Thursday, December 01, 2005

दोस्तों, जवाब नहीं, कुछ बातें ही

मेरा दोस्त चेतन जो खुद लिखने के पचड़े में नहीं पड़ता, पीछे पड़ा है कि लोग सवाल उठाते हैं तो जवाब क्यों नहीं देते। आखिरकार उसने मजबूर किया कि रमण कौल के चिट्ठे में मेरे लिखे 'साझी लड़ाई' पर जो सवाल उठाए गए, उन्हें पढ़ूँ। मैं नहीं समझता कि किसी की तकलीफ को हम दो चार बातें कर के मिटा सकते हैं। इसलिए यह सोचना कि मैं कोई तर्कयुद्ध जीतने की कोशिश कर रहा हूँ, गलत होगा। बचपन से ही देश के बँटवारे और दंगों से पीड़ित लोगों की व्यथाएँ सुनते आया हूँ। मेरी माँ का बचपन पूर्व बंगाल (आज के बाँग्लादेश) में गुजरा। पिता पंजाबी सिख थे। मिर्ची यार, मेरा जद्दी गाँव (जैसा पंजाबी में कहते हैं) रामपुराफूल से थोड़ी दूर मंडी कलाँ (या गुलाबों की मंडी) है। बचपन में गाँव आते तो रात को सोने के पहले दादी से बँटवारे की कहानियाँ सुनते। यह भी सुना था कि किस तरह गाँव के मुसलमान आकर उससे पूछते थे कि गाँव के सरदार उनके बारे में क्या सोचते हैं। फिर एक दिन इस भरोसे के साथ कि तुम्हें सुरक्षित सीमा पार करवा देंगे मुसलमानों को गाँव के बाहर ले गए और वहाँ पहले से ही तलवारें और गँडासे लिए गुरु के सिख खड़े थे (अब सोचते हुए आँखें भर आती हैं, उन दिनों लगता था वाह खून का बदला खून!)। माँ और पिता दोनों ही साधारण नागरिक थे। मतलब दोनों ही में आम लोगों के पूर्वाग्रह और आम लोगों सी ही संवेदनाएँ थीं। इसलिए बचपन में मुसलमानों से नफरत करनी भी सीखी और साथ ही यह भी सीखा कि 'एक पिता सब वारिस उनके' (कबीर का है, गलती से नानक का लिखा कहा जाता है)। पिता जी सरकारी गाड़ी चलाते थे तो गरीबी भी देखी और अमानवीकरण भी। पिता की गाली गलौज, माँ का रोना धोना सब देखा (इसलिए गोर्की की 'माँ' को माँ समझा जैसे बाद में कुमार विकल की कविता में पढ़ा)। दोस्तो उस जमाने में हमारे जैसे बच्चे मेरी आज की ज़िंदगी की कल्पना नहीं कर पाते थे। चलो आत्मकथा लिखने जैसे बुढ़ापे का दौर अभी आया नहीं है, मूल बात यह कहनी है कि बेलेघाटा के तकरीबन झुग्गियों से लेकर एकबार जेसी जैक्सन की रीसेप्सन कमेटी में अकेला हिंदुस्तानी बनने तक बहुत रोना रोया है (कुमार विकल की लाइन हैः मार्क्स और लेनिन भी रोए थे, पर रोने के बाद वे कभी नहीं सोए थे)। दोस्तों, उनको तो मैं कुछ नहीं समझा सकता जिनके जीन्स में मार्क्स और लेनिन के नाम से नफरत के कोडॉन हैं या जिन्हें अपने अलावा दुनिया के सभी धर्मग्रंथ कट्टरपंथ के सांद्र वचन लगते हैं। पर खुले मन से बात हो तो दो चार बातें हैं।

