आइए हाथ उठाएँ हम भी

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बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Wednesday, April 01, 2015

इक्कीस चक्कर घुमा घुमाकर


 फेबु पर सुस्मिता की टिप्पणी पढ़कर यह पोस्ट:- कमाल कि सुकुमार राय ने औपनिवेशिक दौर 
में यह लिखा था, जबकि हमें लगता है कि यह तो आज की बात है। यह कविता उनके संग्रह  
'आबोल ताबोल' के हिंदी अनुवाद 'अगड़म बगड़म' में संकलित है। 
 इक्कीसी कानून

शिव ठाकुर के अपने देश, 
आईन कानून के कई कलेश।
कोई अगर गिरा फिसलकर,
ले जाए प्यादा उसे पकड़।
काजी करता है न्याय-
 इक्कीस टके दंड लगाए।

शाम वहाँ छः बजने तक 
छींकने का लगता है टिकट
जो छींका टिकट न लेकर,
धम धमा दम, लगा पीठ पर,
कोतवाल नसवार उड़ाए-
 इक्कीस दफे छींक मरवाए।

अगर किसी का हिला भी दाँत
जुर्माना चार टका लग जात
अगर किसी की मूँछ उगी
सौ आने की टैक्स लगी -
पीठ कुरेदे गर्दन दबाए
 इक्कीस सलाम लेता ठुकवाए।

कोई देखे चलते-फिरते
दाँए-बाँए इधर-उधर 
राजा तक दौड़े तुरत खबर
पल्टन उछलें बाजबर
दोपहर धूप में खूब घमाए
 इक्कीस कड़छी पानी पिलाए।
 
लोग जो भी कविता करते
उनको पिंजड़ों में रखते
पास कान के कई सुरों में
पढ़ें पहाड़ा सौ मुस्टंडे
खाताबही मोदी का लाए
 इक्कीस पन्ने हिसाब करवाए।

वहाँ अचानक रात दोपहर
खर्राटे कोई भरे अगर
जोरों से झट सिर में रगड़
घोल कसैले बेल में गोबर
इक्कीस चक्कर घुमा घुमाकर
 इक्कीस घंटे रखें लटकाकर।


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Thursday, January 17, 2013

अगड़म बगड़म


कुछ साल पहले मैंने सुकुमार राय की अनोखी कृति 'आबोल ताबोल' से अनूदित कविताएँ पोस्ट की थीं। 1988 में अशोक अग्रवाल ने संभावना प्रकाशन से मेरी अनूदित ऐसी 20 कविताओं की पुस्तिका प्रकाशित की थी। ये नॉनसेंस कविताएँ हैं और इनका अनुवाद कठिन काम है। मुझमें हमेशा एक असंतोष की भावना रह गई थी कि अनुवाद ठीक हुआ नहीं है। डेढ़ साल पहले काफी मेहनत से प्रो. सुवास कुमार के साथ बैठ कर मैंने दुबारा यह काम किया और इस बार विजय गुप्त ने साम्य पत्रिका की पुस्तिका के रूप में इसे छापा है। इसकी भूमिका के लिए विजय जी ने भी लिखा और हमने भी एक लेख तैयार किया। मेरा यह लेख संक्षिप्त रूप में तीन साल पहले अंग्रेज़ी में निकलती पत्रिका 'हिमाल' में छपा था। यहाँ हिंदी में पूरे आलेख को पेस्ट कर रहा हूँ। पुस्तिका का आवरण बनतन्वी दासमहापात्रा ने तैयार किया है। प्रति (कीमतः 30/-) के लिए लिखें:- श्री विजय गुप्त, ब्रह्म रोड, अम्बिकापुर 497001, जिला - सरगुजा, ..



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भूमिका
भारतीय उपमहाद्वीप की तमाम भाषाओं में आधुनिक काल में बच्चों के लिए लेखन की प्रचुरता की वजह से बांग्ला की अलग पहचान है। बांग्ला साहित्य में ऐसा कोई प्रतिष्ठित लेखक या कवि नहीं है, जिसने बच्चों के लिए लगातार न लिखा हो। उन्नीसवीं सदी में भारत में आधुनिक मुद्रण तकनीक के आने के थोड़े समय बाद से ही बांग्ला भाषा में बच्चों के लिए पत्रिकाएँ प्रकाशित होने लगीं। आज भी कोलकाता के सालाना 'पूजोवार्षिकी' और ढाका में ईद पर प्रकाशित संग्रहों में बच्चों को तरह तरह के लघु उपन्यास, कहानियाँ और कविताएँ आदि पढ़ने को मिलते हैं। ये रचनाएँ सामाजिक विषयों से लेकर जासूसी या व्यंग्य आदि हर तरह की होती हैं।
बांग्ला में बाल साहित्य की ऐसी पत्रिकाएँ हैं, जो कई दशकों से लगातार प्रकाशित हो रही हैं। इनमें से लेखक और गीतकार उपेंद्रकिशोर रायचौधरी द्वारा 1913 में आरंभ की गई 'संदेश' पत्रिका बांग्ला भाषा की धरोहर बन गई है। उनकी मृत्यु के बाद उनके बड़े बेटे सुकुमार राय ने संपादन का भार सँभाला। उपेंद्रकिशोर की सबसे प्रसिद्ध कृति 'गूपी गाईन बाघा बाईन' पर सुकुमार के बेटे सत्यजित राय ने इसी शीर्षक की फिल्म बनाई, जिसका भारतीय फिल्मों के इतिहास में अनोखा स्थान है। सत्यजित राय की प्रतिष्ठा अंतर्राष्ट्रीय स्तर की है, फिल्मों के अलावा छोटे बड़े हर उम्र के पाठकवर्ग के लिए उन्होंने विज्ञान कथाएँ, जासूसी और अन्य रोचक कहानियाँ भी लिखी हैं; पर उनके पिता सुकुमार राय के बारे में हिंदी के पाठकों को कम ही जानकारी उपलब्ध है। सुकुमार की अभिनव कौशल से भरपूर 'नानसेंस' गद्य और पद्य रचनाओं ने बांग्ला में बाल साहित्य में नई परंपराओं का निर्माण किया।

सुकुमार राय अद्भुत प्रतिभा से संपन्न थे। उनका जन्म 1887 ईस्वी में हुआ। 36 साल की कम उम्र में ही उनकी मृत्यु हो गई। दो विषयों में ससम्मान (आनर्स) कोलकाता विश्वविद्यालय से स्नातक (बी एस सी) डिग्री के बाद अपनी मेधा के बल पर उन्हें इंग्लैंड के मैंचेस्टर कालेज में फोटोग्राफी और प्रिंटिंग टेक्नोलोजी का अध्ययन करने के लिए वजीफा (गुरूप्रसन्न स्कालरशिप) मिला। विदेश में रहते हुए वे स्थानीय साहित्यिक माहौल में सरगर्म रहे। वे एक कुशल गायक और अभिनेता भी थे। ऐसा संभव है कि उनपर लूइस कैरल ('एलिस इन वंडरलैंड – आश्चर्यलोक में एलिस' के रचयिता) का प्रभाव रहा हो। सत्यजित राय के अनुसार, “कैरल की कृति 'Jabberwocky (जैबरवोकी - एलिस इन वंडरलैंड में एक कविता)' में रचित प्राणी कल्पना लोक से आए थे, पर सुकुमार के चरित्र, जैसे भी वे हैं, हर रोज की परिचित दुनिया से आए हुए थे। और उनमें से कई सचमुच बंगाल की ही उपज थे, जैसे "हुकोमुखो हैंग्ला (हुक्कामुखी भुक्खड़)"

बांग्लाभाषियों के लिए सुकुमार राय की रचनाएँ nonsense यानी 'बेतुकी' विधा में सर्वश्रेष्ठ हैं (चूँकि 'बेतुकी' शब्द का अर्थ तुक का न होना भी होता है, इसलिए यह उपयुक्त शब्द नहीं लगता। संभवतः 'अण्डबण्ड', 'ऊटपटाँग', पद्य-लफ्फाजी या 'गप्पोड़ी' जैसा कोई शब्द बेहतर हो, लेकिन हम यहाँ 'नानसेंस' का ही इस्तेमाल करेंगे) । पर इस विधा में आलोचना कर्म न के बराबर है। यह सचमुच बड़ी अजीब बात है कि हालाँकि बांग्ला में वयस्क साहित्य के लिए सचेत और उत्तम रुचि के पाठक बनाने में बाल साहित्य का बहुत बड़ा अवदान है, बच्चों के लिए लिखे गए विपुल साहित्य भंडार का आलोचनात्मक विश्लेषण बहुत कम हुआ है। इन रचनाओं के स्रोत और उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया है। संभवतः बच्चों के लिए लिखी सामग्री को ऐसा नहीं माना गया है कि उस पर गंभीर आलोचना लिखी जाए।


