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बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Wednesday, December 07, 2005

हालाँकि लिखना था पेड़

हालाँकि लिखना था पेड़

हालाँकि लिखना था पेड़
पेड़ पर दिनों की बारिश की गंध
लिखा पसीना हवा में उड़ता सूक्ष्म-सूक्ष्म
लिखा पसीना जो अपनी सत्ता
देश से उधार लिए बहता दिमाग़ में
स्पष्ट कर दूँ यह कोई मजदूर का नहीं
महज उस देश का पसीना
जिस पर तमाम बेईमानियों के ऊपर
मीठी सी हँसी का लबादा
हमारी एकता का हिस्स... ...
हमारी हें-हें हें समवेत हँसी का फिस्स... ...

हालाँकि लिखना था पेड़
पेड़ पर बंदर
आसपास थे घर और बंदर में घर
नहीं हो सकता
लिखा वीरानी जो चेहरे के भीतर बैठी
टुकड़े-टुकड़े
लिखा महाजन वरिष्ठ
लिखा राजन विशिष्ट मेरे इष्ट
जिन्हें इस बात का गुमान
कि पढ़े लिखों को
यूँ करते मेहरबान
जैसे नाले में कै लिखा कै के उपादान
पीलिया ग्रस्त देश के विधान

हालाँकि लिखना था पेड़
लिखी बातें लगीं संस्कृत असंस्कृत।

१९९४ (पश्यंती १९९५; 'डायरी में तेईस अक्तूबर' में संकलित)

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1 Comments:

Blogger मसिजीवी said...

जो वह
लिखना चाहता था-
उसकी, कलम, रोशनाई याकि इतिहास ने बदल डाला
शुक्र कहूँ कि कोढ़ में खाज
इन सबने जो लिखा-
उसका पाठ
इससे जुड़ा नहीं जुदा था

11:29 PM, December 07, 2005  

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