Monday, February 27, 2006

फिर वहीं। या यहीं।

इस बीच फिर उत्तरी हवाओं को सलाम कह आया। एक दिन के लिए जे एन यू गया था। वहाँ से चंडीगढ़। एक दिन सबसे तो नहीं दो चार से मिलकर अगली सुबह दिल्ली। दिल्ली में प्लैटफार्म पर रवीन्द्र सिवाच जो रसायन और कविता दोनों में मेरा पुराना शागिर्द रहा है, उसे आना था। आया नहीं। मोबाइल बजाने की कोशिश की तो नो नेटवर्क कवरेज। हैदराबाद लौटने तक नो कवरेज ही रहा। पता नहीं लोग कैसे निजीकरण के गुण गाते हैं। इन ठगों ने तो मुझे नियमित रुलाने का ठेका ही लिया हुआ है। बहरहाल, थोड़ी देर तक रवीन्द्र नहीं पहुँचा तो याद आया कि उसने कहा था कि स्टेशन के पास ही क्रिकेट खेलना है। तो भाई एक तो दिल्ली दिल्ली, ऊपर से क्रिकेट, लाजिम है कि नेटवर्क का कवरेज होगा नहीं। प्लैटफार्म से बाहर आकर मित्र ओम को फोन किया और उनके घर डेरा जमाने की घोषणा तय कर दी। पुराने स्नेही हैं, उनसे पारिवारिक संबंध रहा है। एक जमाने में चंडीगढ़ में अखबार के रेसीडेंट एडीटर होकर आए थे। मुझसे ऐसे लेख लिखवाए थे जो आज तक लोग याद रखते हैं। आजकल मुख्य संपादक हैं। तो नेटवर्क न होने से दो ही रुपए में इतना अच्छा निर्णय लिया, नहीं तो रोमिंग के खासे लग जाते। प्री पेड तक जाते हुए किताबों से भारी हुए सामान की वजह से पीठ टूटी जा रही थी, इसलिए जब लगभग ठीक ठीक रेट में एक ऑटो वाले ने ले जाना मान लिया तो चढ़ बैठा।

ओम ने कराची में बुद्धिजीवियों के साथ फैज़ अहमद फैज़ पर हुई चर्चा पर रविवारी में चार कालम का लाजवाब लेख लिखा था। बड़े गर्व से अपने प्रशंसकों के फ़ोन रीसिव कर रहे थे और सबको कह रहे थे कि जी फैज़ की आवाज़ में पढ़ी गई नज्मों के कैसेट बनाने का झूठा वादा सौ लोगों से किया, अब उस लिस्ट में आपको भी जोड़ देते हैं। बड़े रसिक और दिलदरिया मिजाज़ के हैं। मुझे इकबाल बानो का गाया 'हम देखेंगे, लाजिम है कि हम देखेंगे...' सुनाया। यह फैज़ का वह गाना है जो भुट्टो को फाँसी लगने के बाद किसी राजनैतिक सभा में इकबाल बानो ने गाया था। इस पर कुछ सामग्री यहाँ है। यह कैसेट मैंने इसके पहले अपने फिल्मकार मित्र दलजीत अमी के घर सुना था। पिछले ब्लॉग में मैंने मित्र शुभेंदु का जिक्र किया था। वह भी फैज़ लाजवाब गाता है। बसंत बहार में उसका गाया 'गुलों में रंग भरे...' मुझे मेंहदी हसन से भी बेहतर प्रस्तुति लगती है। जिस दिन का जिक्र मैंने पिछले ब्लॉग में किया था, उस दिन भी उसने 'दोनों जहान तेरी मुहब्बत में हार के, वो जा रहा है कोई शब-ए-ग़म गुजार के' और मख़दूम की याद में लिखा फैज़ का गीत भी सुनाया था।

ओम चूँकि हिंदी के पंडित हैं तो हिंदी वाक्य विन्यास आदि पर चर्चा आदि होती रहती है। एक बार उन्होंने बताया था कि 'हम आपके आभारी हैं' कहना गलत है। सही प्रयोग है 'हम पर आपका आभार है/होगा/रहेगा'। इस बार 'ने' के प्रयोग पर बात हुई। 'उसने मुझे पैसे देने हैं' उनके अनुसार पंजाबी हिंदी है - सही प्रयोग है 'उसको मुझे पैसे देने हैं'। मैं इस बारे में अभी तक कन्फ्यूज़ड हूँ। दिल्ली का लिंग निर्णय ही नहीं, यह भी! मुझे लगता है कि उसको कहने पर अर्थ गलत भी हो सकता है यानी पैसे लेने वाला वह और देने वाला मैं जबकि आमतौर पर ऐसी परिस्थिति में मैं नहीं होता।