असंभव के छंद
सुकुमार राय के बारे में उनके समकालीन कवि चारुचंद्र बंद्योपाध्याय ने लिखा हैः - "उनका वाक्य सरस था, उनकी रचना सरस थी, उनका संग सरस था, उनका व्यवहार सरस था। उनके स्वभाव में आनंदमयता थी। इसी स्वभावसिद्ध आनंदमयता की वजह से दोस्तों की मजलिसों में वे आनंद का केंद्र होते थे और वे जो कुछ भी लिखते, वह आनंद से भरपूर होता।" स्वभाव से रसिक और विनोद प्रिय होने के साथ ही सुकुमार राय तर्कशील प्रवृत्ति के थे। उन्होंने बच्चों के लिए अंधविश्वास के खिलाफ आलेख लिखे हैं। पर उनको मुख्यतः नानसेंस कविता और गद्य रचनाओं के लिए ही जाना जाता है। उन्होंने अपनी इन रचनाओं में आधुनिक सोच से जुड़े नए खयाल और नए शब्द शामिल किए। इनमें कई शब्द अंग्रेज़ी के भी हैं, जो व्यंग्य विनोद के लिए सफलता पूर्वक प्रयुक्त हुए हैं; और कुछ तो बड़े तकनीकी किस्म के भी हैं। सुकुमार ने विशुद्ध नानसेंस में खुद को बाँध नहीं रखा, बेतुकी लगती बातों के जरिए न केवल समकालीन, बल्कि सर्वकालीन सत्य की ओर उन्होंने अक्सर संकेत किए हैं। ऐसा करते हुए उन्होंने ऐसे जीव-जंतुओं को रचा, जो बच्चों और बड़ों, सबको भाते हैं। उनके रचना काल में बंगाल में साक्षरता देश के अन्य इलाकों से बेहतर थी, पर फिर भी यह काफी कम थी। इसलिए उस जमाने में उनका पाठक वर्ग मूलतः शिक्षित और संपन्न भद्रलोक समुदाय और उनके बच्चों का था। परवर्त्ती काल में साक्षरता बढ़ने पर 'आबोल ताबोल' जैसी कृतियों को घर-घर पढ़ा जाने लगा।

सुकुमार राय 'आबोल ताबोल' की काव्यात्मक 'भूमिका' में पाठकों को 'असंभबेर छंदे (असंभव के छंदों में)' प्रवेश करने का न्यौता देते हैं। संग्रह की पहली कविता से ही पाठक अद्भुत लोक से परिचित होता है। संकर जंतुओं का आश्चर्यलोक हमारे सामने है-
बत्तख था, साही भी, (व्याकरण को गोली मार)
बन गए 'बत्ताही' जी, कौन जाने कैसे यार!



बत्तख और साही मिलकर बत्ताही बन गए हैं। सुकुमार अच्छे चित्रकार भी थे। पाठ में मजेदार तस्वीरों का अंकन कर आमोद-विनोद को बढ़ाना उन्हें बखूबी आता था। 'टैंस गोरू' (ठसकदार गाय) जैसी कई रचनाओं में वे बर्त्तानवी व्यवस्था की लालफीताशाही (जो आज की व्यवस्था पर भी लागू होती है) पर कस कर व्यंग्य करते हैं। वे राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन से भी प्रभावित थे। उनकी रचनाओं में कई सामाजिक विषयों पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी दिखलाई पड़ती है।
बांग्ला समाज पर सुकुमार राय का गहरा प्रभाव है। आज बांग्ला भाषा में इस्तेमाल किए जा रहे कई (तकरीबन सौ) शब्द सुकुमार की देन हैं। पहले से प्रचलित 'छड़ा' (बच्चों के लिए लिखी गई मुकरी जैसी रचनाएँ) की विधा में उच्च-स्तरीय नानसेंस लाकर उन्होंने बाल साहित्य में एक ऐसी शुरुआत की जिसका प्रभाव आजतक है। पर स्वयं सुकुमार राय अपने समय की उपज थे। वर्ग आधारित समाज में रहते हुए किसी भी व्यक्ति में अपने समय के सभी पूर्वाग्रह मौजूद होते हैं। सुकुमार राय इससे अछूते नहीं हैं। पर उनकी रचनाएँ हमें उल्लास की ऐसी स्थिति में ले जाती हैं कि हम या तो इन पूर्वाग्रहों पर ध्यान नहीं दे पाते या उन्हें नज़रअंदाज कर देते हैं। उदाहरण के लिए उनकी कविता 'सोत पात्रो (सत् पात्र या अच्छा वर)' की ये पंक्तियाँ देखें -
बुरा नहीं, वर अच्छा है -
रंग का थोड़ा कच्चा है;
और लगता उसका चेहरा कैसा
थोड़ा थोड़ा उल्लू जैसा।
शिक्षा-दीक्षा? बतलाता हूँ -
अध्ययन पर उसकी आता हूँ!
उन्नीस बार घायल हो हो कर
मैट्रिक में रह गया अटक कर।
धन-संपत्ति? कुछ नहीं है भाई-
दुःख में दिन और रात बिताई।



कहना मुश्किल है कि सुकुमार यहाँ अपने समय में प्रचलित पाखंडों का, जैसे वैवाहिक संबंधों में बाधा डालने वाले पड़ोसियों का मजाक उड़ा रहे हैं, या स्वयं उनसे ग्रस्त हैं। जैसा भी है, उनके लेखन में ऐसी विसंगतियाँ अक्सर नज़र आती हैं। समकालीन मध्यवर्ग के संस्कारों और मर्यादाओं के पैमाने में उनके श्लील-अश्लील विचार को समझा जा सकता है। एक उदाहरण है - 'हैंग्ला'। इस शब्द का एक आम गाली की तरह प्रयोग होता है। सामान्य तौर पर इसका अर्थ ऐसे सस्ती प्रकृति के व्यक्ति से है, जो किसी चीज के प्रति अपने लोभ पर नियंत्रण नहीं रख पाता। सुकुमार ने ऐसे शब्दों का बहुतायत से प्रयोग किया है। इनमें से कई मुहावरे बन गए हैं, जैसे - हुकोमुखो हैंग्ला (हुक्कामुखी भुक्खड़), नोंग्रामुखो शुट्को (गंदी शक्ल और सूखी काया वाला) आदि। इसी तरह जंतुओं के प्रति आम तौर पर प्रचलित हिंसात्मक शब्दों का इस्तेमाल भी उन्होंने किया है, जैसे -
ज़िंदा ऐसे साँप दो 
ला कर मेरे पास रखो !
मार पीट डंडा,
कर  दूँगा ठंडा!

