादे कपड़ों में लोग आते और फौजी यहाँ से आगे न जाएँ लिखे बोर्ड को पार कर जाते। कभी बाँह पर एम पी की पट्टी और सिर पर तुर्रेदार पगड़ी पहने रॉयल एनफील्ड की मोटरबाइक बगल में लिए मिल्ट्री पुलिस वाले दिखते। फौजियों के निजाम में तत्सम शब्दावली आने में अभी कुछ दशक और गुजरने थे।

यहाँ से आगे न जाएँ लिखे बोर्ड वाली सरहद जवानी को जवानी से मिलने से रोक नहीं पाती थी। मुल्क के कोने-कोने से आए मर्द वहाँ मानो किसी मंदिर में जाते थे जैसे जंग छिड़ने पर सनकी कमांडर के हुक्म बजाने टैंक के सामने चले जाते हैं। उनके हाथ छोटे-मोटे तोहफे होते थे, जो वो अपनी बीबियों को देना चाहते थे, पर वहीं अपने वीर्य के साथ छोड़ जाते थे। स्त्रियाँ बाद में नहा लेतीं तो वीर्य बह जाता, पर तोहफे रह जाते। कुछ तोहफे उनके बच्चे ले लेते।

मर्द शराब पीते थे और हमेशा हँसते नहीं थे। कभी किसी स्तन पर माथा रखे रोते थे। सियासत नहीं समझते थे, पर जानते थे कि पुरअम्न दिनों में भी जंग छिड़ सकती है। कभी भी किसी सरहद को पार करते हुए मारे जा सकते थे। उस खयाल से दो घूँट और पी लेते या रोने लगते थे। कभी कोई दंभ दिखलाता, औरत के जिस्म पर उछलता हुआ दुश्मन पर फतह के उल्लास से चिल्लाता, पर सच यह था कि वह रो रहा होता।

वे यह सब देखतीं। उनमें से ज्यादातर माहिर थीं कि कब किसके माथे को कहाँ छोड़ा जाए कि वह उनकी जाँघों के बीच उछलता रहे। वे जैसी भी दिखतीं, असल में उदासीन आँखों से छत के ऊपर तारों भरे आस्मान के ऊपर देख रही होतीं। फिल्मों-कहानियों में नई नवेली के रोने जैसी बात वहाँ कम ही होती। मुंशीगंज की वे।

(ii)

आना-जाना समांतर ब्रह्मांड में घटित होता था। अपनी धरती पर उन्हें कोई फिक्र न थी कि किस जंग में कौन जीत रहा है, कौन प्रधानमंत्री कब मरा या किस को नोबेल जैसा सम्मान मिला। कुछ बातें न जानना जन्म से उनकी नियति थी। बाक़ी की खबर खुद नहीं रखते थे। उन्हें शिविरों में जानवर की हैसियत से रखा जाता था। जरा सी ग़फलत होने पर उनको ऐसे काम करने पड़ते जो जानवर से भी करवाए न जाते थे, मसलन रेंग कर पत्थर ढोना। उन्हें लगता कि यही सच है, उनको जानवर जैसा होना था। मुंशीगंज की वे उनके जिस्मों की गर्माहट सँभाल रखतीं। उनके सामने वे पिघल-सी जातीं, पर नज़र पलटते ही वे उनके दिए पैसों को ध्यान से गिनतीं। दो पल में जब वे सौ रुपए गिनकर खुश होतीं, टाटा-बिड़ला करोड़ों का लेन-देन कर चुके होते थे। अंबानी को आने में कुछ साल और बाक़ी थे। भारत-पाकिस्तान हाल में तीसरी जंग लड़ चुके थे। एक बंदा नया फील्ड मार्शल बन गया था। उनके कमरों के बाहर बीमार बच्चे खेल-झगड़ रहे होते थे कि वक्त बीत जाए और माँएं खाना खिलाएँ। धंधे के वक्त बच्चों का शोर मचाना उनको पसंद न था। मुंशीगंज की वे।

(iii)

शिविरों में सुबह-शाम जो कुछ भी करते वह अफसरों के आदेश मुताबिक होता। सुबह की परेड, शाम के खेल, हर बात में उनको आ, जा, घूम, नाच, उछल, कूद, हुक्म दिए जाते। कभी-कभी उनसे नकली हमले करवाए जाते कि अगली जंग के लिए तैयार रहें। ऐसा करते हुए उनमें से जो मुंशीगंज आ चुके थे छुट्टी की शाम का इंतज़ार करते। जो अभी वहाँ आए नहीं थे, पर वहाँ की औरतों के बारे में औरों से सुन चुके थे, छुट्टी की शाम का इंतज़ार करते। वक्त के साथ उनके ज़हन में अपराध-बोध कम होता रहता। एम पी वालों से पकड़े जाने का डर रहता और गाँवों में रह रही बीबियों के साथ बेवफाई की परवाह कम होती जाती। उनके सपनों में तमाम परेडों, मोर्चाबंदियों, आगे बढ़ पीछे मुड़ के साथ रंग-बिरंगी साड़ियाँ सलवार कमीज़ पहनी अपने जिस्म लहराती तरह-तरह की वे आतीं। मुंशीगंज की वे।  

