Thursday, November 30, 2006

यह रहा

यह रहा वह पत्थर, जिसका ज़िक्र मैंने किसी पिछली प्रविष्टि में किया था।









और यह वह सूरज जिसे किसी की नहीं सुननी, उन बौखलाए साँड़ों की भी नहीं, जो हर रोज सुबह की नैसर्गिक शांति का धर्म के नाम पर बलात्कार कर रहे हैं। इस निगोड़े को कंक्रीटी जंगलों पर भी यूँ सुंदर ही उगना है।

इन दिनों संस्थान में चल रहे जीवन विद्या शिविर में तकरीबन इस पत्थर की तरह लटका हुआ हूँ। साथ में बाकी काम भी।

इसलिए अभी और कुछ नहीं।

Sunday, November 12, 2006

निकारागुआ - एल पुएबलो उनीदो

निकारागुआ लीब्रे

मेरा स्लीपिंग बैग बाईस साल पहले दो बार निकारागुआ हो आया, पर मैं नहीं जा पाया। कॉफी ब्रिगेड में हिस्सा लेने मेरी मित्र मिशेल पारिस मानागुआ गई। उन्हें ब्रिगादिस्ता कहते थे। फिर बाद में शायद प्रिंस्टन एरिया कमेटी अगेंस्ट इंटरवेंशन इन लातिन अमेरिका का संयोजक रैंडी क्लार्क ले गया था।
दानिएल ओर्तेगा उनदिनों बड़ा हैंडसम दिखता था। निकारागुआ का मुक्ति संग्राम अनोखा था। इसमें वामपंथी और कैथोलिक (जिनमें प्रमुख एर्नेस्तो कार्देनाल थे, जो जाने माने कवि थे - इनका भाषण मैंने सुना था, जिस दौरान कविता भी पढ़ी थी) दोनों तबके शामिल थे।

जब निकारागुआ आजाद हुआ, तब तक रोनल्ड रीगन की सरकार ने अपने करोड़ों डालर वहाँ लगा दिए थे। अमरीकी मदद से 'कॉन्त्रा' नाम से पूरी एक फौज इंकलाबिऔं के खिलाफ जिहाद लड़ रही थी। आतंक के उस माहौल में चुनाव करवा कर अमरीका ने अपनी पपेट सरकार बनवाई। पर देर सबेर लोगों की आवाज सुनी जानी ही थी। लगता है दुनिया भर में दक्षिणपंथी दुम दबाकर पतली गली से भागने की राह देख रहे हैं। अमरीका के दक्षिणपंथिओं को इससे बड़ी चपत क्या लगती कि जब सीनेट और कांग्रेस हाथ से छूटे तो निकारागुआ में भी दानिएल ओर्तेगा वापस। El pueblo unido jamás será vencido! एल पुएबलो उनीदो, हामास सेरा वेन्सीदो! (एकजुट जनता को कोई नहीं हरा सकता), निकारागुआ लीब्रे!

पर उम्र का तकाजा यह भी होता है कि पहले जैसा आशावाद का नशा नहीं रहता। वैसे तो दक्षिणपंथ के फूहड़पन को अधिकतर प्रायः अनपढ़ भारत की जनता ने ही दो साल पहले अच्छी तरह पीट दिया है, फिर भी ।।।।

भारत लौटकर एक पिक्चर पोस्टकार्ड (अब भी पास है - ढूँढना पड़ेगा ) देखते हुए कविता लिखी थी, अब याद नहीं बाद में किस पत्रिका में प्रकाशित हुई, संभवतः साक्षात्कार में।

निकारागुआ की सोलह साल की वह लड़की

सोलह साल की थी
जब एर्नेस्तो कार्देनाल
कविताओं में कह रह थे -
निकारागुआ लीब्रे!