संभावना यह भी बनती है कि बच्चों पर हम बड़ों का या सामाजिक व्यवहारों पर पड़े असर को लेकर व्यंग्याभिव्यक्ति की जा रही हो! लिंगभेद के प्रसंग में भी सुकुमार के लेखन में तत्कालीन मूल्य और पूर्वाग्रह देखे जा सकते हैं। बांग्ला में क्रियापद से लिंग निर्णय कर पाना संभव नहीं होता। इसके परिणामस्वरूप कर्त्ता के लिंग की पहचान के लिए प्रसंग को समझना जरूरी होता है। बांग्लाभाषी पाठक को संदर्भों को समझने में कोई दिक्कत नहीं आती और वह सहज ही लिंग निर्णय कर लेता है। सुकुमार राय की प्रसिद्ध गद्य रचना '----' (----- अर्थात जिसका कोई सिर पैर न हो) में कथा का नायक एक बच्चा है जो सो गया है और लूइस कैरल की फंतासी की तरह उसका आश्चर्य लोक के जंतुओं के साथ सामना होता है (जिनमें वास्तव जगत के मानवों की तरह खासियत हैं); और वह उनसे बातचीत करता है। अगर किसी बांग्लाभाषी से पूछा जाए कि उन्हें कैसे पता कि कहानी का बच्चा पुरुष लिंग का यानी लड़का है तो उनमें से अधिकतर इसका जवाब न दे पाएँगे। एक संवेदनशील मित्र का कहना है कि कहानी के अंत में जब बच्चा जग जाता है तो उसका मामा आकर उसका कान पकड़कर खींचता है, इससे पता चलता है कि वह लड़का है। आमतौर पर लड़कियों को कान पकड़कर नहीं खींचा जाएगा। कम से कम मध्यम वर्ग के परिवारों के लिए यह बात सही है।
पूर्वाग्रहों को नज़रअंदाज़ करें तो हम पाएँगे कि सुकुमार सामान्य से हटकर अलग दिखती शक्लों का हास्य-व्यंग्य के लिए बड़ी कुशलता के साथ इस्तेमाल करते हैं। उनके एक प्रसिद्ध चरित्र, 'पागला दाशू' (पगला दासू), का विवरण देखिए -
उसकी शक्ल, बातचीत और चाल से यह स्पष्ट था कि उसका दिमाग कुछ ढीला है। उसकी आँखें बड़ी और गोल थीं, ज़रूरत से ज्यादा बड़े कान थे, सिर में बिखरे हुए बालों का जाल था।...वह जब जल्दी से चलता या हड़बड़ी में बात करता है, तब उसके हाथ-पैरों का उछलना देखकर झींगा मछली का खयाल आता है।
ऐसे विवरण को सीधे सीधे किसी के प्रति नफरत की अभिव्यक्ति कहकर खारिज करना ठीक न होगा, खासकर जब हम उस युग की प्रासंगिकता को ध्यान में रखते हैं। उस युग में आकृति को प्रकृति का लक्षण माना जाता था। यह भी कहा जा सकता है कि अगर हर बात को सही वैचारिक पलड़े पर रख कर ही तौला जाए तो हास्य-व्यंग्य के लिए कोई जगह नहीं बचेगी। ज्यादा सही यही कहना होगा कि सुकुमार इस तरह के लेखन में जीवन की निष्ठुर सच्चाइयों की ओर संकेत कर रहे हैं। पर ऐसी सामग्री का उपयोग आज कैसे हो रहा है, इस बारे में सतर्क पहना जरूरी है। ऐसे पाठ का बच्चों पर क्या प्रभाव पड़ सकता है, उस पर मनोवैज्ञानिक शोध किया जाए तो महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष निकल सकते हैं।
शब्दकल्पद्रुम
सुकुमार राय का शब्द- चयन का भंडार रोचक है। अन्य भारतीय भाषाओं की तरह बांग्ला का शब्द-भंडार भी संस्कृत, फारसी और देशज स्रोतों से समृद्ध हुआ है। उन्नीसवीं सदी के मध्य में बंगाल में नवजागरण के साथ ही पुनरुत्थान-वादी प्रवृत्तियाँ भी सक्रिय थीं। भाषा पर इसका प्रभाव साफ दिखता है। सदी के अंत तक बांग्ला भाषा से फारसी मूल के शब्दों को निकाल कर इसे संस्कृतनिष्ठ करने की प्रवृत्ति के बारे में कइयों ने टिप्पणी की है। इस प्रवृत्ति को सबसे अधिक बढ़ावा बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने दिया। रवींद्रनाथ ठाकुर और उनके समकालीन रचनाकारों ने रुढ़ क्रियारूपों का उपयोग कम किया, पर संस्कृतनिष्ठता काफी हद तक बरकरार रही। सुकुमार राय आधुनिकतावादी थे और उनकी वाक्-विदग्धता कमाल की थी। उन्होंने संस्कृत शब्दों के ध्वन्यात्मक सौंदर्य का बखूबी इस्तेमाल किया। उदाहरण के लिए, 'आबोल ताबोल' की कविता 'शब्दकल्पद्रुम' (शीर्षक अपने आप में बखूबी से मृदंग के बोल सा पैदा करता है) में मुहावरे की तरह इस्तेमाल होने वाले आम शब्दों (चाँद का डूबना, फूल की गंध का बहना, आदि) के साथ ध्वनि बोधक शब्दों को जोड़कर अद्भुत शिल्प रचा गया है। इस कविता और ऐसी ही कई अन्य कविताओं में देशज शब्दों का बहुतायत से इस्तेमाल हुआ है। पर तत्सम शब्दों की तादाद फारसी शब्दों की तुलना में अधिक है।
सुकुमार राय ने अनेकार्थी शब्दों का उपयोग बढ़-चढ़ कर और भरपूर कुशलता के साथ किया है। 'शब्दकल्पद्रुम' में एक पंक्ति है - 'फूल फोटे? ताई बोलो, आमि भाबि पोटका!' (फूटा (खिला) फूल? ऐसा बोलो! मुझे लगा बम (पटाखा) था!)'फोटे' शब्द का बम फटना या फूल की पंखुड़ियों का खिलना दोनों अर्थों में इस्तेमाल होता है। ऐसा ही कौशल उनकी गद्य कृतियों में भी दिखता है। एक कुशल भाषाविद् की तरह वे पाठक की विनोदप्रियता को जगाते हैं। उनका 'लक्खनेर शक्तिशेल (लक्ष्मण का शक्तिवाण)' आज भी व्यंग्य रचना के रुप में बहुत पढ़ा जाता है। इसे समकालीन राजनैतिक दलों के प्रति व्यंग्य की तरह पढ़ा जा सकता है। उनकी रचनाओं में राजा जैसे चरित्र हमेशा ही बड़े दयनीय से दिखते हैं - 'गंध विचार' ऐसी ही एक कविता है। शिक्षा व्यवस्था पर भी वे बार-बार चुटकी लेते हैं। 'समझाकर कहना' और 'विज्ञान शिक्षा' जैसी कविताओं में यही अंदाज़ दिखता है, जहाँ जबरन बच्चों को पढ़ाने या उन पर ज्ञान थोपने का मजाक उड़ाया गया है।
सुकुमार राय एक ऐसे दुर्लभ मेधावी बहुप्रतिभा संपन्न व्यक्ति थे, जिसे आज के जमाने का कोई वीडियोगेम और वाल्ट डिस्नी का हल्ला पछाड़ नहीं सकता। समय के साथ उनकी कई कविताएँ और अधिक प्रासंगिक बनती जा रही हैं। गंभीर स्थितियों को भी हास्य में बदलने की अद्भुत क्षमता उनमें थी। कइयों का मानना है कि 36 से भी कम उम्र में मृत्यु के ठीक पहले आसन्न मृत्यु के बारे में अपनी अंतिम रचना में उन्होंने लिखा ('आबोल ताबोल' संग्रह की इसी शीर्षक की आखिरी कविता) -
आदिम समय का चाँदिम हिम
गाँठ में रखा घोड़े का डिम*
हुईं नींद से आँखें भारी,
गीत की लड़ियाँ खो गईं सारी।
(घोड़े का डिम*= घोड़े का अंडा=शून्य, कुछ नहीं)
ऐसा कमाल का दार्शनिक व्यक्तित्व सुकुमार का था। मृत्यु के कुछ समय पहले तक, 'नींद से आँखें भारी' होने की स्थिति में भी वे अपनी संदेश पत्रिका के लिए लिखने और तस्वीरें बनाने का काम करते रहे। स्वभाव से विनोदी प्रवृत्ति के और हास्य रसिक होते हुए भी (जीवन की नश्वरता पर टिप्पणी देखिए - 'गाँठ में रखा घोड़े का डिम') सुकुमार वस्तुतः अपने काम में बहुत गंभीर थे। मानवीय मूल्यों में भी वे अतुलनीय थे। चारुचंद्र बंद्योपाध्याय ने लिखा हैः- “उनके आत्मीय मित्रों की अस्वस्थता के दौरान उनके सेवाभाव से और स्वयं उनकी लंबी बीमारी के दौरान उनको जानकर उनके हृदय की महानता का परिचय हमें हुआ। मित्र अजितकुमार चक्रवर्त्ती की अंतिम पीड़ा के समय जिस तरह सपत्नीक सुकुमार बाबू ने तन-मन-धन की चिंता न करते हुए उनकी सेवा की थी, यह देखकर पति पत्नी दोनों के प्रति मेरी श्रद्धा सौगुना बढ़ गई।" मौत का सामना करते हुए भी सुकुमार को निरंतर कार्यरत देखकर गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर भी प्रभावित हुए। उन्होंने लिखाः- “मौत के दरवाजे पर खड़े होकर भी वे (सुकुमार) असीम जीवन का जयगान गाते रहे। उनकी रोगशय्या के पास बैठकर और उस गान के सुर से मेरा चित्त पूर्ण हुआ।"
अनुवाद अपने आप में कठिन काम है। यह और भी भारी हो जाता है जब नानसेंस का अनुवाद करना हो। अनूदित कविता कभी भी मूल रचना के बराबर नहीं हो पाती, यह सर्वविदित है। नानसेंस कविता का अनुवाद कैसा जोखिम भरा काम है, सुधी पाठक इसकी कल्पना कर सकते हैं। खासकर सुकुमार राय का लेखन जो महज निरर्थक और बेमतलब की बातों का समूह नहीं, बल्कि सारगर्भित नानसेंस है, इसका अनुवाद कहीं से भी मूल के बराबर नहीं हो सकता। फिर भी जैसा कि इस्पानी भाषा के कथाकार गाब्रिएल गार्सिया मार्ख़ेज़ के अंग्रेज़ी अनुवादक ग्रेगरी राबासा का कहना हैः- 'अनुवाद अपने आप में एक सर्जनात्मक काम हो सकता है' ('A translation can be creative in its own right...')। अतः साहित्यिक अनुवाद को पुनर्रचना कहना बेहतर है। खुद मार्ख़ेज़ ने राबासा के बारे में कहा हैः- 'उन्होंने मूल रचना की खूबसूरती बढ़ाई है' ('He has enhanced the beauty of the original')। सांस्कृतिक समानताओं की वजह से एक ओर तो भारतीय भाषाओं में लिखी रचनाओं का आपस में अनुवाद काफी हद तक सार्थक और सहज है, दूसरी ओर यही एक बहुत बड़ी कठिनाई भी है। अन्यथा नितांत एक ही जैसे और परिचित से लगते विषय में एक ही शब्द बांग्ला और हिंदी में अलग अलग अर्थों में प्रयुक्त हो सकता है। कभी कभी यह फर्क बहुत ही सामान्य होता है, पर इससे प्रसंग बदल जाता है। बांग्ला और खड़ीबोली हिंदी का एक फर्क यह भी है कि कर्त्ता के लिंग, वचन आदि के साथ जिस तरह हिंदी में क्रियापद का रूप बदलता रहता है, बांग्ला में ऐसा कम ही होता है। संस्कृत की तरह बांग्ला में शब्दों की मात्राओं से ध्वन्यात्मक लय आसानी से बनती है। खड़ी-बोली हिंदी का मिजाज और मुहावरा अलग है। क्षेत्र की व्यापकता की वजह से किसी भी शब्द के चयन को लेकर संशय रह जाता है कि वह संपूर्ण हिंदी क्षेत्र में एक ही तरह से पढ़ा जाएगा या नहीं। ध्वन्यात्मकता, लय और अर्थ में कैसे तालमेल रखा जाए, यह जद्दोजहद भी चलती रहती है। हमारी पूरी कोशिश यह है कि यह अनुवाद मूल के अधिक से अधिक करीब हो और साथ ही रस में भी कोई कमी न रह जाए। इन दोनों बातों को ध्यान में रखते हुए ऐसे कई शब्दों का हमने इस्तेमाल किया है, जो हिंदी में कम प्रचलित हैं या वस्तुतः हिंदी के नहीं हैं, पर जिनमें से अधिकतर में बांग्ला भाषा का स्पर्श-गंध मौजूद है। भौंचकराए, किंभुत्, किच्छु, मच्छी, मरम्मात, पाछे, हाँसे, आसे-पासे, नयान, डाके, बाड़ी, मिलबे, हाड़गोड़ आदि इनके कुछ उदाहरण हैं। स्थानीय बोलियों और भाषाओं के मिजाज़ के मुताबिक पाठक इसमें जोड़ घटा सकते हैं। आश्चर्य नहीं कि एक ही रचना के अनेकानेक अनुवाद प्रस्तुत किए जा सकते हैं।
हिंदी और उत्तर भारतीय अन्य भाषाओं के व्यापक भौगोलिक क्षेत्र में लोक संस्कृति की वाचिक परंपरा में बच्चों और बड़ों सबके बीच अलग अलग किस्म की नानसेंस रचनाएँ मिलती हैं, जिन पर ध्यान दिया जाना चाहिए। बेतुकापन, उलटबाँसी और तांत्रिकों की 'संध्याभाषा' जैसी परंपराएँ लोक मानस में जीवंत हैं, क्योंकि इससे बाल-सुलभ मनोदशा में पहुँचा जा सकता है। कबीर की इन पंक्तियों को देखिएः-