एकबार आई आई टी कानपुर में पढ़ने के दौरान काश्मीर पर बहस छिड़ गई। तबतक मैं बिना किसी पार्टी का सदस्य बने भी ऐसी श्रेणी में आ चुका था कि सभ्य लोगों के बीच मुझे प्रगतिवादी, जनवादी, मार्क्सवादी, लेनिनवादी, माओवादी, नक्सलवादी हर कुछ कहकर दरकिनार किया जा सकता था। इस सबके बावजूद मैं था महज एक देशभक्त - हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान मेरे ऊपर पूरी तरह सवार था। काश्मीर के बारे सीधी सी समझ थी कि काश्मीर पर अमरीका की नज़र है, इसलिए काश्मीर आज़ाद तो हो ही नहीं सकता, या तो पाकिस्तान जैसे पिछड़ी हुई सोच वाले मुल्क को जाएगा या सीधे ही अमरीका के साथ हो जाएगा। एक गाँधीवादी मित्र ने बहुत दुत्कारा कि मैं अपने आप को सचेत समझते हुए भी भारत की इस गलत पोज़ीशन का कैसे समर्थन कर सकता हूँ कि संयुक्त राष्ट्र संघ के जनमत संग्रह के प्रस्ताव के बावजूद काश्मीर में जनमत संग्रह नहीं करवाया गया। स्पष्ट है कि काश्मीर के लोग भारत के साथ नहीं हैं, वगैरह वगैरह। पर हम थे कि नहीं यह काश्मीर के लोगों के हित में नहीं है कि काश्मीर भारत से अलग हो।

पता नहीं मेरे विचार कब कैसे कितना बदले। यह जानता हूँ कि यह बदलाव आसानी से नहीं आया। यह बहुत बड़ी तकलीफ के साथ ही हुआ है कि देशभक्ति - जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी - जिसके मुताबिक जन्मभूमि के चप्पे चप्पे के लिए हमारे खून का आखिरी कतरा तक न्यौछावर होना है, ऐसे महान विचार से हम आज अपने आप को सहमत नहीं पाते। शायद कालेज के दिनों से ही समझ आने लगा था कि राष्ट्र की अवधारणा (शायद बनारसी लाल चतुर्वेदी का लेख स्कूल में पढ़ा था कि भूमि, भाषा, संस्कृति, जन, आदि कुछ तत्व मिलकर राष्ट्र बनाते हैं) में काफी गड़बड़ है। हमारे बचपन में आजादी की लड़ाई के दौरान फले फूले अंध राष्ट्रवाद का बड़ा जोर था - खासकर उत्तर भारत में। विडंबना यह है कि भारत में सबसे पिछड़े और दबाए लोगों में - जैसे कोलकाता में काम कर रहे बिहारी मजदूरों में या मेरे पिता जैसे पंजाब से आए कामगारों में यह राष्ट्रवाद सबसे प्रबल था। हम उनके बच्चे थे और उन से उत्तराधिकार में हमें यह मिला था। पिताजी ने कुछ समय ब्रिटिश फौज से बंदी बनाए लोगों से बनी सुभाष बोस की आज़ाद हिन्द फौज में भी काम किया था। उत्तराधिकार में मिले राष्ट्रवाद का एक बड़ा हिस्सा कांग्रेस पार्टी के समर्थन में खड़े होना होता था, आखिर कांग्रेस के नेत्तृत्व में हमें आज़ादी मिली थी। खालसा स्कूल से प्रेसीडेंसी कालेज आते तक (१९७३) मुझमें एक बड़ा परिवर्त्तन यह हुआ कि मैं इस अजीब राष्ट्रवाद से निकला। अब अपनी बेटी का लिखा पढ़ते हैं जो पंद्रह साल की उम्र में राष्ट्रवाद ही नहीं देशभक्ति तक पर गंभीर प्रश्न उठाती है तो हँसी आती है।