इस बार चंडीगढ़ से चलते हुए ज्यादा तकलीफ हुई। कुछ अपनी निजी समस्याओं पर पुराने दोस्तों से बात करने का असर था, कुछ शायद बस इसलिए कि इस बार समेटने का दबाव कम था, हालाँकि जितना कुछ हो सका इस बार भी उठा ही लिया। हैदराबाद फ्लाइट पैंतालीस मिनट लेट थी। रात पहुँचा। फिर वहीं। या यहीं।

Sunday, February 19, 2006

यातना

लिखूँ तो क्या लिखूँ।
लंबे समय से सब कुछ ही गोलमाल लगता रहा है।
जो ठीक लगता है, वह ठीक है क्या?
जो गलत वह गलत?

शायद ऐसे ही समय में
ईश्वर जन्म लेता है।

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यातना

तालस्ताय ने सौ साल पहले भोगा था यह अहसास
जो बहुत दूर हैं उनसे प्यार नहीं है
दूर देशों में बर्फानी तूफानों में
सदियों पुराने पुलों की आत्माएँ
आग की बाढ़ में कूदतीं

निष्क्रिय हम चमकते पर्दों पर देखते
मिहिरकुल का नाच

जो बहुत करीब हैं उनसे नफरत
करीब के लोगों को देखना है खुद को देखना
इतनी बड़ी यातना
जीने की वजह है दरअसल

जो बीचोंबीच बस उन्हीं के लिए है प्यार
भीड़ में कुरेद कुरेद अपनी राह बनाते
ढूँढते हैं बीच के उन लोगों को
जो कहीं नहीं हैं

समूची दुनिया से प्यार
न कर पाने की यातना
जब होती तीव्र
उगता है ईश्वर
उगती दया
उन सबके लिए
जिन्हें यह यातना अँधेरे की ओर ले जा रही है

हमारे साथ रोता है ईश्वर
खुद को मुआफ करता हुआ।

(पश्यंती; अप्रैल-जून २००१)

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फिर दिल्ली

दस दिन पहले क्या हुआ
ऐक्सीडेंट हुआ
कैसे
मोबाइल पकड़े लड़की डिवाइडर से उतरी
और ऐेन दो मोटरबाइक्स के सामने
मोटरबाइक्स वालों ने मारा ब्रेक क्रररररंच्च्च्च्च्च्च्.......
पीछे की गाड़ी वाले ने मारा एक मोटरबाइक को धड़ाम
सवार गिरा, लोगों ने उठाया, उठ कर वह लड़की की ओर हाथ उठाके बोला - क्या .........
लड़की अलमस्त सड़क पार बस स्टैंड पर खड़ी होकर मोबाइल पर बातें करती रही
पीछे की गाड़ी में कौन था
मैं था, मेरा मित्र शुभेंदु, यानी कि रामपुर घराने के उस्ताद हाफिज मुहम्मद खाँ का शिष्य और हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की ऊँची हस्ती और हाल ही में दिल्ली विश्वविद्यालय से भागा और यहाँ हैदराबाद सेंट्रल यूनीवर्सिटी में आया प्रोफेसर शुभेंदु घोष और थे दिल्ली से ही आए दो और जीवविज्ञानी कान्फरेंस में कान कटवाने आए थे।
जब गाड़ी चली तो दिल्लीवालों ने कहा (मैंने नहीं) शुकर है दिल्ली नहीं है, अब तक मार-लड़ाई शुरु हो गई होती।
तो दोस्तो चाहे ठहरा या ठहरी, दिल्ली तो दिल्ली है।
शुभेंदु परेशान है - वह दिल्ली वापस जाना चाहता है।

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रहा मेरा नियमित का रोना तो खबर यह है कि एयरटेल के मोबाइल कनेक्शन दिलाने वाले ने करीब हजारेक रुपए लेकर छः महीने वाला कनेक्शन तो दे दिया। फॉर्म भरते समय यह भी भरना था कि आयकर पैन कार्ड का नंबर क्या है। दो दिन लगे चंडीगढ़ से नंबर पता करने के। फिर बताया कि मैंने पहचान प्रमाण स्वरुप पासपोर्ट का तस्वीर वाला पन्ना तो फोटोकापी कर दिया पर पता वाला पन्ना नहीं किया। हालाँकि चंडीगढ़ के उस फ्लैट को मैं छः साल पहले छोड़ चुका था, पर वह भी भिजवा दिया। पर कनेक्शन कट गया। तो हफ्ते से दौड़भाग चल रही है। तीन दिन पहले दुबारा फ़ॉर्म भरा है। यह है निजीकरण की सच्चाई। और बचाव में सरकारी दमनतंत्र के कानून हैं - ओ, यहाँ आंध्र प्रदेश में बहुत सख्ती है साब,.........

