Monday, September 16, 2019

फिलहाल सुबक लो


सब ठीक हो जाएगा

पानी साफ हो जाएगा
मसालों में मिलावट नहीं होगी
न घर न दफ्तर में तनाव होगा
रात होते ही चाँद आ गुफ्तगू करेगा
सब ठीक हो जाएगा

बसंत साथ घर में रहने लगेगा
गर्मी कभी भटकती-सी आकर मिल जाएगी
खिड़की के बाहर बारिश रुनझुन गाएगी
हमेशा गीत गाओगे जिनमें ताज़ा घास की महक होगी
बेवजह मुस्कराते हुए गले मिलोगे दरख्तों से
सब ठीक हो जाएगा
फिलहाल सुबक लो।      (वागर्थ - 2019)

Friday, September 13, 2019

अंधेरे के चर घर-घर आ बैठे हैं


रोशनी की हैसियत थी

बसंंत की आहट
शाम का अकेलापन
चारों ओर शहर।
पास एक स्टेडियम से आवाज़ें आ रही हैं
बाक़ी दिशाओं से ट्रैफिक का शोर। ऐ धरती
इस छंदहीनता से तुम बच नहीं पाओगी, यह
खेल खरबों साल पहले तय हो चुका है कि
इंसान होगा, शोर होगा, खोखला शहर होगा।
हर बेचैन छंद को तोड़ती शोर की लहरें
टकराती उमड़ती आती हैं
शोर के ज़बर से रोशनी काँपती है
खिड़कियाँ दरवाजे हर पल रहम माँगते हैं
किसी भी पल अब खत्म हो सकती हो ऐ धरती
अँधेरा का अंदेशा लोगों के ज़हन में घर कर गया है
याद आता है कि रोशनी की कभी कोई हैसियत थी
अब हर कुछ बिक चुका है
अंधेरे के चर घर-घर आ बैठे हैं
किसी भी पल अब खत्म हो सकती हो, ऐ धरती।   -(वागर्थ 2019)

Wednesday, September 11, 2019

इस तरह बारहा आज़ाद रहा

(पहला मुक्तक बच्चों की पत्रिका 'चकमक' के ताज़ा अंक में आया है ।)

इक चिड़िया देखी, उसे खयालों में रख लिया

देखा इक फूल तो सपनों में खूब देखता रहा

इस तरह मैं बारहा आज़ाद रहा

आस्मां में चिड़िया और बाग़ों में फूल देखता रहा।



इक बूँद टपकी कि अटकी मेरे जिस्म में कहीं

ऐसा लगा कि कोई जनम ले रहा है कहीं

इक चाँद मेरे कमरे की छत पर आ बसा है

रोशनी कतरा-कतरा ख्वाबों में झूल देखता रहा



चाँद ने चेहरा अपना देखा है जब से आईने में

यह गोल सा कौन है यूँ पूछा है अपने अक्स से

कि नीला-सा गोला जो दूर घूमता है उसके

सामने क्यूँ इतराऊँ, जमाने में उसूल देखता रहा।



मेरे रूह की आबोहवा बदली-बदली सी है

मुझमें कोई और जीता है कोई और मरता है

इक पिंजड़े में उल्टा लेटा हूँ गोया

क़ैद में महफूज़ सीने में चुभते हैं शूल देखता रहा।



परबतों का नील, समंदर की झाग और हवाओं की फरफर

हर किसी ने बेसबब लिया जो लिया

मेरी धरती को जलाने वाले मुझी में बसर करते हैं

आम के दरख्त पर बढ़ते साए में बबूल देखता रहा।

Tuesday, September 10, 2019

बुने गए इंकलाब और कभी पहने नहीं गए


लक्षणा व्यंजना का जुनून

लफ्ज़ लिखे गए
बूढ़े हो जाते हैं
सफल कवियों की संगत में पलते हैं सफल कवि
अकेला कहीं कोई मुगालते में लिखता रहता है