कागा कापड़ धोवन लागै, बकुला किरपे दाँता
माखी मूड़ मुड़ावन लागी, हम हूँ जाव बराता।


बारात जाने के लिए कौवा कपड़े धो रहा है, बगुला दातौन कर रहा है; मक्खी केश-विन्यास कर रही है। हिंदी क्षेत्र की भाषाओं और बोलियों में तरह-तरह की लोरियाँ, कबीरा, जोगीड़ा, बच्चों के खेल-गीत नानसेंस वाले 'सेंस' से भरे हुए मिलते हैं। अंग्रेज़ी और दीगर भाषाओं में नानसेंस की पुरानी परंपरा है, जहाँ कई बार अभिव्यक्तियाँ इतनी स्पष्ट न होकर सचमुच ऊटपटाँग सी होती हैं। इनको साहित्यिक विधा की तरह लेने में एक दुविधा बिम्बग्रहण की समस्या की रही है। George A. Miller के आलेख 'Images and Models, Similes and Metaphors' (A. Ortony, Metaphor and Thought, Cambridge University Press, 1980) में उद्धृत यह कविता देखिएः-
One bright day in the middle of the night
Two dead boys got up to fight
Back to back they faced each other
Drew their swords and shot each other
A deaf policeman heard the noise
And came and killed those two dead boys

एक दिवस जब खिली धूप थी मध्य रात्रि को
दो मृत बच्चे उठ आपस में भिड़े हुए थे
मुँहामुँही थे वार कर रहे पीठ सटाकर
खींच कटार दाग दी गोली इक दूजे पर
सिपाही बहरा दौड़ा आया आवाजें सुनकर
दोनों मृत बच्चों का उसने दिया कत्ल कर।
(अनु० सुवास कुमार)



पंजाब में लोहड़ी के त्यौहार के दौरान गाया जाता 'सुंदरी वे मुंदरिए...' और मध्य प्रदेश के कई क्षेत्रों में 'पोसम राजा' जैसे अनेक गीतों को इकट्ठा कर उन पर काम किया जाना ज़रुरी है। पर्याप्त ध्यान के बिना ये गीत धीरे धीरे विलुप्त हो जाएँगे। हमारी उम्मीद है कि 'अगड़म बगड़म' के इस प्रकाशन से इस दिशा में जागरुकता फैलेगी। नानसेंस की अच्छी समझ गंभीर साहित्य के लेखन में प्रेरणा का काम करती है। नागार्जुन ('मंत्र' या अन्य कविताएँ), रघुवीर सहाय ('अगर कहीं मैं तोता होता' आदि कविताएँ), सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ('बतूता का जूता' आदि) या अन्य कई कवियों की रचनाओं में हम यह बात देख सकते हैं। अन्यथा गंभीर या वैचारिक सामग्री को रसीले तरीके से सीधे पाठक के अंतस् तक पहुँचाने का इससे बेहतर तरीका और कोई नहीं है।
हिंदी में सुकुमार की कृतियों को पाठकों के सामने लाने का पहला प्रयास लाल्टू ने 1988 में किया था और 'आबोल ताबोल' की बीस कविताएँ 'अगड़म बगड़म' शीर्षक से पुस्तक रूप में कथाकार प्रकाशक अशोक अग्रवाल (संभावना प्रकाशन) के तत्वावधान में प्रकाशित हुई थीं। साथ ही गद्य कृति 'हयवरल' का अनुवाद भी प्रकाशित हुआ था। गद्य का अनुवाद तो काफी हद तक संतोषजनक था, पर 'अगड़म बगड़म' पर और काम किया जाना जरूरी था। वर्षों तक इस पर सोचते रहने के बाद संपूर्ण 'आबोल ताबोल' का अनुवाद अब पाठकों के सामने आ रहा है। सुधी पाठक आंचलिक से लेकर व्यापक स्तर तक हर तरह के शब्द, मिजाज़ और अंदाज़--बयाँ का लुत्फ उठा पाएँगे, ऐसा हमारा विश्वास है।
अनुवाद पर काम करते हुए कई साथियों से हम बातचीत करते रहे और शब्दों के सही अर्थों को जानने में उनकी मदद लेते रहे। मेरे वरिष्ठ वैज्ञानिक साथी अभिजित मित्रा को हमने जब तब फोन कर तंग किया और उन्होंने हमेशा पूरी गंभीरता के साथ हमारे सवालों का जवाब दिया। भौतिक शास्त्री अशोक चैटर्जी ने एक कविता का अपने ढंग से अनुवाद कर हमें अपना काम और बेहतर करने में मदद की। इन सभी साथियों को हमारा धन्यवाद। 