मेरे भारत महान में यह प्रोफेसरों के साथ होता है। और आम आदमी, मतलब वही रामू, श्यामू, रिफ रैफ............वे इंसान थोड़े ही हैं!

Tuesday, February 14, 2006

आकांक्षा

मन
हो इतना कुशल
गढ़ने न हों कृत्रिम अमूर्त्त कथानक
चढ़ना उतरना
बहना होना
हँसना रोना इसलिए
कि ऐसा जीवन

हो इतना चंचल
गुजर तो फूटे
हँसी की धार
हर दो आँख कल कल

डर तो डरे जो कुछ भी जड़
प्रहरियों की सुरक्षा में भी
डरे अकड़
खिल हर दूसरा खिले साथ
बढ़ बढ़े हर प्रेमी की नाक
हर बात की बात
बढ़े हर जन
ऐसा ही बन

कुछ बनना ही है
तो ऐसा ही बन।

(अक्षर पर्व २००?)

Friday, February 10, 2006

जैसे मशीन बिगड़ैल

'हंस' पत्रिका के फरवरी अंक में अर्चना वर्मा ने संपादकीय में नारी-पुरुष संबंधों के संदर्भ में सांस्कृतिक हस्तक्षेप, खास तौर पर आधुनिक समय और बदलते मूल्यों को लेकर सारगर्भित संपादकीय लिखा है। उनकी टिप्पणी कि प्रकृति को ढकने से ही संस्कृति के पाखंड की शुरुआत होती है, मुझे अच्छी लगी। मैं अरसे से दोस्तों मित्रों को कहता रहा हूँ कि मानव मस्तिष्क ने जिन आत्मघाती विचारों और उपकरणों की ईजाद की है, व्यक्ति के स्तर पर उनमें सबसे प्रभावी हैं विवाह और कपड़े। दोस्तों को मेरी टेढ़ी नाक का पता है तो वे मेरी बात सुन हँस देते हैं, पर मैं इस बारे में काफी गंभीर हूँ। मेरा मतलब विशेष संदर्भों के साथ जुड़ा है ओर उनसे अलग हट कर मुझे समझा नहीं जा सकता। अगर कपड़ों के आविष्कार को ठंड की मार या मच्छरों से बचने के लिए माना जाए, तो अलग बात है। मैं उस कपड़े की बात करता हूँ जिसके बारे में अर्चना जी की बात है, जो नग्नता ढकने के लिए हैं।

ब्लॉग में विस्तार से लिखना मुश्किल है, टंकन के लिए समय नहीं है। नग्नता को लेकर इतनी बेवजह की कुंठाएँ मानव मन में इकट्ठी हो गई हैं, सोच कर अजीब लगता है कि वह दुनिया भी कैसी होती जिसमें यौन को शरीर के साथ उसी तरह जोड़ के देखा जाता जैसे बाकी शारीरिक क्रियाओं को देखते हैं। अर्चना जी ने हमारे जैसे लोगों की बात कही है जो शरीर को लेकर हजार पाखंडों के खिलाफ हैं, पर साथ ही इस पाखंड की संस्कृति की वजह से पैदा हुई विकृति के शोषण के भी सख्त खिलाफ हैं। मैंने बहुत पहले 'समकालीन जनमत' में लिखे एक खत में इसे हमारी अंतड़ियों तक का शोषण कहा था। इसके लिए पंजाबी में एक शब्द है 'नंगेज़'। नंगे होने में समस्या नहीं है, पर नंगेज़ से हमें चिढ़ है। इसलिए हम यानी मेरे जैसे लोग व्यापारिक सुंदरी प्रतियोगिताओं या फैशन शो वगैरह से चिढ़ते हैं।

