Tuesday, December 06, 2005

सात दिसंबर 1992

यहाँ नहीं कहीं औरः सात दिसंबर1992


कहना दोधी से कम न दे दूध नहीं जा सकती इंदौर
कर दूँगा फ़ोन दफ्तर से मीरा को अनु को
तुम नहीं जा सकती इंदौर अब
मेसेज भेजा लक्ष्मी को मत करो चिंता
नहीं आएगी स्टेशन मरे हैं चार दिल्ली में कर्फ्यू भी है
एक पत्थर और पत्थर पर पत्थर गिरे गुंबदों से
समय अक्ष बन रहा अविराम समूह पत्थरों का


सभी हिंदुओं को बधाई
सिखों, मुसलमानों, ईसाइयों, यहूदियों, दुनिया के
तमाम मजहबियों को बधाई
बधाई दे रहा विलुप्त होती जाति का बचा फूल
हँस रहा रो रहा अनपढ़ भूखा जंगली गँवार


पहली बार पतिता शादी जब की अब्राह्मण से
अब तो रही कहीं की नहीं तू तो राम विरोधी
कहेगी क्या फिर विसर्जन हो गंगा में ही
निकाल फ्रेम से उसे जो चिपकाई लेनिन की तस्वीर
मैंने
मैं कहता झूठा सूरज झूठा सूरज रोती तू
अब तू जो कहती रही ग़लत है झगड़ा लिखा दीवारों पर
निश्चित तू धर्मभ्रष्टा
ओ माँ !


पुरुषोत्तम !
सभी नहीं हिन्दू यहाँ रो रही मेरी माँ आ बाहर आ
कुत्ता मरा पड़ा घर के बाहर पाँच दिनों से
ओवरसीयर नहीं देता शिकायत पुस्तिका
ला तू ही ला लिख दूँ सड़ती लाशें गली गली
कुछ कर हे ईश्वर !


सड़ती लाशें गली गली
नहीं यहाँ नहीं कहीं और
फिलहाल दुनिया की सबसे शांत
धड़कन है यहाँ
फिलहाल।

1992 (जनसत्ता -1992, परिवेश -1993, आधी ज़मीन - 1993, 'यह ऐसा समय है' (सहमत) और 'डायरी में तेईस अक्तूबर' संग्रहों में)

3 comments:

मसिजीवी said...

इन कविताओं को दाद देते समय 'वाह' कहने का जी नहीं चाहता। इसलिए 'आह' लाल्‍टू 'आह'
यकीन करो साझी हैं हम इस दर्द में

लाल्टू said...

मसिजीवी, आपके फोटोग्राफ्स को तो वाह वाह ही कहना पड़ेगा। मसि एवं कैमरा जीवी।
फ्रैक्टल्स पर मैंने कभी काम किया है, आपके विश्वविद्यालय में भाषण भी दिए हैं कोई बारह साल पहले। इसलिए और भी अच्छा लगा।
सोलन में ही मिले थे १९९५ में।

Jitendra Chaudhary said...

हम तो वाह वाह बोलेंगे, चाहे कोई कुछ भी कहे।
लाल्टूजी कहाँ छिपा रखे थे, ऐसे सुन्दर सुन्दर नगीने, निकालिये छाड़पोछ कर,छापिये दनादन, पढने के लिये हम तो हैइये ना।