Monday, September 16, 2013

छात्रों की संस्था 'क्रांति'


बेंगलूरू की राष्ट्रीय लॉ यूनीवर्सिटी (विधि शिक्षा वि.वि.) के कुछ छात्रों की पहल से बनी संस्था 'क्रांति' ने पिछले एक हफ्ते में शहर में जैसे जान डाल दी। पिछले हफ्ते शनिवार को रवींद्र कलाक्षेत्र के मुक्त आकाशी प्रेक्षागृह में कबीर कला मंच और तमिलनाड के एक दलित संगीत ट्रुप का अद्भुत कार्यक्रम था। सबसे अच्छी बात यह थी कि बड़ी तादाद में युवा मौजूद थे और उन्होंने लगातार नाचते हुए ऐसा समां बाँधा कि मज़ा आ गया। पर दूसरे दिन रविवार को फिल्मों के आयोजन में उनकी अनुपस्थिति उतनी ही अखरती रही। आनंद पटवर्धन स्वयं मौजूद थे और अपनी सभी फिल्मों के टुकड़े दिखलाने के अलावा 'जय भीम कामरेड' पूरी दिखला कर आनंद ने विस्तार से अपनी फिल्मों पर चर्चा की। आज 'प्रतिरोध सम्मेलन' का आयोजन था और युवाओं की अनुपस्थिति खास तौर पर अखर रही थी। प्रफुल्ल सामंतरा, आनंद तेलतुंबड़े, वोल्गा, गौतम मोदी, मिहिर देसाई, पराणजॉय गुहाठाकुरता, जया मेहता के भाषण के बाद गोआ से आई संस्था 'स्पेस' ने अभिनय पेश किए।

मैं डेढ़ घंटे की बस यात्रा कर सिर्फ अपना साथ देने के लिए गया था। आजकल बहुत ज्यादा अंग्रेज़ी सुनकर मुझे चिढ़ होती है, पर क्या कीजे कि अंग्रेज़ी का ही ज़माना है :-)

जया मेहता का भाषण सुनकर मुझे बड़ा मज़ा आया। एक तो उसने एक बढ़िया चुटकुला सुनाया कि रीगन के हज़ार सलाहकारों में कोई के जी बी का था, पर उसे पता नहीं था कि कौन है, मितराँ (अस्सी के दशक में फ्रांस के राष्ट्रपति) के हज़ार प्रेमियों में कोई एड्स का शिकार था, पर उसे पता नहीं था कि कौन है, और गोर्बाचेव के सलाहकारों में कोई अर्थशास्त्री भी था, पर उसे पता नहीं.......

पर ज़रूरी बात उसने यह कही (मैं जानता था पर फिर भी दुबारा सुनकर अच्छा लगा) कि सोवियत रूस के पतन के बाद क्यूबा ने अपने संकटों से जूझने के अनोखे तरीके अपनाए। चीन से हज़ारों साइकिलें खरीदी गईं कि पेट्रोल का खर्चा कम हो, कास्त्रो ने स्वयं साइकिल चलाकर लोगों को प्रोत्साहित किया कि वे साइकिल चलाएँ। इसी तरह कीटनाशकों और रासायनिक खादों की आमद में कमी की समस्या से निपटने के लिए उन्होंने ऑर्गानिक फार्मिंग (कीटनाशक और रासायनिक खादों के बिना खेती) की शुरूआत की। सचमुच यह फर्क है क्रांतिकारी सोच और बुर्ज़ुआ उदारवाद में। बुर्ज़ुआ उदारवादी अपने से दूर किसी समाज को बदलने की बात करते हैं और क्रांतिकारी खुद को समाज में शामिल करते हुए बदलाव की बात करते हैं।

जया मेहता की एक और बात बड़ी रोचक थी। भारत में अगर कोई तरक्की है तो वह सिर्फ दनादन बनते हाईवेज़ और गाड़ियों की बढ़ती तादाद की है। बाकी देश तो अँधेरे में डूबा है।