उसने नज़रें उठाकर आस्मां देखा था
कंधे से बंदूक उतारकर
कच्ची सड़क पर
दूर तक किसी को ढूँढा था
हल्की साँस ली थी

उसने सोचा था -
वह दोस्त
जो झाड़ियों में खींच ले गया था
बहुत प्यार भरा
चुंबन ले कर जिसने कहा था
इंतज़ार करना! एक दिन तुम्हें
इसी तरह देखने आऊँगा -
लौट आएगा

उसकी माद्रे
गाँव के गिर्जा घर ले जाएगी
पाद्रे हाथों में हाथ रखवा कहेगा
सुख दुःख संपदा विपदाओं में
एक दूसरे का साथ निभाओगे
और वे कहेंगे - हाँ हम निभाएँगे

दस वर्षों बाद उसकी तस्वीर
मेरे डेस्क पर वैसी ही पड़ी है

सोलह साल का वह चेहरा -
आँखों में आतुरता
होंठों के ठीक ऊपर
पसीने की परत
कंधे पर बंदूक
आज भी वहीं रुका हुआ

आज भी कहीं
ब्लू फील्ड्स के खेतों में
या उत्तरी पहाड़ियों में
जंगलों में उसे लड़ना है

आज भी उसकी आँखें
आतुर ढूँढती हैं
एक-अदने इंसान को
जिसने उसे प्यार से बाँहों में लिया था
और कहा था
मैं लौटूँगा।

(१९८८; एक झील थी बर्फ की -१९९०)

Thursday, November 09, 2006

बुनियादी तौर पर जाहिल और बेवक़ूफ़ लोग और प्रशासन

खबर है कि भारत-पाक सीमा पर विभिन्न नाकों में सबसे विख्यात वाघा नाके पर होने वाले दिनांत समारोह (झंडा उतारना या रीट्रीट सेरीमनी) में भारतीय सीमा सुरक्षा दल ने आक्रामक मुद्राओं में कमी लाने की घोषणा की है। अपेक्षा है कि पाकिस्तान रेंजर्स भी ऐसा ही रुख अपनाएँगे। पुरातनपंथी या सामंती विचारों के साथ जुड़ी हर रीति बेकार हो या हमेशा के लिए खत्म करने लायक हो, ऐसा मैं नहीं मानता, पर दक्षिण एशिया के लोग बुनियादी तौर पर जाहिल और बेवक़ूफ़ हैं, ऐसे बेतुके तर्क के लिए अगर कोई वाघा नाके की रीट्रीट सेरीमनी का उदाहरण दे तो मैं इसका जवाब नहीं दे पाऊँगा। मुझे कुल तीन बार वाघा पोस्ट पर जाने का मौक़ा मिला है। पहली बार बीसेक साल पहले गया था तो हैरान था कि समारोह के दौरान तो सिर से ऊपर पैर उठाकर एक दूसरे की ओर आँखें तरेर कर देखने का अद्भुत पागलपन दोनों ओर के सिपाहियों ने दिखलाया ही, साथ में समारोह के बाद जब दोनों ओर से लोग दौड़े आए और एक दूसरे की ओर बंद गेट्स की सलाख़ों के बीच में से यूँ देखा जैसे कि इंसान नहीं किसी विचित्र जानवर को देख रहे हों। उन लोगों में दोनों ओर के विदेशी सैलानी भी थे। मैं आज तक वह अद्भुत दृश्य सोचता हूँ। हिंदुस्तान का विदेशी सैलानी पाकिस्तान के विदेशी सैलानी को आँखें फाड़ देख रहा है, भले ही वे मूलतः एक ही मुल्क के नागरिक हों! बेवक़ूफ़ी की हद ने जैसा कि मसिजीवी को कहने का शौक है, उत्तर या उत्तरोत्तर-वाद की सीमाओं को पार कर लिया था।

बाद में जब गया तो देखा कि जैसे झुँझनू में रुपकुँवर के मंदिर में काफी कुछ निर्मित हुआ होगा, वैसा ही वाघा नाके पर दोनों ओर प्रेक्षा-दीर्घाएँ वगैरह बन चुकी थीं। इस बार देश के उच्च-स्तरीय वैज्ञानिकों के साथ था। देखा भारत की ओर स्कूल से आए कुछ बच्चे निरंतर भारत माता ज़िंदाबाद के नारे लगा रहे हैं तो दूसरी ओर से पाकिस्तान ज़िंदाबाद चल रहा है। बीच में बीच में मुर्दाबाद और अश्लील चीत्कार भी। बड़ी मुश्किल से दोनों ओर बार बार स्पीकरों पर घोषणा कर झंडे उतारते वक्त लोगों को थोड़ी देर शांत किया गया। पूरे माहौल में लगातार घनी हो रही शाम में बिगुल की ध्वनि के साथ झंडों का उतरना शायद एकमात्र मोहक बात थी, पर स्मृति में वह रहती नहीं।