करीब छः साल पहले पंजाब विश्वविद्यालय कैंपस में बाजार में हर दूकान में 'कॉस्मोपोलिटन' पत्रिका के बड़े इश्तिहार लगा करते थे। वक्त इतना बदल चुका था कि अधनंगी महिलाओं की तस्वीरों के बारे में कुछ कहने सोचने का मतलब ही नहीं था। पर उन इश्तिहारों में ऐसे लफ्ज़ होते थे, जो बेहद घटिया किस्म के थे। मुझे अचरज यह होता था कि उन पश्चिमी मुल्कों में जहाँ मैं गया हूँ, इस तरह की हर ओर फेंकी गई नंगेज़ मैंने नहीं देखी। 'प्लेबॉय' या 'पेंटहाउस' जैसी पत्रिकाएँ खुली बिकती हैं, पर यह नहीं कि हर मोड़ पर कोई आपके ऊपर रेंग रेंग कर लार फेंकता बुला रहा हो, आओ खरीदो खरीदो। इस बात से भी मुझे चिढ़ थी कि समाज में मुक्त प्रेम तो क्या होस्टलों में भिन्न लिंग के युवाओं को साथ खाने तक की इजाजत नहीं पर इस तरह का फूहड़पन हर ओर। एकबार कैंपस की एकमात्र फार्मेसी दूकान में पता किया तो जाना कि कंडोम नहीं बिकते। दूकानदार ने ऐसे देखा जैसे बाप रे, यह क्या पूछ रहे हैं? संयोग से उन दिनों मैं शिक्षक संघ का सचिव चुना गया। मैंने अध्यक्ष प्रोo परमात्म प्रकाश आर्य से बात की और हम दोनों व्यापारी संघ के अध्यक्ष के पास पहुँचे। मैंने समझाया कि खूब इश्तिहार लगाइए, कोई बात नहीं, पर साल में दोबार अपने संगठन की ओर से हमारे छात्रों के लिए यौन-शिक्षा और एड्स जागरुकता के शिविर भी लगवाइए। दुर्भाग्यवश हम युवाओं में यौन-शिक्षा को 'कॉस्मोपोलिटन' पत्रिका के बड़े इश्तिहारों से ज्यादा खतरनाक मानते हैं या फिर आर्थिक नुकसान का ध्यान रहा होगा, हुआ यह कि इश्तिहार ही हट गए।

अर्चना जी का संदर्भ बड़ा था, वे मलिका शेरावत और महेश भट्ट की उन बातों के संदर्भ में लिख रही थीं जब वे कहते हैं कि आपको पसंद नहीं है तो मत देखिए। मेरे खयाल में जिन्हें यह अंक मिले वे इसे जरुर पढ़ें।

मैंने पिछले एक चिट्ठे में अपने मित्र की बीमारी ओर उसकी माँ को होस्टल में आने से रोकने की बात का जिक्र किया था। इस पर एक कविता मैंने लिखी थी, चेतन की गुजारिश है कि वह मैं चिट्ठे में डालूँ, तो यह रहीः

एक और औरत


एक और औरत हाथ में साबुन लिए उल्लास की पराकाष्ठा पर है
गद्दे वाली कुर्सी पर बैठ एक औरत कामुक निगाहों से ताक रही है
इश्तिहार से खुली छातियों वाली औरत मुझे देख मुस्कराती है
एक औरत फ़ोन का डायल घुमा रही है और मैं सोचता हूँ वह मेरा ही नंबर मिला रही है

माँ छः घंटों की यात्रा कर आई है
माँ मुझसे मिल नहीं सकती, होस्टल में रात को औरत का आना मना है


(वसुधा-मार्च 2005)

मुझे यह मानने में कोई इतराज नहीं है कि अपने निजी दायरे में खास कर कम उम्र में नंगी तस्वीरें मैंने भी खूब देखी हैं और पेंटहाउस प्रायोजित 'कलीगुला' जैसी फिल्में भी देखी हैं और यह भी कि मैं भी एक पुरुष हूँ जिसमें हर दूसरे पुरुष जैसा एक कुंठित व्यक्तित्व है। इसलिए मैंने हमेशा माना है कि नारीमुक्ति से भी अधिक पुरुषमुक्ति आंदोलन की जरुरत है - अपने आप से और पुरुषप्रधान मूल्यों से मुक्ति का आंदोलन। इस प्रसंग में एक और कविता हैः

आज की लड़ाई

कुछ मर्दों की दास्तान ऐसी
जैसे पहाड़ पर धब्बे
जितना ऊँचा उतना ही नंगा
जबकि ठंडक नहीं
ऊँचाई गंदे नालों की
दुर्गंध पहेली


कुछ पुरुषों की कहानी जैसे मशीन बिगड़ैल
घटिया जितनी उतना ही शोर अंग अंग
हालाँकि मशीनों के होते कुछ रंग
हाथ रखो मशीन पर तो फिसफिसाए
ठीक ठीक दबाओ बटन चले ठीक ठाक


कुछ मर्दों पर रखे हाथों पर चढ़ जाते कीड़े
उनकी लपलपाती जीभें
हाथ रखने वालों की शिराओं में घुसतीं दूर
स्थायी विनाश दिमाग की क्यारिओं का होता
इनकी संगति से