पिछले शनिवार के सांस्कृतिक कार्यक्रम और आनंद पटवर्धन की फिल्मों में संवाद को छोड़कर भारतीय भाषाओं में कुछ न होना अखरता रहा। पर यह हमारे उदारवादी बुद्धिजीवियों की पहचान बनती जा रही है। सबकुछ कहीं और बदलना है, हम तो जैसे हैं ठीक हैं। हम सवर्ण, हम अंग्रेज़ीदाँ, हम गाड़ीवाले, हम आपस में बातचीत करेंगे कि 'उन'की दुनिया बदलनी है। इसलिए अंग्रेज़ी में अंग्रेज़ीवालों के लिए भाषण, उनके लिए नाटक, फिल्में - यह सब। दूसरी जो बड़ी सीमा मुझे हमारे उदारवादी विमर्शों में दिखती है, वह है पूरे दक्षिण एशिया में सामरिक खाते में तबाह होते राष्ट्रीय संसाधनों पर चुप्पी। राष्ट्रवादी देशभक्ति का यह झूठा गौरव किसके हित में है - जब तक विपुल परिमाण खर्च सामरिक खाते में होता रहेगा, शिक्षा और स्वास्थ्य पर चर्चा का तुक ही क्या रहता है

उन सभी युवाओं को सलाम जिन्होंने मेहनत कर इन कार्यक्रमों का आयोजन किया।



Saturday, September 14, 2013

सितंबरनामा


पिछले पोस्ट में 'पुरुष पर अगली पोस्ट में' लिखते हुए दिमाग में क्या था अब याद नहीं। इस बीच भोपाल गया और वहाँ बड़े कवियों और अन्य साहित्य-प्रेमियों के बीच कविता पाठ का मौका मिला। सोचा था वहाँ जो स्नेह मिला उस पर लिखूँगा, पर इसके पहले कि लिख पाता, मुजफ्फरनगर के दंगों की खबरें आने लगीं। पता नहीं मैं कब उम्र की वह दहलीज़ पार कर चुका हूँ कि अब गुस्सा कम और रोना ही ज्यादा आता है। यहाँ मैं हूँ कि इस बात से परेशान हूँ कि तीन कमरों वाले मकान में मेरे कमरे के साथ जो गुसलखाना है वह ऐसे बना है कि दिनभर फर्श गीला ही रहता है और उधर नफ़रत के सौदागरों के शिकार बच्चों की दिल दहलाने वाली कथाएं हैं। जाने कब से यह अतियथार्थ हमारा सच बना हुआ है। हम जीते हैं पर कब तक जिएँगे, इस तरह कौन जीना चाहता है, इस तरह कौन जीना चाह सकता है।

भोपाल में 'स्पंदन' संस्था की ओर से कविताएँ पढ़ने का आयोजन था। आयोजन 'स्पंदन' के निर्देशक उर्मिला शिरीष के सौजन्य से हुआ, पर मुझे पता है कि इसके पीछे राजेंद्र शर्मा का स्नेह था। युवा मित्र ईश्वर दोस्त ने उनसे कहा था और इस तरह बात आगे चली। पाठ के दौरान श्रोताओं में बड़े रचनाकार तो थे ही, साथ में पुराने साथी जिनको पता चला वे भी आ गए थे। कुछ दोस्तों से कई वर्षों के बाद मुलाकात हुई। मुझे सबसे ज्यादा खुशी कुमार अंबुज के वहाँ होने से थी। अंबुज मेरे हमउम्र हैं और प्रतिष्ठित तो हैं ही। राजेश जोशी, रमेशचंद्र शाह, इनका होना भी मेरे लिए बड़ी बात थी। शशांक से पहली बार मिला। वे और रमेश जी दोनों साथ मंच पर थे।

दूसरे दिन आग्नेय से मिला। आग्नेय 'सदानीरा' पत्रिका के संपादक हैं। तेरह साल पहले उन्हीं के आयोजित 'कविता यहीं' कार्यक्रम में मैंने कविताएँ पढ़ी थीं। उस दिन साथ में सुधीर रंजन सिंह भी थे। दोनों में हिंदी कविता के समकालीन संदर्भों और औचित्य पर अच्छी बहस हुई, मैं सुनता रहा।