तीसरी बार जब गया तो दो बातें ज़िहन में रह गईं। दूसरी ओर कुर्ता पाजामा पहने एक किशोर जितनी देर मैं था (क़रीब एक घंटा) लगातार बायाँ हाथ माथे से और दायाँ हाथ दाएँ कंधे के ऊपर से घड़ी की दिशा में घुमाते हुए पाकिस्तान ज़िंदाबाद कहता रहा। अब वह लड़का बड़ा हो गया होगा, शायद क्रिकेट मैच या किसी और बहाने से हिंदुस्तान आया भी हो, सोचता हूँ क्या आज भी वह उसी तरह शरीर के एक एक अणु की ऊर्जा को देशभक्ति के ऐसे फूहड़ प्रदर्शन में खपाता होगा! मेरे विभाग से मूलतः केरलवासी युवा अध्यापक वेणुगोपाल को पूरी परेड ऐसी बेवकूफी भरी बात लगी कि वह खुद थोड़ी देर इस पागलपन से प्रभावित होकर परेड की कोशिश करने लगा - यह जताने के लिए कि देखो और सोचो, यह सब क्या है!

मेरे युवा फिल्म निर्माता मित्र दलजीत अमी ने अमृतसर के डी ए वी कालेज के छात्रों को चलचित्र कला का प्रशिक्षण देते हुए उनसे वाघा पर एक खूबसूरत फ़िल्म बनवाई थी। इस फ़िल्म में रीट्रीट सेरीमनी है, पर कम और ज्यादा बातें वाघा और आसपास के इलाक़ों के लोगों पर है। जैसे वे क़ुली जो दोनों ओर के भूतल व्यापार के वाहक हैं, यहाँ का सामान अपने सिर से उतार कर वहाँ के कुलियों के सिर चढ़ाने वाले, उन्हीं में से एक कृपाल सिंह जो स्वभावतः सूफ़ी गीत गाता है, दोनों ओर की दरगाहें, साँझी संस्कृति जिसे बार बार जंग और नफ़रत के झटकों ने झिंझोड़ा है। बहुत खूबसूरत फ़िल्म है। दलजीत से संपर्क करने के लिए daljitami@rediffmail.com पर मेल लिखें।

चेतन ने कुछ संबंधित links ढूँढें हैं, देखिएः
They want to start a similar show at Agartala
A good description of the event by Rajesh K Sharma
From a foreigner's viewpoint(with photo)
An interesting photo/caption
Some photos, more photos; This one is perhaps the best one of the lot -- inelegant and even ridiculous!)
Some old news (search within the page for wagah): October 11, 2003
The dangers involved in the ceremony: October 22, 2002
The news item that provoked this article
As it appeared in The Tribune, with an interesting photo

बुनियादी तौर पर जाहिल और बेवक़ूफ़ लोग और प्रशासन का एक बेहतरीन प्रमाण मेरी हर सुबह की नींद को रौंदता बौखलाए साँड़ की तरह लाउडस्पीकर पर चलता अत्यंत बेसुरा भक्तिनाद है। आस्था वालों की दुनिया इतनी संवेदनाहीन क्यों है! कुदरत के सबसे बेहतरीन क्षणों की ऐसी बेरहमी से हत्या करनेवाले पापियों को लोग धार्मिक कैसे कह सकते हैं! इस पर फिर कभी। मसिजीवी मेरे दोस्त! लगाओ कुछ उत्तर-सुत्तर वाद, ढूँढो कोई केंद्र यार, पता नहीं कितनी सदियों से चैन से सोया नहीं हूँ!

पिछली प्रविष्टि पर प्रणव ने मेल भेजी हैः
I saw your comments on the Telugu Sangham. I thought of pointing this link to you.