दोस्तों, माफ़ करना कि न चाहते हुए भी आत्मकथा में फँस ही जा रहा हूँ। मेरी कोशिश यह कहने कि है कि प्रतिष्ठित मान्यताओं के विपरीत विचार बना पाना एक बड़ा दर्दनाक संघर्ष होता है। जीवन के अनुभव और गंभीर साहित्य के पढ़ने से ही ऐसे बदलाव आते हैं। अपने अनुभवों से मैंने पाया कि किसी भी व्यक्ति पर मुख्यधारा का हिस्सा बनने का बहुत बड़ा सामाजिक दबाव होता है, जबकि अपनी नैसर्गिक अराजक प्रवृत्तियों से मानव अपना अलग और स्वच्छंद अस्तित्व बनाना चाहता है। अमूमन इस लड़ाई में हम हार जाते हैं और ले दे कर मुख्यधारा में शामिल हो जाते हैं। जो नहीं हारता अगर वह अकेला पड़ जाता है तो उसे मानसिक रुप से विक्षिप्त मान लिया जाता है। पर इतिहास में ऐसे मोड़ प्रायः आते हैं जब मुख्यधारा से अलग विचार रखनेवालों की तादाद इतनी बड़ी होती है कि वे संगठित हो जाते हैं और धीरे धीरे उनका संगठन एक आंदोलन का रुप अख्तियार कर लेता है। यह आंदोलन सही हो कोई ज़रुरी नहीं, पर अगर इसे बलपूर्वक दबाया जाए तो यह बढ़ता ही रहता है। ऐसी परिस्थिति में मुख्यधारा से फायदा उठानेवाले लोग समझदार हों तो वे थोड़ी बहुत रियायतें देकर विरोधियों को खुद में शामिल कर लेते हैं (co-option)। कभी कभी पानी इतना ऊपर चढ़ आता है कि वापस लौटने का रास्ता नहीं दिखता।

प्रसिद्ध नक्सली नेता नागभूषण पटनायक एकबार हमारे विश्वविद्यालय (१९८६-८७) आए थे। तब हाल में ही उन को दी गई मौत की सजा हटा ली गई थी और वे कानूनी मान्यता प्राप्त संगठन 'इंडियन पीपल्स फ्रंट' के अध्यक्ष थे। भिन्न मतों के वामपंथियों से बात करते हुए भावुकता पूर्ण लहजे में उन्होंने एक बात कही कि सबसे पहले तो हम यह समझ लें कि हम सब देशभक्त हैं। उनकी यह बात मैं भूलता नहीं हूँ। सोचो दोस्तो, देशद्रोह के लिए मौत की सजा पाया व्यक्ति कहता है वह देशभक्त है, मौत की सजा देनेवाले कहते हैं वे देशभक्त हैं। स्पष्ट है कि देशभक्ति का अर्थ अलग अलग लोगों के लिए अलग अलग है। कुछ के लिए भूमि, भाषा प्रमुख है, तो दूसरों के लिए जन प्रमुख है। काश्मीरी लोगों के बारे में सोचें। आई आई टी कानपुर छोड़कर अमरीका जाने तक मैं किसी काश्मीरी मुसलमान से नहीं मिला था, हालाँकि काश्मीरी हिन्दू (पंडित) प्रोफेसरों को मैं जानता था। इतने सालों के बाद भी पंजाब में रहते हुए मैं एक ही काश्मीरी मुसलमान प्रोफेसर को जानता हूँ, जो आई आई टी दिल्ली में केमिस्ट्री पढ़ाते हैं। कई काश्मीरी बुद्धिजीवियों को मैं जानता हूँ जो संयोग से पंडित हैं। बेशक इस तरह से दुनिया को देखना एक सांप्रदायिक नज़रिया है, पर इसके बिना हम यह जान ही नहीं पाएंगे कि काश्मीरी बहु-संप्रदाय बौद्धिक रुप से हाशिए पर रहा है। मुसीबत यह है कि कुछेक मुसलमान परिवारों में सुविधाएं बाँटकर एक बहुत बड़े तबके को हमेशा अपने नियंत्रण में नहीं रखा जा सकता। सारा हिंदुस्तान जानता है कि काश्मीरियों को रियायतें दी गई हैं। पर जब आप काश्मीरी मुसलमान से मिलते हैं तो वह शिमला में 'अल्लाहू' कहता हुआ सामान ढो रहा होता है। मैं जानता हूँ कि आज काश्मीर के अंदर स्थिति ऐसी नहीं है। जबरन पंडितों को हटाकर मुसलमान नागरिकों को नौकरियाँ दी गई हैं। तकलीफ होती है कि फिर भी सभी काश्मीरी हिंदुस्तान के साथ नहीं हैं। मैं जब कहता हूँ कि एक आज़ादी की लड़ाई है, तो उसका मतलब यही है कि एक आज़ादी की लड़ाई है। उसमें मैं शामिल नहीं हूँ, पर एक लोकतांत्रिक देश में मुझे यह कहने का हक होना चाहिए कि यह एक आज़ादी की लड़ाई है। आज़ादी को बदलकर तथाकथित आज़ादी कर देने से वह तथाकथित आज़ादी नहीं बन जाती, हाँ यह ज़रुर सिद्ध हो जाता है कि भारतीय लोकतंत्र अभी परिपक्व नहीं है।