(iv)

देर रात तक धंधा कर चुकने के बाद स्त्रियाँ अपने बच्चों की खबर लेतीं। उन्हें सोता देख कर या जगे हुओं को सुलाकर वे खुद सोने की तैयारी करतीं। उनमें से जो पुरानी थीं, उन्हें अपने जिस्म से घिन नहीं आती थी। वे इस पर सोचती भी नहीं थीं। अगली सुबह रोज़मर्रा के काम की चिंता अवचेतन में लिए वे सो जातीं। उनका हर दिन एक जंग है ऐसा कवि सोचते हैं, दरअसल ऐसा कुछ भी नहीं था। फुर्सत में पीर भरे गीत गातीं और उल्लास के गीत गातीं। वे रोतीं और हँसतीं। बच्चों को पीटतीं और उनसे प्यार करतीं। अभी एड्स की बीमारी आई नहीं थी, कुछ फोड़ा फुंशी और एकाध सिफिलिस से परेशान रहतीं। एकाध असावधान मर्द ये बीमारियाँ साथ ले जाते। साल में एक-दो ऐसे केस होते रहते और फिर कोर्ट मार्शल जैसी कारवाई होती। पुलिस आकर उन स्त्रियों को छेड़ती। कुछ खिला-पिलाकर मामला दफा होता। डॉक्टरों के दौरे होते। जिस्मों की सफाई का इंतज़ाम होता। इन झमेलों के बीच वे पूजा-पाठ, नमाज वगैरह करतीं। मुंशीगंज की वे।

(v)

उनमें से कोई प्यार के सपने देखती थी। कोई मर्द भी कभी हिल जाता। यह मसला कुछ महीनों से ज्यादा नहीं चलता था। उसके लगातार कई दिन न आने से औरत समझ जाती थी कि फिर एकबार उसके साथ धोखा हुआ है। वह अकेले में रोती, अपनी करीबी सखियों से कहती कि मैं मर जाऊँगी। आखिर में सब वैसा ही रहता, जैसा था। इतिहास में ऐसी स्त्रियों को उबारने के लिए मसीहों ने जन्म लिया है। पर इनके साथ भले लोगों की टोलियाँ जुटने में अभी कुछ दशक और लगने थे। कुछ सालों बाद भटके हुए से कुछ युवा एन जी ओ कर्मियों को यहाँ आना था। एड्स पर जानकारी और बच्चों की पढ़ाई के बीच उनमें नए सपनों को जगाना था। उन दिनों ऐसी बातों से बेखबर वे एक उम्र के बाद कहीं गायब हो जातीं। वृंदावन, काशी या ऐसी किसी जगह। एकाध बुढ़ापे और बीमारी में मरने के लिए वहीं पड़ी रहतीं। मुंशीगंज की वे। 

(vi)

ज़िंदगी एक जंग के मानिंद उन्हें निगल जाती थी। किसी भी जंग की तरह कहना मुश्किल है कि कौन किस ओर था। कौन जी रहा था और कौन मरता था, कहना मुश्किल था। ज़िंदगी धरती के सूरज के चक्कर काटने जैसी आवर्ती घटना थी। वे चली जातीं और वे आतीं। तबादले होते और नए मर्द आ जाते। मुल्क में तख्तापलट होता, सरकार गिरती और नई सरकार सत्तासीन होती। कहीं कोई मसीहा सिसकता हुआ गायब हो जाता और नया मसीहा ज़िंदा हो उठता। अदीब उन औरतों के बारे अफसाने लिखते जाते। कई इसी से पहचाने गए कि उन्होंने उन औरतों के सपनों में जगह बनाई। मुंशीगंज की वे।

Monday, September 21, 2020

तीन कविताएँ

 'हंस' के ताज़ा अंक में आई तीन कविताएँ - 


1. आखिरी कविता नहीं


जीवन में कुछ आम बातें रही होंगी, कुछ लोग, आम दोस्त,

भाई-बहन, परिवार। लोग सालों तक

पेड़ की डाल पर पत्तों के काँपने

या बारिश की पहली बूँद बदन पर आ टपकने पर,

सड़क किनारे शोकेस में टँगी कमीज़ देख कर या

खबरों में किसी दुर्घटना के जिक्र पर, अचानक चौंकते होंगे। । लंबी साँस लेकर सोचते होंगे कि