घुन हुक्काम-सी लफ्ज़ों को कुतर डालती है
जैसे बुने गए इंकलाब और कभी पहने नहीं गए
एक दिन सड़क पर फटेहाल घूमता है असफल कवि
एक फिल्म बनाकर सब को भेज देता है
कि इंकलाबी लफ्ज़ चौक पर
बुढ़ापे में काँपते थरथराते सुने गए

बरसों बाद कभी इन लफ्ज़ों को
एक सफल कवि माला सा सजाता है
और कुछ देर लक्षणा व्यंजना का जुनून
दूर तक फैल जाता है।             (वागर्थ - 2019)

Sunday, September 08, 2019

पल भर में मैं मैं न था


गोया हम ग़फलत में थे

समंंदर को जाना
जब तेरे जिस्म का खारापन लहरों सा मुझे समेट गया
मैं साँस ले रहा था
या दाँतों तले जीभ ढूँढ रहा था

समंदर कब टुकड़ों में बँटा
कब मैं किस नौका पर बैठा
मुझमें कौन से बच्चे रो रहे थे
मैं बहा जा रहा था
सारी कायनात में तू और मैं 

पल भर में मैं मैं न था
ग्रहों के दरमियान हमारी नौका थी
मैं खेता जा रहा था सूरज की ओर
जो तेरे अंदर धधक रहा था
मैं पिघल रहा था अविरल
दूर से आती थी सदियों पहले चली आवाज़
कि इस दिन तुझमें विलीन होना मेरा तय था

वह बाँसुरी की धुन थी
किस जन्म में किस नीहारिका के गर्भ से निकली
किस बाँस की नली के छेदों पर
किन उँगलियों के फिसलने से पैदा हुई
सपनों में यह सब जान रहा
तेरे सीने पर सिर टिकाए गहरी नींद में सोया मैं था

न तूने कुछ कहा
न मैंने कुछ कहा
गोया हम ग़फलत में थे कि मैं कौन और तू कौन
कौन सी आँख किसकी और कौन सी साँस किसकी
मुझमें खोया तू था और तुझमें खोया मैं था।
(वागर्थ - 2019)

Friday, September 06, 2019

अंजान आवाज़ों के पीछे दौड़ता


आखिर में ढाई आखर
अंजान आवाज़ों के पीछे दौड़ता रहा हूँ
एहसासों में गहरे गड़ता जा रहा हूँ
ज़हन में जीवाणुओं का उत्सव बरकरार है
कि जिसे संगीत मानकर चला हूँ
वह चारों ओर बमबारी का नाद है
कौन सा मुल्क है किस मुल्क से लड़ रहा
कौन शख्स किससे किस शहर या गाँव में
हवा बहती है तूफान सी
और पसीना सूखता ही नहीं है

देर तक ढूँढता हूँ सही लफ्ज़
जिस्म में कहीं खदबदाहट गुजरती है
एक-एक नाखून हो उठता है जीवंत
कहीं घंटियाँ बजती हैं
बच्चे रोते हैं कि किलकारियाँ हैं
बदन में कछ फुरफुराता है
अंग-अंग से शाख निकलती है
कुछ ढँका जाता कुछ उजागर होता है
आखिर में बचते हैं ढाई आखर
सिसकियों में खुद से कहता हूँ - प्रेम।     (वागर्थ - 2019)

Thursday, September 05, 2019

मुस्कुराने की वजह बची है


ईश्वर यही है

नौकर हो या मालिक हो
मछली हो या चिड़िया हो
तारा हो कि सपना हो
दस आयामी कायनात में
अणु-परमाणु-जीवाणु-बीजाणुओं की
तीन आयामी, चौथे आयाम में फिसलती हुई तस्वीर हो
यह कैसे हुआ कि हम एक दूसरे को देख मुस्कुराते नहीं
परस्पर शक्ल देखकर अंदाज़ लगाते हैं
कि कौन हो
जिस्मों में सारे सेंसर और ऐंटीना तैयार हैं
जरा सी ग़फलत पर उछल सकते हैं एक दूसरे पर
इल्ज़ाम लगा सकते हैं
कि दुश्मन हो

