Friday, November 04, 2005

सांस्कृतिक आंदोलन की नई शुरुआत

हिन्दी में ब्लॉग लिखना हमारे जैसों के लिए कोई आसान बात नहीं। करीब पंद्रह साल पहले हावर्ड ज़िन की अमरीका के जन-इतिहास वाली पुस्तक का अनुवाद करते हुए हिन्दी में टाइपिंग शुरू की थी। दसेक पन्ने कर के दम निकल गया था। वापस हाथ से लिखने पर आ गया था। यह तो मेरे मित्र चेतन के लगातार कहते रहने पर टाइपिंग भी और ब्लॉग भी शुरू किया। अपने दफ्तरी काम के लिए मैं लिनक्स का इस्तेमाल करता हूँ, पर ओपेनऑफिस में हिन्दी का ध्वन्यात्मक फॉन्ट मिल नहीं रहा था। इसलिए विंडोज़ में शुरू किया। आखिर चेतन ने लिनक्स के लिए भी हिन्दी का इनपुट मेथड और ध्वन्यात्मक फॉन्ट इस्तेमाल ढूंड ही निकाला। हालांकि अभी भी जीएडिट से करना पड़ रहा है, पर अगर आप मेरे पहले वाले चिट्ठे देखें तो पाएंगे कि यह निश्चित ही बेहतर फॉन्ट है। जिन्होंने भी इस पर काम किया है, सब को धन्यवाद।
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सांस्कृतिक आंदोलन की नई शुरुआत

कल शाम टैगोर थीएटर में इप्टा का कार्यक्रम था। तीन नाटक थे। कुछ ही दिन पहले युवा छात्रों के एक समूह को मैं इप्टा के बारे में बता रहा था। बड़ा अजीब लगता है कि इस मुल्क में एक ही साथ कितनी संस्कृतियाँ हैं। ऐसे युवा छात्र जिन में सामाजिक चेतना काफी है, वे इप्टा के बारे में कुछ नहीं जानते हों तो आश्चर्य होगा ही। आखिर गाँव-गाँव तक फैला हुआ एक सांस्कृतिक आंदोलन दो पीढ़ियों में ही स्मृति से विलुप्त होने लगे तो चिंता होनी चाहिए। फिर मैंने गौर किया कि जिन छात्रों से मैं बात कर रहा था वे सभी बड़े शहरों से थे। बड़े शहरों में, खासकार उत्तर भारत में, वैश्वीकरण और उपभोक्ताबाद का असर बहुत ज्यादा है। इसी का एक फल विरोध की संस्कृति का स्मृति से विलुप्त होना है।
कल तीन नाटक और कुछ लोक गीतों का कार्यक्रम था। पहला हमारे विश्वविद्यालय के इंडियन थीएटर विभाग से हाल में ही अवकाशनिवृत्त प्रोफेसर रानी बलवीर कौर का लिखा और निर्देशित मुख्यतः कैफी आजमी के गीतों पर आधारित “वक्त ने किया क्या हसीं सितम“ था। इस में ज्यादातर फिल्मी गाने ही थे। भावुक माहौल था और नाटक का अंदाज़ भी भावुकता से भरपूर था। दूसरा नाटक अजमेर औलख का लिखा और जगदीश खन्ना निर्देशित “चिनाव दे पाणी“ मुझे बहुत अच्छा लगा। गंगा देवी नाम की एक बिहारी लड़की को पंजाब का एक किसान खरीद लाता है। पर गरीबी की वजह से उसे एक मानसिक रुप से पिछड़े हुए लड़के को बेच डालता है। उस लड़के के बाप की नज़र लड़की पर है। इसी बीच गंगा देवी जो अब हरवंस कौर बन चुकी थी और सुबह-सुबह गुरुद्वारा जाने लगी थी, अचानक अपने किशोरावस्था के पुराने प्रेमी को घर पर पाती है। वे भागने का षड़यंत्र करते हैं। लड़के के बाप को पता चलता है तो अपने हाथ से लड़की छूटते देख वह उसे मार डालता है। नाटक पारंपरिक शैली में है, संवादों में लोकगीतों की भरमार थी, पर सबसे अच्छी बात इसका विषय-वस्तु है। पंजाब में यू पी बिहार से आए लोगों के साथ वैसे तो भेदभाव नहीं किया जाता, पर उन्हें अवहेलना की नज़रों से देखा जाता है। यहाँ तक कि पिछले तीस वर्षों में “भइया“ शब्द ही अपमानजनक विशेषण बन गया है। ऐसे में यह नाटक लिखा जाना काबिले तारीफ है और यह दर्शाता है कि पंजाब में भले लोगों की कमी नहीं है।
तीसरा नाटक संतोख सिंह धीर की कहानी पर आधारित संजीवन सिंह का लिखा और निर्देशित "डैन (डायन)" था। अंधविश्वासों और खासकर इनकी वजह से के औरतों के शोषण के खिलाफ यह नाटक कला पक्ष से तो कमज़ोर था, पर चूँकि बात साधारण लोगों तक पहुँचने की है, इसलिए इसे सिर्फ कला के नज़रिए से देखना गलत होगा।
गीत गाने वाले छोटे शहरों से आए युवा गायक थे और बिना किसी साज के जिस तरह दर्द भरी आवाज़ में उन्होंने गाया, वह सचमुच कमाल का था।

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