Sunday, November 05, 2006

एक दिन का बादशाह

वाह भई वाह! सालगिरह ने तो मुझे एक दिन का बादशाह ही बना दिया। इतनी टिप्पणियाँ!
बहरहाल, एक तो लटके पत्थर की तस्वीर दिखलानी है।
कविता भी। बस सिर्फ मसिजीवी की बधाई का इंतज़ार था। आगे किसी प्रविष्टि में तस्वीर और कविता का वादा रहा।
दूसरी बात आर टी ओ वाली। थोड़ी सी बेईमानी मेरी रही कि कुछ गड़बड़ जो और वजहों से हो रही है, वह बतलाया नहीं।

इसके पहले कि फिर किसी अंजान भाई को तकलीफ हो, कुछ आत्म-निंदा कर लूँ। सुख तो पर-निंदा जैसा नहीं मिलेगा, पर निंदा तो निंदा ही है।

एक जनाब हैं पंकज मिश्र। उसने भारतीय मध्य-वर्ग की निंदा (जिसमें वह खुद शामिल है बेशक) को बाकायदा धंधा बना लिया है। हमारा हीरो है। 'बटर चिकन इन लुधियाना' पढ़ी थी कुछ साल पहले। पता चला बंगाल के छोटे शहर में लुधियाना के बटर चिकन का गुणगान हो रहा है पंजाबी स्टाइल में (इसके बारे में साल भर पहले लिखा था कि गुरशरण जी ने कितना फाइन तय किया है), चिकन निगल रहे हैं हरियाणवी व्यापारी और आ हा हा! भोजन कितना बढिया है इसका पैमाना है कि भोजन के बारे में कितनी घटिया भद्दी गाली निकल सकती है। है न कमाल की खोज। इसलिए पंकज मिश्र मेरा हीरो बन गया है। वैसे मैं आत्म-निंदा के लिए चला था, लगता है पर-निंदा पर रुक गया। ऐसा नहीं है, पंकज ने हमारे जैसे लोगों को कटघरे में खड़े कर सोचने लायक बातें लिखी हैं। अरे, किधर से किधर पहुँच गया। सब लोग बधाई वापस ले लेंगे।

तो आत्म निंदा यह कि सारी गलती आर टी ओ कि है ऐसा नहीं है। आर टी ओ ने सिर्फ परिस्थितियाँ ऐसी बना दी हैं कि हैं जरा सा चूको तो गलतियाँ करो। फिर रोओ। उदाहरण के तौर पर मान लीजिए कि आप हैदराबाद में हमारे आस-पास काम कर रहे हैं और दूसरे प्रांत से वाहनों का एन ओ सी मँगवा रहे हैं। आप के लाख कहने के बावजूद दूसरे प्रांत के क्लर्क बाबू कागजों में लिख देते हैं कि आप वाहन हैदराबाद ले जा रहे हैं तो आप फँस गए। क्योंकि आप ने चाहा है कि हैदराबाद का पिन कोड होने पर भी आपका निवास हैदराबाद नहीं रंगा रेड्डी जिले में है यह बात क्लर्क के समझ में आ जाए और आप सही आर टी ओ में कागज़ ले जाएँ। पर बाबू इस बात को क्यों समझे। आपको भी बात समझ में नहीं आई न? तो बाबू बेचारे की क्या गलती। तो दुबारा कागज़ वापस (एक और भी तरीका है - पर यार अब कितना बोर करें - छोड़ते हैं इसे यहाँ - ज्यादा समझना है तो अंजान भाई को ढूँढो, उसे सरकारी बातों का औचित्य मालूम है)। अब गड़बड़ यह हुई कि पंद्रह दिन बाद पता चला कि कागज़ात तो यहीं डिस्पैच ऑफिस में पड़े रह गए। चेतन ने इसे मर्फी के नियमों का प्रमाण माना है। बहरहाल हिंदुस्तान चलमान है।