जो पीड़ित है, उसे हमेशा ही लगता है कि उसकी बात कम हुई है। रमण की तकलीफ को मैं या कोई भी शब्दों में नहीं बखान सकता। चाहे मीडिया में कितनी ही बार पांडुंग काश्मीर की बात हो, वह काफी नहीं हो सकता। मैंने एक ऐतिहासिक प्रक्रिया को अपने ढंग से देखकर उसे कहने की कोशिश की है। तो क्या मैं यह मानता हूँ कि काश्मीर पाकिस्तान में चला जाए? नहीं, मैं यह मानता नहीं और चाहता भी नहीं, पर मैं यह समझता हूँ कि ऐतिहासिक कारणों से औसत काश्मीरी भारत के साथ नहीं है। हो सकता है यह स्थिति जल्दी ही बदल जाए, पर यह सीमा को बंद रखकर और आम नागरिकों की तकलीफों को बढ़ाकर नहीं हो सकता। जो कुछ भी हो, सही गलत, यह निर्णय काश्मीरियों के द्वारा ही होगा। पाकिस्तान और भारत दोनों ही सरकारें इस मामले में अपराधी हैं और इतिहास इन दोनों सरकारों को मुआफ़ नहीं करेगा।

हममें से हर कोई इस मसले पर भावुक होकर सोचता है। मैं भी होता हूँ। यह मेरा सपना है -मैंने इस पर कई साल पहले अखबारों के op-ed आलेखों में लिखा भी है - भारत पाकिस्तान और काश्मीर समेत दक्षिण एशिया के अन्य देश खुली सीमाओं वाले एक महासंघ का हिस्सा बनें। इसके लिए ज़रुरी है कि काश्मीर को पच्चीस साल तक संयुक्त राष्ट्र संघ के हाथ छोड़ा जाए। भारत और पाकिस्तान दोनों की फौजें वहाँ से निकलें। इन पच्चीस सालों में भारत और पाकिस्तान की सीमाएं खुलें, जम्मू से राजस्थान के उत्तरी क्षेत्र तक की अंतर्राष्ट्रीय सीमा की हजार मील वाली उपजाऊ जमीन पर पूरी फसल उपजे, खुला व्यापार हो, सांस्कृतिक और बौद्धिक आदान-प्रदान हो, आदि आदि। पच्चीस सालों के बाद काश्मीर में जनमत संग्रह हो और जो भी निकले वह सर्वमान्य हो।