कुछ में से कुछ ओढ़ें
लबादा ज्ञान का संघर्ष का
क्या बताएँ उनकी जैसे शैतान के दूत
कहलाएँ महाऋषि होवें नीच भूत


एक लड़ाई है लड़नी
इन कुछ को स्वयं में जानने की।


(पश्यंतीः जनवरी मार्च 1995)

दूसरी आत्मघाती बात यानी विवाह पर अभी कुछ नहीं - और फिर बड़े बड़े कह गए, मेरी क्या बिसात। मैंने देखा कि इधर प्रेम-श्रेम की टैगिंग वैगिंग का कुछ चल रहा है तो उसमें शादी और प्रेम का काफी घालमेल है। रिवर ने कुछ लिखा है जो बहुत अच्छा लगा हालाँकि उनमें पैंतीस साल पहले की ब्लैक-अमेरिकन पोएट्री का प्रभाव (खास तौर पर निकी जोव्हानी का) दिखता है।
मसिजीवी,
'कुछ में से कुछ ओढ़ें
लबादा ज्ञान का संघर्ष का
क्या बताएँ उनकी जैसे शैतान के दूत
कहलाएँ महाऋषि होवें नीच भूत'
इस पर तो तुम मेरे साथ ही होगे! उम्मीद यह कि
'एक लड़ाई है लड़नी
इन कुछ को स्वयं में जानने की'
में भी साथ रहोगे।

Wednesday, February 08, 2006

शब्द हरा पत्ता है

शब्द हरा पत्ता है
कविता पत्तों टहनियों की इमारत
पत्ते में क्लोरोफिल
क्लोरोफिल में मैग्नीशियम
मैग्नीशियम में भरा खाली आस्माँ।

पत्ते के बाकी कणों में भी मँडरा रहा शून्य
शून्य भरता खालीपन
जैसे खालीपन से बनता शून्य।

कदाचित घुमक्कड़ विद्युत कण खेलते
आपसी पसंद नापसंद का अनिश्चित खेल।

कण में नाभि
नाभि में कण
कणों में जीवन
देखते ही देखते टहनियाँ, हरे पत्ते,
उफ्! कविता का संसार!

(२००४)

Tuesday, February 07, 2006

कविता

जैसे ज़मीन निष्ठुर।
अनंत गह्वरों से लहू लुहान लौटते हो और ज़मीन कहती देखो चोटी पर गुलाब।

जैसे हवा निष्ठुर।
सीने को तार-तार कर हवा कहती मैं कवि की कल्पना।

जैसे आस्मान निष्ठुर।
दिन भर उसकी आग पी और आस्मान कहता देखो नीला मेरा प्यार।

निष्ठुर कविता।
तुमने शब्दों की सुरंगें बिछाईं, कविता कहती मैं वेदना, संवेदना, पर नहीं गीतिका।
शब्द नहीं, शब्दों की निष्ठुरता, उदासीनता।

(साक्षात्कार- मार्च १९९७)

Monday, February 06, 2006

हे गति के अखिल नियम............

हे गति के अखिल नियम............


मेरे पहले पाँच दिन यहाँ ऐसे गुजरे कि जैसे सदियों की थकान खत्म हो गई। ट्रेन में मुझे बिल्कुल सामने दो बर्थ वाले कूपे में ही जगह मिल गई और दूसरा बर्थ खाली था। इसलिए यात्रा बड़ी बोरिंग रही। कुछ विज्ञान और कुछ 'हंस' का जनवरी अंक पढ़ता रहा। खिड़की से अधिकतर समय कुछ दिखता नहीं था। जितना देखा, वह सतपुड़ा के जंगलों का नजारा था। जब भी इधर से गुजरा हूँ, आँखों से इस परिवेश को जी भर भर के पीने की कोशिश की है। सुनील की तरह अच्छा डिजिटल कैमरा होता भी तो भी बतला नहीं पाता कि यहाँ कि जमीन और हरियाली मुझे कितनी भाती है।

यहाँ आया तो पहली फैकल्टी मीटिंग में आधा वक्त इस बात पर चर्चा हुई कि जीवन विद्या शिविर में क्या क्या हुआ और छात्रों की बातें क्या क्या थीं वगैरह। यह बड़ा अद्भुत अनुभव था कि खुद संस्थान निर्देशक इस शिविर में भाग लेकर अपने अनुभव सुना रहे थे। पंजाब विश्वविद्यालय में दुपहियों में आने वाला हर कोई कैंपस में घुसते ही हेलमेट उतार देता है। यहाँ बाहर हाईवे पर बिना हेलमेट आप स्कूटर चला सकते हैं, पर अंदर सख्ती है कि हेलमेट पहनना होगा। वैसे तो यह एक प्रतीक की तरह है कि मूल्यों का कितना अंतर है। कैंपस का बड़ा भाग वाहनों के लिए प्रतिबंधित है। पं वि वि में देखते देखते हर विभाग के सामने की हरी ज़मीन पार्किंग लॉट में तबदील हो गई। पर सबसे रोचक बात मैं नीचे लिख रहा हूँ।