                                                                                     - अनुवादक द्वय
                                                                                      हैदराबाद, 2011

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Monday, August 30, 2010

टिक्की बढ़िया गंजा बढ़िया

‘Great spirits have always encountered opposition from mediocre minds. The mediocre mind is incapable of understanding the man who refuses to bow blindly to conventional prejudices and chooses instead to express his opinions courageously and honestly.’ -ऐल्बर्ट आइन्स्टाइन (बर्ट्रेंड रसेल के पक्ष में ब्यान देते हुए)

बढ़िया रे बढ़िया
दादा!  दूर तक सोच-सोच देखा -
इस दुनिया का सकल बढ़िया,
असल बढ़िया नकल बढ़िया,
सस्ता बढ़िया दामी बढ़िया,
तुम भी बढ़िया, हम भी बढ़िया,
यहाँ गीत का छंद है बढ़िया
यहाँ फूल की गंध है बढ़िया,
मेघ भरा आकाश है बढ़िया,
लहराती बतास है बढ़िया,
गर्मी बढ़िया बरखा बढ़िया,
काला बढ़िया उजला बढ़िया,
पुलाव बढ़िया कोरमा बढ़िया,
परवल माछ का दोलमा बढ़िया,
कच्चा बढ़िया पक्का बढ़िया,
सीधा बढ़िया बाँका बढ़िया,
ढोल बढ़िया घंटा बढ़िया,
चोटी बढ़िया गंजा बढ़िया,
ठेला गाड़ी ठेलते बढ़िया,
ताजी पूड़ी बेलना बढ़िया,
ताईं ताईं तुक सुनना बढ़िया,
सेमल रुई धुनना बढ़िया,
ठंडे जल में नहाना बढ़िया,
पर सबसे यह खाना बढ़िया - 
पावरोटी और गुड़ शक्कर।
(सुकुमार राय - आबोल ताबोल)

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Monday, December 28, 2009

तीन महीने की जेल और सात दिनों की फाँसी

मैं चाहता था कि साथ साथ सुकुमार राय के बनाए स्केच भी पोस्ट करता जाऊँ। पहली किस्त में बिल्ले का स्केच उन्हीं का बनाया है। चलो, स्केच के साथ फिर कभी।

पिछली किस्त से आगेः


... "धर्मावतार हुजूर! यह मानहानि का मुकदमा है। इसलिए पहले यह समझना होगा कि मान किसे कहते हैं। अरबी जाति की जड़ वाली सब्जियों को मान कहते हैं। अरबी बड़ी पौष्टिक चीज है। कई प्रकार की अरबी होती है, देशी अरबी, विदेशी अरबी, जंगली अरबी, पानी की अरबी इत्यादि।
अरबी के पौधे की जड़ ही तो अरबी है, इसलिए हमें इस विषय की जड़ तक जाना चाहिए।"

इतना कहते ही एक सियार जिसके सिर पर नकली वालों की एक टोपी सी थी, झट से कूद कर बोला, "हुजूर, अरबी बड़ी बेकार चीज है। अरबी खाकर गले में खुजली होती है। "जा, जली अरबी खा" कहने पर लोग बिगड़ जाते
हैं। अरबी खाते कौन हैं? अरबी खाते हैं सूअर और साही। आऽ.. थूः" साही फिर फूँफूँत फूँत कर रोने ही वाला था, पर मगर ने उस बड़ी किताब से उसके सिर पर मारा और पूछा, "कागज़ात दलील, साक्षी सबूत कुछ हैं?" साही ने सिरमुँड़े की ओर देखकर कहा, "उसके हाथ में सभी कागज़ात हैं न।" कहते ही मगर ने सिरमुँड़े से बहुत से कागज़ छीनकर अचानक बीच से पढ़ना शुरू किया -

एक के ऊपर दूई
चंपा गुलाब जूही
सन से बुनी भुँई

खटिए पे सोई
हिल्सा रोहू गिरई
गोबर पानी धोई

बाँध पोटली थोथी
पालक सरसो मेथी
रोता क्यों रे तू भी।

साही बोला, "अरे यह क्यों पढ़ रहे हो? यह थोड़े ही है।" मगर बोला, "अच्छा? ठहरो।" यह कह कर वह फिर एक कागज लेकर पढ़ने लगा।

चाँदनी रात को भूतनी बुआ सहिजन तले ढूँढ न रे -
तोड़ खोपड़ी भुक्खड़ चौकड़ी हड्डी चकाचक भोज चखे।
आँवले पे टँगी, माहवर से रँगी, नाक लटकाई पिशाचिनी
बालियाँ लहराती, बोले हड़काती, मुँझे क्यों न न्यौंतां नीं!
मुंड माला, गले में डाले, बाल फैलाए, उल्टी झूले बुढ़िया
कहे दोलती, सब सालों का मांस खाऊँगी, स्वाद बड़ा है बढ़िया।

साही बोला, "धत् तेरे की! पता नहीं क्या पढ़ते जा रहा है!"

मगर बोला, "तो फिर क्या पढूँ - यह वाला? दही का दंगल, खट्टा-मीठा मंगल, चादर कंबल, ले इतना बल, बुद्धू भोंदल – यह भी नहीं?"

अच्छा तो ठहरो देखता हूँ - घनी अँधेरी राती में, जा सोई बरसाती में, बार बार भूख क्यों लागे रे? - क्या कहा? यह सब नहीं? कविता तुम्हारी बीबी के नाम है? - तो यह बा ततो पहले ही बतला सकते थे। अरे मिल गई – रामभजन की बीबी, पक्की शेर की दीदी! बर्त्तन रखे झनार् झन, कपड़े धोए धमाधम! - यह भी ठीक नहीं? तो फिर ज़रुर यह वाली है -
खः खः खाँसी, उफ् उफ् ताप, फुस्स फुस्स छेद, बुढ़वा जा खेत। दाढ़ों में दर्द, पसलियों का मर्ज, बुढ़ऊ आज रात, जा रहा स्वर्ग। साही जोर जोर से रोने लगा, "हाय, हाय! मेरे सारे पैसे लुट गए! कहाँ से आया यह अहमक वकील, कागज़ात दिए भी तो खोज नहीं पाता।"

सिरमुँड़ा अब तक सिमटा सा बैठा था, अचानक वह बोल उठा, "क्या सुनन चाहते हो? वह जो - चमगादड़ कहे - सुन भई साही - वह वाला?"

साही ने तुरंत परेशान सा होकर कहा, "चमगादड़ क्या कहता है? हुजूर, ऐसा है तो चमगादड़कृष्ण को गवाह मानने का आदेश करें।"

भेक मेढक ने गालों को फुलाकर गला फाड़ कर आवाज दी - "चमगादड़कृष्ण हाजिर?"

सबने इधर उधर झाँककर देखा। चमागादड़ कहीं न था। तब सियार ने कहा, "तो फिर हुजूर, इन सब को फाँसी का दंड दें।"

मगर ने कहा, "ऐसा क्यों? अभी तो हम अपील कर सकते हैं।"

उल्लू ने आँखें मींचे कहा, "अपील पेश हो। गवाह लाओ।"

मगर ने इधर उधर झाँक कर अंट संट वंट से पूछा, "गवाही देगा? चार आने मिलेंगे।" पैसों का नाम लेते ही अंट संट वंट झट से गवाही देने के लिए उठा और फिर खी खी कर हँस उठा।

सियार बोला, "हँस क्यों रहे हो?"

अंट संट वंट बोला, एक आदमी को सिखाया गया था कि गवाही में कहना, पुस्तक पर हरे रंग की जिल्द है, कान के पास चमड़ा नीले रंग का और सिर के ऊपर लाल स्याही की छाप है। वकील ने जैसे ही उससे पूछा, "तुम असामी को जानते हो?" तुरंत वह बोल उठा, "अरे हाँ हाँ, हरे रंग की जिल्द, कान के पास नीला चमड़ा, सिर पर लाल स्याही की छाप" – हो हो हो हो ---।"

सियार ने पूछा, "तुम साही को पहचानते हो?"

अंट संट वंट बोला, "हाँ, साही पहचानता हूँ, मगर पहचानता हूँ, सब पहचानता हूँ। साही गड्ढे में रहता है, उसके शरीर पर लंबे लंबे काँटे हैं और मगर के शरीर पर टीले जैसे धब्बे हैं, वे बकरी वकरी पकड़ के खाते हैं।" ऐसा कहते ही व्याकरण सिंह व्या व्या चीखते हुए जोरों से रो पड़ा।

मैं बोली, "अब क्या हो गया?"