जब अफगानिस्तान पर रुसी नियंत्रण था, उसके आखिरी दौर में शायद फरवरी १९८४ में National Geographic का एक दक्षिण एशिया विशेषांक (जिसके आवरण पर एक सचमुच की नीली आँखों वाली - यानी ऐश्वर्य राय नहीं- खूबसूरत अफगानी महिला की तस्वीर थी) निकला, जिसमें एक साम्यवाद विरोधी अमरीकी रीपोर्टर ने लिखा कि जो रुसी डाक्टर अफगानिस्तान के गाँवों में काम कर रहे थे, वे किसी वैचारिक आग्रह से नहीं, बल्कि मानवतावादी दृष्टिकोण से काम कर रहे थे। मैंने यह भी पढ़ा है कि तत्कालीन साम्यवादी शासक दल के कार्यकर्त्ता गाँवों में जाकर लड़कियों को पढ़ाने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करते थे, उनकी पिटाई होती थी - कई तो मार ही दिए गए। जो कुछ भी ऊपर से थोपा जाता है, वह कितना भी भला क्यों न हो, अक्सर मनुष्य इसके खिलाफ होता है और अनुकूल परिस्थितियों में (अफगानिस्तान में अमरीका और पाकिस्तान की और काश्मीर में पाकिस्तान की मदद से) यह व्यापक विद्रोह का रुख ले लेता है। यह धर्मग्रंथों की वजह से नहीं, विशुद्ध मानवीय प्रवृत्तियों की वजह से होता है। एक ऐसे मुल्क में जहाँ अधिकतर लोग व्यवहारिक रुप में निरक्षर हैं, वहाँ सरकारें कभी भी जनपक्षधर नहीं हो सकतीं, चाहे वे वामपंथी हों या दक्षिणपंथी। सरकारों का रवैया कितना जनविरोधी होता है, इसका एक उदाहरण मुझे दो काश्मीरी पंडित मित्रों ने अलग अलग वक्त पर दिया है - कहा जाता है कि नब्बे के दशक की शुरुआत में काश्मीर के तत्कालीन राज्यपाल ने पंडितों के मुख्य प्रतिनिधियों को बुलाया और उनसे आग्रह किया कि वे अपने समुदाय से कहें कि कुछ समय के लिए घाटी छोड़कर चले जाएं, ताकि आतंकवाद विरोधी प्रशासनिक कार्रवाई में उनको क्षति न पहुँचे। मैं राजनीति शास्त्र का विद्यार्थी तो नहीं कि इस बात की सच्चाई पर शोध करुँ, पर अगर ऐसा हुआ तो सोचिए कि कितनी मूर्खतापूर्ण बात है, जो सभी काश्मीरियों के हितों के खिलाफ है। इन सरकारों ने असंख्य निर्दोष जानें ली हैं। जो फौज की नौकरी करते मारे जाते हैं, वे मारे ही जाते हैं, चाहे हम जितना भी कुछ आँख में भर लो पानी गाकर इसे भूलते रहें। यह भी सोचने की बात है कि जिस तरह अमरीका का सैन्य-तंत्र अपना वजूद बनाए रखने और राष्ट्रीय बजट में अपने अनुदान बनाए रखने के लिए जगह जगह जंगें करवाने को मजबूर है, क्या उसी तरह पाकिस्तानी और भारतीय सैन्य-तंत्र और राजनैतिक स्वार्थ भी काश्मीर की समस्या को बनाए रखने के लिए मजबूर नहीं?


एक चिंता हम सब लोगों को खाती रहती है:

बकौल रमण: "हम तो अपनी जन्मभूमि कश्मीर खो ही चुके हैं, अब चाहे उसे आज़ादी दे दें या पाकिस्तान को दे दें हमारी बला से। पर क्या इस्लाम के कारण कश्मीर को अलग करना भारत के सेक्यूलरिज़्म को नकारना नहीं होगा? देश के बाकी हिस्सों में इस का क्या असर होगा? और क्या इस से जिहादी चुप हो जाएँगे? उन का ध्येय तो तब पूरा होगा, जब पूरे भारत में ही नहीं, पूरे विश्व में “रौशनी” नहीं फैलती, भले ही वह तलवारों से और बमों से ही क्यों न फैले।"

