“अल्लाह ! यह कौन आया है
कि लोग कहते हैं
मेरी तक़दीर के घर से मेरा पैगाम आया है...”
ज़िस दिन निर्मल वर्मा के निधन का समाचार आया, मैंने कहीं लिखा कि प्राहा के दिन, लंदन की रातें और शिमला की ज़िंदगी भी क्या होती अगर निर्मल वर्मा कल तक न होते। कैसा दुर्योग कि दो ही दिनों बाद अमृता प्रीतम चल बसीं। लंबे समय से दोनों ही बीमार थे, इसलिए एक तरह से मानसिक रुप से हम लोग तैयार थे कि किसी भी दिन हमारे ये प्रिय जन रहेंगे नहीं। मेरा दुर्भाग्य यह है कि मैं दोनों से ही कभी नहीं मिल पाया। एक बार जब निर्मल चंडीगढ़ आए तो मैं यहाँ नहीं था। शिक्षक संघ का अध्यक्ष बनने के बाद उनको भाषण के लिए निमंत्रित किया तो गगन जी ने फोन पर बतलाया कि वे बीमार थे। अमृता पंजाबी में लिखती थीं और चंडीगढ़ के बाहर के पंजाबी रचनाकारों से मेरा सरोकार वैसे ही कम रहा। यह सोचता हूँ तो लगता है कि केमिस्ट्री पढ़ने-पढ़ाने से अलग दूसरी दुनिया में मुझे साहित्य से इतर और मामलों से बचना चाहिए।
अमृता को मैंने निर्मल से पहले पढ़ा। कलकत्ता के खालसा स्कूल की लाइब्रेरी से उनका उपन्यास ‘आल्ल्ना’ (आलना) पढ़ा था। इसके पहले शायद एक ही पंजाबी उपन्यास पढा था, नानक सिंह का ‘चिट्टा लहू’। अमृता के उपन्यास का गहरा असर मुझ पर पड़ा था। निर्मल की कहानियाँ पहले पढ़ीं, उपन्यास बाद में। तब तक उम्र भी ऐसी बातों को समझने लायक हो गई थी, जिन पर इन रचनाकारों ने लिखा था। प्रिंस्टन से न्यूयार्क आकर कोलंबिया यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी से मुक्तिबोध की कविताओं के साथ ही एक बार निर्मल वर्मा का ‘वे दिन’ ले गया।
मुझे लगता है कि इन दोनों रचनाकारों की जो बात मुझे सबसे ज्यादा आकर्षित करती है, वह है उनका अराजक आत्म-घोष। अमृता ने एक बार – शायद ज्ञानपीठ सम्मान मिलने के बाद – एक बांग्ला अख़बार ‘आजकल’ को दिए इंटरविउ में यह कहा कि हम प्यार में गिरना क्यों कहते हैं, (ह्वाई डू वी फॉल इन लव), हम तो प्यार में उठते हैं। साक्षात्कार लेने वाले ने कमरे का वर्णन देते हुए लिखा था कि प्रवेश करते ही कमरे की दीवार पर टंगी एक विवस्त्र महिला की तस्वीर दिखती है , जिसके अंग कविता के शब्दों से ढँके हैं। मेरी माँ को यह इंटरविउ इतना अच्छा लगा कि उसने इसकी कटिंग डाक से मुझे प्रिंस्टन भेज दी। मैं हैरान था और बाद में मैंने समझा कि यही कवि की ताकत होती है कि वह अपनी बात से किसी भी व्यक्ति को अंदर तक झिंझोड़ जाता है।
मैं निर्मल को भी मूलतः कवि प्रकृति का मानता हूँ। प्राहा या यूरोप के उनके अन्य इलाकों पर आधारित उनकी रचनाओं में दरअसल एक अपूर्ण प्रेम की बेतहाशा तलाश ही मुझे लगातार दिखती है। बाद में गंभीर स्वर में (जैसे ‘धुंध से उठती धुन’ में संकलित संस्मरणों में) उन्होंने जो लिखा उसमें उनका मूल कवि स्वरुप खो गया लगता है।
मैं जब चंडीगढ़ आया था तो वे पंजाब में आतंकवाद के शुरुआती दौर के दिन थे। अमृता की ‘मैं आखां वारिस शाह नूँ’ और दीगर रचनाएं जगह-जगह पढ़ी जाती थीं। पंजाबी के सभी कवि लेखक एक जुट होकर सांप्रदायिकता के खिलाफ मुखर थे, हालांकि कुछ ही साल पहले हो चुके दिल्ली के दंगों का गहरा सदमा उन पर छाया हुआ था। अमृता की भूमिका इन दिनों बिल्कुल स्पष्ट थी। उन्होंने कट्टरपंथ को हाशिए भर की भी जगह न दी । उनकी पत्रिका ‘नागमणी’ पढ़ने पर ऐसा लगता था कि जैसे किसी और ही पंजाब में हम रहते हैं।
थोड़े ही दिनों पहले उनके बारे में कई आलेख, इमरोज़ के साक्षात्कार आदि पंजाबी के अखबारों में छप रहे थे। पढ़कर उनके प्रति मन में अगाध प्यार उमड़ आता था। मेरे मित्र फिल्म-निर्माता दलजीत अमी ने एक बार बतलाया कि किसी ने अमृता से कभी पूछा था कि यौवन और बढ़ती उम्र के बारे में उनके क्या खयाल हैं, तो उनका जवाब था कि क्या आपको लगता है मेरी उम्र सोलह साल से ज्यादा है? इसी तरह निर्मल का रचनाकार भी स्वभाव से चिरकुमार था।
अंत में अपनी पसंद की अमृता की कुछ पंक्तियाँ:
ओ, मिल के मालिक
तू मांस की एक कोठरी तो देता
कि जिसकी ओट में
मैं घड़ी भर अलसाती
पैरों को माँजती
एड़ियों को कूजती
उबटन लगाती
और कुछ निश्चिंत होकर
मैं अपने मरद से मिलती
ओ खुदाया....।
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हिन्दी कविता की एक ब्लॉग साइट देखी (hindipoetry.blogspot.com)। कितना ही अच्छा होता अगर समकालीन कविता को इसमें अधिक जगह मिलती। पर शायद मुनीश (जो साइट चला रहे हैं) को ‘मधुर’ कविताएं ही अच्छी लगती हैं। हम जो प्यार को भी विरोध मान कर चलते हैं, हमारी कविताएं उन्हें नहीं भाएंगीं। बहरहाल, अच्छा काम कर रहे हैं, उन्हें बधाई देता हूँ।
मेरी १९९५ तक की कविताओं का संग्रह, ‘डायरी में तेईस अक्तूबर’ पिछले साल रामकृष्ण प्रकाशन, विदिशा से प्रकाशित हुआ है। इसकी एक समीक्षा २८ सितंबर के इंडिया टूडे (हिन्दी) में आई है। यह मेरा दूसरा कविता संग्रह है। समकालीन ताज़ा कविताएं पल-प्रतिपल के ताज़ा अंक में हैं।
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