Wednesday, September 22, 2010

जिन्होंने सुना नहीं उन्हें सुनना चाहिए

नया कुछ नहीं।
बहुत पुराना हो गया है।
पर एक युवा दोस्त ने यह लिंक भेजी तो एक बार फिर सुना। और लगा कि जिन्होंने सुना नहीं उन्हें सुनना चाहिए।
साईंनाथ।

Friday, September 10, 2010

लड़ांगे साथी

मैं वैसे तो गुस्से में और अवसाद ग्रस्त हो सकता हूँ, कि एक नासमझ गैर शिक्षक बाबू ने ऐडमिरल रामदास के भाषण पर नाराज़गी जताते हुए हमारे छात्रों में सांप्रदायिक विष फैलाने की कोशिश की है. और ऐसा करने में उसने साल भर पुरानी मीरा नंदा के भाषण की सूचना को उखाड़ निकला है, जिस सेमीनार का मेजबान मैं था.

पर यह हफ्ता पाश और विक्टर हारा के नाम जाना चाहिए.

पाश की यह कविता आज ही कुछ दोस्तों को सुना रहा था, बहुत बार सबने सुनी है, एक बार और पढ़ी जाए:

सबसे खतरनाक होता है

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
बैठे-बिठाए पकड़े जाना बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता
कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
जुगनुओं की लौ में पढ़ना
मुट्ठियां भींचकर बस वक्‍त निकाल लेना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता

सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
सबसे ख़तरनाक वो घड़ी होती है
आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो
आपकी नज़र में रुकी होती है

सबसे ख़तरनाक वो आंख होती है
जिसकी नज़र दुनिया को मोहब्‍बत से चूमना भूल जाती है
और जो एक घटिया दोहराव के क्रम में खो जाती है
सबसे ख़तरनाक वो गीत होता है
जो मरसिए की तरह पढ़ा जाता है
आतंकित लोगों के दरवाज़ों पर
गुंडों की तरह अकड़ता है
सबसे ख़तरनाक वो चांद होता है
जो हर हत्‍याकांड के बाद
वीरान हुए आंगन में चढ़ता है
लेकिन आपकी आंखों में
मिर्चों की तरह नहीं पड़ता

सबसे ख़तरनाक वो दिशा होती है
जिसमें आत्‍मा का सूरज डूब जाए
और जिसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके जिस्‍म के पूरब में चुभ जाए
मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती ।

-अवतार सिंह पाश

विक्टर हारा के एक गीत की भारतभूषण ने यह लिंक भेजी है।

पाश की याद में मैंने एक कविता लिखी थी, इतवारी पत्रिका में आयी थी। 'डायरी में तेईस अक्तूबर' संग्रह में शामिल है. इस वक़्त टेक्स्ट पास नहीं है। आखिरी पंक्ति में पाश को दुहराया था: असीं लड़ांगे साथी, असीं लड़ांगे साथी। आज भी यही कहना है।

Wednesday, September 08, 2010

हरदा हरदू हृदयनगर

हरदा के बारे में प्रोफ़ेसर श्यामसुंदर दूबे का कहना है कि यह नाम हरदू पेड़ से आया हो सकता है. हो सकता है कि कभी इस क्षेत्र में बहुत सारे हरदू पेड़ रहे हों. मैंने नेट पर शब्दकोष ढूँढा तो पाया:
हरदू, पुं० [देश०] एक प्रकार का बड़ा पेड़ जिसकी लकड़ी बहुत मजबूत और पीले रंग की होती है। इस लकड़ी से बंदूक के कुंदे, कंधियाँ और नावें बनती हैं।
इन दिनों कुछ लोग हरदा को हृदयनगर बनाने की धुन में लगे हैं.

मैं बड़े शहर का बदतमीज़ - हरदा से यह सोचते हुए लौटा कि मैंने तो उनको कुछ नहीं दिया पर वहां से दो शाल, दो नारियल, दो कमीज़ और दो पायजामे के कपड़े लेकर लौटा हूँ. प्रेमशंकर रघुवंशी जी ने अपनी पुस्तक और दो पत्रिकाएं थमाईं वो अलग.

चलो मजाक छोड़ें - हरदा में जो प्यार लोगों से मिला उससे तो वाकई उसे हृदयनगर कहने का मन करता है.
औपचारिक रूप से मैं स्वर्गीय एन पी चौबे के पुत्र गणेश चौबे द्वारा आयोजित शिक्षक सम्मान समारोह में बोलने गया था. युवा मित्र कवि धर्मेन्द्र पारे जिसने कोरकू जनजाति पर अद्भुत काम किया है, का आग्रह भी था. दो दिन किस तरह बीते पता ही नहीं चला. सोमवार को रात को हैदराबाद घर लौटा तो मन ही मन रो रहा था - लगा जैसे बहुत प्रिय जनों को छोड़ कर कहाँ आ भटका.