१९८५ में चंडीगढ़ पहुँच कर तीन महीने मैं होस्टल में ठहरा था (यहाँ भी ऐसा है, पर एक अलग से ऐटेच्ड बाथरुम वाले एग्ज़ीक्क्यूटिव विंग में है)। मेरे प्रयास से एक दीवार पत्रिका की शुरुआत हुई थी, जिसका संपादन वगैरह छात्रों ने ही किया था। सिर्फ इसलिए नहीं कि मैं अमरीका से लौटा था, जहाँ विश्वविद्यालय के होस्टल में छात्र अपने साथी (बॉय/गर्ल) के साथ सहवास तक करते हैं, पर इसलिए भी कि मैंने आई आई टी के होस्टल देखे थे, जहाँ भिन्न लिंग के छात्रों के साथ खाने या देर रात तक साथ पढ़ने लिखने आदि पर रुकावट नहीं थी, मुझे यह बड़ा अजीब लगा कि पं वि वि में लिंगभेद पृथक्करण को सख्ती से लागू किया जाता है। मेरी समझ यह भी थी (आज भी है) कि युवा छात्रों में कई तरह की समस्याएं इसी कारण से थीं। चाहे अब चेहरा सफेदी से ढका हुआ है, पर वहाँ कैंपस में युवाओं के बीच बैठ कर मुझे हमेशा तनाव का अहसास हुआ है। मेरा मतलब जेंडर या लिंगभेद के तनाव से ही है।यहाँ मुझे लगा कि उस तनाव से मैं मुक्त हूँ। यहाँ मेस में युवा छात्र एकसाथ खाना खाते हैं.

सभ्य लोग ऐेसी बातें सोचा नहीं करते, पर मैं जरा टेढ़ी नाक वाला हूँ (ध्यान से मेरी शक्ल देखें), तो उन दिनों मैंने छात्रों से ही बात की कि भई यह किस सदी में बैठे हो, इसे बदलो। (मैंने तो शिक्षक संघ का अध्यक्ष बनने के बाद कुलपति से भी कह दिया था कि बच्चों के एकसाथ खाने की व्यवस्था करवा दीजिए, कैंपस की आधी समस्याएँ खत्म हो जाएंगी। कुलपति को मेरी टेढ़ी नाक ज़रुर दिख गई होगी)। तो छात्रों ने मुझे जो कहा वह मुझे भूलता नहीं। इसे सांप्रदायिक पूर्वाग्रह कहें या वर्ग आधारित पूर्वाग्रह कहें, पता नहीं, उनकी धारणा थी अरे सर, आप नहीं जानते ये जो गाँवो से जट्ट लड़के आते हैं, ये बहुत बदमाश हैं। यानी कि मेरे खयाल से उनका मतलब यह था कि बहुत बड़ी तादाद में मानसिक रुप से विकृत युवा विश्वविद्यालय में पढ़ने आ गए थे। मैंने मजाक में उनसे कहा भी कि विश्वविद्यालय बंद कर दो और मानसिक रोगों का चिकित्सालय खोल दो।

जहाँ भी पैसा अधिक लगा है, वहाँ नियम कानून उदार हैं, जहाँ आम लोग शामिल हैं, वहाँ प्रतिबंध ही प्रतिबंध हैं। पैसे वाले लोग या वर्ग गरीबों को इस तरह से ही देखते हैं। सिर्फ पैसे की बात नहीं, शक्ति समीकरण में जो पीछे है, उसी के प्रति यह हेय भावना है। गाँवो से जट्ट लड़के शहरों के लड़कों की तुलना में शक्ति समीकरण में पीछे हैं, तो वे जँगली गँवार हैं। एक बार तो हद ही हो गई थी। मेरा मित्र कवि रुस्तम, मुझसे दो साल बड़ा है। सेना की नौकरी छोड़कर पढ़ने आ गया। एकबार उसे स्लिप डिस्क हो गया तो डॉक्टर ने कहा कि बिस्तर पर आराम करो। उसकी माँ छः घंटे की यात्रा कर उससे मिलने पहुँची तो उसे होस्टल में घुसने ही न दिया गया। किसी तरह मेरे घर पहुँची और रात मेरे यहाँ बिताई। का कहें, दुनिया बनाने वाले, क्या तूने दुनिया बनाई...........