हो सकता है यही सच हो। पर मैं नहीं मानता ऐसा है। मैं यह भी मानता हूँ कि ऐसा कहते हुए जाने अंजाने (सचमुच न चाहते हुए भी) रमण यह कह रहे हैं कि हमारी तकलीफ तो जो है सो है काश्मीर में किसी भी हालत में बहु-संख्यक लोगों का राज्य नहीं होने देंगे, चाहे इसके लिए हजारों जानें जाती रहें, करोड़ों की संपत्ति नष्ट हो (सिर्फ काश्मीरियों की नहीं, तकरीबन पूरे दक्षिण एशिया की) मैं दुबारा कह रहा हूँ, न तो विद्रोह या प्रगति और न ही इनको दबाने कि प्रवृत्तियाँ धर्मग्रंथों से आती हैं। किसी एक कारण को सही मान कर गैरलोकतांत्रिक दमनकारी ताकतों के साथ खड़े होने की गल्ती सभ्य समाज ने कई बार की है और बहुत बाद में जब कुछ बच नहीं जाता, इस पर रोना धोना होता रहता है। मेरे कई अच्छे अपूर्ण कामों में से एक है Howard Zinn की पुस्तक 'A People's History of the United States' का हिन्दी अनुवाद। प्रकाशित बारह (अनूदित) अध्यायों में पहला अध्याय १९८८ में 'पहल' में आया था। इसमें ज़िन ने इतिहास लेखन पर टिप्पणी की है और सवाल उठाया है कि कोलंबस और उसके बाद अमरीकी महाद्वीप पर आ बसे दूसरे यूरोपी मूल के लोगों ने वहाँ के मूल निवासियों का जो कत्ले-आम किया था, उसे हम नज़र अंदाज़ क्यों नहीं कर सकते या दूसरे इतिहासकारों की तरह उसके बारे में जरा सा कहकर आगे क्यों नहीं बढ़ सकते। ज़िन का मानना है कि इतिहास को सीमित और वैचारिक आग्रहों के नज़रिए से देखने की वजह से ही बार बार कत्ले-आम होते रहे हैं: जैसे पश्चिमी सभ्यता को बचाने के नाम पर हिरोशिमा नागासाकी, साम्यवाद को बचाने के नाम पर स्टालिन के ज़ुल्म और पूर्वी यूरोप पर रुसी बर्बरताएं आदि।

रमण, इस सूची में आप हम जोड़ रहे हैं, इस्लाम से बचाने के नाम पर काश्मीरियों के साथ ही दक्षिण एशिया के अनगिनत दूसरे लोगों की लगातार चल रही हत्याएं (यह तकलीफ जरुर देती है, पर बात तो यही है, देशभक्ति के नाम पर हत्याएं - जैसे गुलाब किसी और नाम से गुलाब ही होता है, हत्या भी किसी और नाम से हत्या ही होती है)।

आखिर में, अलसिकंदरिया (Alexandria) के पुस्तकालय को ध्वंस कर और वहाँ अकथ मेहनत से इकट्ठी की गई पोथियाँ जलानेवाले मूर्तिपूजक थे, सोमनाथ का ध्वंस करने वाले मूर्तिपूजा के विरोधी थे। मार्कोपोलो भारत के जिन इलाकों में पहुँचा, वहाँ उसे घिनौने, लंपट और उसकी नजरों में असभ्य लोग मिले। इन सब बातों का अर्थ देश-काल के सीमित संदर्भों में ही होता है। यह आपकी मर्जी कि आप बहुत सारे लोगों को अपना दुश्मन मानते रहें। लोग हर जगह एक जैसे ही होते हैं, इसलिए नहीं कि धर्मग्रंथों में ऐसा लिखा है, महज इसलिए की वे जैविक रुप से एक जैसे हैं। अब तो HGR (Human Genomics Research) ने भी यह साबित कर दिया है। धर्मग्रंथों को हमें पढ़ना चाहिए क्योंकि ये हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं। जितनी जल्दी हम समझ जाएं कि धर्मग्रंथों में तथ्यात्मक रुप से कुछ भी प्रामाणिक नहीं और जिसकी जैसी मर्जी उनकी व्याख्या करता रहता है, उतना ही भला।