बकरा बोला, "मेरे मँझले मामा का आधा एक मगर खा गया था, उसलिए बाकी आधा मर गया।"

मैं बोली, "गया तो गया, बला टली। तुम अब चुप रहो।"

सियार ने पूछा, "तुम मुकदमे के बारे में कुछ जानते हो।"

अंट संट वंट बोला, "मालूम कैसे नहीं? कोई एक शिकायत करता है, तो उसका एक वकील होता है और एक आदमी को आसाम से लाया जाता है, उसे कहते हैं असामी। उसका भी एक वकील होता है। हर दिन दस गवाह बुलाए जाते हैं। और एक जज होता है, जो बैठे बैठे सोता है।"

उल्लू बोला, "मैं बिल्कुल सो नहीं रहा, मेरी आँखें ठीक नहीं हैं, उसलिए आँखें भींचे हुए हूँ।"

अंट संट वंट बोला, "और भी कई जज देखे हैं, उन सब की आँखों में खराबी होती थी।" कह कर वह खी खी कर जोर से हँसने लगा।

सियार बोला, "अब क्या हो गया?"

अंट संट वंट बोला, "एक आदमी के दिमाग में गड़बड़ी थी। वह हर चीज के लिए एक नाम ढूँढता रहता। एसके जूते का नाम था अविमृष्यकारिता, उसकी छतरी का नाम था प्रत्युत्पन्नमतित्व, उसके लोटे का नाम था परमकल्याणवरषु - पर जैसे ही उसने अपने घर का नाम रखा किंकर्त्तव्यविमूढ़ - बस एक भूकंप आया और घर वर सब गिर पड़ा। हो हो हो हो - ।"

सियार बोला, "अच्छा? क्या नाम है तुम्हारा?"

वह बोला, "अभी मेरा नाम है अंट संट वंट। "

सियार बोला, "नाम के अभी तक का क्या मतलब?"

अंट संट वंट बोला, "यह भी नहीं जानते? सुबह मेरा नाम होता है आलूखोपरा। और जरा सी शाम हो जाए तो मेरा नाम हो जाएगा रामताडू।"

सियार बोला, "रिहाइश कहाँ की है?"

अंट संट वंट बोला, "किसकी बात पूछी? रईस की? रईस गाँव चला गया है।" तुरंत भीड़ में से उधवा व बुधवा एक साथ चिल्ला उठे, "ओ, तब तो रईस ज़रुर मर गया होगा।"

उधवा बोला, "गाँव जाते ही लोग हुस हुस कर मर जाते हैं।"

बुधवा बोला, "हाबूल का चाचा जैसे ही गाँव गया, पता चला कि वह मर गया।"

सियार बोला, "आः, सब एक साथ मत बोलो, बड़ा शोर मचता है।"

यह सुनकर उधवा ने से कहा, "फिर सब एक साथ बोलेगा तो तुझे मार मार कर खत्म कर दूँगा।" बुधवा बोला, "फिर शोर मचाया तो तुझे पकड़ कर पोटली-पिटा बना दूँगा।"

सियार बोला, "हुजूर, ये सब पागल और अहमक हैं, इनकी गवाही की कोई कीमत नहीं है।"

यह सुनकर मगर ने गुस्से से पूँछ का थपेड़ा मारा और कहा, "किसने कहा कि कीमत नहीं है। बाकायदा चार आने खर्च कर गवाही दिलवाई जा रही है।" ऐसा कहते ही उसने ठक ठक कर सोलहा पैसे गिनकर अंट संट वंट के हाथ थमाए।

तुरंत किसी ने ऊपर से कहा, "गवाही नंबर १, नकद हिसाब, कीमत चार आने।"

सियार ने पूछा, "तुम इस विषय पर कुछ और जानते हो?"

अंट संट वंट ने जरा सोचकर कहा, "सियार के बारे में एक गाना है, वह जानता हूँ।"

सियार बोला, "कौन सा गाना, सुनाओ जरा?

अंट संट वंट सुर में गाने लगा, "आ जा, आ जा, सियार बैगन खा जा, नमक तेल कहाँ बता जा।"

इतना कहते ही सियार ने परेशान होकर कहा, "बस, बस, वह किसी और सियार की बात थी, तुम्हारी गवाही खत्म हो गई है।"

इसी बीच जब लोगों ने देखा कि गवाही के लिए पैसे मिल रहे हैं तो गवाही देने के लिए धक्कम धुक्कम मच गई। सब एक दूसरे को धकेल रहे हैं, तभी मैंने देखा कि कौव्वेश्वर ने धम् से पेड़ से उतरकर गवाही के मंच पर बैठ गवाही देनी शुरु कर दी। कोई कुछ कहे - इसके पहले ही उसने कहना शुरु किया, "श्री श्री भूशंडिकौवाय नमः, श्री कौव्वेश्वर कलूटाराम, ४१, झाड़मबाजार, कौवापट्टी। हम हिसाबी बेहिसाबी खुदरा थोक हर प्रकार की गणना का काम -।"

सियार बोला, "बेकार बकवास मत करो। जो पूछूँ उसका जवाब दो। क्या नाम है तुम्हारा?"

कौवा बोला, "अरे क्या परेशानी है! वही तो बतला रहा था मैं - श्री कौव्वेश्वर कलूटाराम।"

सियार बोला, "रिहायश कहाँ की है?"

कौवा बोला, "बतलाया कौवापट्टी।"

सियार बोला, "यहाँ से कितनी दूर है?"

कौवा बोला, "यह बतलाना बड़ा मुश्किल है। प्रति घंटे चार आने, प्रति मील दस पैसे, नकद दो तो दो पैसे कम। जोड़ोगे तो दस आने, घटाओ तो तीन आने, भाग लगाओ तो सात पैसे, गुणा करो तो इक्कीस रुपए।"

सियार बोला, "बस, बस, हमें अपना ज्ञान मत दिखलाओ। मैं पूछता हूँ, घर जाने की राह पहचान सकते हो?”

कौवा बोला, "बिल्कुल पहचानता हूँ जी! यही तो सीधी राह जाती है।"

सियार बोला, "यह राह कितनी दूर जाती है?"

कौवा बोला, "राह कहाँ जाएगी? जहाँ की राह, वहीं जाएगी। राह क्या इधर उधर चरने जाएगी? या हवा खाने दार्जिलिंग जाएगी?"

सियार बोला, "तुम तो बड़े बेअदब हो! अजी, गवाही देने आए हो, इस मुकदमे के बारे में कुछ जानते भी हो?"

कौवा बोला, "वाह, भई वाह! अब तक बैठ कर हिसाब किसने निकाला? जो कुछ जानना चाहो मुझ से जान लो। जैसे किसी भी राशि के मान का क्या मतलब है? मान मतलब कचौड़ी, कचौड़ी चार तरह की होती है - हींग, कचौड़ी, खस्ता कचौड़ी, कचौड़ी नमकीन व जीभकुरकुरी। खाने पर क्या होता है? खाने पर सियारों के गले में खुजली होती है, पर कौवों को नहीं होती। फिर एक गवाह था, नकद कीमत चार आने, वह आसाम में रहता था, उसके कान का चमड़ा नीला हो गया - उसे कहते थे कालाजार। उसके बाद एक आदमी था, हर किसी का नाम ढूँढता रहता - सियार को कहता तेलचोर, मगर को अष्टावक्र, उल्लू को विभीषण - " इतना कहते ही सभा में बड़ा शोर मच गया। मगर ने गुस्से में आकर भेक मेढक को खा लिया - यह देख छुछुंदर किच किच करता जोर से चिल्लाने लगा, सियार एक छतरी लेकर हुस हुस की आवाज में कौव्वेश्वर को भगाने लगा।

उल्लू ने गंभीरता से कहा, "सब चुप रहो, मुझे इस मुकदमे की राय देनी है।" यह कह कर उसने कान पर कलम लटकाए खरगोश को हुल्म दिया, "जो कह रहा हूँ लिख लो। मानहानि का मुकदमा, चौबीस नंबर, फरियादी -साही। असामी - ठहरो। असामी कहाँ है?" तब सबने कहा, "रे मारा, असामी तो कोई है ही नहीं।" जल्दी से समझा बुझा कर किसी तरह सिरमुँड़े को असामी बनाया गया। सिरमुँड़ा था मूर्ख, उसने समझा असामी को भी शायद पैसे मिलें, इसलिए उसने कोई विरोध नहीं किया।

हुक्म हुआ – सिरमुँड़े को तीन महीने की जेल और सात दिनों की फाँसी। मैं सोच रही थी कि ऐसे अन्यायपूर्ण निर्णय का विरोध करना चाहिए, इसी बीच अचानक बकरे ने "व्या-करण सिंह" कह कर पीछे से दौड़कर आकर मुझे सींग मारा, उसके बाद मेरा कान काट लिया। तभी लगा चारों ओर सब कुछ धुँधला सा हो गया। तब जरा ध्यान से देखा, मँझले मामा कान पकड़ कर कह रहे हैं, " व्याकरण सीखने का कह कर लेटे लेटे सो पड़ी?"

मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ! पहले सोचा कि अब तक शायद सपना देख रही थी। पर तुम यकीन न करोगे, अपना रुमाल ढूँढने लगी तो पाया कि रुमाल कहीं भी नहीं था और एक बिल्ला बाड़े पर बैठा मूँछों पर ताव दे रहा था। अचानक मुझे देखते ही खच खच आवाज करता भागा। और बिल्कुल तभी बगीचे के पीछे से एक बकरा व्या स्वर में चिल्ला उठा।

मैंने बड़े मामा को यह सब बतलाया। पर बड़े मामा ने कहा, "जा भाग, बेकार सब सपने देखकर यहाँ गप मारने आई है।" इंसान की उम्र होने पर वह ऐसा हठी हो जाता है कि किसी भी बात पर यकीन नहीं करना चाहता। तुम्हारी तो अभी इतनी उम्र नहीं हुई – इसलिए तुम पर भरोसा है - तभी तुम्हें ये बातें सुनाईं।
(समाप्त)

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Sunday, December 27, 2009

प्यारे बच्चों और मित्र अंट संट वंट

पता चला कि शिबू सोरेन ने कुछ नक्सलपंथी उम्मीदवारों की सफलता के सिर पर 18 सीटें जीत लीं। अब भाजपा की मदद से सरकार बनेगी। उधर झाड़खंड राज्य की सीमा की दूसरी ओर माओवादियों और तृणमूल कांग्रेस का साथ है। यह भी सुना कि सी पी एम के गुंडे अब लाल रंग छोड़ कर ममता के प्रेम में बमबाजी कर रहे हैं। हमलोग जो वनवासियों के खिलाफ सरकार की अन्यायपूर्ण जंग के खिलाफ हैं, हमें कई लोग माओवादियों का समर्थक ही मानते हैं। हम माओ द्ज़े दोंग को बीसवीं सदी के महानतम व्यक्तित्वों में से एक मानते भी हैं। पर इस वक्त समझना मुश्किल होता जा रहा है कौन किस तरफ है और कौन किस तरफ नहीं; सब कुछ ह य व र ल ही है। इस बीच सरकार की और समझौतापरस्तों की मार से पिट मर रहे हैं लोग।

तो पिछली किस्त से आगेः


...उस पशु ने कहा, "क्यों हँस रहा था सुनोगी? मान लो धरती अगर चपटी होती और सारा पानी फैल कर ज़मीं पर आ जाता और ज़मीन की मिट्टी सब घुल कर चप चप कीचड़ हो जाती और लोग सभी उसमें धपा धप फिसल फिसल गिरते रहते तो....., हो, हो, हा, हा - "

इतना कह कर फिर हँसते हँसते गिर पड़ा।

मैं बोली, "अजीब बात है! इसी बात पर तुम ऐसी भयंकर हँसी हँस रहे हो?"

उसने फिर हँसी रोक कर कहा, "नहीं, नहीं, केवल इसी बात पर नहीं। मान लो एक आदमी आ रहा है, उसके हाथ में कुल्फी बर्फ है और एक हाथ में मिट्टी। और वह आदमी कुल्फी की जगह मिट्टी खा बैठा - हो, हो, हा, हा, हो, हो, हा, हा -" फिर हँसी शुरु।

मैं बोली, "तुम ऐसी असंभव बातें सोचकर क्यों ख़ामख़ाह हँस हँस कर तड़प रहे हो?"

वह बोला, "नहीं, नहीं, हर बात असंभव थोड़े ही है? मान लो एक आदमी छिपकलियाँ पालता है, रोज उन्हें नहा खिला कर सुखाता है, एक दिन एक दढ़ियल बकरा आ कर सभी छिपकलियों को खा गया - हो, हो, हो, हो - "

इस जानवर की आदतें देख कर मुझे बड़ा अचंभा हुआ। मैंने पूछा, "तुम कौन हो? तुम्हारा नाम क्या है?"

उसने थोड़ी देर सोच कर कहा, "मेरा नाम है अंट संट वंट। मेरा नाम अंट संट वंट, मेरे भाई का नाम अंट संट वंट, मेरे पिता का नाम अंट संट वंट, मेरे फूफे का नाम अंट संट वंट - "

मैं बोली, "इससे तो सीधे ही कह दो कि तुम्हारे वंश में सभी का नाम अंट संट वंट है।"

फिर उसने थोड़ा सोच कर कहा, "ऐसा तो नहीं है, मेरा नाम तकाई है, मेरे मामा का नाम तकाई है, मेरे मौसे का नाम तकाई है, मेरे ससुर का नाम तकाई है.........."

मैंने डाँटकर कहा, "सच कहते हो? या बना रहे हो?"

वह जानवर जरा हड़बड़ा कर बोला, "न, न! मेरे ससुर का नाम बिस्कुट है।"

मुझे बड़ा गुस्सा आया, चीख कर बोली, "मुझे एक भी बात पर यकीन नहीं।"

तभी न कोई बात न तुक, झाड़ी के पीछे से एक बहुत बड़ा दढ़ियल बकरा झाँकते हुए पूछ उठा, "मेरी बात हो रही है क्या?"

मैं कहने ही वाली थी, "नहीं," पर कुछ कहने के पहले ही वह तड़ातड़ बोलने लगा, "तुम लोग जितना भी झगड़ो, ऐसी बहुत सी चीजें हैं, जो बकरे नहीं खाते। इसलिए मैं एक भाषण देना चाहता हूँ, जिसका विषय है - छागल क्या न खाए।"
यह कह कर वह अचानक मेरे सामने आकर भाषण देने लगा -

"प्यारे बच्चों और मित्र अंट संट वंट, मेरे गले से लटके सर्टीफिकेट से तुम समझ ही सकते हो कि मेरा नाम श्री श्री व्याकरण सिंह बी. ए. भोजनविशारद् है। मैं बहुत बढ़िया व्या व्या की आवाज करता हूँ। उसलिए मेरा नाम व्याकरण है और सींग लगे तो देख ही रहे हो। अंग्रेज़ी में लिखता हूँ B.A. यानी ब्यै। कौन कौन सी चीजें खाई जाती हैं, और कौन कौन सी खाई नहीं जातीं; यह सब मैंने खुद परीक्षण कर देखा है, इसलिए मुझे खाद्य विशारद की उपाधि मिली है। तुम लोग कहते हो - पागल क्या न बोले और छागल क्या न खाए – यह बहुत ही गलत बात है। अरे अभी थोड़ी देर पहले इस फिटे मुँह ने कहा था कि दढ़ियल बकरा छिपकली खाता है। यह पूरी तरह से बिल्कुल झूठी बात है। मैंने कई प्रकार की छिपकलियाँ चाटी हैं, उनमें खाने लायक कुछ नहीं है। हाँ, यह ज़रुर है कि कभी कभी हम ऐसी कई चीजें खाते हैं, जो तुम लोग नहीं खाते, जैसे, खाने की चीजों का लिफाफा या खोपरे के रेशे, या अखबार या "चकमक" जैसी बढ़िया पत्रिका। पर इसका मतलब यह नहीं कि कोई दुरुस्त बाइंड की हुई किताब हम खाएँ। भूले-भटके कभी हम कोई रजाई-कंबल या गद्दा-तकिया जैसी चीज थोड़ा बहुत खा लेते हैं, पर जो लोग कहते हैं कि हम खटिया, पलंग या टेबल चेयर भी खाते हैं, वे बड़े झूठ बोलने वाले हैं। जब हमारे मन में खूब उमंग आती है, तब कई प्रकार की चीजें हम शौक से चबाकर या चख कर देखते हैं, जैसे पेंसिल, रबर या बोतल के ढक्कन या सूखे जूते या मोटे कपड़े का थैला। सुना है कि मेरे दादाजी ने एक बार उत्साह में भरपूर हो कर एक अंग्रेज़ के तंबू का कोई आधा हिस्सा खाकर खत्म कर दिया था। पर भई, छुरी कैंची या शीशी बोतल, ऐसी चीजें हम कभी नहीं खाते। कोई कोई साबुन खाना पसंद करता है, पर वे तो बिल्कुल छोटी मोटी साबुनें हैं। मेरे छोटे भाई ने एकबार एक पूरी बार सोप खा ली थी - " कहकर व्याकरण सिंह आस्मान की ओर आँखें किए व्या व्या की आवाज में ज़बर्दस्त रोने लगा। इससे मैं समझ गई कि साबुन खाकर उस भाई की समय से पहले ही मौत हो गई होगी।

अंट संट वंट अब तक लेटा लेटा सोया हुआ था, अचानक बकरे की विकट रोने की आवाज सुन वह हाँऊ माँऊ कहता धड़धड़ाकर उठ पड़ा और बुरी तरह हाँफने लगा। मैंने समझा कि इस बेवकूफ की तो अब मौत ही हो गई! पर थोड़ी देर बाद वह उसी तरह हाथ पैर उछालता खिक् खिक् कर हँस रहा है।

मैं बोली, "इसमें हँसने की क्या बात हुई?"