यहाँ तीन दिनों से छात्रों का सांस्कृतिक कार्यक्रम चल रहा था। मेरे लिए अनोखा अनुभव था। आमंत्रित कलाकारों में पहली रात मंजुला रामस्वामी और उनके पिता के नृत्य शाला के बच्चों का भरतनाट्यम और कल रात आराभी स्कूल से आए बच्चों के वायलिन अॉनसॉमबल की कमाल की प्रस्तुतियाँ देखीं। मैं स्वयं अपनी अँधेरी दुनिया में खोया हुआ था, इसलिए संभवतः इतना आनंद न उठा पाया जितना हो सकता था, पर ऐसी उम्दा स्तर की प्रस्तुतियाँ देखते हैं तो पुरानी एक कविता की पंक्तियों की तरह चीख पड़ने का मन करता है - हे गति के अखिल नियम............या कविगुरु की तरह "आकाश भरा सूर्य तारा, विश्व भरा प्राण, ताहार ही माझखाने आमि पेयेछि मोर स्थान, विस्मये जागे आमार गान....."

अँधेरी दुनिया मेंः जिस दिन यहाँ पहुँचा, उसी दिन एक घोर निजी संकट आ दिमाग पर भारी हो बैठा। कहाँ तो यहाँ आकर क्या देखा, कैसा लगा, यह लिखना था और कहाँ सुबह-शाम रुआँसे होकर घूम रहे हैं। मैंने लिखा था न नीला मेरा मनपसंद रंग है (ओ या, आय सिंग मी' ब्लू....ज़....)। आज ठीक हूँ, पर यह संकट चलेगा। वैसे तो पता नहीं कितने सालों से चल ही रहा है, आदत ही पड़ गई है। जैसे दूसरों को समझाते हैं, खुद को भी समझाते हैं - देख लाल्टू, मसिजीवी के फोटोग्राफ देख (मतलब वो जो ठंड की कहर वाला) और भूल जा कि ग़मी ने तुझ ही से सौदा किया है। पहले दिन कुछ दोस्तों को बतलाया, तो चेतन ने मेरी 'हर कोई' कविता पढ़कर कहा कि मुझे लगा तुमने आज ही लिखी है। तकलीफ में भी हँस पड़े कि हर मौसम के लिए पुराना कुछ लिखा मिल ही जाता है।

चेतन ने टिप्पणी भेजी हैः

मैं में कुछ छूट गया है?

"सच
मैं
वही अराजक
तुम्हारी कामना
वही अबंध
तुम्हारा ढूँढना"

अगर अराजक कामना है, और अबंध ढूँढना, तो "सच मैं" कुछ अधूरा लगता है.
**********************************
मेरी कविताओं में शब्दों को रुक रुक कर पढ़ना जरुरी है।

सच (यह है कि)
मैं (हूँ)
वही अराजक
तुम्हारी (चिरंतन) कामना
वही अबंध
तुम्हारा (चिरंतन कुछ/किसी को) ढूँढना....


अपनी कविता की व्याख्या करना पाप है चेतन, इसमें मुझे मत फँसाओ। अब प्रत्यक्षा डाँटेंगीं कि उन्होंने 'वाह' कुछ और सोच कर लिखा था। (बाकी और भी हैं डाँटने वाले, न ही लिखूँ बेहतर.........)

Friday, February 03, 2006

मैं

कितना छिपा
कितना उजागर
इसी उलझन में मग्न।

कुछ यह
कुछ वह
हर किसी को चाहिए
एक अंश मेरा

कुछ उदास
कुछ सुहास
कुछ बीता
कुछ अभी आसन्न।

सच
मैं
वही अराजक
तुम्हारी कामना
वही अबंध
तुम्हारा ढूँढना

कुछ सुंदर
कुछ असुंदर
कुछ वही संक्रमण लग्न।

(५ अक्तूबर २००२)

Thursday, February 02, 2006

हर कोई

हर किसी की ज़िंदगी में आता है ऐसा वक्त
उठते ही एक सुबह
पिछले कई महीनों की प्रबल आशंका
संभावनाओं के सभी हिसाब किताब
गड्डमड्ड कर
साल की सबसे सर्द भोर जैसी
दरवाजे पर खड़ी होती है

तब हर कोई जानता है
ऐसा हमेशा से तय था फिर भी
कल तक उसकी संभावनाओं के बारे में
सोचते रह सकने का हर कोई
शुक्रिया अदा करता है
उस अनिश्चितता का जो
बिना किसी बयान के
होती चिरंतन

