कल मानव अधिकार दिवस है।
अपने पहले संग्रह 'एक झील थी बर्फ की' में से यह कविता -
***************************************************************
सारी दुनिया सूरज सोच सके
हर रोज जब सूरज उगता है
मैं खिड़की से मजदूरों को देखता हूँ
जो सड़क पार मकान बना रहे हैं
सूरज मेरी खिड़की पर सुबह सुबह नहीं आता
कल्पना करता हूँ कितना बढ़िया है सूरज
रात के अभिसार से थकी पृथ्वी को
आकाश हर रोज एक नया शिशु देता है
नंगी पृथ्वी
अँगड़ाई लेती
शरीर फैलाती है
उसकी शर्म रखने
अलसुबह उग आते
पेड़ पौधे, घास पात
पूरब जंघाएँ
प्रसव से लाल हो जाती हैं
ऐसा मैं सोचता हूँ
सूरज कल्पना कर
कभी कभी
मैंने मजदूरों की ओर से सोचने की कोशिश की है
मेरे जागने तक
टट्टी पानी कर चुके होते हैं
अपने काम में लग चुके होते हैं
एक एक कप चाय के सहारे
मैंने चाहा
वे सूरज को कोसें
शिकवा करें
क्यों वह रोज उग आता इतनी जल्दी
बार बार थक गया हूँ
अगर वे कभी सूरज सोच सकें
सूरज नहीं दुनिया सोचेंगे
षड़यंत्र करेंगे
सारी दुनिया सूरज सोच सके।
१९८८ (पहल -१९८९)
अपने पहले संग्रह 'एक झील थी बर्फ की' में से यह कविता -
***************************************************************
सारी दुनिया सूरज सोच सके
हर रोज जब सूरज उगता है
मैं खिड़की से मजदूरों को देखता हूँ
जो सड़क पार मकान बना रहे हैं
सूरज मेरी खिड़की पर सुबह सुबह नहीं आता
कल्पना करता हूँ कितना बढ़िया है सूरज
रात के अभिसार से थकी पृथ्वी को
आकाश हर रोज एक नया शिशु देता है
नंगी पृथ्वी
अँगड़ाई लेती
शरीर फैलाती है
उसकी शर्म रखने
अलसुबह उग आते
पेड़ पौधे, घास पात
पूरब जंघाएँ
प्रसव से लाल हो जाती हैं
ऐसा मैं सोचता हूँ
सूरज कल्पना कर
कभी कभी
मैंने मजदूरों की ओर से सोचने की कोशिश की है
मेरे जागने तक
टट्टी पानी कर चुके होते हैं
अपने काम में लग चुके होते हैं
एक एक कप चाय के सहारे
मैंने चाहा
वे सूरज को कोसें
शिकवा करें
क्यों वह रोज उग आता इतनी जल्दी
बार बार थक गया हूँ
अगर वे कभी सूरज सोच सकें
सूरज नहीं दुनिया सोचेंगे
षड़यंत्र करेंगे
सारी दुनिया सूरज सोच सके।
१९८८ (पहल -१९८९)
Comments
अब अंदाज़ बदला होगा, पर विश्वास कमोबेश वैसे ही हैं।
बाद में सूरज सोच सकने को लेकर जो लिखा, वह अगले चिट्ठे में।