आइए हाथ उठाएँ हम भी

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बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Sunday, March 25, 2012

खबर और एक पुरानी कविता

खबर यह कि वाणी से मेरा नया संग्रह आ गया है। मुझे अभी भी प्रति मिली नहीं है, कल परसों मिलने की उम्मीद है।

आवरण लाल रत्नाकर जी का है।
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पाश की स्मृति में लिखी यह कविता शायद पहले भी कभी पोस्ट की है। जिन्होंने न देखी हो, उनके लिए फिर से। यह कविता 1994 में जालंधर के देशभक्त य़ादगार सभागार में पढ़ी थी। गुरशरण भ्रा जी तो आयोजक थे ही, उस बार पंजाबी के कवि लाल सिंह दिल को सम्मानित किया गया था।

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पाश की याद में

चूँकि एक फूल हो सकता है एक सपना
बारिश में भीगी दोपहर
वतन लौटकर गंदी मिट्टी पर भिनभिनाती मक्खियों को
देखने की इच्छा
या महज लेटे लेटे एक और कविता सोच पाना
एक सपना हो सकता है

इसलिए समय समय पर कुचले जाते हैं फूल
उनकी गोलियाँ दनदनाती हैं
मेघदूतों के एक एक टपकते आँसू को चीरकर
वे बसाना चाहते हैं पृथ्वी पर
सूखी आँखों वाली प्रजातियाँ
और चौराहों पर घोषणा होती है निरंतर
ख़बरदार सिर मत उठाना
रेंगते चलो संभव है आसमान दिखते ही
फिर जन्म ले बैठे कोई कविता

वे मशीनों में अपने नकली दाँतों की हँसी बिखेरते आते हैं
सभ्य शालीन कपड़ों में लफ्ज़ों को बाँध आते हैं
वे आते हैं कई कई बार
काले काले चश्मों से अपनी लाल आँखें ढँके आते हैं
उनकी कोशिश होती चप्पा चप्पा ढूँढने की
पेड़ पौधों घास फूस हवा पानी में

जितना ख़तरनाक है हमारे लिए सपनों का मर जाना
उतना ही ख़तरनाक है उनके लिए फिर फिर कविता का जन्म लेना

इसलिए जब कभी कविता खिल उठती है
उनकी नसें फुफकारती हैं काले नागों सी
और बौखलाहट में वे जलाना चाहते हैं चाँदनी रातें
मिट्टी की महक हमें ढँक लेती है
वे जश्न मनाते हैं इस भ्रम में मशगूल कि
एक इंसान नहीं वाकई उसके सपनों का कत्ल किया हो

सदियों बाद कविता फैल चुकी होती है दूर-दूर
दिन में सूरज और रात में तारों में होती है कविता
खेतों खदानों में स्कूलों में
परिवार में संसार में
होती है कविता
असीं लड़ाँगे साथी असीं लड़ाँगे साथी
(इतवारी पत्रिका: 1997)
- 'डायरी में तेईस अक्तूबर' संग्रह में शामिल







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Friday, September 10, 2010

लड़ांगे साथी

मैं वैसे तो गुस्से में और अवसाद ग्रस्त हो सकता हूँ, कि एक नासमझ गैर शिक्षक बाबू ने ऐडमिरल रामदास के भाषण पर नाराज़गी जताते हुए हमारे छात्रों में सांप्रदायिक विष फैलाने की कोशिश की है. और ऐसा करने में उसने साल भर पुरानी मीरा नंदा के भाषण की सूचना को उखाड़ निकला है, जिस सेमीनार का मेजबान मैं था.

पर यह हफ्ता पाश और विक्टर हारा के नाम जाना चाहिए.

पाश की यह कविता आज ही कुछ दोस्तों को सुना रहा था, बहुत बार सबने सुनी है, एक बार और पढ़ी जाए:

सबसे खतरनाक होता है

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
बैठे-बिठाए पकड़े जाना बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता
कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
जुगनुओं की लौ में पढ़ना
मुट्ठियां भींचकर बस वक्‍त निकाल लेना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता

सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
सबसे ख़तरनाक वो घड़ी होती है
आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो
आपकी नज़र में रुकी होती है

सबसे ख़तरनाक वो आंख होती है
जिसकी नज़र दुनिया को मोहब्‍बत से चूमना भूल जाती है
और जो एक घटिया दोहराव के क्रम में खो जाती है
सबसे ख़तरनाक वो गीत होता है
जो मरसिए की तरह पढ़ा जाता है
आतंकित लोगों के दरवाज़ों पर
गुंडों की तरह अकड़ता है
सबसे ख़तरनाक वो चांद होता है
जो हर हत्‍याकांड के बाद
वीरान हुए आंगन में चढ़ता है
लेकिन आपकी आंखों में
मिर्चों की तरह नहीं पड़ता

सबसे ख़तरनाक वो दिशा होती है
जिसमें आत्‍मा का सूरज डूब जाए
और जिसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके जिस्‍म के पूरब में चुभ जाए
मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती ।

-अवतार सिंह पाश

विक्टर हारा के एक गीत की भारतभूषण ने यह लिंक भेजी है।

पाश की याद में मैंने एक कविता लिखी थी, इतवारी पत्रिका में आयी थी। 'डायरी में तेईस अक्तूबर' संग्रह में शामिल है. इस वक़्त टेक्स्ट पास नहीं है। आखिरी पंक्ति में पाश को दुहराया था: असीं लड़ांगे साथी, असीं लड़ांगे साथी। आज भी यही कहना है।

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