फिर हर कोई
होता है तैयार
सड़क पर निकलते ही
'ओफ्फो! बहुत गलत हुआ' सुनने को
या होता विक्षिप्त उछालता इधर उधर पड़े पत्थरों को
या अकेले में बैठ चाह सकता है
किसी की गोद में
आँखें छिपा फफक फफक कर रोना

हर कोई गुजरता है इस वक्त से
अपनी तरह और कभी
डूबते सूरज के साथ
लौटा देता है वक्त उसी
समुद्र को

फेंका जिसने इसे पुच्छल तारे सा
हर किसी के जीवन में।

(१९९४; इतवारी पत्रिका-१९९७)

Wednesday, February 01, 2006

दिल्ली आखिर दिल्ली ठहरा


बाय बाय चंडीगढ़

जब शाना ढाई साल की थी, उसे दूसरी बार अमरीका ले जाना पड़ा। त्सूरिख़ (ज़ूरिख़) में जहाज बदलना था। शाना क्रेयॉन्स रगड़ कर अपना संसार बनाने में व्यस्त थी। मैंने बतलाया कि त्सूरिख़ आ गया। अचानक ही वह जोर से चिल्ला उठी - बाय बाय इंडिया। आस पास के सभी लोग जोर से हँस पड़े।

मैं चंडीगढ़ को पहले भी एक दो बार बाय बाय कह चुका हूँ। पर बाद में वापस आ ही गए। इसलिए इस बार ऐसी हिमाकत न करुँगा। आने के पहले मैंने तो क्या अलविदा कहना था, मित्रों ने लगभग हाय लाल्टू चल पड़ा कहते हुए अलग अलग समूहों में विदाई दी। वामपंथी या प्रगतिशील जाने जाने वाले एक ग्रुप जिनकी ओर से मैं एकबार शिक्षक संघ का सचिव और एक बार अध्यक्ष चुना गया था, उन्होंने एक बुजुर्ग साथी जो रिटायर हो रहे थे और मुझे एकसाथ विदाई दी। उत्तर भारत में औपचारिकताएँ जरा ज्यादा ही हैं। एक स्मारक (मुझे लाल रंग का चंडीगढ़ की पहचान वाला हाथ - हाँ मसिजीवी लाल हाथ), फूलों के गुलदस्ते (दो दो मिले)। फिलहाल तो सारा सामान लाया नहीं हूँ। ट्रेन से आना था तो लाल हाथ चंडीगढ़ में छूट गया है। लाल लाल्टू निकल पड़ा।

क्रिटीक के साथियों ने एक दिन लंच खिलाया और आशीष अल सिकंदर के जुटाए मित्रों ने (यानी छात्रों ने) एक दिन देर तक घेरे रखा। मैं सोच रहा था इतना प्यार ठीक नहीं, क्या पता बार बार लौट कर फिर फिर जाने लगूँ कि ऐसा ही प्यार निरंतर मिलता रहे।

बहरहाल जल्दबाजी में फटाफट कुछ किताबें वगैरह समेटने की कोशिश में कुछ और जो चीजें हाथ लगीं, उनमें एक फोटोग्राफ भी है, जिसमें हमारे समय के एक प्रबुद्ध (प्रतीक, यह सचमुच व्यंग्य नहीं) बुद्धिजीवी के कुर्ते का एक हिस्सा दिख रहा है। जी हाँ, यह है योगेंद्र यादव का कुर्ता। अगर कभी इस धूमिल फोटोग्राफ की नीलामी हुई तो वह जो शक्ल दिख रही है, उसकी वजह से तो नहीं पर इस कुर्ते के टुकड़े की वजह से जरुर बड़ी कीमत में बिकेगा। और चूँकि मैं अब ऐसे संस्थान में आ गया हूँ जहाँ बिना बतलाए सर्भर मैनेजर इमेजेस ब्लॉक करने जैसी अच्छी बातें नहीं करते तो अब यह अमूल्य तस्वीर मैं अपलोड कर सकता हूँ। योगेंद्र ने दो साल पहले राष्ट्रीय चुनावों के पूर्व लोगों में चेतना फैलाने की एक मुहिम छेड़ी थी और उसी दौड़ में हमारे गाँधी भवन में भी एक भाषण दिया था। यह तब की तस्वीर है।

और जो लोग इस बात को जानना चाहते हैं कि दिल्ली स्टेशन पर मेरा और मसिजीवी का मिलन हुआ या नहीं तो
खबर यह है कि मसिजीवी ने सचमुच मिलना चाहा था, पर दिल्ली आखिर दिल्ली ठहरा।