मैं और विस्तार से भोपाल में समकालीन साहित्यकारों से मिलने के इस अनुभव पर लिखना चाहता हूँ, पर इसके लिए लंबा समय चाहिए।

इधर विनोद रायना की कैंसर से मौत हो गई। एकलव्य संस्था में मेरा पहला संपर्क विनोद से ही हुआ था। 1986 में मैं आई आई टी कानपुर में केमिस्ट्री विभाग में अपने शोध-कार्य पर भाषण देने गया था तो अमिताभ मुखर्जी (पिछले कई वर्षों से दिल्ली विश्वविद्यालय में भौतिकी के प्रोफेसर) से मुलाकात हुई। अमिताभ से मैंने अपने वैज्ञानिक शोध पर चर्चा करते हुए बीच में कहीं ज़मीनी स्तर पर विज्ञान में मेरी रुचि के बारे में कहा तो उसने विनोद से संपर्क करने को कहा। दस पैसे का पोस्टकार्ड डाला और विनोद का तुरंत जवाब आया कि होशंगाबाद विज्ञान के प्रशिक्षण शिविर में आओ। उन दिनों अनारक्षित यात्राएँ कर लेता था। चंडीगढ़ से हिमालयन क्वीन में दिल्ली, फिर शायद पश्चिम एक्सप्रेस में नागदा तक – रास्ते में केटरिंग के वेटर ने भीड़ में से निकलते हुए मेरे ऊपर दाल सब्जी गिरा दी - फिर नागदा से उज्जैन। गर्मी के दिन। पहुँचते ही एक ढाबे में मैंने लस्सी मँगवाई। पता न था कि वहाँ लस्सी पी नहीं खाई जाती है। बाकायदा चम्मच से खाई। प्यास मिटी नहीं तो एक ग्लास और खाई। फिर विवेकानंद कॉलोनी में एकलव्य के दफ्तर गया तो कोई न मिला। सीधे प्रशिक्षण केंद्र गया जो आजकल जिसे डाएट (DIET – District Institute of Education Technology) कहते हैं, ऐसे किसी कॉलेज में था। विनोद ने मिलते ही सीने से लगा लिया। मुझसे आठ साल बड़ा था, पर उसके साथ संबंध शुरू से ही ऐसा बना कि मैं उसके लिए 'तुम' ही कह सकता हूँ। दो साल बाद जब तक मैं यू जी सी टीचर फेलो बनकर एकलव्य में आया, बीच में हुई मुलाकातों में विनोद से कई मतभेद हो चुके थे। मैं अंतत: हरदा केंद्र में रहा। चंडीगढ़ (पंजाब वि. वि.) लौटने के बाद भी अक्सर विनोद से मुलाकात होती रही, चूँकि उसका परिवार चंडीगढ़ मे ही था। एकबार हमलोगों ने अध्यापक संगठन की ओर से जनविज्ञान आंदोलन पर उससे भाषण भी दिलवाया।

विनोद ने जनविज्ञान और अन्य क्षेत्रों में जो काम किया है, उस पर लिखने की ज़रूरत नहीं है। पर जनांदोलनों में रहते हुए भी आधुनिक विज्ञान के जटिलतम विषयों में उसकी रुचि बनी रही और अक्सर ऐसे कई विषयों पर वह भाषण भी देता था। उसके बोलने में अद्भुत स्पष्टता थी। संप्रेषण की दक्षता ऊँचे स्तर की।

आज विनोद की बात सोचते हुए वह गले मिलना ही सबसे ज्यादा याद आता है। जो मतभेद थे, वे गंभीर हैं, पर उसका स्नेह स्मृति में है और उससे टीस उठती है। आखिरी बार अभी एक साल पहले ही मिला था - हैदराबाद में इंस्टीटिउट ऑफ लाइफ साइँसेस के निर्देशक जावेद इकबाल के बेटे की शादी के अवसर पर वह और अनीता अपने ग़ज़ल गायक मित्र दिनेश शर्मा के साथ आए थे। गायन खत्म होने पर मुझे सीने से लपेट कर उसने दिनेश से दो बार कहा - यह लाल्टू है, देख लो, ठीक है न, यह लाल्टू है। मैं सोचता रहा कि वह क्या कहना चाह रहा है।