मैं हरदा इक्कीस साल बाद गया था. लोगों ने मुझे सर पर चढ़ा कर रखा. जिनको युवावस्था में देखा था सब बड़े हो गए हैं. काम धंधों में लगे हैं. एकलव्य का दफ्तर छोटा हो गया है और वहां शिक्षा में शोध के कार्य में अभी भी युवा साथी लगे हुए हैं. वहां जाकर एकबार फिर लगा कि यह देश बस इन समर्पित लोगों के बल पर चल रहा है. हजार दो हजार महीने की तनखाह पर काम कर रहे लोग. कल्पना से अधिक समर्पित अध्यापक. और मुल्क है कि कश्मीर को दबाने में दिन के सवा सौ करोड़ खर्च कर रहा है.

मेरा मन तो करता है कि इस पर पूरी किताब लिखूं. शायद कभी लिखूं. फिलहाल प्रेमशंकर रघुवंशी की एक कविता पेस्ट कर रहा हूँ.

सपनों में सतपुड़ा / प्रेमशंकर रघुवंशी


मुझको अब भी सपनों में सतपुड़ा बुलाता है।
सघन वनों, शिखरों से ऊँची टेर लगाता है।।

कहता है जब तुम आते थे, उत्सव लगता था
तुम्हें देख गौरव से मेरा, भाल चमकता था
उसका मेरा पिता-पुत्र-सा, गहरा नाता है।।

कभी नाम लेकर पुकारता, कभी इशारों से
कभी ढेर संदेश पठाता, मुखर कछारों से
मेरी पदचापें सुनने को, कान लगाता है।।

गुइयों के संग जब भी मैं, जंगल में जाता था
भर-भर दोने शहद, करोंदी, रेनी लाता था
आज वही इन उपहारों की, याद दिलाता है।।

एक बार तो सपने में वो, इतना रोया था
अपनी क्षत विक्षत हालत में, खोया-खोया था
वह सपना चाहे जब मेरा, दिल दहलाता है।।

भूखे मिले पहाड़ी झरने, मन भर आया है
बोले पर्वत और हमारी सूखी काया है
अब तो बनवारी ही वन का तन कटवाता है।।

प्रेमशंकर रघुवंशी बड़े कवि हैं. पर हरदा जैसे छोटे शहर में होने के कारण उनको वह जगह नहीं मिली है जो मिलनी चाहिए. इसी तरह गाँव के निर्गुण पद या कबीर गाने वाले लोगों को कौन जानता है. ये लोग वेबसाईट बना कर आपस में झगड़ नहीं सकते. शोभा नाम की दो महिलायें जो जीवन में संघर्ष का अद्भुत मिसाल हैं, उनके बारे में नेट में नहीं मिलेगा, ये वे लोग हैं जिन्होंने हिन्दुस्तान को ज़िंदा रखा है.

कभी तो मुझे रुकना ही पडेगा. ज्ञानेश ने जिस तरह मेरी देखभाल की उसके कई खामियाजे मुझे चुकाने हैं :-) . किसी वक़्त स्थानीय पत्रकार दीवान दीपक के लिए कुछ कटिंग एज वैज्ञानिक जानकारी हिन्दी में लिख कर भेजनी है. और गौशाला चलाने वाले अनूप जैन के दिए कपड़ों को कभी दरजी के पास ले जाना है. हरदा मेरे जेहन में बसा था और रहेगा, जल्दी इससे मुक्त नहीं हो पाऊंगा.
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आज भूतपूर्व नौ सेना प्रमुख ऐडमिरल रामदास हमारे संस्थान में काश्मीर पर बोलने आये. एकाधिक तमगों और उच्चतम राष्ट्रीय पुरस्कारों से आभूषित इस शांति योद्धा ने अपनी काश्मीर यात्रा के दौरान प्राप्त जानकारी के आधार पर आम नागरिकों पर हो रहे जुल्मों के बारे में जो बतलाया वह रोंगटे खड़े करने वाला था. झूठ पर अपना कारोबार चलाने वाली दक्षिण पंथी ब्रिगेड ने सवाल जवाब के दौरान खूब कोशिश की कि लोगों को बोलने ना दिया जाए, पर उनकी चली ख़ास नहीं. मुझे यह भी समझ में आया कि भारतीय अर्ध सैनिक बलों के पक्ष में सफाई देने वाले सफेद झूठ बोलने वाले हैं. पता तो पहले भी था, फिर भी मनुष्यता पर विश्वास करते हुए और लोकतांत्रिक सोच के दबाव में अक्सर इन पाखंडियों से बातचीत करने की गलती कर बैठता हूँ. भाषण के दौरान टोकते हुए पूछा गया एक निहायत ही बदतमीज़ सवाल यह था कि भूतपूर्व नौ सेना प्रमुख किस आधार पर कह रहे हैं कि पुलिस बैरक में वापिस चली जाये तो बाहरी दुश्मनों से कोई ख़तरा नहीं है. उनको बतलाना पड़ा कि वे चौवालीस साल से ऊपर सेना में काम कर चुके हैं और एकाधिक युद्ध लड़ चुके हैं.