चलते हुए बड़ी सावधानी से परस्पर टकराने से बचते हैं
या कि टकरा कर परस्पर एहसासों में जानते हैं
कि मुस्कुराने की वजह बची है
जिसके लिए जिस्मानी टकराव ज़रूरी नहीं
बस इतना कि वक्त की हवाओं को
पल भर के लिए अंदर आने से रोक रखें
जानें कि दोस्त या दुश्मन
हम शून्य ही हैं
नाज़ुक धरती पर चल रहे
कायनात का लंबा सफर तय करते हुए

संयोग है कि हम दोनों टकरा सकते हैं
धरती पर एक वक्त एक जगह पर
यह जानने के लिए किसी ईश्वर की ज़रूरत नहीं है

ईश्वर यही है
हमारे जिस्म और हमारी करीबी।  (वागर्थ - 2019)

Monday, September 02, 2019

हम मोहब्बत पर कुर्बान हो गए


उन के साथ हुसैनीवाला सरहद पर

मैं उन के साथ हुसैनीवाला सरहद के नाके पर खड़ा था
पास उन तीनों की समाधियाँ हैं, जिनको साथ फाँसी पर चढ़ाया गया था
जहाँ वाघा सीमा से थोड़ा कम नाटकीय अंदाज़ में हिंद-पाक के झंडे उतारे जाते हैं। पूरब की ओर एक उदास शहर जिसे दशकों पहले कह दिया गया था कि वह सपने देखना बंद कर दे।
थोड़ी देर पहले घी में चुपड़ी रोटियाँ और तड़का लगाई दाल खाई थी। थालियाँ पास के नल में से बहते पानी से धो लीं और हम पास के दरख्तों की ओर देख रहे थे। नल बंद न कर पाने की तकलीफ हमारी नज़र को बीच-बीच में उस ओर कर देती थी।
वे बोले - पानी।
मैं चाहता था कि वह फिर बोलें पानी। चुप्पी में बह चुके वक्त का एहसास था। पानी साथ बहा ले गया है वक्त, उदासी के पहले के दिन, सपने।
पानी में बहता हिंदुस्तान। बहती ज़ुबानें। गीत-संगीत। हमारी नज़रें आपस में टकरा जातीं। वे हल्की-सी मुस्कान लिए मेरी ओर देखते।
पूछा - देश क्या है?
वह चुप। अमेरिका में ट्रंप खुद को देश कहता है, हिंदुस्तान में मोदी, रुस में पुतिन।
उन्होंने झुक कर पैरों के नीचे से थोड़ी सी धूल उठाई और हवा में उड़ा दी। उड़ती धूल पल भर में बिखर गई। हमने एक दूसरे की ओर देखा। मुस्कराए।
'धरती सबको अपने अंदर समा लेती है। कोई जलकर राख बनता है तो कोई पिघलकर। हमने यह बात बहुत पहले जान ली थी, धरती से हमें इश्क हो गया था। हमने उसे माँ कहा, माशूका कहा, बेटी कहा और हम मोहब्बत पर कुर्बान हो गए।'
मैं रो रहा था। अंदर कोई चीख रहा था - भगत सिंह, भगत सिंह, भगत सिंह।
'धरती इनसे बदला लेगी। नदियों को देखो, सारा मैल बहाकर ले जाती हैं। देखो हवा कैसे ज़हर बहा ले जाती है। इन नदियों की, इस हवा की सौगंध है, मैं फिर-फिर जनम लूँगा। भूलना मत कि हम बावफा-आशिक हैं, हमें ज़िंदगी से प्यार है। हम-तुम प्यार की सौगंध लिए हुए हैं।"
किसानों-मज़दूरों के जुलूस आ रहे हैं। मज़लूमों का समवेत गान सरहद के दोनों ओर गूँज रहा है। मेरी मुट्ठी अंतरिक्ष में दूर तक उठती है। इंकलाब-ज़िंदाबाद।
(समकालीन जनमत - 2019)