वैसे संजय के सवाल का जवाब यह है कि जी हाँ एक नियत अवधि के बात भारत के किसी एक प्रांत में पंजीकृत गाड़ी दूसरे प्रांत में चलाने की कानूनी मान्यता नहीं है। नियत अवधि कितनी है कोई ठीक ठीक नहीं जानता - मैंने आर टी ओ से जानने की कोशिश नहीं की है। चूँकि अन्य प्रांतों से आए अधिकतर लोग गैरकानूनी तौर से गाड़ियाँ चलाते रहते हैं, इसलिए नियत अवधि के बारे में हर तरह की समझ व्याप्त है - दो हफ्ते, छः हफ्ते - यहाँ तक कि एक (गलत) राय यह भी कि किसी तरह से रोड टैक्स दे दो तो फिर मूल प्रांत से एन ओ सी की ज़रुरत नहीं है।

यह कहानी फिर सही। पर इधर एक दो बातें ऐसी हुई हैं कि हर किसी को इससे छेड़ा जा सकता है।

हमारे एक उत्साही तेलेगू भाषी छात्र प्रणव ने आंध्र प्रदेश स्थापना दिवस पर तेलेगू संघम (समिति या समाज) स्थापना करने की घोषणा की। दो तरह का विरोध हुआ। एक तो पृथक (अलग) तेलंगाना प्रांत बनाने के समर्थकों की ओर से, दूसरा तथाकथित राष्ट्रवादियों की ओर से। पहली श्रेणी के लोगों का कहना था कि बृहत्तर तेलेगू संस्कृति के नाम पर हमेशा तेलंगाना के लोगों को ठगा गया है। राष्ट्रवादियों का कहना है कि इस तरह की समिति बनने से पृथकतावाद को बढ़ावा मिलता है।

मेरी इस में रुचि थी कि तेलेगू भाषी मित्र मेरे जैसे लोगों के लिए तेलेगू सिखाने की क्लासें शुरु करें और मैं लोगों को छेड़ने लायक कुछ बातें तेलेगू में भी कह सकूँ। अफसोस यह कि तेलेगू सिखाने की क्लासें शुरु हुई नहीं, फालतू का विवाद चल निकला। इस प्रसंग में एक बात याद आई कि पिछले कुछ वर्षों में हिंद-पाक दोनों ओर विश्व पंजाबी सम्मेलनों की बाढ़ आई हुई है। पंजाब विश्वविद्यालय में ऐसे एक विश्व पंजाबी सम्मेलन में भारत के विभिन्न प्रांतों से आए कलाकारों ने नृत्य कार्यक्रम पेश किए। सोचने की बात थी कि सम्मेलन पंजाबी, पर कार्यक्रम हर तरह की संस्कृति के।

प्रणव ने एक राष्ट्रवादी तर्क का जवाब देते हुए बड़ी रोचक बात लिखी है - अगर हमने अंग्रेज़ी क्लब बनाने की घोषणा की होती तो किसी को कोई आपत्ति न होती। हमारे सहपाठी मित्र 'literary club' के सदस्य हैं, जहाँ अधिकतर चर्चाएँ अंग्रेज़ी में होती हैं, पर तेलेगू संघम के नाम पर शोर मच रहा है।

संस्थान के निर्देशक ने प्रणव के समर्थन में मेल भेज दी और यह सवाल उठाया कि साल भर में अपनी मातृ-भाषा में सौ पन्नों से अधिक बड़ी कोई पुस्तक पढ़ी क्या? अगर नहीं तो क्यों नहीं!

इससे मुझे याद आया कि मैं अक्सर दिल्ली वालों को याद दिलाता हूँ कि दिल्ली से प्रकाशित होने वाली कोई हिंदी पत्रिका सिर्फ दिल्ली वालों पर निर्भर रह कर चल नहीं सकती। जन की बात करते रहते हैं, जन की भाषा पढ़ते नहीं। मैंने कभी निजी दायरे में एक आंदोलन की शुरुआत की थी कि हर कोई कम से कम एक भारतीय़ भाषा में प्रकाशित किसी एक पत्रिका का सदस्य बने।

कल यहाँ विलियम डालरिंपल की बहादुर शाह जफर पर लिखी पुस्तक 'The Last Mughal' का विमोचन और लेखक द्वारा विषय पर स्लाइडों के साथ भाषण हुआ। मैंने उसकी दिल्ली पर लिखी 'The City of Djinns' पढ़ी है और दूसरों को भी पढ़वाई है। बंदा सही लिखता है, जिनको रुचि हो, बेहिचक गोते लगाएँ।