वह बोला, "अरे, एक आदमी जो था, वह कभी कभी ऐसे भयंकर खुर्राटे मारता कि सभी उस पर बिगड़े रहते! एक दिन उसके घर बिजली गिरी और सब जाकर उसे धमाधम पीटने लगे - हो हो हो हो - " मैं बोली, "क्या फालतू बातें करते हो?" यह कह कर जैसे ही लौटने लगी, झाँक कर देखा कि एक सिरमुँड़ा नौटंकी के किसी चरित्र सा शेरवानी और पाजामा पहने हँसती हुई शक्ल बनाए मेरी ओर देख रहा है। उसे देखते ही मेरे बदन में आग सी लग गई। मुझे वहाँ से आँखें हटाते देख कर उसने बड़े प्यार दुलार से गर्दन टेढ़ी कर दोनों हाथों को हिलाकर कहना शुरु किया, "नहीं भाई, नईं भई, अभी मुझे गाने को मत कहना। सच कहता हूँ, आज मेरा गला इतना साफ नहीं है।"

मैं बोली, "अच्छी मुसीबत है! तुम्हें गाने को कहा ही किसने है?"

वह आदमी ऐसा बेहया निकला, मेरे कानों के सामने भुनभुनाने लगा, "गुस्सा आ गया, हाँ भई, गुस्सा क्यों करती हो? अच्छा कोई बात नहीं, कुछ गीत सुना ही देता हूँ, गुस्से की क्या ज़रुरत है भई?"

मेरे कुछ कहने के पहले ही वह बकरा और अंट संट वंट एक साथ चिला उठे, "हाँ, हाँ, गाना हो, गाना हो," तुरमत उस सिरमुँड़े ने जेब से लंबे गानों की दो पट्टियाँ निकालीं, उन्हें आँखों के पास रखा और गुनगुनाते हुए अचानक पतली आवाज में चीखकर गाना शुरु किया - "लाल गीत में नीला सुर, मीठी मीठी गंध"

इसी एक पंक्ति को उसने एकबार गाया, दो बार गाया, पाँच बार गाया। दस बार गाया।

मैं बोली, "अरे, यह तो बड़ा बवेला मचा दिया, गीत में क्या और कोई पंक्ति नहीं है?"

मुंड़े सिर ने कहा, "हाँ, है, पर वह एक और गीत है। वह है - "अली गली चले राम, फुटपाथ पे धूमधाम, स्याही से चूने का काम।" यह गीत मैं आजकल नहीं गाता। एक और गाना है - नैनीताल के नए आलू - वह बहुत ही महीन आवाज में गाया जाता है। वह भी मैं आजकल नहीं गा सकता। आजकल मैं जो गीत गाता हूँ, वह है शिखिपाँख का गीत। इतना कहकर वह गाने लगा।

मिशिपाँख शिखिपाँख आस्माँ के कानों में
ढक्कन लगी शीशी बोतल पतले से गानों में
शमा भूले टेढ़ी लौ दो दो कदम कित्ती दूर
मोटा पतला सादा काला छलछलक छाया सूर

मैं बोली, "यह भी कोई गीत हुआ?" इसका तो सिर पैर कुछ नहीं है।"

अंट संट वंट बोला, "हाँ, यह गीत बड़ा कठिन है।"

बकरा बोला, "कठिन क्या है? बस जो शीशी बोतल वाली बात थी, वह सख्त लगी, इसके अलावा तो कुछ कठिन नहीं था।"

सिरमुँड़े ने मुँह फैलाकर कहा, "अगर तुमलोग आसान गीत सुनना चाहते थे, तो ऐसा कह ही सकते थे। इतनी बातें सुनाने की क्या ज़रुरत है? मैं क्या सहज गीत नहीं गा सकता क्या?" यह कह कर उसने गाना शुरु किया।

कहे चमगादड़, अरे ओ भाई साही
आज रात को देखोगे एक मजाही

मैं बोली, "मजाही कोई शब्द नहीं होता।"

मुँड़ासिर बोला, "क्यों नहीं होगा - ज़रुर होता है। साही, सिपाही, कड़ाही सब हो सकते हैं, मजाही क्यों नहीं हो सकता?"

बकरा बोला, "अरे तुम गाना तो चालू रखो - क्या होता है या नहीं होता है, यह सब बाद में देखा जाएगा।"

बस वह गीत शुरु हो गया -
कहे चमगादड़, अरे ओ भाई साही
आज रात को देखोगे एक मजाही
आज यहाँ चमगादड़ उल्लू सारे
सब मिल आएँगे, चूहे मरेंगे बेचारे
मेंढक और बेंगची काँपेंगे डर से
फूटेंगी उनकी घुमौड़ियाँ पसीने भर से
दौड़ेगा छुछुंदर, लग जाएगी दंतकड़ी
फिर देखना छिंबो छिंगा चपलड़ी

मैं फिर रोकने जा रही थी, पर सँभल गई। गीत चलता रहा,

साही बोला, अरे झाड़ी में अभी
मेरी बीबी सोने गई, देखो तो सभी
सुन लो अरे ओ उल्लू - उल्लूआनी
शोर से 'गर टूटी उसकी नींद सुहानी
चूर मचूर कर दूँगा मैं खुरच खुरचा कर
यह बात तुम्हीं उन्हें कहना समझाकर

कहे चमगादड़, उल्लू के घर परिवार
कोई क्यों माने तुम्हारी दादा हुँकार
है कोई सोता जब रात हो अँधेरी?
बीबी है तुम्हारी पगली और नशेड़ी
भैया तुम भी हो चले आजकल झक्की
चाट चाट चिमनी, शक्ल काली चक्की

गाना अभी और भी चलता या नहीं मालूम, पर इतना पूरा होते ही शोरगुल सा मच गया। देखती क्या हूँ कि आसपास चारों ओर भीड़ जमा हो गई है। एक साही आगे बैठकर फूँ फूँ कर रो रहा है और नकली बालों की टोपी सी पहने एक मगरमच्छ बहुत बड़ी एक किताब से धीरे धीरे उसकी पीठ पर थपथपी दे रहा है और फिसफिसा कर कह रहा है, "रोना मत, रोना मत, सब ठीक कर दे रहा हूँ। " अचानक तमगा लगाए, पगड़ी पहना, हाथ में एक स्केल लिए एक भेक मेढक बोल उठा, "मानहानि का मुकदमा होगा।"

तभी कहीं से काला चोगा पहना एक हूट हूट उल्लू आकर सबके सामने एक ऊँचे पत्थर पर बैठकर आँखें मींच झूमने लगा और एक बड़ा भारी छुछुंदर एक भद्दे गंदे पंखे से उसे हवा करने लगा।

उल्लू ने खोई खोई आँखों से एक बार चारों ओर देखा, फिर तुरंत आँखें मींचकर कहा, "शिकायत पेश करो।"

उसके इतना कहते ही मगर ने बड़ी तकलीफ से रुआँसा चेहरा बनाकर आँखों में नाखून डालकर खरोंच के पाँच छः बूँद पानी निकाला। उसके बाद जुखाम वाली मोटी आवाज में कहने लगा, "धर्मावतार हुजूर! यह मानहानि का मुकदमा है। इसलिए पहले यह समझना होगा कि मान किसे कहते हैं। अरबी जाति की जड़ वाली सब्जियों को मान कहते हैं। अरबी बड़ी पौष्टिक चीज है। कई प्रकार की अरबी होती है, देशी अरबी, विदेशी अरबी, जंगली अरबी, पानी की अरबी इत्यादि। अरबी के पौधे की जड़ ही तो अरबी है, इसलिए हमें इस विषय की जड़ तक जाना चाहिए।"

(आगे अगली किस्तों में)

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