बिहार और देश के दूसरे इलाकों में पृथकतावादी आंदोलन क्यों नहीं? वाजिब सवाल है। सीमावर्त्ती सभी इलाकों में पृथकतावादी आंदोलन किसी न किसी स्वरुप में रहे हैं, कहीं ज्यादा तो कहीं कम। उत्तर-पूर्व के इलाकों में बिना किसी दूसरे मुल्क के सीधे हस्तक्षेप के उग्र पृथकतावादी आंदोलन रहे हैं, एक समय वे काश्मीर से भी ज्यादा तीव्र थे। यहाँ तक कि पश्चिम बंगाल में 'आमरा बाँगाली' आंदोलन ने थोड़ी बहुत ज़मीन बनाई थी। यह भी देश की मुख्यधारा से नाराज़ तबके का ही आंदोलन था। पर मुख्यधारा वाली वाम पार्टयों की पकड़ लोकमानस पर ज्यादा गहरी थी और पृथकतावादी भावनाएँ धीरे धीरे कमज़ोर पड़ गईं। हिन्दी प्रदेश के राज्यों में भयंकर असंतोष तो है ही, यह तो हर कोई जानता है। जहानाबाद का जेल ब्रेक कोई ऐसे ही तो नहीं हुआ।

दोस्तो, मेरा लिखा अक्सर किसी न किसी को बुरा लगेगा और सवाल भी उठेंगे। अगर अंग्रेज़ी की ही स्पीड से टंकण कर पाता तो भी सवालों के जवाब देने लायक हालत में नहीं हूँ। कई सारी चीज़ों में टाँग अड़ाना एक उम्र तक तो ठीक है, पर अब नहीं हो पाता। यह कोई बचने की कोशिश नहीं, अपने आप से ही क्षमा याचना है, क्योंकि गंभीर विषयों पर कुछ कह देना और फिर कहना कि समय नहीं है, यह अच्छी बात नहीं है। पर, कुछ कविताएं लिखने को भी समय तो चाहिए न? सबको नहीं कुछ को तो पसंद होती ही हैं, क्यों प्रत्यक्षा जी :-)
इसलिए अब आप लोग बहस करते रहिए, मैं और जवाब नहीं दे पाऊँगा।

देशभक्त

दिन दहाड़े जिसकी हत्या हुई
जिसने हत्या की।

जिसका नाम इतिहास की पुस्तक में है
जिसका हटाया गया
जिसने बंदूक के सामने सीना ताना
जिसने बंदूक तानी।

कोई भी हो सकता है
माँ का बेटा, धरती का दावेदार
उगते या अस्त होते सूरज को देखकर
पुलकित होता, रोमांच भरे सपनों में
एक अमूर्त्त विचार के साथ प्रेमालाप करता ।

एक क्षण होता है ऐसा
जब उन्माद शिथिल पड़ता है
प्रेम तब प्रेम बन उगता है
देशभक्त का सीना तड़पता है
जीभ पर होता है आम इमली जैसी
स्मृतियों का स्वाद
नभ थल एकाकार उस शून्य में
जीता है वह प्राणी देशभक्त ।

वही जिसने हत्या की होती है
जिसकी हत्या हुई होती है ।

मार्च २००४ (पश्यंती २००४)

4 comments:

अनुनाद सिंह said...

सभी प्रकार के आडम्बरों मे से शब्दाडम्बर सबसे कारगर आडम्बर है |

Atul Arora said...

क्या लाल रात की कोई सुबह नही?

मनोज said...

कुछ साल पहले पटना के एक कांफ्रेंस मे बेनेडिक्‍ट एंडरसन(The Imagined communities के लेखक) ने एक खास तरह के राष्‍ट्रवादी उभार की चर्चा की । उन्‍होंने इसे long distance E-Mail Nationalism का नाम दिया।

लाल्‍टूजी आप बधाई के पात्र हैं क्‍योंकि आपमें इ-मेल नेशनलिस्‍टों से संवाद करने का धैर्य है।मुझमें इस धैर्य की कमी है।

अनुनाद सिंह said...

नहीं , नहीं, कामरेड , ऐसे वचन मत बोलिये ! ये तो सुनने में फतवा जैसे लग रहा है |... वे किसके पात्र हैं जो पर-राष्ट्रवादियों से ... ?