उसे भूल बैठे थे। शाम को बेवजह यू-ट्यूब पर कोई गीत सुनते हुए

कोई रंग दिख जाना, हवा में उसकी आवाज़ की कंपन का होना।

अनकहा मुहावरा याद आ जाना।


उसे मार डाला गया। यह सोचते ही थर-थर काँपते होंगे लोग।

काँपती होंगी दीवारें, खयाल काँपते होंगे, कोई उठ खड़ा होगा,

कोई बैठ गया होगा। कोई सोचता होगा कि यह कैसे संभव है कि

वह नहीं है, पर मैं हूँ। किसी ने उसे बेहद प्यार किया होगा। वह

सरहद पर मारा गया वह गली में मारा गया वह मैदान में मारा गया

वह कहाँ मारा गया। वह किस जंग में मारा गया। दुश्मन की फौजों ने

उसे निहत्था धर दबोचा। ग़लती उसकी कि वह नहीं जानता था कि वह

जंग में शामिल था। उसके मुहावरे उसके हथियार थे। वह अपनी लड़ाई में

सूरज और चाँद को इस्तेमाल करता था। वह प्यार का इस्तेमाल करता था।

दुश्मन ने उसे टेढी आँखों से देखा तो वह हर कहीं दिखा।

उसे मारने की गरज में उन्होंने कई औरों को मारा।

मरने के तुरंत बाद उस पर दर्जनों कविताएँ लिखी गईं।

यह उस पर लिखी गई आखिरी कविता नहीं है।


2. अकेला

जिनसे हर रोज मिलता हूँ

साथ लंच खाता हूँ

सियासत के खतरे और मुखालफत की बातें करता हूँ

अगर उनके पत्ते झड़ गए तो वे कैसे दिखेंगे?


मुंबई में आरे इलाके में ऊँचे दरख्तों को आरों से काटा गया

हमने उन पर बात की यहाँ बैठे जहाँ से दस साल पहले एक गुलमोहर को उखाड़ फेंका गया था

कैंपस की दीवार के साथ कई पेड़ हैं जो आपस में ज़मींदोज़ जड़ें बाँटकर गुफ्तगू कर लेते हैं

उस बंदे की जड़ें वहाँ तक नहीं पहुँच पातीं

वह बहुत अकेला था

कौन समझेगा कि अकला पेड़ बहुत अकेला होता है


जिस गुलमोहर को हमने पाला था उसे हमने काट डाला

कि एक नई इमारत बननी थी और उसके पास हमारे बतियाने की जगह होनी थी


उस गुलमोहर से मैं वहीं बतियाता था, उसके पास से गुजरते हुए उसके तने को छूकर साथ कुछ गोपनीय खयाल साझा कर लेता था


सोचता हूँ कि अकेले हो गए बरगद से कभी पूछूँ कि क्या वह मुझ सा अकेला है।


3. आदत

एक प्रधान-मंत्री की मुझे आदत हो गई है

कुछ विशेषण जो पहले इस्तेमाल कर लेते थे, मसलन जालसाज, धोखेबाज, कातिल, फिरकापरस्त

अब नहीं करता

बासठ की उम्र में अनगिनत ज़ुल्म और जालिमों की आदत पड़ चुकी है


जैसे नापसंद कपड़ों को आदतन पहनते रहते हैं

खयाल आता है कि कुछ गड़बड़ है

पर पल में भूल जाते हैं

आखिर जिस्म ढँकने का काम ही तो करते हैं कपड़े

पर एक प्रधान-मंत्री को आदतन झेलते रहना आसान बात नहीं होती है


उसे आप जाँघिए की तरह नहीं पहन सकते

वह कभी भी चींटी की तरह कहीं भी डंक मार सकता है

सार्वजनिक माहौल में आप उसे उतार नहीं पाएँगे

हालाँकि बेचैनी आप पर सर चढ़कर बोलेगी

नापसंद ज्यादा या कम नमक की दाल सा

वह हर रोज परोसा जाता है

कुछ दिन चीख चिल्ला कर

आप शांत हो जाते हैं


ऐसी आदत के साथ जीते हुए

हम खुद को मुर्दा मानने लगते हैं

किसी शायर ने कहा था कि

मुर्दा शांति से भर जाना खतरनाक होता है

बस आदत है कि इंतज़ार करते हैं

कि एकदिन भेड़िया हमें खा जाएगा।